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International Journal of Research in Social Sciences Vol. 9, Issue 4, April - 2019, ISSN: 2249-2496 Impact Factor: 7.081 Journal Homepage: http://www.ijmra.us , Email: [email protected] m Double-Blind Peer Reviewed Refereed Open Access International Journal - Included in the International Serial Directories Indexed & Listed at: Ulrich's Periodicals Directory ©, U.S.A., Open J-Gate as well as in Cabell’s Directories of Publishing Opportunities, U.S.A 1290 International Journal of Research in Social Sciences http://www.ijmra.us , Email: [email protected] नाट य एव नाट यशा की उपयोिगता डॉ. धमेर कुमार स हदेव सहायकाचाय, रासरिय सकृ त सथान, मासनत सवसवालय, भोपाल पररसर, बागसेवसनया, भोपाल-43 (..) शोधपसार कायेषु नाटक रयम् , भावानुकीतयन नाट्यम् नाट्य की मसहमा सवपटल म सवयसवसदत है। नाट्यशा को सम भारतीय-कलाओ का कोश कहा जाता है। नाट्यशा भारतीय शापरपरा का एक परसनसित अनुमप थरन है। नाट्योपसि नामक नाट्यशा के थम अयाय के आधार पर ही नाट्यशा का कलेवर सतसित है। नाट्यशा के उपलध स करण म अयाय की स या 36 या 37 है। नाट्यशा थ छदोबध है , छद ायः अनुुप् है। कसतपय थल गमय भी है। भारतीय परपरा म भरत मुसन ही नाट्यशा के रचनाकार माने जाते ह। सामायतः नाट्यशा का रचनाकाल ई.पू . सितीय शतादी मानना असधक याय गत है। नाट्यशा ग और प दोन कार की शैसलय म सलखा गया है। नाट्यशा म सू, भारय एव सनरसि- तीन शैसलय के ग समलते ह। नाट्यशा एक ऐसा थ है सजसम य एव य उभयसवध काय का सवागीण सववेचन हुआ है। उनके र, अल कार, गुण, रीसत एव असभनय आसद तव का सनऱपण एव उनकी याया नाट्यशा म उपलध है। नाट्यशा नाट्यकार, असभनेता तथा सामासजक इन सभी के सलए उपयोगी सवषय का वणयन करता है। नाट् यशा म उसके पूवय सबखरे हुए नाट् -सधात आसद के सवयथा योजन करने का तो सफल यास सकया ही गया है , साथ ही उसम समाज की स से हीन समझने जाने वाले नट तथा असभनेताओ आसद को सतसित थान सदलाने का भी यासकया गया है। सपूणय नाट् यशा के 36/37 अयाय म नाट्य की उपसि, लण, ेागृह, नृय के सवसवध अ , चतुसवयध असभन, रस, भाव, सवभाव, अनुभाव, सासवक भावासद, नायक-नासयकाओ के भेदोपभेद, गीत, वा, छदः, गुण, रीसत, अल कार आसद सवषय का सवशेष सववेचन हुआ है। नाट्यवेद सकस कार उपन हुआ ? सकस के सलए उपन हुआ ? उसके सकतने अङ्ग है ? उसका या माण है ? और उसका योग सकस कार होता है ? इस -पचक के अनुऱप थ के वऱप का अनुमान सकया जा सकता है। इसके उिर म ही इस नाट्यशा का वचन हुआ है। हा ने ऋवेद से पाठ्य , सामवेद से गीत, यजुवेद से असभनय तथा अथवयवेद से रस हण कर नाट् य नामक प चम वेद की रचना की। लोक का सुखद खामक वभाव जब चतुसवयध असभनय िारा असभनीत सकया जाता है , तो उसे नाट्य कहते ह। भाव, अवथा एव लोक यवहार से युि नाट्य का वऱप भी होता है।शोक सत के सलये यैय, रोगपीसडत के सलये मनोसवनोद, म से थके हुये के सलये सुख दान करने वाला यह नाट्य होता है।वतयमान काल म द खातायसद के सलये ,

Double-Blind Peer Reviewed Refereed Open Access ... doc/2019/IJRSS_APRIL2019/IJRSSApril19-DharmenderbyM.pdfसकस के सलए 8त्पन्द्न हु5 ? 8सके

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International Journal of Research in Social Sciences

Vol. 9, Issue 4, April - 2019, ISSN: 2249-2496 Impact Factor: 7.081 Journal Homepage: http://www.ijmra.us, Email: [email protected] Double-Blind Peer Reviewed Refereed Open Access International Journal - Included in the International Serial Directories Indexed & Listed at: Ulrich's Periodicals Directory ©, U.S.A., Open J-Gate as well as in Cabell’s Directories of Publishing Opportunities, U.S.A

1290 International Journal of Research in Social Sciences http://www.ijmra.us, Email: [email protected]

नाट्य एवं नाट्यशास्त्र की उपयोिगता

डॉ. धमने्द्र कुमार ससिंहदेव

सहायकाचायय,

रासरिय सिंस्कृत सिंस्थान, मासनत सवश्वसवद्यालय,

भोपाल पररसर, बागसवेसनया, भोपाल-43 (म.प्र.)

शोधपत्रसार

काव्येष ुनाटकिं रम्यम,् भावानकुीतयनिं नाट्यम ् –नाट्य की मसहमा सवश्वपटल में सवयसवसदत ह।ै नाट्यशास्त्र को समग्र

भारतीय-कलाओिं का कोश कहा जाता ह।ै नाट्यशास्त्र भारतीय शास्त्रपरम्परा का एक पररसनसित अनमुप ग्रन्द्थरत्न ह।ै

नाट्योत्पसि नामक नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय के आधार पर ही नाट्यशास्त्र का कलेवर प्रसतसित ह।ै नाट्यशास्त्र के

उपलब्ध सिंस्करणों में अध्याय की सिंख्या 36 या 37 ह।ै नाट्यशास्त्र ग्रन्द्थ छन्द्दोबद्ध ह,ै छन्द्द प्रायः अनषुु्टप ्ह।ै कसतपय स्थल

गद्यमय भी ह।ै भारतीय परम्परा में भरत मसुन ही नाट्यशास्त्र के रचनाकार माने जाते हैं। सामान्द्यतः नाट्यशास्त्र का

रचनाकाल ई.प.ू सितीय शताब्दी मानना असधक न्द्यायसिंगत ह।ै नाट्यशास्त्र गद्य और पद्य दोनों प्रकार की शैसलयों में सलखा

गया ह।ै नाट्यशास्त्र में सतू्र, भारय एविं सनरुसि- तीन शैसलयों के गद्य समलते हैं। नाट्यशास्त्र एक ऐसा ग्रन्द्थ ह ैसजसमें दृश्य एविं

श्रव्य उभयसवध काव्य का सवाांगीण सववेचन हुआ ह।ै उनके रस, अलिंकार, गणु, रीसत एविं असभनय आसद तत्त्वों का सनरूपण

एविं उनकी व्याख्या नाट्यशास्त्र में उपलब्ध ह।ै नाट्यशास्त्र नाट्यकार, असभनेता तथा सामासजक इन सभी के सलए उपयोगी

सवषयों का वणयन करता ह।ै नाट्यशास्त्र में उसके पवूय सबखरे हुए नाट्य-ससद्धान्द्तों आसद के सवयथा योजन करने का तो सफल

प्रयास सकया ही गया ह,ै साथ ही उसमें समाज की दृसष्ट से हीन समझने जाने वाले नटों तथा असभनेताओ िं आसद को प्रसतसित

स्थान सदलाने का भी प्रयास सकया गया ह।ै सम्पणूय नाट्यशास्त्र के 36/37 अध्यायों में नाट्य की उत्पसि, लक्षण, प्रेक्षागहृ,

नतृ्य के सवसवध अिंग, चतसुवयध असभनय, रस, भाव, सवभाव, अनभुाव, सासत्त्वक भावासद, नायक-नासयकाओिं के भेदोपभेद,

सिंगीत, वाद्य, छन्द्दः, गणु, रीसत, अलिंकार आसद सवषयों का सवशेष सववेचन हुआ ह।ै नाट्यवेद सकस प्रकार उत्पन्द्न हुआ ?

सकस के सलए उत्पन्द्न हुआ ? उसके सकतने अङ्ग ह ै ? उसका क्या प्रमाण ह ै ? और उसका प्रयोग सकस प्रकार होता ह ै ?

इस प्रश्न-पञ्चक के अनरुूप ग्रन्द्थ के स्वरूप का अनमुान सकया जा सकता ह।ै इसके उिर में ही इस नाट्यशास्त्र का प्रवचन

हुआ ह।ै ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजवुेद से असभनय तथा अथवयवेद से रस ग्रहण कर नाट्य नामक पिंचम

वेद की रचना की। लोक का सखुदःुखात्मक स्वभाव जब चतसुवयध असभनयों िारा असभनीत सकया जाता ह,ै तो उसे नाट्य

कहते हैं। भाव, अवस्था एविं लोक व्यवहार से यिु नाट्य का स्वरूप भी होता ह।ैशोक सन्द्तप्त के सलये ध्यैयय , रोगपीसडतों के

सलये मनोसवनोद, श्रम से थके हुये के सलये सखु प्रदान करने वाला यह नाट्य होता ह।ैवतयमान काल में दःुखातायसद के सलये ,

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Vol. 9, Issue 4, April - 2019, ISSN: 2249-2496 Impact Factor: 7.081 Journal Homepage: http://www.ijmra.us, Email: [email protected] Double-Blind Peer Reviewed Refereed Open Access International Journal - Included in the International Serial Directories Indexed & Listed at: Ulrich's Periodicals Directory ©, U.S.A., Open J-Gate as well as in Cabell’s Directories of Publishing Opportunities, U.S.A

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नाट्य सवश्रासन्द्तजनक होगा, एविं कालान्द्तर में सजससे सखु प्राप्त हो सके- इस प्रकार का उपदेश करता ह।ै दःुख का नाश, सखु

का सवतरण और कालान्द्तर में सखु की प्रासप्त नाट्य के प्रयोजन हैं। नाट्य को सवसभन्द्न प्रकार के लोगों के सलए सवसभन्द्न प्रकार

से मनोरञ्जन, सशक्षण तथा आनन्द्द प्रदान करने वाला कहा गया ह।ै नाट्य चररत्रोत्थान का एक अमोघ साधन ह।ैनाट्य तथा

जीवन में घसनष्ट सम्बन्द्ध होता ह।ै दशयक अपने जीवन को उदाि बनाने के सलए सहतोसि को स्वीकार करता ह।ै सिंकेत देता ह ै

सक- कसव सनु्द्दर-मिंगल को ही अपनी वाणी में प्रश्रय देता ह।ै वह सत्य की अपेक्षा सहत का प्रसतसनसध होता ह।ै

1. प्रस्तावना

काव्येष ुनाटकिं रम्यम्1–यह सभुासषत काव्य-जगत ्में सवयथा चररताथय होता ह।ै नाट्य की मसहमा बताते हुए

कसवकलगुरुु महाकसव कासलदास कहते हैं सक,

देवानािमदमामनितत मुनयः शाततं क्रतंु चाक्षुषं

रुदे्रणेदमुमाकृतव्यितकरे स्वाङ्गे िवभकं्त ििधा।

तै्रगुण्योद्भवमत्र लोकचररतं नानारसं दृश्यते

नाट्यं िभतनरुचेजजनस्य बहुधाप्येकं समाराधकम ्।।2

अथायत ्नाट्यशास्त्र के प्रवतयक भरतासद मसुन लोगों का कहना ह ैसक नाट्य देवताओ िं की आिंखों को सहुाने वाला

यज्ञ ह।ै स्वयिं महादेव शिंकर ने पावयती से सववाह करके अपने अधयनारीश्वर अिंग में इस के दो भाग कर सलये हैं। एक ताण्डव

और दसूरा लास्य। इस में सत्त्व, रजस ्और तमस ्तीनों गणु सदखलाई पड़ते हैं और अनेक रसों से सम्पन्द्न मानवों के चररत्र

भी सदखलाई पड़ते हैं। अतः सभन्द्न-सभन्द्न रुसच वाले लोगों के सलए नाटक ही एक ऐसा उत्सव है, सजस में सबको एक-सा

आनन्द्द समलता ह।ै कासलदास की इस सदसुि से नाट्य की उपयोसगता भी स्पष्ट होती ह।ै

नाट्य की पररभाषा करते हुए आचायय भरत मसुन कहते हैं सक,

तै्रलोकस्यास्य सवजस्य नाट्यं भावानुकीतजनम।्।3

अथायत ्इस सम्पणूय तीन लोक के भावों का अनकुरण नाट्य ह।ै इस ससद्धान्द्त के अनसुार नाट्य साधारणीकरण

व्यापार िारा साधारणीकृत रूप से सारे सिंसार के भावों का अनकुीतयन रूप ह।ै

नाट्यशास्त्र भारतीय शास्त्रपरम्परा का एक पररसनसित अनमुप ग्रन्द्थरत्न ह।ै इसके रचसयता भरतमसुन माने गये हैं।

भरत ने नाट्यकला को शास्त्र का सवु्यवसस्थत एविं वैज्ञासनक रूप प्रदान सकया ह।ै नाट्यशास्त्र के अन्द्तः प्रमाणों से स्पष्ट होता

ह ैसक, भरतों की एक परम्परा सवद्यमान रही ह।ै उसी शाश्वरत परम्परा की साधना का पररणाम नाट्यशास्त्र ह।ै

नाट्यशास्त्र को समग्र भारतीय-कलाओिं का कोश कहा जाता ह।ै भरत मसुन का भी यह मन्द्तव्य ह ैसक, सिंसार में

ऐसा कोई ज्ञान, सशल्प, कला, योग, कमय नहीं ह,ै जो इस नाट्य में समासहत न हो-

न तज्ज्ञानं न तिछछल्पं न सा िवद्या न सा कला।

नासौ योगो न तत्कमज नाट्येऽिस्मन ्यतन दृश्यते।।4

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नाट्य में अनषुि असभनय, सङ्गीत, नतृ्य, वाद्य, वास्त,ु मसूतय, सचत्र, पसु्त आसद सवसवध कलाओिं एविं अनेक प्रकार

के सशल्पों का भी पररसनसित एविं व्यापक सववेचन इस ग्रन्द्थ में हुआ ह।ै इसके साथ ही भरतकृत नाट्यशास्त्र में प्रसङ्गतः

नाट्यासभनय एविं नाट्यलेखन के साधनभतू सौन्द्दययशास्त्र, काव्य तथा व्याकरण इन सवषयों की भी चचाय हुई ह।ै भरत ने इसे

सावयवसणयक पञ्चम वेद कहा ह।ै

2. उदे्दश्य

प्रयोजनममदु्दिश्य न मन्दो ऽद्दि प्रवर्तरे् अथायत ्सवना प्रयोजन के मन्द्दमसत भी सकस कायय में प्रविृ नहीं होता, इस

न्द्याय से प्रस्ततु शोधलेख के भी सनम्न प्रयोजन सवद्यमान हैं–

नाट्य के स्वरूप एविं महत्त्व को बताना।

नाट्यशास्त्र के स्वरूप एविं वैसशष््टय पर प्रकाश डालना।

नाट्य की प्रयोगधमीता को प्रकासशत करना।

नाट्यकला के वारीसकयों को दशायना।

नाट्य की वेदरूपता को स्पष्ट करना।

नाट्य के प्रयोजन को प्रदसशयत करना।

नाट्यशास्त्र की सिंरचना के प्रयोजन को बताना।

साथ ही नाट्य एविं नाट्यशास्त्र की उपयोसगता को ससद्ध करना।

3. सीमांकन

नाट्योत्पसि नामक नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय के आधार पर ही नाट्यशास्त्र का कलेवर प्रसतसित ह।ै आते्रय

प्रमखु मसुनयों के िारा पछेू गये पािंच प्रश्नों के उिर में नाट्यशास्त्र की यह व्यापक सिंरचना बनी ह।ै अतः इस शोधपत्र में

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय के आधार पर ही उस की उपयोसगता की चचाय केसन्द्रत की गई ह।ै

4. पाररभाषीकरण

नाट्य- सखुदःुखमय लोक का स्वभाव/अवस्था ही आिंसगक, वासचक, सासत्त्वक एविं आहायय –चतसुवयध असभनय से

यिु होकर नाट्य रूप धारण करता ह।ै यह नाट्य समस्त लोकों में आनन्द्द का जनक ह।ै

नाट्यवेद- ब्रह्मा जी ने ऋग्वेद से कथावस्त,ु यजवुेद से असभनय, सामवेद से सिंगीत एविं अथवय वेद से रसों का

ग्रहण कर पिंचम नाट्यवेद की रचना की। ऋग्वेदासद चार वेद के समान यह नाट्यवेद अनासद और अपौरुषये शाश्वत ज्ञान ह।ै

नाट्यशास्त्र-भारतीय शास्त्रपरम्परा का एक पररसनसित अनमुप ग्रन्द्थरत्न ह।ै आचायय भरत मसुन ने नाट्यकला को

शास्त्र का सवु्यवसस्थत एविं वैज्ञासनक रूप प्रदान सकया ह।ै

नाट्यस्वरूप- नाना प्रकार के भावों से सम्पन्द्न, नाना प्रकार की अवस्थाओिं वाला तथा लोकव्यवहार का

अनकुरण करने वाला नाट्य ह।ै नाट्य में साधारण अनकुरण मात्र न होकर असभनय की प्रधानता रहती ह।ै

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नाट्यप्रयोजन-शोक सन्द्तप्त के सलए धैयय, रोगपीसडतों के सलए मनोसवनोद, श्रम से थके हुए के सलए सखु प्रदान

करने वाला यह नाट्य होता ह।ै

लोककल्याण- नाट्य सहतोपदेश, सवश्रासन्द्त(आराम) देने वाला, कल्याणकारी लोकोपदेश देने वाला होता ह।ै

5. िवषयवस्तु िवशे्लषण

नाटकान्द्तिं सह कसवत्वम ्इस सदसुि की गररमा के अनरुूप नाटक या नाट्य की समाज के सलए उपयोसगता पर

सवचार सवमशय हते ुसवषय का अवतरण सकया गया ह।ै साथ ही शास्त्र के अनरुूप प्रयोग में परररकार, पररमाजयन सम्भव होता

ह।ै इस दृसष्ट से नाट्यशास्त्र की भी उपयोसगता पर सवचार व्यि सकया गया ह।ै जो सनम्न प्रकार ह–ै

5.1 नाट्यशास्त्र का पररचय

प्राचीन ग्रन्द्थों में नाट्यशास्त्र के दो प्रकार की सिंसहताओ िं का उल्लेख प्राप्त होता ह-ै एक िादशसाहस्त्रीसिंसहता दसूरी

षट्साहस्त्रीसिंसहता। सकन्द्त ुिादशसाहस्त्रीसिंसहता (बारह हजार श्लोक वाला) आज उपलब्ध नहीं ह।ै इस समय जो नाट्यशास्त्र

उपलब्ध ह ैवह षट्साहस्त्रीसिंसहता (छह हजार श्लोक वाला) ह।ै यह प्रतीत होता ह ैसक प्राचीन काल में िादशसाहस्त्री

नाट्यशास्त्र का एक बहृद ्रूप अवश्य सवद्यमान था, सजस का सिंसक्षप्त रूप छह हजार श्लोकों का वतयमान नाट्यशास्त्र ह।ै5

इस समय नाट्यशास्त्र के उपलब्ध सिंस्करणों में अध्याय की सिंख्या 36 या 37 ह।ै नाट्यशास्त्र के प्राचीन टीकाकार

असभनवगपु्त नाट्यशास्त्र में 36 अध्याय मानते हैं। अपनी असभनवभारती टीका की प्रस्तावना के सितीय श्लोक में ‚षटसत्रिंशक

भरतसतू्रम ्इदिं.......... सलखा ह।ै‛ 37 अध्याय वाले सिंस्करण में 36 वें अध्याय के ही कुछ भागों को 37 वें अध्याय के रूप

में पथृक् कर सदया गया ह।ै सवषय की दृसष्ट से 36 और 37 अध्यायों वाले सिंस्करणों में अन्द्तर नहीं ह।ै

यह नाट्यशास्त्र ग्रन्द्थ छन्द्दोबद्ध ह,ै छन्द्द प्रायः अनषुु्टप ्ह।ै कसतपय स्थल गद्यमय भी ह।ै असभनव गपु्त ने प्रस्ततु

नाट्यशास्त्र को भरतसतू्र भी कहा ह।ै इसमें साथ ही सतू्र, भारय, सिंग्रह, काररका तथा पररकरश्लोक – ये नाट्यशास्त्र के पाठ में

अलग अलग स्तर हैं।

5.2 नाट्यशास्त्र का रचनाकार

भारतीय परम्परा में भरत मसुन ही नाट्यशास्त्र के रचनाकार माने जाते हैं। दशरूपक, नाट्यदपयण, भावप्रकाशन,

रसाणयवसधुाकर, सिंगीतरत्नाकार आसद परवती ग्रन्द्थों में भरतमसुन का नाट्यशास्त्र के प्रणेता के रूप में वणयन सकया गया ह।ै

नाट्यशास्त्र के रचसयता के रूप में भरतमसुन एक ही व्यसि ह ैऔर उन्द्होंने नाट्यशास्त्र की रचना की ह।ै यह तथ्य नाट्यशास्त्र

में प्राप्त सववरणों से स्पष्ट ह।ै यथा ‘भरतिं नाट्यकोसवदम’्6, ‘मनुीनािं भरतो मसुन..........’

7तथा सवयज्ञ भरतिं ततः

8 इत्यासद।

5.3 नाट्यशास्त्र का रचनाकाल

नाट्यशास्त्र का रचनाकाल पयायप्त सववादग्रस्त ह।ै इस सवषय में पणूयतया सनणाययक सामग्री का अभाव ह।ै कसतपय

उपलब्ध आभ्यन्द्तर एविं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर इसकी पवूय सीमा और अपर सीमा सनधायररत की जा सकती ह।ै

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नाट्यशास्त्र का रचनाकाल सवक्रम पवूय पञ्चम शताब्दी से लेकर सवक्रमपवूय प्रथम शताब्दी तक माना जाता ह।ै ठीक

रचनाकाल का सनश्चय करना तो कसठन ह ैसकन्द्त ुयह सनसश्चत बात ह ैसक, उसकी रचना सवक्रम सिंवत्सर के आरम्भ होने के

पवूय ही हो चकुी थी।

नाट्यशास्त्र की रचना ई. प.ू पञ्चम शताब्दी में प्रारम्भ हो चकुी थी। नाट्यशास्त्र की सतू्रशैली भी इसको पषु्ट करती

ह।ै नाट्यशास्त्र का वतयमान स्वरूप प्रथम शताब्दी में हुआ होगा। अतः नाट्यशास्त्र का रचना काल ई. प.ू पञ्चम शताब्दी से

लेकर ई. प्रथम शताब्दी के मध्य माना जा सकता ह।ै सामान्द्यतः नाट्यशास्त्र का रचनाकाल ई.प.ू सितीय शताब्दी मानना

असधक न्द्यायसिंगत ह।ै

5.4 नाट्यशास्त्र की शैली

नाट्यशास्त्र में प्रायः सरल सिंस्कृत भाषा का ही प्रयोग समलता ह।ै यद्यसप इस ग्रन्द्थ को नाट्यवेद कहा गया ह,ै

तथासप इसकी भाषा वैसदक नहीं ह।ै वाल्मीसक रामायण की भाषा की भााँसत इसकी भाषा सरलता से समझ में आती

ह।ैसम्पणूय नाट्यशास्त्र गद्य और पद्य दोनों प्रकार की शैसलयों में सलखा गया ह।ै नाट्यशास्त्र में सतू्र, भारय एविं सनरुसि-तीन

शैसलयों के गद्य समलते हैं। पद्य असधकािंशतः अनषुु्टप ्छन्द्द में ह।ै बहुत थोडे़ से पद्य आयाय एविं उपजासत छन्द्दों में हैं।

नाट्यशास्त्र मलूतः सतू्रशैली में सलखा गया था, बाद में काररका के रूप में सवकससत हुआ, यह असभनवगपु्त आसद आचायों

की मान्द्यता ह।ै नाट्यशास्त्र की गद्यशैली के मखु्यतः तीन रूप समलते हैं- सतू्र, भारय एविं सनरुि। असभनव ने नाट्यशास्त्र का

भरतसतू्र के रूप में सनदेश सकया ह।ै

और यह भी ज्ञात होता ह ैसक, आनवुिंश्यश्लोक, सतु्रानसुवद्ध आयायएाँ तथा आयायएाँ भरतमसुन िारा रसचत नहीं ह,ै

असपत ुपवूयपरम्परा से गहृीत ह।ै भरत ने पवूायचायों के मतों को अपने मत के समथयन में उद्धतृ सकया ह।ै कहीं कहीं मतभेद भी

प्रदसशयत सकया ह।ै इस प्रकार भरत ने नाट्यशास्त्र को एक सवु्यवसस्थत एविं ससुनयोसजत रूप प्रदान सकया ह।ै

5.5 नाट्यशास्त्र का महत्त्व

नाट्यशास्त्र से भारत की सवकससत एविं समनु्द्नत नाट्यकला का पररचय समलता ह।ै नाट्य में सम्बसन्द्धत अनेकानेक

सवषयों का सजतना सवशद एविं सकू्ष्म सववेचन नाट्यशास्त्र में समलता ह,ै उतना सम्भवतः सवश्व के सकसी भी नाट्यशास्त्र में नहीं

समलता। प्रतीत यही होता ह ैसक नाट्यकला में भारत ही सवश्व की अग्रणी रहा ह।ै

नाट्यशास्त्र का सवषय-सववरण से स्पष्ट ह ैसक, तत्कालीन भारतीय समाज केवल धनधान्द्य से ही समदृ्ध न था असपत ु

सवद्या और सवशेष रूप से वास्त,ु सशल्प, मसूतय, सचत्र, सिंगीत, नाट्य, नतृ्य, एविं काव्य आसद कलाओिं में भी पारिंगत था।

नाट्यशास्त्र नतृ्य एविं सिंगीतशास्त्र का अत्यन्द्त ही सवशद वणयन प्रस्ततु करता ह।ै उसमें एक ओर जहााँ आिंसगक असभनय के

प्रकरण में एक-एक अाँगलुी एविं आाँख की बरौसनयों तक असभनय-प्रकार का सकू्ष्मासतसकू्ष्म सनरूपण हुआ ह,ै वहीं दसूरी ओर

वासचक असभनय के प्रकरण में अक्षर एविं उनकी मात्राओ िं तक के उच्चारण का सवधान ह।ै सासत्त्वक एविं आहायय असभनय के

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प्रकरणों में मचू्छायसद भावों एविं वेशभषूासद उपकरणों तथा उसके असभनय प्रकारों का जो सववेचन सकया गया ह ैवह अन्द्यत्र

दलुयभ ह।ै यही कारण ह ैसक पाश्चात्य एविं पौरस्त्य सभी सविानों ने नाट्यशास्त्र का महत्त्व स्वीकार सकया ह।ै

नाट्यशास्त्र एक ऐसा ग्रन्द्थ ह ैसजसमें दृश्य एविं श्रव्य उभयसवध काव्य का सवाांगीण सववेचन हुआ ह।ै उनके रस,

अलिंकार, गणु, रीसत एविं असभनय आसद तत्त्वों का सनरूपण एविं उनकी व्याख्या नाट्यशास्त्र में उपलब्ध ह।ै इस प्रकार

नाट्यशास्त्र सिंस्कृतकाव्य के आलोचनाशास्त्र (सजसे बाद में अलिंकार शास्त्र के नाम से असभसहत सकया गया) का आसद एविं

उपजीव्य ग्रन्द्थ ह।ै

परवती के भामह, दण्डी एविं वामन आसद आचायों ने नाट्यशास्त्र से ही कुछ तत्त्वों को लेकर उनका अलिंकारशास्त्र

के रूप में अलग-अलग सववेचन सकया। इस प्रकार दृश्यकाव्य नाट्य से श्रव्यकाव्य प्रबन्द्ध या महाकाव्य का पथृक् सववेचन

हुआ ह।ै नाट्यशास्त्र में नाट्य का प्रधान एविं काव्य का गौण रूप से सववेचन इस तथ्य को व्यि करता ह ैसक, ईसा पवूय की

शतासब्दयों में नाट्य का प्रचलन महाकाव्य की अपेक्षा असधक था।

नाट्यशास्त्र के सवषय में सबसे असधक महत्त्वपणूय बात यह ह ैसक, सिंस्कृत अलिंकारशास्त्र को ‘रस’ नामक तत्त्व, जो

बाद में काव्य की आत्मा माना गया, नाट्यशास्त्र की ही देन ह।ै िवभावानंुभावव्यिभचाररसंयोगाद् रसिनष्पितः9।यह

भरतसतू्र ही बहुधा व्याकृत होकर काव्य में असभव्यञ्जना के ससद्धान्द्त का आश्रय बनता ह।ै काव्यशास्त्र का चरमोत्कषय

ध्वसनससद्धान्द्त की उद्भावना हुई ह ैसजसका सवयस्व रस ही ह।ै

मानव मनोसवज्ञान के अध्ययन की दृसष्ट से भी नाट्यशास्त्र अपना सवशेष महत्त्व रखता ह।ै धीरोदाि, धीरलसलत,

धीरप्रशान्द्त आसद नायक एविं मगु्धा, स्वीया आसद नासयकाओिं, उनकी नाना अवस्थाओिं तथा लक्षणों का नाट्यशास्त्र बड़ा

ही सवस्ततृ एविं वैज्ञासनक सववरण प्रस्ततु करता ह।ै जहााँ परुुष एविं स्त्री के व्यसित्व ही पहचान के लक्षणों का उपन्द्यास बड़ी

बारीकी से सकया गया ह।ै सकस तरह के व्यसि को क्या पसन्द्द है, कौन व्यसि कैसी बातों से अनकूुल एविं प्रसतकूल होता ह,ै

ये सभी बातें भी नाट्यशास्त्र में भरी पड़ी हैं। इसीसलये यसद इसे सवसवध सवद्याओिं, कलाओिं एविं मानव-मनोसवज्ञान का

एनसाइक्लोपीसडया (बहृत्कोश) कहा जाय तो अत्यसुि नहीं होगी।

नाट्यशास्त्र की यही एक सवशेषता नहीं ह ैसक, वह नाट्यकार, असभनेता तथा सामासजक इन सभी के सलए उपयोगी

सवषयों का वणयन करता ह।ै इन तीनों में भी प्रमखुता असभनेताओ िं के उपयोगी सवषयों को दी गई ह।ै उदाहरणाथय सवसभन्द्न

प्रकार के असभनयों, पवूयरिंग तथा नतृ्यगीतासद का वणयन यहााँ असभनेता को ही दृसष्ट में रखकर सकया गया ह।ै यह नाट्यशास्त्र में

प्रायोसगक दृसष्टकोण का पररचायक ह।ै

इस प्रकार नाट्यशास्त्र हमारी प्राचीन सभ्यता एविं सिंस्कृसत का पररचय देते हुए अपनी उन सवशद ज्ञानसामग्री को

हमारे सामने उपसस्थत करता ह।ै नाट्यशास्त्र में उसके पवूय सबखरे हुए नाट्य-ससद्धान्द्तों आसद के सवयथा योजन करने का तो

सफल प्रयास सकया ही गया ह,ै साथ ही उसमें समाज की दृसष्ट से हीन समझने जाने वाले नटों तथा असभनेताओ िं आसद को

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प्रसतसित स्थान सदलाने का भी प्रयास सकया गया ह।ै इस प्रकार उसके िारा नाट्यकला का समनु्द्नयन तथा प्रसतिान तो हुआ

ही ह ैसाथ ही कुछ गलत ढिंग की सामासजक रूस़ियों को दर करने का भी सफल प्रयास हुआ ह।ै इस प्रकार नाट्यशास्त्र भारत

के उन महाग्रन्द्थों में से एक ह,ै सजन्द्होंने सिंसार में भारत के गौरव को ब़िाया ह।ै

5.6 नाट्यशास्त्र का िवषय

भरतमसुन िारा रसचत ‘नाट्यशास्त्र’ एक प्रससद्ध एविं महत्त्वपणूय ग्रन्द्थ ह।ै इसके अन्द्तगयत नाट्य की रचना तथा प्रयोग

से सम्बसन्द्धत अनेक सवषयों का सवस्ततृ वणयन उपलब्ध होता ह।ै सम्पणूय नाट्यशास्त्र के 36/37 अध्यायों में नाट्य की

उत्पसि, लक्षण, प्रेक्षागहृ, नतृ्य के सवसवध अिंग, चतसुवयध असभनय, रस, भाव, सवभाव, अनभुाव, सासत्त्वक भावासद, नायक-

नासयकाओिं के भेदोपभेद, सिंगीत, वाद्य, छन्द्दः, गणु, रीसत, अलिंकार आसद सवषयों का सवशेष सववेचन हुआ ह।ै नाट्यशास्त्र

कलासवषयक सवश्वकोश ह।ै

प्रथम अध्याय में नाट्य की उत्पसि के साथ उसकी पररभाषा की गई जो बहुत व्यापक ह।ै इसमें प्रश्नकताय के रूप में

ऋसषयों के पााँच प्रश्न के उिर से ही सम्पणूय नाट्यशास्त्र का सवग्रह बना हुआ ह।ै प्रथम अध्याय में वसणयत सवषयों का पररचय

इस प्रकार ह।ै

5.7 प्रथम ऄध्याय का िवषय-िववेचन

नाट्य की प्रजोयनीयता को समझने के सलए नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय के प्रसतपाद्य को जानना आवश्यक ह।ै

प्रसतपाद्य इस प्रकार ह ै–

ब्रह्मा एविं सशव दोनों देवताओ िं को प्रणाम कर भरतमसुन नाट्यशास्त्र का प्रवचन करते हैं। आते्रय आसद मसुनयों ने

भरत को पााँच प्रश्न10 पछेू-

1. कथम ्उत्पन्द्नः ? 2. कस्य कृते ? 3. कत्यङ्गः ? 4. सकिं प्रमाणः ? 5. अस्य कीदृशः प्रयोगः ?

अथायत ्नाट्यवेद सकस प्रकार उत्पन्द्न हुआ ? सकस के सलए उत्पन्द्न हुआ ? उसके सकतने अङ्ग ह ै ? उसका क्या

प्रमाण ह ै? और उसका प्रयोग सकस प्रकार होता ह ै ? इस प्रश्न-पञ्चक के अनरुूप ग्रन्द्थ के स्वरूप का अनमुान सकया जा

सकता ह।ै इसके उिर में ही इस नाट्यशास्त्र का प्रवचन हुआ ह।ै

कृतयगु की समासप्त तथा ते्रतायगु के आरम्भ में लोग ईरयाय, क्रोध, काम, लोभ तथा सखुदःुखासद से असभभतू हो

गये। उस समय इन्द्र-प्रमखु देवताओ िं ने ब्रह्माजी के पास जाकर सनवेदन सकया सक-

क्रीडनीयकिमछछामो दृश्यं श्रव्यं च यद् चेत्।11

अथायत ्हम लोग एक ऐसा क्रीडनीयक अथायत ्मनोरञ्जन का साधन चाहते हैं, जो देखा भी जा सके और सनुा भी।

इस सनवेदन को सनुकर ब्रह्मा ने समासध लगाकर यह सिंकल्प सकया।

धर्मयजमर्थ्यं यशस्यं च सोपदेश्यं ससङ्रहम।्

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भिवष्यतश्च लोकस्य सवजकमाजनुदशजनम।्।

सवजशास्त्राथजसर्मपतनं सवजिशल्पप्रवतजकम।्

नाट्याख्यं पञ्चमं वेदं सेितहासं करोर्मयहम।्।12

अथायत ्मैं धमय, अथय तथा यश को प्राप्त कराने वाले, शास्त्रों के उपदेश एविं ज्ञान सिंग्रह से यिु, समस्त कायों में भावी

लोक का मागयदशयन करने वाले, समस्त शास्त्रों के अथय को व्यि करने वाले तथा समस्त सशल्पों को सिंरक्षण देने वाले नाट्य

नामक पञ्चम वेद की इसतहास-ससहत रचना कर रहा ह ाँ। इसके उपरान्द्त नाट्यशास्त्र में कहा गया ह ैसक-

जराह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च।

यजुवेदादिभनयान ्रसानाथवजणादिप।।13

अथायत ्ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य , सामवेद से गीत, यजवुेद से असभनय तथा अथवयवेद से रस ग्रहण सकया।

इस प्रकार ब्रह्मा ने वेदोपवेदों पर आधाररत इस नाट्यरूप पञ्चम वेद की रचना की जो समस्त वणों अथायत ्ब्राह्मण,

क्षसत्रय, वैश्य एविं शरूों सभी के सलए था। नाट्यरचना के अनन्द्तर ब्रह्मा ने इन्द्र से कहा सक मैंने इसतहास अथायत ्दशरूपकों

की ससृष्ट कर दी ह।ै अब आप इसे कुशल देवताओ िं िारा प्रयिु करवाएाँ। इस पर इन्द्र ने ब्रह्मा से कहा सक देवता तो नाट्यकमय

करने में असमथय हैं। नाट्यप्रयोग का कायय ऋसषयों को देना चासहए। इस पर ब्रह्मा ने भरत मसुन से कहा सक आप पतु्रों समते

इसका प्रयोग करें।

इस आदेश के अनसुार भरत मसुन ने अपने सौ पतु्रों को नाट्यसशक्षा प्रदान की। इसके अनन्द्तर भरतमसुन ने भारती,

सात्त्वती तथा आरभटी इन वसृियों पर आसश्रत असभनय सकया। इस पर ब्रह्मा ने उनसे कैसशकी वसृि का भी सिंयोग करने को

कहा। इस पर जब भरतमसुन ने यह कहा सक कैसशकी वसृि का असभनय स्त्रीपात्रों के सवना असम्भव ह,ै तो ब्रह्मा ने अप्सराओ िं

की ससृष्ट करके उन्द्हें (भरत को) प्रदान सकया। जब नाट्य-सम्बन्द्धी समस्त उपकरण प्रस्ततु हो गये, तब ब्रह्मा जी ने भरत मसुन

से कहा सक आगे इन्द्र का ध्वजमहोत्सव शीघ्र ही आने वाला ह।ै उसी में इस नाट्यसिंज्ञक वेद का प्रयोग करो।

इस आदेश के अनसुार भरतमसुन ने नान्द्दी-पाठ के अनन्द्तर देवासरु सिंग्राम में होने वाली देवताओ िं की सवजय का

असभनय आरम्भ सकया। इस पर देवता तो हसषयत हुए, परन्द्त ुदैत्य रुष्ट हो गए। वे असभनय में सवघ्न करने लगे। ब्रह्मा ने उन्द्हें

समझाने की चेष्टा की, परन्द्त ुजब वे नहीं शान्द्त हुए, तो नाट्यगहृ की आवश्यकता का अनभुव सकया गया। सवश्वकमाय िारा

नाट्यगहृ का सनमायण हो जाने पर सवसधवत ्रिंगपजून एविं रिंगरक्षक देवताओ िं की सनयसुि की गई। इस प्रकार नाट्योत्पसि

नामक प्रथम अध्याय की समासप्त हो जाती ह।ै

इसके अन्द्तगयत नाट्य की रचना, प्रयोग तथा उपयोसगता से सम्बसन्द्धत अनेक सवषयों पर सवस्ततृ वणयन उपलब्ध

होता ह।ै नाट्य सम्बन्द्धी सववेचन के साथ-साथ रस, अलिंकार, छन्द्द, भाषा, नतृ्य, गीत, वाह्य तथा अन्द्य अनेक सवषयों का

वणयन होने से यह एक आकर ग्रन्द्थ बन गया ह।ै नाट्यशास्त्र एविं रसशास्त्र के प्रायः समस्त परवती ग्रन्द्थों का तो यह उपजीव्य

ही रहा ह।ै

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5.8 नाट्य की पररभाषा

‘नाट्यशास्त्र’में लोगों के सकए हुए कायों के अनकुरण को ही समान्द्य रूप से नाट्य कहा गया ह।ै इसके प्रथम

अध्याय में नाट्य की पररभाषा करते हुए कहा गया ह ैसक-

देवानामसुराणाञ्च राञां लोकस्य चैव िह।

कृतानुकरणं लोके नाट्यिमत्यिभधीयते।।14

अथायत ्देवताओ िं, असरुों, राजाओ िं, तथा शेष जनता िारा सकए गएु कायों का अनकुरण ही नाट्य कहा जाता ह।ै

नाट्यशास्त्र में उसल्लसखत अमतृमन्द्थन नामक समवकार के प्रयोग के प्रसिंग में कहा गया ह ैसक-

तदततेऽनुकृितबजद्धा यथा दैत्याः सुरैिजजताः।15

अथायत ्देवों िारा दैत्यों पर सवजय पाने का अनकुरण सकया गया। इस प्रकार स्पष्ट ह ैसक यहााँ नाट्य के सलए

सामान्द्यतः अनकुरण शब्द का प्रयोग सकया गया ह।ै

नाट्यशास्त्र में ही नाट्य-पररभाषाओ िं एविं नाट्याङ्गों के सववेचन से ज्ञात होता ह ैसक वह साधारण अनकृुसत मात्र

को नाट्य नहीं मानता वरन ्उस अनकृुसत में कुल वैसशष््टय की भी आवश्यकता का अनभुव करता ह।ै उसमें प्रथम अध्याय में

ही नाट्य की पररभाषा देते ह ैसक-

योऽयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमितवतः।

सोऽङ्गाद्यिभनयोपेतो नाट्यिमत्यिभधीयते।।16

अथायत ्लोक का सखुदःुखात्मक स्वभाव जब चतसुवयध असभनयों िारा असभनीत सकया जाता ह,ै तो उसे नाट्य

कहते हैं। यहााँ अनकुरण के साधन पर असभनय शब्द का प्रयोग सकया गया ह।ै इससे स्पष्ट ह ैसक नाट्य में साधारण अनकुरण

मात्र न होकर असभनय की प्रधानता रहती ह।ै

5.9 नाट्य की उपयोिगता

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में ही प्रथम नाट्य देवासरु सिंग्राम के असभनय में अपनी हार का प्रदशयन देखकर दैत्य

लोग ब्रह्मा से कहते हैं सक आपके िारा उत्पन्द्न सकए गए इस नाट्य का प्रयोजन तो देवताओ िं की प्रशिंसा तथा हमारा अपमान

प्रतीत होता ह।ै इस पर ब्रह्मा उन्द्हें समझाते हुए कहते हैं सक, ऐसी बात नहीं ह।ै नाट्य में तो देवता-दानव सभी के शभु-अशभु

कमों तथा भावों का अनकुीतयन लोकोपदेश की दृसष्ट से सकया गया ह।ै नाट्य के प्रयोजन को समझाते हुए ब्रह्मा जी कहते हैं–

क्विचद् धमजः क्विचत्क्रीडा क्विचद्-वधः क्विचछछमः।

क्चिचद्धास्यं क्विचद्युद्ध ंक्विचत्कामः क्विचिधः।।

धमो धमजप्रवृतानां कामः कामोपसेिवनाम ्।

िनरहो दुिवजनीतानां िवनीतानां दमिक्रया ।।

क्लीबानां धार््ष्जयजननमुत्साहः शूरमािनमाम ्।

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ऄबुधानां िवबोधश्च वैदुष्यं िवदुषामिप ।।

ईश्वराणां िवलासश्च स्थैयं दुःखािदजतस्य च ।

ऄथोपजीिवनामथो धृितरुििग्नचेतसाम ् ।।

नानाभावोपसर्मपतनं नानावस्थाततरात्मकम ्।

लोकवृतानुकरणं नाट्यमेततमया कृतम ्।।

उतमाधममध्यानां नराणां कमजसंश्रयम ्।

िहतोपदेशजननं धृितक्रडासुखािदकृत् ।।

दुःखाताजनां श्रमाताजनां शोकाताजनां तपिस्वनाम।्

िवश्रािततजननं लोके नाट्यमेतद् भिवष्यित ।।

धर्मयं यशस्यमायुष्यं िहतं बुिद्धिववधजनम ्।

लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भिवष्यित ।।17

अथायत ्-(इस नाट्य में) कहीं धमय , कहीं क्रीडा, कहीं अथय, कहीं शासन्द्त (शान,) कहीं यदु्ध, कहीं यदु्ध, कहीं काम

और कहीं वध (का दृश्य का वणयन हैं)।(नाट्य में) धमय परायणों का धमय, काम का सेवन करने वालों का काम, दषु्टों को दण्ड

व्यवस्था का (दषु्टों का वध) सवनीतों का इसन्द्रय-दमन-सक्रया का (वणयन पाया जाता ह।ै) (यह नाट्य) नपुिंसकों में धषृ्टता कों

उत्पन्द्न करने वाला, अपने को शरू मारने वालों में उत्साह-वसृद्ध करने वाला , असविानों के सलये ज्ञानप्रद एविं सविानों को भी

वैदरुय देने वाला (होता ह)ै।धसनयों के सलये सवलास-जनक, दःुख-पीसडतों के सलये सनश्चयात्मक उत्साह , सस्थरता देने वाला,

अथय का उपाजयन करने वालो के सलये अथय (धन का प्रदान करने वाला) तथा उसिग्न सचि वालों के सलये धैयय प्रदान करने

वाला (यह नाट्य ह)ै।नाना प्रकार के भावों से सम्पन्द्न, नाना प्रकार की अवस्थाओिं वाला तथा लोक-व्यवहार का अनकुरण

करने वाला यह नाट्य मैंने बनाया ह।ैउिम, अधम तथा मध्यम शे्रणी के मनुरयों के कमय पर आसश्रत, सहतोपदेश देने वालाएविं

ध्यैयय, मनोरिंजन सखुासद को करने वाला - (यह नाट्य मैंने बनाया/ यह नाट्य होगा)।यह नाट्य दःुखों से पीसड़तो के सलये ,

थके हुये लोगों के सलये , शोक से सन्द्तप्त के सलये , तपसस्वयों के सलये सवश्रासन्द्त देने वाला होगा। अथायत ्रोगासद से उत्पन्द्न

दःुख, मागय चलने आसद की थकान एविं बन्द्धमुरणसद शोक से आने - पीसड़तों से अत्यन्द्त दबुयल तपसस्वयों के सलये यह नाट्य

सवश्रासन्द्त/आराम देने वाला होगा।यह नाट्य धमय का जनक , यश को प्रदान करने वाला , आय ुको ब़िाने वाला ,

कल्याणकारी, बसुद्ध को ब़िाने वाला एविं लोक को उपदेश देने वाला होगा।

5.10 नाट्य-प्रयोजन िवमशज

भाव, अवस्था एविं लोक व्यवहार से यिु नाट्य का स्वरूप भी होता ह।ैशोक सन्द्तप्त के सलये ध्यैयय , रोगपीसडतों के

सलये मनोसवनोद, श्रम से थके हुये के सलये सखु प्रदान करने वाला यह नाट्य होता ह।ैवतयमान काल में दःुखातायसद के सलये ,

नाट्य सवश्रासन्द्तजनक होगा, एविं कालान्द्तर में सजससे सखु प्राप्त हो सके- इस प्रकार का उपदेश करता ह।ै दःुख का नाश, सखु

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का सवतरण और कालान्द्तर में सखु की प्रासप्त नाट्य के प्रयोजन हैं।जो दःुखी नहीं है , असपत ुअत्यन्द्त सखुी हैं उन ससुखयों के

सलये लोक व्यवहार और धमायसद के उपायवगय का उपदेश देनेवाला यह नाट्य होगा।

अन्द्ततः यहााँ नाट्य को सवसभन्द्न प्रकार के लोगों के सलए सवसभन्द्न प्रकार से मनोरञ्जन, सशक्षण तथा आनन्द्द प्रदान

करने वाला कहा गया ह।ै इस प्रकार लोकसशक्षण, लोकरञ्जन तथा लोकानन्द्द आसद को नाट्य का प्रयोजन कहा जा सकता

ह।ै

5.11 नाट्यशास्त्र की उपयोिगता

नाट्योत्पसि की कथा में कहा गया ह ैसक तै्रतायगु में रजस ्गणु की प्रधानता के कारण मानव समाज उस सत्य मागय

से सवचसलत हो रहा था, सजसको वेदों ने सनधायररत सकया था। मनरुयों को धमय के सत्यमागय पर वेदों की सहायता से चलना

असिंभव हो गया था। क्योंसक शरूवणय के सलए वेदाध्ययन सनसषद्ध था। अतः देवतागण एक ऐसे साधन ‘क्रीडनीयक’

क्रीडावस्त ुको चाहते थे सजससे वणय सनरपेक्ष होकर सम्पणूय मानव समाज को एक साथ सशक्षा दी जा सके। वे वेदों की

आदेशात्मक सशक्षा से सभन्द्न कोई ऐसी सशक्षा प्रणाली चाहते थे, जो आनन्द्दपणूय हो, जो आदेश की कटुता से रसहत हो।

इस दृसष्ट से नाट्य कला को सनतान्द्त उपयोगी समझा गया। क्योंसक नाट्य कला का प्रयोजन आाँखों और कानों को

सखुद लगने वाले प्रदशयन के साधन से प्रत्यक्ष (ज्ञात) रूप से नहीं असपत ुपरोक्ष (अज्ञात) रूप से सशक्षा-बोध देना ह।ै नाट्य

कला ज्ञात रूप में वेदों जैसा कोई आदेश नहीं देती, असपत ुदशयकों का चररत्र नायक से तादात्म्य स्थासपत करते हुए सशक्षा

(बोधरूपी) औषधी को सम्मखु कर देती ह,ै केवल इतना ही नहीं उस औषसध की कटुता को दरू करने के सलए या तो

असभराम दृश्य और कणयसखुद मधरु स्व ररूपी शक्कर की चाशनी उस पर च़िा देती है, सजससे सशक्षारूपी औषसध की

कटुता का अनभुव नहीं होता। इस प्रकार नाट्यकला के प्रदशयन का प्रयोजन दशयकों को सशक्षा देते हुए उनका चाररसत्रक

उत्थान करना ह।ै सिंके्षप में कहा जा सकता ह ैसक भरत के मन में नाट्य का उद्दशे्य बोध और मोद ह।ै ये दोनों प्रयोजन- बोध

(ज्ञानाजयन) और मोद (आनन्द्द) आपाततः पथृक् सदखाई देने वाले तत्त्वरूप से अन्द्तः में एक ही ह।ै क्योंसक बोध (ज्ञानाजयन)

भी अन्द्ततः साध्य न होकर आनन्द्द (मोद) का साधन ही तो ह।ै

इस प्रकार यह सनभायन्द्त रूप से स्पष्ट हो जाता ह ैसक नाट्य (काव्य) का चरम उद्दशे्य आनन्द्द ही ह,ै क्योंसक बोध

(ज्ञानाजयन) चाररसत्रक उत्थान आसद स्वयिं अपनी सससद्ध नहीं ह,ै उन सबका उद्दशे्य भी आनन्द्द ही ह।ै

6. उपसंहार

नाट्य-सक्रया एक कला ह ैऔर नाट्यशास्त्र एक कला का शास्त्र ह।ै कला नाट्यासभनय को सवायङ्ग सनु्द्दर ब नाने में

सहयोग देती ह।ै वस्ततुः नाट्यकला रस के उन्द्मीलन की प्रधान सहासयका ह।ै इसके अभाव में नाट्य अथवा काव्य अपनी

यथाथयता ससद्ध नहीं कर सकता। कला शनू्द्य असभनय में शब्दािंसकत नाट्य वस्त ुकेवल वाताय मात्र रह जाती ह।ै या यों कसहए

सक रसोरकेशसि के अभाव में वह अकाव्य होने से त्याज्य होती ह।ै इसीसलए आचायय भामह ने ऐसी वाताय मात्र को अकाव्य

माना ह।ै वे कहते हैं-

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गतोऽस्तमको भातीतदुः याितत वासाय पिक्षणः।

इत्येवमािद िकं काव्यं ? वाताजमेनां प्रचक्षते।।18

अथायत-् सयूय अस्त हो गया, चन्द्रमा का उदय हो गया ह,ै पसक्षगण अपने –अपने नीड़ों को लौट रह ेहैं....इत्यासद –

यह क्या कोई काव्य ह ै ? इसको वाताय कहते हैं। आनन्द्दवधयन आसद ने इसे इसतविृ-वणयन कहा ह ैऔर अकाव्योसचत ्माना

ह।ै ‘न िह कवेः इितवृतमात्रिनवजहेण िकंिचत् प्रयोजनम।्’19नाट्य का सवषय (वस्त-ुतत्त्व) कुछ भी हो, जब तक वह

सवषय चारों असभनयों (आिंसगक, वासचक, सासत्त्वक और आहायय) और गान से यिु नहीं होगा, जब तक उसमें सरसता का

ससन्द्नवेश न हो सकने के कारण से नाट्य की सिंज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी।20

‘काव्येष ुनाटकिं रम्यम्’ की सवजय घोष की ध्वसन भारतीय काव्यशास्त्र में सनरिंतर गूिंजती रही। इसका कारण स्पष्ट

था। हमारे यहााँ काव्य की आत्मा रस माना गयी ह ैऔर इस रस का मलू -सम्बन्द्ध नाटक से ही सदा रहा ह ैक्योंसक सवभाव,

अनभुाव की सजतनी प्रत्यक्ष प्रस्तसुत नाटक में सिंभव ह,ै उतनी काव्य के अन्द्य सवधाओिं-श्रव्य काव्य आसद में नहीं हो सकती।

अतः रस के सम्बन्द्ध से नाटक की अन्द्य काव्य सवधाओिं में शे्रिता भारत में अन्द्त तक अक्षणु्ण रही। इसीसलए वह कसवत्व

की चरम सीमा माना जाता ह-ै ‘नाटकान्द्तिं कसवत्वम।्’

नाट्य चररत्रोत्थान का एक अमोघ साधन ह।ै मतूय और प्रत्यक्ष दृश्य सजतना बसुद्धगम्य होकर रृदय को प्रभासवत

करता ह,ै उतना अमतूय या अप्रत्यक्ष नहीं। यहााँ हमारा तात्पयय कसव की रचना से उदू्भत होने वाले उस अप्रत्यक्ष कान्द्ताससम्मत

उपदेश से ह ैजो रिंगमिंच पर घसटत होने वाली घटनाओ िं से दशयकगण प्राप्त कर जीवन में –‘राम’ आसद के समान आचरण

करना चासहए, रावण आसद से समान नहीं- अपनी पाशसवक वसृि का त्याग करने में सफल होते हैं। वस्ततुः काव्य के सवसवध

प्रयोजनों में कतयव्याकतयव्य का उपदेश करना भी एक मखु्य प्रयोजन ह।ै

रिंगमिंच पर प्रत्यक्ष रूप से घटती हुई घटनाओ िं को प्रदसशयत करने वाले नाट्य-काव्य की शैली रसाप्लतु होने से

वाङ्मय की अन्द्य शैसलयों से सवलक्षण होती ह।ै इस सवलक्षणता का उत्पादन करने के सलए नाट्यकार वेद-परुाणासद की

प्रभसुसम्मत और सरुृत ्ससम्मत शैसलयों का त्याग कर कान्द्ताससम्मत उपदेश शैली को ग्रहण करता ह।ै

वस्ततुः काव्य तथा जीवन में घसनष्ट सम्बन्द्ध होता ह।ै क्रान्द्तदशी कसव अपने सामने प्रस्ततु जीवन की सवसभन्द्न

सस्थसतयों का अपनी सकू्ष्मसेक्षका से सनरीक्षण कर उन्द्हें अपने काव्य में सचसत्रत करती ह।ै कसव आदशयवाद का पक्षपात होता

ह।ै वह सकसी वस्त ुके हये पक्ष को ग्रहण न कर ग्राह्य को ही ग्रहण करता ह।ै दशयक अपने जीवन को उदाि बनाने के सलए

सहतोसि को स्वीकार करता ह।ै सिंकेत देता ह ैसक- कसव सनु्द्दर-मिंगल को ही अपनी वाणी में प्रश्रय देता ह।ै वह सत्य की

अपेक्षा सहत का प्रसतसनसध होता ह।ै कहा गया है- ‘सत्यस्य वचनिं शे्रयः, सत्यादसप सहतिं वदेत।्’ इसत

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सतदभज एवं पादिटप्पणी

1. सिंस्कृत सासहत्य का इसतहास, बलदवे उपाध्याय, प.ृ 498

2. मालसवकासग्नसमत्र, 1.4

3. नाट्यशास्त्र, 1.107

4. वही,1.116

5. नाट्यशास्त्र, भसूमका प.ृ 5

6.नाट्यशास्त्र 1.6

7.वही, 1.6

8. वही, 36.9

9. वही, 6. 31, गद्य(सतू्र)

10. वही, 1.4-5

11.वही,1.11

12. वही, 1.14-15

13.वही, 1.17

14.वही, 1.120

15.वही, 1.57

16. वही,1.116

17.वही,1.108-115

18. काव्यालिंकार,2.86

19. ध्वन्द्यालोक, 3.14

20.असभ. भारती, प.ृ 428

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