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ISSN 2320 0871 भारतीय भाषाओं की अंतराारीय मासिक शोध पिका 17 अटू बर 2015 पीअर रीयूड रेीड रसच जचल This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 40 िाद के काय म नारी चििण: कामायनी के विशेष िदभा म िरकात तिारी (य जीिी नेट) एम.बी.जी.पीजी. कॉलेज, हिानी माऊँ वििवियालय नैनीताल, भारत शोध िंेप कामायनी छायािाद की िरम परणतत है और जयशंकर िाद क े गंभीर चिंतना का ेठतम तफल भी है। परह िग म विभत यह काय धा और मन के मायम िे ि ट क े विकाि की कथा को तो त त करता ही है लट ऱपक-विधान क े िहारे मानिता क े िरम विकाि को भी मनोिैातनक और आयाममक भ समका पर त करता है। बीििीं शतादी की महनीय उपलध क े ऱप म कामायनी दाश तनक, ितक, मनोिैातनक और कलाममक िैसशय का िमीक त ऱप लेकर आई है चिताि आनदकी िरम परणतत तक की यािा करता ह यह काय हमचगरर की एक िेतनता िे िमरि होने िाले मन के जीिन का इततहाि है । मानिीय िेतना क े अनमय कोष िे आनंदमय सशखर तक पह िने की यािा का ि मतात है । इिक े ख पाि मन , धा और इडा ह , जो इछा, िया और ान क े तनचध ह कामायनी म नारी िदया धा कामायनी जगत की मंगल कामना अके लऔर विििेतना ि पूणाकाम की ततमा है। इडा बुवध की तीक है। कं तु अपने िदया िे नयन महोमििकी तीक भी है। इतने पर भी यह िि है क उिका यतमि बौवधक बना रहा है। धा भारतीय िंक त की जीिंत तमा है तो इडा आधुतनक पािामय ियता और यांिक युग की मनोि मतय के िाथ जुडी तीत होती है। ‘कामायनीजीिन की मुख िमया का िमाधान भी है और आनंदिाद की ततठा भी है। आज जीिन जै िा है , उिम न कहीं िैन है और न िुख शांतत ही है। यही कारण है क ‘कामायनके िहारे ितत ् िंघषाशील और चिर अशांत जीिन को िमरि और आनंदमय बनाने की ि मत को तनऱवपत कया गया है। ‘चिता िगा’ मानि की िघषाशील और यचथत थत का तनऱपक है और आनंद िगा िमरि और आनंदमय थतका। िक नारी िदया का तीक है। इिम अियि की िदर कोमलता है और छायापथ म तारक यु िझिलसमल करने की मधुमयता है। काय म नारी के चििण के िाथ ही उिका िदया चििण शाित है। आज के िाहहमय म िदया , िदया के सलए ततठत है। िदया और आनंद कघतनटतम िंबंध है। िातविक िदया का दशान हमम अतनिायातः आनंद भािना का िंिार करता है। आनंद की यह विलण भािना िामाय उपयोचगता िे प थक अिाधारण आलादमयी अनुभूतत है। इिके भाि अििेतन म बडे धुंधले ि अपट ऱप म होते ह। अतः यह भािना अतनििानीय है।

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ISSN 2320 – 0871

भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 40

प्रिाद के काव्य में नारी चििण: कामायनी के विशषे िन्दभा में िन्रकान्त ततिारी (यूजीिी नेट)

एम.बी.जी.पीजी. कॉलेज, हल्द्िानी

कुमाऊँ विश्िवि्यालय

नैनीताल, भारत

शोध िंके्षप

कामायनी छायािाद की िरम पररणतत है और जयशकंर प्रिाद के गंभीर चितंना का शे्रष्ट्ठतम प्रततफल भी है। पन्रह िगों में विभक्त यह काव्य श्रद्धा और मनु के माध्यम िे िृष्ष्ट्ट के विकाि की कथा को तो प्रस्तुत करता ही है ष्श्लष्ट्ट रूपक-विधान के िहारे मानिता के िरम विकाि को भी मनोिैज्ञातनक और आध्याष्ममक भूसमका पर प्रस्तुत करता है। बीििी ं शताब्दी की महनीय उपलष्ब्ध के रूप में कामायनी दाशातनक, िासं्कृततक, मनोिैज्ञातनक और कलाममक िैसशष्ट््य का िमीकृत रूप लेकर आई है। ‘चिन्ता’ िे ’आनन्द‘ की िरम पररणतत तक की यािा करता हुआ यह काव्य हहमचगरर की एक िेतनता िे िमरि होने िाले मनु के जीिन का इततहाि है। मानिीय िेतना के अन्नमय कोष िे आनंदमय सशखर तक पहँुिन ेकी यािा का िृमतान्त है। इिके प्रमुख पाि मनु, श्रद्धा और इडा हैं, जो इच्छा, क्रिया और ज्ञान के प्रतततनचध हैं।

कामायनी में नारी िौंदया श्रद्धा कामायनी जगत की मंगल कामना अकेली और विश्ििेतना ि पणूाकाम की प्रततमा है। इडा बवुद्ध की प्रतीक है। क्रकंतु अपने िौंदया िे ‘नयन महोमिि’ की प्रतीक भी है। इतने पर भी यह िि है क्रक उिका व्यष्क्तमि बौवद्धक बना रहा है। श्रद्धा भारतीय िंस्कृतत की जीितं प्रततमा है तो इडा आधुतनक पाश्िामय िभ्यता और यांत्रिक यगु की मनोिषृ्मतयों के िाथ जुडी प्रतीत होती है। ‘कामायनी’ जीिन की प्रमुख िमस्या का िमाधान भी है और आनदंिाद की प्रततष्ट्ठा भी है। आज जीिन जिैा है, उिमें न कही ंिैन है और न िुख शांतत ही है। यही कारण है क्रक ‘कामायनी’ के िहारे ितत ् िंघषाशील और चिर अशातं जीिन को िमरि और आनदंमय बनाने की प्रिषृ्मत को तनरूवपत क्रकया गया है। ‘चिन्ता िगा’ मानि की

िंघषाशील और व्यचथत ष्स्थतत का तनरूपक है और आनदं िगा िमरि और आनदंमय ष्स्थतत का। िूँक्रक नारी िौंदया का प्रतीक है। इिमें अियि की िुंदर कोमलता है और छायापथ में तारक ्यतुत िी झिलसमल करने की मधुमयता है। काव्य में नारी के चििण के िाथ ही उिका िौंदया चििण शाश्ित है। आज के िाहहमय में िौंदया, िौंदया के सलए प्रततष्ष्ट्ठत है। िौंदया और आनदं का घतनष्ट्टतम िंबधं है। िास्तविक िौंदया का दशान हममें अतनिायातः आनदं भािना का िंिार करता है। आनदं की यह विलक्षण भािना िामान्य उपयोचगता िे पथृक अिाधारण आह्लादमयी अनभुूतत है। इिके प्रभाि अििेतन में बडे

े़ धुधंले ि अस्पष्ट्ट रूप में होते हैं। अतः यह भािना अतनििानीय है।

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ISSN 2320 – 0871

भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 41

िौंदयामयी नारी को कृत्रिम आिरण की कोई आिश्यकता नहीं होती, क्योंक्रक उि पर िभी कुछ शोभा देने लगता है। छायािादी यगु में पिूािती यगुों की िौंदया-दृष्ष्ट्ट की प्रततक्रियास्िरूप एक निीन िौंदया दृष्ष्ट्ट का उन्मेष हुआ। नारी के िहज िौंदया को ष्जतनी ललक ि उमिाह के िाथ छायािादी काव्य में स्िीकार क्रकया गया िह िुविहदत है। व्यापक स्िच्छंदता की निीन िषृ्मत ने उन्मुक्त भाि िे नारी के निैचगाक िौंदया की अबाध ििाणा करने की पे्ररणा प्रदान की। नारी-िौंदया के शारीररक, मानसिक, छवि, स्िभाि तथा आष्ममक स्थलों के प्रतत इि प्रकार की उमकंठाओ ंपणूा ष्जज्ञािा हहदंी कविता में पहली बार पररलक्षक्षत हुई। ष्जि प्रकृतत का गणुगान आरंभ में छायािादी कवियों ने क्रकया जो प्रकृतत आरंभ में नारी-विरोधी प्रतीत होती थी, िही नारी की आिश्यकता अनभुि करने िाली तथा कारण बन गई। इि पर यह भी कहा जा िकता है क्रक ्वििेदी-यगुीन आयािमाजी नतैतकता की प्रततक्रिया का पहला िोपान प्रकृतत-पे्रम था, ष्जिने नारी-पे्रम के सलए पषृ्ट्ठभूसम तैयार की। िाहहमय में पे्रम का ही अतनिाया पररणाम तथा उिका आिश्यक अंग है। इिके फलस्िरूप पहली बार छायािादी कविता में नारी को पे्रयिी का ऊँिा आिन प्राप्त हुआ। पे्रयिी, वप्रये, वप्रयतमें और िझख, िजनी जैिे िंबोधन ष्जि मािा में छायािादी कविता में व्यक्त क्रकए गए पहले शायद ही क्रकए गए हों। पे्रयिी का आधार त्रबदं ुपे्रम शब्द िागर में तनहीत है। छायािाद के कीतता स्तंभ कवि प्रिाद की कविता में पे्रम की जो प्रधानता समली िह अपिूा है, यहाँ तक क्रक छायािाद को िामान्यतः पे्रम-काव्य िमिा जाता है। जहाँ एक ओर ्वििेदी-यगु में िुधारिादी नतैतकता का इतना आतंक था क्रक पे्रम की

कविता सलखते हुए कवि जन िंकोि करते थे,

क्योंक्रक उन्हें रीततकालीन कहे जाने का डर था। िस्तुतः ्वििेदी यगु में भी नारी के प्रतत परुुष का दृष्ष्ट्टकोण बहुत कुछ िही था, जो रीततकाल में था। दोनों यगुों के दृष्ष्ट्टकोणों में मौसलक अतंर नहीं था। अंतर इतना ही था क्रक रीततकालीन कवि ष्जन बातों को तनधडक कह देता था, ्वििेदी-यगु का कवि उन्हें मन ही मन दबा लेता था। िहीं दिूरी ओर छायािाद यगु आत-ेआते निीन प्रततक्रिया काफी पषु्ट्ट हो गई और परुानी रूह े़ि़याँ जजार हो िली, इिसलए स्िी परुुष के िंबधंों में निीन नतैतकता की प्रततष्ट्ठा हो गई। ्वििेदी-यगु में प्रािीनता और निीनता का िंघषा आरंभ ही हुआ था, जबक्रक छायािाद यगु में इि िंघषा की निीन शष्क्त काफी प्रबल हो गई। ्वििेदी यगु में इच्छा और क्रिया, वििेक और िंस्कार के बीि जो अिंगतत थी िह छायािाद यगु में बहुत ितंुसलत हो गई। “आधुतनक विज्ञान ने परुुष को रूह े़ि़-विरोह और आमम-विकाि के सलए पे्रररत क्रकया, उिी तरह नारी को भी, परंत ुइि परुुष-प्रधान िमाज में नारी के सलए िंभि नहीं है क्रक खुले शब्दों में रूह े़ि़यों को िुनौती दे िके। नारी तो परुुष िे भी अचधक िहंदनी है। उिकी दतुनया तो और भी छोटी है। िह अपने घर की झखडकी िे विस्मय के िाथ िंिार की गततविचध देखती है। उिके विस्मय के िामने जो कुछ आता है, उिे देख लेती है लेक्रकन उिकी िमि में कुछ भी नहीं आता क्रक लोग जो आ जा रहे हैं, िह न जाने कहाँ िे आ रहे हैं और न जाने कहाँ जा रहे हैं।”1

तनस्िंदेह कामायनी आधुतनक यगु की शे्रष्ट्ठ कृतत है। यह छायािादी यगु की िरम उपलष्ब्ध है और प्रिाद जी की काव्य कला का उमकृष्ट्ट प्रमाण है। इि कृतत में मानिता की चिरंतन पकुार को

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ISSN 2320 – 0871

भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 42

असभव्यक्त क्रकया गया है। यह पकुार उन लोगों का मागादशान कर रही है जो तनराश, भयग्रस्त,

भ्रसमत और विविध वििंगततयों के िाथ जीिन त्रबता रहे हैं। इतना ही नही,ं ‘कामायनी’ के माध्यम िे कवि प्रिाद ने विजतयनी मानिता हो जाए का अमर िंदेश भी प्रिाररत क्रकया है और आनदं अखण्ड घना था को िरम िोपानों पर ले जाकर मानि को िुख और शांतत का मंगल मय िंदेश भी हदया है। छायािादी यगु की यह एक अकेली ऐिी रिना हैं ष्जिमें िंपणूा काव्यधारा का िारतमि और तनिोड िमाहहत हुआ है। छायािाद में ियैष्क्तकता, कल्दपनाशीलता का स्िर िाफ िुना जा िकता है। ये दोनों स्िर ‘कामायनी’ में भी बखूबी िुने जा िकत ेहैं। ‘कामायनी’ के आशा िगा, श्रद्धा िगा और लजाजा िगा में कल्दपना का िभैि क्रकतने ही रंगों में िज-िँिरकर िामने आया है। ियैष्क्तकता की जो भािना आधुतनक यगु में घर करती जा रही है, उिी के प्रतीक बनकर मन ु भी ‘कामायनी’ के प्रारंसभक अशं में हमारे िामने आते हैं। िे अिफल, तनराश, हताश क्रकतने ही हों, क्रकन्त ु ियैष्क्तकता की िीमा में कैद हैं। एक प्रकार िे िे आममकें हरत हैं। प्रिाद जी ने ष्जि िेदना को अपनाया, ष्जि अििाद और तनराशा को काव्य का उपजीव्य बनाया िह भी ’कामायनी’ मे देखा जा िकता है। ‘कामायनी’ में जो तनराशा, अििाद और िेदना के भाि हैं िे मन ु की िेदना तक ही िीसमत नहीं हैं िे तो प्रिाद जी की िेदना िे भी जुडे हुए है। अतीत के प्रतत आिष्क्त का भाि मन ुको कुछ िमय के सलए तनष्ष्ट्िय और अकमाण्य बनाता है। जैिे ही श्रद्धा उनके िंपका मे आती है। ििेै ही िे प्रिषृ्मत मागी हो जाते हैं। मन ुका अतीत चितंन है ही इिसलए क्रक िे उि कें हरभतू िुख, शष्क्त और िभैि का स्मरण करते हुए भािी िषृ्ष्ट्ट के

विकाि में अपना योगदान दे िकें । ऐिी ष्स्थतत में इि प्रिषृ्मत को दोषपणूा बताना और प्रिाद जी को पलायनिादी घोवषत करना न केिल अनौचिमयपणूा है, अवपतु ‘कामायनी’ के मलू िंदेश िे विरहहत हो जाना भी है तो प्रिाद के इि स्थूल िंदेश िे भी विरहहत हो जाना है। प्रिाद ने इि स्थलू िौंदया चििण के स्थान पर िूक्ष्म भािोपम अलौक्रकक िौंदया को अपने काव्य में स्थान हदया। ‘कामायनी’ में आया श्रद्धा का िौंदया िणान उिके अतींहरय िौंदया को प्रस्ततु करता है। इि िौंदया चििण में पाि के बाह्य और मांिल िौंदया को उतना स्थान प्राप्त नहीं है। ष्जतना क्रक उिकी अतंिषृ्मतयों के उ्घाटन को प्राप्त है। यही कारण है क्रक ‘कामायनी’ में िािनाव्यजंक विशेषणों के स्थान पर तनष्ट्कलुष और अनाघ्रात िौंदया को अचधक स्थान हदया गया है। छायािाद के अंतगात ष्जि िौंदया का चििण क्रकया गया है उिमें कही-ंकहीं छायािाहदयों के हृदय क्रक भािना अथिा पकुार भी असभव्यक्त हुई है। ऐिे स्थलों पर लगता है क्रक छायािादी कविता का िौंदया अतपृ्त असभलाषाओं के रंगीन धुएं का िौंदया है। जब मन ुश्रद्धा की हथेली अपने हाथों में ले लेते हैं तो उिका िणान प्रिाद ने परूी छायािादी िौंदया भािना के अनकूुल ही क्रकया है। कहने का तामपया यह है क्रक छायािादी काव्य का िरम त्रबदं ु‘कामायनी’ ष्जिमें नारी िौंदया का चििण अलौक्रकक स्िरूप िे ही अचधक असभव्यक्त हुआ है, क्रकंतु कही-ंकहीं इि िौंदया में भौततक स्पशा भी हदखाई देता है जो इि बात का प्रमाण है क्रक प्रिाद न तो कोरी भौततकता के पक्षधर थे और न केिल अलौक्रककता के ही। बष्ल्दक उनकी नारी तो िाकार है। केिल कल्दपना माि नही।ं

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भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 43

‘कामायनी’ में नारी के प्रतत अिाना और आराधना का भाि भी देखने को समलता है। कवि प्रिाद ने नारी को पविि, पािन और गररमामयी दृष्ष्ट्ट िे देखा है। कवि प्रिाद जी ने नारी तुम केिल श्रद्धा हो कहकर और प्रकृतत के िुकुमार कवि पतं जी ने तुम्हारी िाणी में कल्दयाणी, त्रििणी की लहरों का गान और स्िय ंमहाप्राण तनराला जी ने िह इष्ट्टदेि के मंहदर की पजूा िी कहकर इिी पविितािादी दृष्ष्ट्ट को प्रस्ततु क्रकया है। छायािाद का यह पविि और तनष्ट्कलुष दृष्ष्ट्टकोण ’कामायनी’ में ििाि व्याप्त है। प्रिाद जी ने स्पशा के आकषाण िे पणूा प्रकट करती जायों जड में स्फूतता कहकर इिी भाि को व्यक्त क्रकया है। रामधारी सिहं हदनकर ने ठीक ही सलखा है क्रक “कामायनी के कवि के मन में तो नारी की जो तनष्ट्कलुष प्रततमा अिष्स्थत थी उिकी पवििता नारी रूप-चििण की शैली में भी िलक मारती है। अपने िणान में कवि ने िािना-व्यजंक विशेषणों का ििाथा मयाग करके केिल ऐिे विशेषण रखे हैं ष्जििे स्ितः तनष्ट्कलुषता का िातािरण स्पशा िे प्रस्तुत हो जाता है। इि िातािरण में श्रद्धा का जो रूप प्रकट होता है, िह ििमिु िे दरू और मन में अतनिािनीय स्फुरण उमपन्न करने िाला है।”2

‘कामायनी’ की प्रमुख पाि श्रद्धा मन ुके जीिन में पे्ररक शष्क्त के रूप में उपष्स्थत होती है। और उिे कमा की पे्ररणा देती है। िह यह भी िमिाती है क्रक यह जीिन िमय है और तनरंतर कमा करत ेरहने िे ही जीिन को िम्यक रूप िे ष्जया जा िकता है। एक प्रकार िे मन ुके तनराशा िे भरे जीिन में आशा का ििंार करती हुई श्रद्धा उन्हें जीिन की ओर पे्रररत करती है। यह स्पष्ट्ट कह देती है क्रक ‘तय नहीं केिल जीिन िमय करूण यह क्षझणक दीन अििाद।’ श्रद्धा मन ुको जीिन

की ओर प्रिमृत करती हुई, कमा की पे्रररका बनती हुई उन्हें तनराशा के अधंकार िे तनकालने का प्रयमन करती है। यह श्रद्धा रूप में नारी का िच्िा एि ंआदशा गणु है। िह इिमें िफल भी होती है,

और मन ु जीिन की ओर प्रिमृत होते हैं, क्रकंतु जीिन की ओर प्रिमृत होकर िे भोग-विलाि करने, आिुरी और पाशविक िषृ्मतयों के सशकार बनकर जीिन जीने को ही िब कुछ मान लेते हैं।

नारी ही परुुष जीिन में उजाजिल आलोक पदैा करती हुई उिकी िुप्त पडी िेतना को जगाती है। जब मन ुघायल हो गये तब उनकी िोयी हुई िेतना जागी और उन्हें अहिाि हुआ क्रक श्रद्धा िही थी। आज उिके त्रबना मेरा जीिन व्यथा हो गया है। ऐिी िोि मन ुके मन में इडा िगा में भी जन्मी थी जब काम की शाप ध्ितन िुनकर िे इि तनष्ट्कषा पर पहँुिे थे क्रक ’ििमुि मैं हँू श्रद्धाविहीन’। आज का व्यष्क्त भी श्रद्धा िे रहहत है। उिके मन में आस्था की कोई क्रकरण नही ंहदखाई दे रही है। एक नारी ही िुषपु्त ि तनष्ष्ट्िय पडेे़ मनषु्ट्य को उिके कमा पथ पर अग्रिर करा िकती है। श्रद्धा भी मन ुको मानि जीिन के त्रिकोण िे पररचित कराती है। यह त्रिकोण, इच्छा, क्रिया और ज्ञान का है। िह यह िंकेत देती है। क्रक इच्छालोक अथिा भािलोक के प्राणी तो केिल भािलोक की दतुनया में रहते हैं, अतः उन्हें जीिन की िास्तविकताओं का ज्ञान ही नहीं होता है। िे तो शब्द, स्पशा, रूप, रि और गधं में मानसिक दृष्ष्ट्ट िे लीन होकर िदैि तषृ्प्त का अनभुि करते रहते हैं। यह इच्छालोक मानि की रजोगणुमयी प्रिषृ्मत का पररिायक है और इि प्रिषृ्मत के कारण ही मनषु्ट्य लसलत कलाओं में अचधक लीन रहकर भािजगत के आनदं में ही मद मस्त बना रहता है।

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भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 44

‘कामायनी’ में यह भी िकेंततत है क्रक विषमता का विष मनषु्ट्य के मन में ही व्याप्त नही ं है, िह पाररिाररक जीिन में भी घर करता जा रहा है। आज ष्स्थतत यह हो गयी है क्रक जो दांपमय िंबधं स्नेह, विश्िाि और िमपाण की नींि पर खडेे़ होकर आनदं का मागा हदखाते थे, िे ही आज आशंका, अविश्िाि, पारस्पररक मतभेद और िमन्िय के अभाि में कटु िे कटुतम होते जा रहे हैं। ध्यान िे देखें तो आज का मनषु्ट्य मन ुकी भाँतत विलािी दंभी और नारी को अपने आधीन मानकर जीने का अभ्यस्त होता जा रहा है। नारी-जागतृत की क्रकतनी ही बातें क्यों न की जा रही हों और नारी भी क्रकतनी ही जागरूक होने की िेष्ट्टा क्यों न कर रही हो, क्रफर भी हमारा आधुतनक पाररिाररक जीिन मन ुऔर श्रद्धा की ही भाँतत अशांतत िे भरा हुआ है। मन ुकी विकृतत यह थी क्रक िे श्रद्धा के शरीर पर ही नही,ं मन पर भी परूा अचधकार िाहते थे और आधुतनक मनषु्ट्य की विकृतत यह है क्रक िह केिल शरीर का ररश्ता ही रखना िाहता हैं। मन ुपिंभतू की रिना में अकेले रमण करना िाहत ेथे और श्रद्धा िमपाण की प्रततमा बनी हुई उनके िाथ रहना िाहती थी, क्रकंतु मन ुको यह गिारा नहीं हुआ। यही ष्स्थतत आज भी है। आज भी पतत अथिा परुुष िमाज अपनी पमनी को परुुषमि के मोह में कुछ भी महमि देने को तैयार नहीं है। उिकी दृष्ष्ट्ट में नारी की कोई िमता नही ंहै। प्रिाद ने जब यह िोिा होगा तब िे अब तक तो ष्स्थतत और भी बदतर हो गई है। प्रिाद इि बात को िमि गये थे इिसलए उन्होनें ‘कामायनी’ के इडा िगा में पाररिाररक िमरिता की बात करत े हुए काम की शाप ध्ितन के माध्यम िे यह कहा है-

“तुम भलू गये परुुषमि मोह में कुछ िमता है नारी की िमरिता है िंबधं बनी अचधकार और अचधकारी की।”3

पाररिाररक विषमता के अततररक्त हमें यह भी स्पष्ट्ट हदखाई दे रहा है क्रक हमारे िामाष्जक और राष्ट्रीय जीिन में भी विषमता व्याप्त है। विषमता के कारण राष्ट्रों में िगा भािना पदैा हो गई है। नये-नये अचधकारों के के्षि िषृ्जत हो रहे हैं और भेदभाि एि ंपक्षधरता की भािना हदनों-हदन बढ़ती जा रही है। इिी िामाष्जक और राष्ट्रीय विषमता के कारण िारस्ित प्रदेश को िंघषा िलेना पडा। उिी िारस्ित प्रदेश की विभुता और िखुद ष्स्थतत के सलए श्रद्धा ने िामाष्जक और राष्ट्रीय िमरिता का प्रिार करने की बात कही है। श्रद्धा ने कहा है ‘िब की िमरिता का कर प्रिार, मेरे िुत िुन माँ की पकुार।’4 िमरिता की इि िाणी ने िारस्ित प्रदेश में िगा भेद को िमाप्त कर हदया और परूा प्रदेश िुख शांतत और िमवृद्ध िे पररपणूा हो गया था। राष्ट्र में ििधुैि-कुटुम्बकम ् की भािना जाग्रत हुई और इिी भािना को ‘कामायनी’ में महमि हदया गया है। इतना ही नही,ं श्रद्धा िगा के अंतगात प्रिाद ने श्रद्धा ्िारा कमा का जो पे्ररक िंदेश हदलिाया है, उिे पढ़कर तो प्रिाद की कमा विषयक धारणा और भी अचधक स्पष्ट्ट हो जाती है- डरो मत अरे अमतृ िंतान, अग्रिर है मंगलमय िवृद्ध;

पणूा आकषाण जीिन केन्र, झखिंी आिेगी िकल िमवृद्ध

विश्ि की दबुालता बल बने, पराजय का बढ़ता व्यापार

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पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

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हँिाता रहे उिे िविलाि, शष्क्त का कीडामय िंिार

शष्क्त के वि्यतुकण, जो व्यस्त विकल त्रबखरे हैं, जो तनरूपाय;

िमन्िय उनका करे िमस्त विजतयनी मानिता हो जाये।5

नारी के िंदभा िे भी उन्होंने जो बातें कही हैं, िे उपेक्षणीय नही ं हैं। प्रिाद ष्जि आदशा नारी को प्रस्तुत करने में िफल हुए हैं, िह भले ही आज की नारी का आदशा न हो, क्रकंत ुिास्तविकता िे क्रकनारा तो नही ं क्रकया जा िकता। िास्ति में प्रिाद या कोई भी कवि अपने यगु की नारी को ध्यान में रखकर कोई काया नहीं करता है और न अपनी रिना में उिे कोई स्थान ही देता है। िह तो िही िोिता है जो शाश्ित होता है और लोक-कल्दयाणकारी होता है। श्रद्धा मंगल-कामना िे यकु्त है। आज की नारी यहद मंगल-कामना को महमि नहीं दे पा रही है तो यह न नारी के हहत में है और न िमाज के हहत में है।

प्रिाद ने ’कामायनी’ में श्रद्धा को प्रमुखता िे स्थान हदया है, क्रकंतु इिका अथा यह नहीं है क्रक मन ुऔर इडा की उपेक्षा की गयी है। िास्ति में, मन ुश्रद्धा और इडा तीनों ही ऐततहासिक पाि हैं। यह अततररक्त उपलष्ब्ध है क्रक ये तीनों पाि िांकेततक अथा भी रखते है। श्रद्धा काव्य की नातयका है। इिमें कोई िंदेह नहीं क्रक िह िंपणूा काव्य में अचधक स्थान घेरे हुए है। एक प्रकार िे ‘कामायनी’ की कथा यहद मन ुिे प्रारंभ होती है तो श्रद्धा के आगमन िे ही उिमें गतत आती है और अतंतः िह श्रद्धा ही है जो कामायनीकार के उददेश््य की िाहहका बनकर काव्य को अंततम िोपानों तक ले जाती है। तनस्िंदेह प्रिाद अपने िमिेू िाहहमय में िाहे िह नाटक हो, उपन्याि हो या क्रफर काव्य हो कोई न कोई पाि ऐिा रखत े

हैं जो उनके दृष्ष्ट्टकोण का िाहक बनकर आया है। इि कृतत में भी कामायनी अथाात श्रद्धा प्रिाद के जीिन दशान की िाहहका बनकर आई है। ऐिा लगता है क्रक प्रिाद के जीिन विषयक तनष्ट्कषा अथिा चितंन को श्रद्धा के माध्यम िे स्पष्ट्ट कर हदया गया है। श्रद्धा के व्यष्क्तमि में पे्रम की शालीनता है, िह विश्िमंगल की व्यापक भािना िे यकु्त है, िह तनराश नहीं है, एक अमर आस्था सलए हुए है। ममता, िहहष्ट्णतुा, मयाग, कभी न टूटने िाला उमिाह, कमताव्यपरायणता और हृदय की िदाशयता एि ं उच्िाशयता उिके व्यष्क्तमि में पूजंीभूत हैं। प्रिाद ने उिके व्यष्क्तमि का विश्लेषण करते हुए श्रद्धा िगा में ही कह हदया है- दया, माया, ममता लो आज, मधुररमा लो, अगाध विश्िाि;

हमारा हृदय-रमन तनचध स्िच्छ तुम्हारे सलए खुला है पाि।6

नारी का मातमृि पक्ष शे्रष्ट्ठ एि ं पजूायनीय माना जाता है। ‘कामायनी’ में नारी के कई रूप चित्रित हुए हैं। प्रमयेक रूप को ‘कामायनी’ की पषृ्ट्ठभूसम पर शत-प्रततशत खरा उतारत े हुए कामायनीकार प्रिाद जी नारी के रूप में चित्रित श्रद्धा के मातमृि पक्ष को इन पषं्क्तयों में व्यक्त करते हुए कहत ेहैं- िूले पर उिे िलूाऊँगी, दलुरा कर लूँगी बदन िूम,

मेरी छाती िे सलपटा इि, घाटी में लेगा िहज घमू। मेरी आँखों का िब पानी, तब बन जायेगा अमतृ-ष्स्नग्ध,

उन तनविाकार नयनों में जबदेखूगँी अपना चिि मुग्ध!7

महाचितत िषृ्ष्ट्ट का आहद तमि है और इिी िे िह परम, अ्वितीय एि ं ििाव्यापी िमता है।

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पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

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उिका एकमाि तमि परमसशि है। ितैन्य, आनदं,

इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया ये पािँ उिकी प्रमुख शष्क्तयाँ हैं। शष्क्त स्िी स्िरूप है, इिी कारण उन्होंने महाचितत का विशेष उल्दलेख क्रकया है। शष्क्त एि ंशष्क्तमान (सशि) की िमरिता इिकी मूल आधार सशला है, न सशि शष्क्त िे विहीन है और न शष्क्त सशि िे विहीन है। दोनों एक िाथ एकरूप होकर शाश्ित भाि िे वि्यमान ्हैं- कर रही लीलामय आनन्द, महाचितत िजग हुई िी व्यक्त,

विश्ि का उन्मीलन असभराम, इिी में िब होत ेअनरुक्त।8

कामायनीकार प्रिाद ्िारा रचित श्रद्धा एक हृदयगत भाि है। हृदय-देश में ही आममा का तनिाि है। अतः श्रद्धा एक आममस्थानीय भाि है। श्रद्धा ही मन ु मन को आमम िाक्षामकार ्िारा अखण्ड आनदं की अनभुूतत कराने में िफल होती है। नारी के विशाल और महहमामय स्िरूप का िणान कवि ने श्रद्धा के माध्यम िे क्रकया है। श्रद्धा मन की िेतना है और इिी के कारण ही मन में दया, माया, ममता आहद भाि जन्म लेते हैं। प्रिाद ने स्पष्ट्ट रूप िे नारी की िकालत की है।

श्रद्धा के व्यष्क्तमि के िंदभा िे यह कहना अततशयोष्क्त नहीं होगी क्रक प्रिाद ने अपने हृदय की िंपणूा भािनाओं को श्रद्धा को िौंप हदया है। उनकी मानिादशा विषयक कल्दपना श्रद्धा के रूप में ही व्यक्त हुई है। इिमें कोई िंदेह नहीं क्रक श्रद्धा जिैा पाि प्रिाद की अमर देन है। मन ुकी भाँतत िह भी एक ऐततहासिक िररि है। प्रिाद की धारणा के िंदभा िे कहा जाये तो कह िकत ेहैं क्रक श्रद्धा अपने ऐततहासिक व्यष्क्तमि में आयाािता के प्रबदु्ध, तरूण आयािंघ के पिूाज मानि की माँ है। उिका िररि िहैदक आयों की आनदंिादी िंस्कृतत का दपाण है। पे्रम, विश्िाि,

कमताव्य और मयाग उिके िररि के आदशा त्रबदं ुहैं। उिका जीिन कमा-िाधना के धरातल पर कायारत रहा है। परेू काव्य में श्रद्धा कहीं भी अपने अिाधारण व्यष्क्तमि िे स्खसलत होती हदखाई नहीं देती है। श्रद्धा के जीिन का प्रमखु सिद्धातं-िूि था क्रक यह ििंार कल्दयाण-भूसम है। उिकी धारणा यह भी है क्रक यह विश्ि ब्रह्म का व्यक्त रूप है। अतः ित है अित ्नहीं है। एक प्रकार िे इि धारणा के माध्यम िे प्रिाद ने उि भ्रामक धारणा का भी खण्डन कर हदया है। क्रक जगत अिमय है और जीिन क्षण भंगरु है। श्रद्धा इतनी िंतुसलत नारी है क्रक मन ुको प्रमयेक ष्स्थतत में िमरि बने रहने का िंदेश देती है। िह बार-बार यह कहती है क्रक अपने भीतर की िेतना को दिूरे की िेतना िे समला दो तो तनश्िय ही जीिन िमरि और आनदंमय हो जायेगा। ‘कामायनी’ के श्रद्धा, कमा, ईष्ट्याा, दशान और रहस्य िगों में उिके व्यष्क्तमि का जो रूप आया है,

उिे हम एक अविस्मरणीय पाि का उदामत िररि कह िकत ेहैं। यहद प्रतीक का िहारा सलया जाये तो श्रद्धा पराशष्क्त का ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में िामने आती है। िह शष्क्तमती है, ज्ञान-िेतना िे िंपन्न है और ऐिी पे्रम भािना िे यकु्त है जो मंगलकाररणी होती है। श्रद्धा के गहृलक्ष्मी रूप का पररिय देता हुआ कवि ‘ईष्ट्याा’ िगा में कहता है क्रक- जब देखो बठैी िही,ं शासलयाँ बीन कर नहीं श्रांत!् या अन्न इक्ठे करती है होती न ततनक िी कभी क्लांत,

िीजों का िंग्रह और उधर िलती है तकली भरी गीत;

िब कुछ लेकर बठैी है िह, मेरा अष्स्तमि हुआ अतीत!9

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पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

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भािी िंतान के सलए पआुलों की छाजन और कोमल लताओ ं की सभष्मतयों िे उिने जो पणाकुटीर बनाया है। उिमें िाय ुके आने के सलए िातायन बने हैं, िेतिी लता का िुरूचिपणूा िूला पडा है और धरातल पर िुमनों का कोमल िरुसभ पणूा त्रबछ रहा है- उि गफुा िमीप पआुलों की, छाजन छोटी िी शांततपुजं;

कोमल लततकाओ ं की डालें, समल िघन बनाती जहाँ कुञ्ज

ये िातायन भी कटे हुए प्रािीर पणामय रचित शुभ्र,

आिे क्षण भर तो िले बाएंँ रूक जाए कहीं न िमीर अभ्र।

उिमें था िूला पडा े़ हुआ, बेतिी लता का िुरूचि पणूा, त्रबछ रहा धरातल पर चिकना, िुमनों का कोमल िुरसभ िणूा।10

श्रद्धा का यह गहृ इतना िुंदर है क्रक मन ुभी उिे देखकर िक्रकत हो जाते हैं। उिकी मातमृि-भािना और भािी ितंान के स्िागत का उिके अंतरमन में जो उमिाह प्रकट हो रहा है उिे प्रिाद जी ने इि प्रकार िे िंजोया है क्रक कथा में क्रकिी प्रकार की कृततमता प्रतीत नहीं होती। श्रद्धा ने मन ुको हर प्रकार िे िहयोग हदया है। नारी की पद गररमा को श्रद्धा पहिानती है तभी तो घायलािस्था में मन ुके पाि बठैकर गीत गाती है तो िह गीत अप्रािंचगक नहीं लगता है। ऐिा लगता है जिेै कोई िलुिी हुई नारी शष्क्त िखु-दखु िे ऊपर उठकर जीिन का मंि फंूक रही हो श्रद्धा केिल ऐिी पराशष्क्त नहीं है जो जीिन की उपेक्षा करती हो, िह तो काम को व्यापक अथा में ग्रहण करती है। िह विश्ि-िेतना िे भी एकरूप है और पणूाकाम की प्रततमा भी है। काम की

उपेक्षा िभंि भी नहीं है, क्योंक्रक िषृ्ष्ट्ट का आधार िही है, पर ध्यान रहे क्रक यह आधार काम का व्यापक अथा ग्रहण करने पर ही िही प्रमाझणत होता है। प्रिाद ने ‘कामायनी’ में काम-विषयक जो वििार प्रस्तुत क्रकए हैं, िे वििार ही श्रद्धा के स्िरूप को िमिने में िहायक हो िकते हैं। प्रिाद ने स्पष्ट्ट स्िीकार क्रकया है क्रक काम पे्रम का िहैदक रूप है और यह शब्द पे्रम की तलुना में अचधक व्यापक अथा रखता है। यहद प्रिाद की भािना को मानें तो यह स्पष्ट्ट हो जाता है क्रक यह विश्िजीिन काम का ही व्यापक रूप है। इििे यह तनष्ट्कषा भी उभरकर िामने आता है क्रक ‘कामायनी’ की काम-िंस्तुतत की कथा इिी विश्ि-जीिन के व्यापक रूप की कथा है। प्रिाद इि कथा के ्िारा काम को विश्ि-िेतना के रूप में प्रस्तुत करना िाहते थे। िभंितः इिी कारण उन्होंनें ‘कामायनी’ के अंततम िगा में श्रद्धा को ‘विश्ि िेतना पलुक्रकत, पणूाकाम की प्रततमा’11 कहा है।

‘कामायनी’ का ‘काम’ ही प्रिाद जी की कल्दपना का बेजोड नमूना है। इिके ्िारा उन्होंने त्रिकाल को अद्भुत प्रकार िे जोडा हैं। काम की पौराझणक मान्यता में उन्होंने कल्दपना का ऐिा रािायतनक समश्रण क्रकया है क्रक उिका िंयोजन और प्रयोजन ही बदल गया है। ‘काम’ परुाणों में िौंदया और पे्रम का देिता है, सशि में िािना-उद्दीप्त करने के प्रयाि में भस्म होकर ‘अनगं’ यानी अमूता रूप में ििाव्यापी हो गया। िांिेचगक स्तर पर िह समलनतषृा और भौततक स्िर पर स्थलू भोग-क्रिया है। दशान मे िह िष्जात है और अनेक दोषों का जन्म दाता है। अतपृ्त आग है। परुाणों में रतत उिकी पमनी है। श्रद्धा काम गोिजा है। रीतत यगु में काम िेक्ि िीडा का प्रतीक है। लेक्रकन ‘कामायनी’ में िह इन िबिे अलग है। जबक्रक

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पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

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इन्हीं अिधारणाओं के िंयोजन िे रिा गया है। यहाँ िह िौभाग्यकांक्षक्षणी कन्या का वपता है। आकाशिाणी के माध्यम िे िह कन्या के गणु-धमा बताकर, िर को उिके योग्य बनने की िलाह देता है और एक तरह िे माता-वपता की िंस्था ्िारा वििाह को िधै बनाता है। (स्िी-परुुष के िंयोग में काम की उपष्स्थतत क्रकतनी िाकेंततक और प्रयोजनीय है) ‘कामायनी’ की दाशातनक दृष्ष्ट्ट में िह मंगल मष्ण्डत शे्रय है। “जब मन ुश्रद्धा को छोडकर िारस्ित प्रदेश के प्रांतर में भटक रहा होता है तो पनुः वपता और रष्ट्टा की हैसियत िे काम उिे लताडता है और अतीत तथा ितामान का िाक्षी होने के कारण देि-दानि ्िं् ि का इततहाि बताते हुए मानि-िभ्यता में उिकी आितृत के ्िारा उिे अतीत िे उठाकर ितामान के पटल पर रख देता है । वपता के नाते िह श्रद्धा के मन और जीिन की िाष्ममिकता बखानत ेहुए मन ु के अधूरे स्िीकार और उिकी नारी-विषयक दृष्ष्ट्ट के कारण मानिीय भविष्ट्य को असभशप्त करता है। काम के फलक को विस्ततृ करत ेहुए उिमें अनेक िभंि लेक्रकन प्रायः अपिूा आयामों को िामाहहत करते हुए प्रिाद ने इिे विलक्षण बना हदया है।”12

कामायनीकार प्रिाद को श्रद्धा के नील घनशािक िे िकुुमार घुघँराले बाल तथा आँिू की नातयका के मझणधर िपा िे लंबे लहराते केश मिंमगु्ध बनाते हैं तो कहीं यह त्रबखरी अलकें ही उलिन और तका जाल बन जाती हैं। कवि को इतने िे ही िंतोष नहीं होता, केशों की िुगधं का पररिय देने के सलए उिने ’लहर’ की नातयका को अलकों में मलयज बदं करके िलुा हदया है, तथा ‘स्कंदगपु्त’

में अगरूधूम की श्याम लहररयाँ इन अलकों िे उलिा कर िौरभ को पािनता भी प्रदान की है। पलकों का िौंदया प्रिाद ने मंहदर भार िे िुकने

में प्रकट क्रकया है। कपोल की िुंदरता को मधूक रिेकपोल कहकर उनकी अरूझणमा को जािालामुखी का िादृश्य देकर व्यक्त क्रकया है। नासिका के िौंदया के अंतगात प्रिाद जी ने िुि़रनािा, नकुीली नोंक तथा पतले पटुफ की ओर िंकेत क्रकया है। कानों के सलए प्रिाद जी ने कमल के पमतों का लाल उपमान प्रस्तुत क्रकया है। अधरों को िीधे-िीधे लाल न कहकर श्रद्धा की मुस्कान को रक्त क्रकिलय पर विश्राम लेने िाली िूया की अम्लान क्रकरण कहा है। िंपणूा मुख के िौंदया को प्रिाद ने अरूण रवि मंडल िा दीप्त कह कर श्रद्धा के तेजोमय स्िरूप को िामने रखा है। श्रद्धा के कपोलों को कवि ने क्रकिी विशेष िंबोधन िे तो असभहहत नही ं क्रकया क्रकंत ु कपोलों की लासलमा को जािालामुखी की िजं्ञा अिश्य ही है- या क्रक, नि इन्र-नील लघ ु -श्रृंग, फोडकर धधक रही हो कांत,

एक लघ ु जािालामुखी अिेत, माधिी रजनी में अश्रातँ।13

नीली पहाडी को फोडकर कैिे जािालामखुी धधकती है और मधरु रात्रि में भी शांत नहीं होती। उिी प्रकार श्रद्धा के कपोलों की धधकती लासलमा मुख के िारों ओर फैली नीली अलकों को भेदकर प्रजाजिसलत है। हदन और रात इिमें कोई व्यिधान प्रस्तुत नहीं करत।े नकुीली ि ि़लािदार नासिका मुख की शोभा देती है। ऊँिी नाक की कहाित भी अतत िामान्य है। ‘कामायनी’ में श्रृंगार की विशेष मनः ष्स्थतत में कवि ने नासिका की नोक और पतले पटुफ की ओर भी दृष्ष्ट्टपात क्रकया है- चगर रही पलकें िुकी थी नासिका की नोक,

भ्रू लता थी कान तक िढ़ती रही बेरोक।

नासिका नकुीली के पतले पटुफ रहे कर ष्स्मत अमोल।14

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भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

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समलनािस्था में लजाजा िे पाठकों के िाथ ही नासिका की नोक भी िकु जाती है। क्योंक्रक िमपाण की बेला मे िुकना ही तो िाथाकता है। नातयका जब हंिती है तो नाक के पतले पटुक भी कुछ-कुछ लाल हो जात े है मानों िह भी ष्स्मत का अनमोल खजाना लुटा रहे हों। प्रिाद जी ने अधरों का िौंदया केिल उनकी रष्क्तम अरूझणमा में ही नहीं माना प्रमयतु उनकी दृष्ष्ट्ट में िहीं िुंदर हैं ष्जनमें मुस्कान इठलाती हो, अमंद राग विहँित े हों। इन्हीं भािों को उन्होंने ’कामायनी’ में व्यक्त क्रकया है। ‘कामायनी’ में श्रद्धा की मुस्कान अधरों के दो रष्क्तम क्रकिलयों पर विश्राम ले रही है मानों िूया की कोई अम्लान क्रकरण ही अलिा कर अँगडाई ले रही हो- और उि मखु पर िह मुस्कान, रक्त क्रकिलय पर ले विश्राम

अरूण की एक क्रकरण अम्लान, अचधक अलिाई हो असभराम।15

इि अधरों की हँिी का प्रततत्रबबं भी बडा ही मधुर और मद विहृिल है- हँिी का मद विहिल प्रततत्रबबं, मधुररमा खेला िदृशअबाध।16

मुख का िौंदया और आकषाण नातयका के व्यष्क्तमि में महमिपणूा स्थान रखता है। ‘कामायनी’ में श्रद्धा के मुख के तेजोमय रूप को कवि प्रिाद ने प्राकृततक उपमान ्िारा व्यक्त क्रकया है- आह! िह मुख! पष्श्िम के व्योम-बीि जब तघरत ेहों घनश्याम

अरूण रविमंडल उनको भेद, हदखाई देता हो छविधाम।17

पष्श्िम के आकाश में जब बादल छाए हों और उनके बीि िे रूप यौिन की अरूझणमा िे दीप्त िूया प्रकट होकर ष्जि प्रकार िारे ििंार को

प्रकासशत कर देता है उिी तरह श्रद्धा के घने घुघँराले बालों के बीि िे तजेोमय मुख प्रकाश क्रकरणें त्रबखेरता हुआ िा प्रतीत होता है। इिके अततररक्त कवि प्रिाद ने मुख को त्रबजली का फूल भी कहा है- झखला हो जायों त्रबजली का फूल मेघ बन बीि गलुाबी रंग।18

‘कामायनी’ में एक ओर श्रद्धा के मुख को अरूण रवि मंडल के उपमान ्िारा कवि ने दीष्प्त प्रदान की है तो दिूरी ओर इडा का मखु फूल की तरह झखला है। ष्जिमें भ्रमरों की गनुगनुाहट िदृश गान भरे हुए है। िहीं श्रद्धा के उन्नत िक्ष जो खुले भुज-मूलों िे नायक मन ुको आसलगंन का आमंिण देते हुए िे प्रतीत होते हैं- खुले मिणृ भुज-मूलो िे, िह आमंिण था समलता, उन्नत िक्षों में आसलगंन, िुख लहरों िा ततरता।19

श्रद्धा की पमतों िी कमनीय हथेली को िाय ु के स्पशा माि िे कंवपत और पिीने िे तर कहकर नारी के आंतररक भािों का चििण भी शरीर के माध्यम िे व्यक्त क्रकया है-

जलदागम मारूत िे कष्म्पत, पल्दलि िदृश हथेली, श्रद्धा की धीरे िे मन ुने, अपने कर में लेली।20

तन और मन की िुंदर नारी की लम्बी काया उिके व्यष्क्तमि की विशालता की पररिायक होती है। यही कारण है क्रक ’कामायानी’ की श्रद्धा की उन्मुक्त लंबी काया पर ििाप्रथम मन ु की दृष्ष्ट्ट पडती है- हृदय की अनकृुतत बाह्य उदार, एक लम्बी काया, उन्मुक्त;

मधु पिन िीड े़डत जायों सशशु िाल, िुशोसभत हो िौरभ िंयकु्त।21

श्रद्धा छोटे िाल के िकृ्ष की िी लंबी है और िाथ ही िौरभ िे भी पररपणूा है। कवि को तो ऐिा

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प्रतीत होने लगता है मानों फूल के आँिल में मधु का आधार लेकर पराग तनसमात शरीर िाक्षात िौरभ के रूप में ही पथृ्िी पर िाकार हो उठा है- रचित परमाणु पराग शरीर, खडा हो ले मधु का आधार।22

छायािादी कवि प्रिाद ने पिूाकालीन कवियों की भाँतत नख िे सशख तक िमानिुार नारी के एक-एक अंग को लेकर उिका चििण नहीं क्रकया प्रमयतु प्रिंगिश स्िाभाविक रूप िे ष्जि अंग के प्रतत भाि हृदय िे उ्घाहटत हुआ, उिे जायों का मयों छंद में बाँध हदया। यही कारण है क्रक इन कवियों के परेू काव्य में विसभन्न अंगों के स्ितंि िौंदया चिि त्रबखरे समलते हैं परंतु परूा नखसशख िणान एक ही स्थान पर दलुाभ है। एक ही छंद में कुछ अंगों को लेकर नारी के व्यष्क्तमि के िमष्ष्ट्ट प्रभाि की असभव्यष्क्त की गई है अतएि ऐिे स्थलों पर कवि का दृष्ष्ट्टकोण नारी के िंपणूा व्यष्क्तमि की भािना को आकार देता अचधक प्रतीत होता है। अंग विशेषों के िौंदया चिि देना कम। नारी िौंदया के प्रभाि के चििों की उपेक्षा करना अन्याय होगा।

प्रिाद जी ने ‘कामायनी’ में िािना िगा के अंतागत श्रद्धा की िमपाण बेला का चिि उिके कुछ अंगों की भाि भंचगमा ्िारा बडेे़ ही मनोहारी रूप में उतारा है- चगर रही ं पलकें , िुकी थी नासिका की नांेेक,

भ्रूलता थी कान तक िढ़ती रही बेरोक,

स्पशा करने लगी लजाजा लसलत कणा कपोल,

झखला पलुक कदंब-िा था भरा ग्गद बोल!23

िौंदया आकषाण तथा ओज िे अनपु्राझणत िंपणूा व्यष्क्तमि की िह िमष्ष्ट्ट है जो उिके बाह्य तथा आंतररक स्िरूप को िमेटकर स्िय ं स्थूल और िूक्ष्म पक्ष की दो कोहटयों में विभक्त हो जाता है। छायािादी कवि प्रिाद ने उक्त दोनों

पक्षों के िमंिय में ही िौंदया की पणूाता मानी है। यही कारण है क्रक िभी के काव्य में देह ्यतुत एि ं अनपुम नारी िौंदया छवि के चिि यि-ति व्याप्त हैं। प्रिाद जी की ’कामायनी’ श्रद्धा तनमय यौिन छवि िे दीप्त है- तनमय यौिन छवि िे हो दीप्त, विश्ि की करूण कामना मूतत ा; स्पशा के आकषाण िे पणूा, प्रकट करती जायों जड में स्फूतता।24

प्रिाद की ’कामायनी’ आंतररक और बाह्य िौंदया के विसभन्न पक्षों को लेकर सिद्ध हुई है। ’कामायनी’ की श्रद्धा एक ओर पतिड में उष्ट्णता में शीतलता की मंद बयार है तो दिूरी ओर उिमें करूणा एि ंिेदना भी है तभी िह मन ुकी ही नहीं प्रमयतु जड धरती की िेदना का भी अनभुि करती है- दृष्ष्ट्ट जब जाती हहम-चगरर ओर, प्रश्न करता मन अचधक अधीर

धरा की यह सिकुडन भयभीत, आह कैिी है? क्या है पीर।25

पररधान िौंदया का एक महमिपणूा उपकरण है। व्यष्क्तमि की पररष्ट्कृतत एि ं िुरूचि िे इिका विशेष िंबधं है। कवि प्रिाद ने केिल भव्य एि ंराजकीय पररधान िे ही अपनी नातयकाओ ं को अलंकृत नहीं क्रकया, प्रमयतु भव्य और िामान्य दोनों ही प्रकार की िेशभूषा यथास्थान यथा अििर आई है। ‘कामायनी’ में श्रद्धा के प्रिंग में मिणृ गांधार देश के नील रोम िाले मेषों के िमा कहकर कवि ने प्राकृततक िातािरण में प्रकृततनकूुल उपमान का आश्रय सलया है- मिणृ गाधंार देश के नील, रोम िाले मेषों के िमा िँ़क रहे थे उिका िप ु कांत, बन रहा था िह कोमल िमा।26

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अन्य कई स्थानों पर भी इि प्रकार के पररष्स्थतत िमय आहद के अनकूुल पररधान प्रिाद जी की नारी िौंदया भािना को अ्वितीय बना देते हैं। िस्ि एि ं आभूषणों का िणा भी महमिपणूा स्थान रखता है और उििे नारी िौंदया को िजीिता एि ंपररपणूाता प्राप्त होती है। कवि प्रिाद का नील िणा के प्रतत विशेष लगाि िा लगता है तभी िह आहद नारी श्रद्धा के पररधान का िणा भी नीला ही िुनत ेहैं- नील पररधान बीि िुकुमार, खुल रहा मदृलु अधखुला अंग,

झखला हो जायों त्रबजली का फूल, मेघ बन बीि गलुाबी रंग।27

यहाँ नील पररधान के िाथ ही िाथ त्रबजली के स्िणोजाजिल गलुाबी िणा का भी उल्दलेख कर कवि ने िौंदया को अतनििानीयता प्रदान की है। तेजोमय मुख के िौंदया को जािालामुखी और अलकों को नील श्रृंग के िमान कहकर भी कवि ने िणा की स्िाभाविकता को स्पष्ट्ट क्रकया है।

श्रद्धा के रूप-िौंदया में कोमलता, आकषाण, लािण्य तो है ही िाथ ही प्रिाद ने उिके रूप-िौंदया िणान में दाशातनकता का िहारा सलया है। दिूरों को िखुी बनाने का भाि श्रद्धा में इतना प्रबल है क्रक अपने ही दःुख के बोि िे मनषु्ट्य को दबत ेदेख िह उनका िहिर बनने का प्रस्ताि करती है, और अपना जीिन उनके पद तल में तनविाकार भाि िे उमिगा करने को प्रस्तुत हो जाती है- िमपाण लो िेिा का िार, िजल िंततृत का यह पतिार,

आज िे यह जीिन उमिगा इिी पद तल में विगत विकार।28

दया, माया, ममता, मधुररमा अगाध विश्िाि आहद श्रद्धा के हृदय के अन्य रमन है, ष्जन्हें िह मन ुको िमवपात करके उनको िुख प्रदान करना

िाहती है। श्रद्धा मन ुकी अधाांचगनी है, इि रूप में िह िदैि छाया की भाँतत मन ु के िाथ रहना िाहती है। पररष्स्थततिश जब उिकी स्थलू देह मन ु िे अलग हो जाती है, तब भी उिका मन िदैि मन ुका ही चितंन करता रहता है। कष्ट्ट और आनदं दोनों ही दशाओं में िह पमनी के िमान ही मन ुका िाथ देती है।

श्रद्धा नारी के कल्दयाणमयी रूप का प्रथम दशान ‘श्रद्धा िगा‘ में ही प्रकट हो जाता है। जब िह झखन्न और हताश मन ु को प्रकृतत-िभैि के उपभोग के सलए प्रोमिाहहत करती और स्िय ंको भी मन ुके िमक्ष प्रस्तुत करती हुई कहती है- एक तुम, यह विस्ततृ भू खंड, प्रकृतत िभैि िे भरा अमंद,

कमा का भोग, भोग का कमा, यही जड का िेतन आनदं।29

पथ प्रदसशाका बनने के उपयकु्त िही नारी होती है, ष्जिे पथ का िमुचित ज्ञान हो, श्रद्धा की इि योग्यता का पता श्रद्धा िगा में ही लग जाता है। श्रद्धा को विश्िाि है क्रक दःुख की रजनी के पश्िात ् िखु आता है। प्राणी िषृ्ष्ट्ट की ष्जन दखुद घटनाओं को असभप्राय िमिता है िस्तुतः िह ईश का रहस्य िरदान है- ष्जिे तमु िमिे हो असभशाप, जगत की जािालाओं का मूल

ईश का िह रहस्य िरदान, कभी मत जाओ ंइिको भलू।30

मानिता की विजय के सलए भी श्रद्धा पणूातया आश्िस्त है, हाँ लेक्रकन इिके सलए प्राणी को शष्क्त के त्रबखरे हुए िमस्त कणों को िमष्न्ित करना होगा- शष्क्त के वि्यमुकण, जो व्यस्त, विकल त्रबखरे हैं, हो तनरूपाय,

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िमन्िय उिका करे िमस्त, विजतयनी मानिता हो जाय।31

‘दशान’ िगा में भी श्रद्धा ने विषमता के विष को कमोंन्नतत िे िम बना देने और िंयसमत जीिन-यापन में ही मानि की उन्नतत का रहस्य बताया है। ‘रहस्य‘ िगा में भी श्रद्धा के हदव्य दशान, मन ुकी पथ प्रदसशाका के रूप में ही होते हैं। इच्छा, कमा और ज्ञान लोक का िणान श्रद्धा ने ष्जन शब्दों में क्रकया है, उनिे उिकी बहुज्ञता का पररिय समलता है। इि पथ-प्रदसशाका की ष्स्थतत में इतनी शष्क्त है क्रक िह जायोतत-रेखा िी बन कर उन तीनों लोकों को िंबद्ध कर देती है। ‘आनदं’ िगा में प्रिाद जी ने श्रद्धा का पररिय तनम्नसलझखत पषं्क्तयों में स्िय ंश्रद्धामय होकर हदया है- िह कामायनी जगत की, मंगल कामना अकेली थी जायोततष्ट्मती प्रफुष्ल्दलत मानि तट की िन बेली! िह विश्ि िेतना पलुक्रकत थी पणूा काम की प्रततमा जैिे गभंीर महाहृद हो भरा विमल जल महहमा।32

कामायनीकार प्रिाद जी ने श्रद्धा का जीिन एक ऋवषका तुल्दय हदखाया है। िाष्मिकता और अहहिंा में श्रद्धा की पणूा रूपेण आस्था है। अपने एक माि िहिर ‘मन’ु िे भी िह अहहिंा की रक्षा के सलए रूठ जाती है और उिके िम्मखु अहहिंा का महमि प्रततष्ष्ट्ठत करती हुई जीि दया और पे्रम की िाक्षात मूतता िदृश हदखाई पडती है- ये प्राणी जो बिे हुए हैं, इि अिला जगती के,

उनके कुछ अचधकार नही,ं क्या िे िब ही हैं फीके!33

प्राकृततक जीिन िे उिे लगाि है। मन ुकी एकांत तपस्या िे िह भले ही िहमत न हो, तप की

अतत में िह भले ही विश्िाि न करती हो, क्रकंतु तप और िाधना में िह मन ुिे क्रकिी भी प्रकार पीछे नही।ं काम की ितंान होने िे श्रद्धा का देिमि िहज सिद्ध होता है, क्रकंतु इिके अततररक्त भी उिकी अनेक उदामत विशेषताएं उिके देिमि की पषु्ष्ट्ट करती हैं। मन ु को आनदं लोक में पहुंिाकर िही उन्हें देितुल्दय बनाती है। यही उिका नारी आदशा है। उिकी देिोचित तजेष्स्िता िे अिुर भी भय खात ेहैं- आकुसल ने तब कहा, देखते नहीं िाथ में उिके;

एक मदृलुता की, ममता की छाया रहती हँि के।

अंधकार को दरू भगाती, िह आलोक क्रकरन िी; मेरी माया त्रबधं जाती है, ष्जििे हलके घन िी।34

प्रिाद जी ने रूप िौंदया के मनोहारी भािपणूा चििणों के मध्य आकषाण मुराओं की भी कल्दपना की है। प्रिाद नारी को रहस्यमयी भुिन मोहहनी के रूप में देखते हैं। इि बात में कोई िंदेह नही ंक्रक इि रहस्यपणूाता में मनषु्ट्य को अचधकृत कर लेने का प्रबल आकषाण है। प्रिाद जी की पे्रयिी में कल्दपना, पे्रम और कला तीनों का अपिूा िमंिय है। ‘कामायनी’ की श्रद्धा कवि प्रिाद की आदशा कल्दपना की विशुद्ध प्रततकृतत है।

तनस्िंदेह ’कामायनी’ एक विसशष्ट्ट कालजयी काव्य कृतत है इिके मूल में तो एक ही स्रोत है परंत ुउििे कई धाराएं तनकलती है जो ’कामायनी’ रूपी इि जीिन काव्य की महमिपणूा घटनाएं हैं। हमारी दृष्ष्ट्ट में स्िाथा पे्रररत अहंकार का नाश,

स्िी और परुुष का पारस्पररक समलन, नारी ्िारा ििास्ि िमपाण, स्िी और परुुष के प्रणय-िंिगा िे िषृ्ष्ट्ट का विकाि, परुुष की अतनयतं्रित अचधकार भािना और अचधकार के्षि का प्रिार करने की कामना, कुण्ठा, बवुद्ध और अततिार पर उद्दाम प्रयमन और उिके पररणामस्िरूप मानि िेतना

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की परूी तरह विफलता और इि विफलता के मूल कारण की पहिान और अतंतः िामंजस्य के ्िारा आनदं की प्राष्प्त आहद महमिपणूा घटनाएँ हैं जो कवि प्रिाद को आज के दौर में भी प्रािंचगक बनाती है।

तनष्ट्कषा कामायनीकार प्रिाद िच्िे अथों में ईश्िर का प्रिाद थे। उन्होंने ‘कामायनी’ जैिी कालजयी कृतत िाहहमय जगत को तो दी ही िाथ ही उनकी आरंसभक रिनाओं में ’िरना’, ’आँि’ू, ’लहर’ एि ं’पे्रम पचथक’ की अपनी एक विसशष्ट्ट पहिान है। ’कामायनी’ जो एक जीिन काव्य है उिको विस्ततृ एि ं िुदृढ़ आधार प्रिाद की आरंसभक कृततयों ने ही हदया। ‘कामायनी’ में श्रद्धा, मन ुऔर इडा के माध्यम िे कवि प्रिाद एक अपिूा काव्य िषृ्ष्ट्ट को जन्म देत ेहैं। श्रद्धा ’कामायनी’ की मुख्य नारी पाि है। िह ष्जि िभ्यता का आरंभ करती है उिमें मानि िभ्यता, दया, ममता, मधुररमा, विश्िाि, िमपणा, िेिा, जीिन, उमिगा आहद प्रमुख हैं। प्रिाद जी श्रद्धा के माध्यम िे कहते हैं क्रक जीिन के आरोह-अिरोह में जब निैचगाक रूप श्रद्धा भाि का अविभााि होगा तभी िह मानि जीिन का मूल्दय बनेगा। तनस्िंदेह कहा जा िकता है क्रक नारी और परुुष के िौंदया-तनरूपण में प्रिाद जी का जो दृष्ष्ट्टकोण व्यक्त हुआ है, िह उनकी हदव्यता, गररमा, पािनता, उजाजिलता और िांस्कृततक बोध का पररणाम है। भारतीय िंस्कृतत के उपािक,

मानिता के पक्षधर और अततररक्त बवुद्ध-प्रयोग के विशेष होने के कारण प्रिाद जी का िौंदया बोध अपना प्रततमान आप बनकर आया है।

िंदभा ग्रंथ

1. छायािाद; पृ. 58

2. पंत प्रिाद और मैचथलीशरण; पृ. 48

3. प्रिाद गं्रथािली भाग-4; इडा िगा, पृ 572

4. िही; दशान िगा, पृ 654

5. प्रिाद गं्रथािली भाग-4; श्रद्धा िगा, पृ. 468-469

6. श्रद्धा िगा; पृ. 467

7. ईष्ट्याा िगा; पृ. 562

8. श्रद्धा िगा; पृ. 463

9. ईष्ट्याा िगा; पृ. 551

10. ईष्ट्याा िगा; पृ. 559

11. िही; आनंद िगा, पृ. 700

12. जयशंकर प्रिाद की प्रािंचगकता; पृ. 78

13. प्रिाद गं्रथािली भाग-4; श्रद्धा िगा, पृ. 457

14. िही; िािना िगा, पृ. 504 (इडा िगा – पृ. 579)

15. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 457

16. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 458

17. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 456

18. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 456

19. िही; कमा िगा, पृ. 535

20. िही; कमा िगा, पृ. 537

21. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 456

22. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 458

23. िही; िािना िगा, पृ. 504

24. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 457

25. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 461

26. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 456

27. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 456

28. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 467

29. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 466

30. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 463

31. िही; श्रद्धा िगा, पृ. 469

32. िही; आनंद िगा, पृ. 700

33. िही; कमा िगा, पृ. 539

34. िही; कमा िगा, पृ. 522

िहायक ग्रंथ-

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1. अग्रिाल; डॉ पुरुषोमतम दाि, धु्रिस्िासमनी का शास्िीय वििेिन, जीिन जायोतत प्रकाशन, 3014, बल्दली मारान, हदल्दली-6, िंस्करण, 1974

2. कृष्ट्णन; डॉ. ििेपष्ल्दल राधा, धमा और िमाज,

राजपाल एण्ड िजं, कश्मीरी गेट, हदल्दली 3. गगा; प्रततभा, छायािादी कवियों की नारी भािना; प्रकाशक-जिाहर पुस्तकालय, िदर बाजार मथुरा, 1987

4. गुप्त; मैचथलीशरण, िाकेत, िंस्करण, 1956, प्रिाद प्रकाशन गोिद्धान िराय, िाराणिी 5. ितुिेदी; जगदीश्िर, िुधा सिहं, स्िी अष्स्मता िाहहमय और वििारधारा, आनन्द प्रकाशन, कोलकाता प्रथम िंस्करण 2004

6. ितुिेदी; डॉ.शभूंनाथ, आधुतनक कविता की यािा, िुलभ प्रकाशन, 17 अशोक मागा, लखनऊ, 1983

7. िातक; डॉ.गोविन्द, प्रिाद के नाटक: स्िरूप और िंरिना, तक्षसशला प्रकाशन, 23/4762, अन्िारी रोड,

दररयागंज

8. जायिी; मसलक मुहम्मद, जायिी गं्रथािली, िंपादक आिाया रामिन्र शुक्ल, नागरी प्रिाररणी िभा, काशी, पंित िसं्करण, िंित ्2008

9. जोशी; शांतत, िुसमिानदंन पंत-जीिन और िाहहमय,

खण्ड एक, प्रथम िसं्करण, 1970, राजकमल प्रकाशन,

नई हदल्दली 10. जोशी; शांतत, िुसमिानदंन पंत-गं्रथािली (खडं-एक); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली

11. जोशी; शांतत, िुसमिानंदन पंत-गं्रथािली (खंड-दो); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली 12. जोशी; शांतत, िुसमिानदंन पंत-गं्रथािली (खंड-तीन); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली

13. जोशी; शांतत, िुसमिानदंन पंत-गं्रथािली (खडं-िार); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली 14. जोशी; शांतत, िुसमिानदंन पंत-गं्रथािली (खडं-पाँि); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली 15. जोशी; शांतत, िुसमिानंदन पंत-गं्रथािली (खंड-छह); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली

16. जोशी; शातंत, िुसमिानदंन पंत-गं्रथािली (खंड-िात); ्वितीय िंस्करण, 1980; राजकमल प्रकाशन, नई हदल्दली

17. तनजेा; डॉ. िमयेन्र, हहदंी नाटक पुनमूाल्दयाकंन,

ग्रन्थम प्रकाशक, रामबाग, कानपुर-12

18. तुलिीदाि-रामिररत मानि; गीता प्रेि, गोरखपुर,

अष्ट्टम बार, िंित ्2012

19. ततिारी; डॉ. लसलत मोहन, िुसमिानन्दन पंत का ग्य िाहहमय, ज्ञानोदय प्रकाशन, िुसमिा िदन,

मल्दलीताल, नैनीताल, प्रथम िसं्करण, 1995

20. ततिारी; डॉ. रामिन्द, हहदंी का ग्य-िाहहमय,

विश्िवि्यालय प्रकाशन, के 40/6 भरैिनाथ, िाराणिी-1

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ISSN 2320 – 0871

भारतीय भाषाओं की अतंरााष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका 17 अक्टूबर 2015

पीअर रीव्यडू रेफ्रीड ररसर्च जर्चल

This paper is published online at www.shabdbraham.com in Vol 3, Issue 12 55

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