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मेरे सपनों का भारत मोहनदास करमचंद गांधी

1 मेरे सपनों का भारत     आगे

भारत की हर चीज मुझे आ कर्षि��त करती है। सर्वो�च् च आकांक्षाए ँरखने र्वोाले किकसी र्वो् यक्ति) को अपने किर्वोकास के क्तिलए जो कुछ चाकिहए, र्वोह सब उसे भारत में मिमल सकता है।

भारत अपने मूल स् र्वोरूप में कम2भूमिम है, भोगभूमिम नहीं।

भारत दुकिनया के उन इने-किगने देशों में से है, जिजन् होंने अपनी अमिधकांश पुरानी संस् थाओं को, य द्यकिप उन पर अंध-किर्वोश् र्वोास और भूल-भ्रांकितयों की काई चढ़ गई है, कायम रखा है। साथ ही र्वोह अभी तक अंध-किर्वोश् र्वोास और भूल-भ्रांकितयों की इस काई को दूर करने की और इस तरह अपना शुद्ध रूप प्रकट करने की अपनी सहज क्षमता भी प्रकट करता है। उसके लाखों-करोड़ों किनर्वोाक्तिसयों के सामने जो आर्थिथ�क कठिFनाइयाँ खड़ी हैं, उन् हें सुलझा सकने की उसकी योग् यता में मेरा किर्वोश् र्वोास इतना उज् जर्वोल कभी नहीं रहा जिजतना आज है।

मेरा किर्वोश् र्वोास है किक भारत का ध् येय दूसरे देशो के ध् येय से कुछ अलग है। भारत में ऐसी योग् यता है किक र्वोह धम2 के के्षत्र में दुकिनया में सबसे बड़ा हो सकता है। भारत ने आत् मशुजिद्ध के क्तिलए स् र्वोेच् छापूर्वो2क जैसा प्रयत् न किकया है, उसका दुकिनया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिमलता। भारत को फौलाद के हक्तिथयारों की उतनी आर्वोश् यकता नहीं है; र्वोह दैर्वोी हक्तिथयारों से लड़ा है और आज भी र्वोह उन् हीं हक्तिथयारों से लड़ सकता है। दूसरे देश पशुबल के पुजारी रहे हैं। यूरोप में अभी जो भयंकर युद्ध चल रहा है, र्वोह इस सत् य का एक प्रभार्वोशाली उदाहरण है। भारत अपने आत् मबल से सबको जीत सकता है। इकितहास इस सच् चाई के चाहे जिजतने प्रमाण दे सकता है किक पशुबल आत् मबल की तुलना में कुछ नहीं है। ककिर्वोयों ने इस बल की किर्वोजय के गीत गाए हैं और ऋकि�यों ने इस किर्वो�य में अपने अनुभर्वोों का र्वोण2न करके उसकी पुमिN की है।

यठिद भारत तलर्वोार की नीकित अपनाए, तो र्वोह क्षणिणक सी किर्वोजय पा सकता है। लेकिकन तब भारत मेरे गर्वो2 का किर्वो�य नहीं रहेगा। मैं भारत की भक्ति) हूँ, क् योंकिक मेरे पास जो कुछ भी है र्वोह सब उसी का ठिदया हुआ है। मेरा पूरा किर्वोश् र्वोास है किक उसके पास सारी दुकिनया के क्तिलए एक संदेश है। उसे यूरोप का अंधानुकरण नहीं करना है। भारत के द्वारा तलर्वोार का स् र्वोीकार मेरी कसौटी की घड़ी होगी। मैं आशा करता हूँ किक उस कसौटी पर मैं खरा उतरँूगा। मेरा धम2 भौगोक्तिलक सीमाओं से मया2ठिदत नहीं है। यठिद उसमें मेरा जीर्वोंत किर्वोश् र्वोास है, तो र्वोह मेरे भारत-पे्रम का भी अकितक्रमण कर जाएगा। मेरा जीर्वोन अहिह�सा-धम2 के पालन द्वारा भारत की सेर्वोा के क्तिलए समर्षिप�त है।

यठिद भारत ने हिह�सा को अपना धम2 स् र्वोीकार कर क्तिलया और यठिद उस समय मैं जीकिर्वोत रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूँगा। तब र्वोह मेरे मन में गर्वो2 की भार्वोना उत् पन् न नहीं करेगा। मेरा देशपे्रम मेरे धम2 द्वारा किनयंकित्रत है। मैं भार से उसी तरह बंधा हुआ हूँ, जिजस तरह कोई बालक अपनी माँ की छाती से क्तिचपटा रहता है; क् योंकिक मैं महसूस करता हूँ किक र्वोह मुझे अपनी उच्चतम आकांक्षाओं की पुकार का उत् तर मिमलता है। यठिद किकसी कारण मेरा यह किर्वोश् र्वोास किहल जाए या चला जाए, तो मेरी दशा उस अनाथ के जैसी होगी जिजसे अपना पालक पाने की आशा ही न रही हो।

मैं भारत को स् र्वोतंत्र और बलर्वोान बना हुआ देखना चाहता हूँ, क् योंकिक मैं चाहता हूँ किक र्वोह दुकिनया के भले के क्तिलए स् र्वोेच् छापूर्वो2क अपनी पकिर्वोत्र आहुकित दे सके। भारत की स् र्वोतंत्रता से शांकित और युद्ध के बारे में दुकिनया की दृमिN में जड़मूल से क्रांकित हो जाएगी। उसकी मौजूदा लाचारी और कमजोरी का सारी दुकिनया पर बुरा असर पड़ता है।

मैं यह मानने जिजतना नम्र तो हूँ ही किक पणिZम के पास बहुत कुछ ऐसा है, जिजसे हम उससे ले सकते हैं, पचा सकते हैं और लाभांकिर्वोत हो सकते हैं। ज्ञान किकसी एक देश या जाकित के एकामिधकार की र्वोस् तु नहीं है। पाश् चात् य सभ् यता का

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मेरा किर्वोरोध असल में उस किर्वोचारहीन और किर्वोरे्वोकहीन नकल का किर्वोरोध है, जो यह मान कर की जाती है किक एक्तिशया-किनर्वोासी तो पणिZम से आने र्वोाली हरेक चीज की नकल करने जिजतनी ही योग् यता रखते हैं। ...मैं दृढ़तापूर्वो2क किर्वोश् र्वोास करता हूँ किक यठिद भारत ने दु:ख और तपस् या की आग में से गुजरने जिजतना धीरज ठिदखाया और अपनी सभ् यता पर-जो अपूण2 होते हुए भी अभी तक काल के प्रभार्वो को झेल सकी है-किकसी भी ठिदशा से कोई अनुक्तिचत आक्रमण न होने ठिदया, तो र्वोह दुकिनया की शांकित और Fोस प्रगकित में स् थायी योगदान कर सकती है।

भारत का भकिर्वो�् य पणिZम के उस रक् त-रंजिजत माग2 पर नहीं हैं, जिजस पर चलते-चलते पणिZम अब खुद थक गया है; उसका भकिर्वो�् य तो सरल धार्मिम�क जीर्वोन द्वारा प्राप् त शांकित के अहिह�सक रास् ते पर चलने में ही हैं। भारत के सामने इस समय अपनी आत् मा को खोने का खतरा उपस्थि^त है। और यह संभर्वो नहीं है किक अपनी आत् मा को खोकर भी र्वोह जीकिर्वोत रह स के। इसक्तिलए आलसी की तरह उसे लाचारी प्रकट करते हुए ऐसा नहीं कहना चाकिहए किक 'पणिZम की उस बाढ़ से मैं बच नहीं सकता।' अपनी और दुकिनया की भलाई के क्तिलए दस बाढ़ को रोकने योग् य शक्ति)शाली तो उसे बनना ही होगा।

यूरोपीय सभ् यता बेशक यूरोप के किनर्वोाक्तिसयों के जिजए अनुकूल है; लेकिकन यठिद हमने उसकी नकल करने की कोक्तिशश की, तो भारत के क्तिलए उसका अथ2 अपना नाश कर लेना होगा। इसका यह मतलब नहीं किक उसमें जो कुछ अच् छा और हम पचा सकें ऐसा हो, उसे हम लें नहीं या पचाए ँनहीं। इसी तर ह उसका यह मतलब भी नहीं है किक उस सभ् यता में जो दो� घुस गए हैं, उन् हें यूरोप के लोगों को दूर नहीं करना पडे़गा। शारीरिरक सुख-सुकिर्वोधाओं की सतत खोज और उनकी संख् या में तेजी से हो रही र्वोृजिद्ध ऐसा ही एक दो� है; और मैं साहसपूर्वो2क यह घो�णा करता हूँ किक जिजन सुख-सुकिर्वोधाओं के र्वोे गुलाम बनते जा रहे हैं उनके बोझ से यठिद उन् हें कुचल नहीं जाना है, तो यूरोपीय लोगों को अपना दृमिNकोण बदलना पडे़गा। संभर्वो है मेरा यह किन�् क�2 गलत हो, लेकिकन यह मैं किनश् चयपूर्वो2क जानता हूँ किक भारत के क्तिलए इस सुनहले मायामृग के पीछे दौड़ने का अथ2 आत् मनाश के क्तिसर्वोा और कुछ न होगा। हमें अपने हृदयों पर एक पाश् चात् य तत् त् र्वोरे्वोत् ता का यह बोधर्वोाक् य अंकिकत कर लेना चाकिहए - 'सदा जीर्वोन और उच् च चिच�तन'। आज तो यह किनणिZत है किक हमारे लाखों-करोड़ो लोगों के क्तिलए सुख-सुकिर्वोधाओं र्वोाला उच् च जीर्वोन संभर्वो नहीं है और हम मुट्ठीभर लोग, जो सामान् य जनता के क्तिलए चिच�तन करने का दार्वोा करते हैं, सुख-सुकिर्वोधाओं र्वोाले उच् च जीर्वोन की किनरथ2क खोज में उच् च चिच�तन को खोने की जोखिखम उFा रहे हैं।

मैं ऐसे संकिर्वोधान की रचना करर्वोाले का प्रयत्न करँूगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी और परार्वोलंबन से मुक्त कर दे और उसे आर्वोश्यकता हो तो, पाप करने तक का अमिधकार दे। मैं ऐसे भारत के क्तिलए कोक्तिशश करँूगा, जिजसमें

गरीब-से- गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे किक यह उनका देश है- जिजसके किनमा2ण में उनकी आर्वोाज का महत्त्र्वो है। मैं ऐसे भारत के क्तिलए कोक्तिशश करँूगा, जिजसमें ऊँचे और नीचे र्वोगk का भेद नहीं होगा और जिजसमें किर्वोकिर्वोध संप्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अणिभशाप के क्तिलए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रिस्त्रयों को र्वोही अमिधकार होंगे जो पुरु�ों को होंगे। चँूकिक शे� सारी दुकिनया के साथ हमारा

संबंध शांकित का होगा, यानी न तो हम किकसी का शो�ण करेंगे और न किकसी के द्वारा अपना शो�ण होने देंगे, इसक्तिलए हमारी सेना छोटी-से- छोटी होगी ऐसे सब किहतों का, जिजनका करोड़ो मूक लोगों के किहतों से कोई किर्वोरोध नहीं है, पूरा सम्मान किकया जाएगा, किफर र्वोे किहत देशी हों या किर्वोदेशी। अपने क्तिलए तो मैं यह भी कह सकता हूँ किक मैं देशी और किर्वोदेशी के फक2 से नफरत करता हँू। यह मैं मेरे सपनों का भारत। ... इससे णिभन्न किकसी चीज से मुझे संतो� नहीं

होगा।'

3 राष्ट्रवाद का सच्चा स्वरूप पीछे     आगे

मेरे क्तिलए देशपे्रम और मानर्वो-पे्रम में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही हैं। मैं देशपे्रमी हूँ, क् योंकिक मैं मानर्वो-पे्रमी हूँ। मेरा देशपे्रम र्वोज2नशील हैं। मैं भारत के किहत की सेर्वोा के क्तिलए इंग् लैंड या जम2नी का नुकसान नहीं करँूगा। जीर्वोन की मेरी योजना में साम्राज् यर्वोाद के क्तिलए कोई स् थान नहीं है। देशपे्रम की जीर्वोन-नीकित किकसी कुल या कबीले के अमिधपकित की जीर्वोन-नीकित से णिभन् न नहीं है। और यठिद कोई देशपे्रमी उतना ही उग्र मानर्वो-पे्रमी नहीं है, तो कहना चाकिहए किक उसके

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देशपे्रम में उतनी न् यूनता है। र्वोैयक्ति)क आचरण और राजनीकितक आचरण में कोई किर्वोरोध नहीं है; यदाचार का किनयम दोनों को लागू होता है।

जिजस तरह देशपे्रम का धम2 हमें आज यह क्तिसखाता है किक र्वो् यक्ति) को परिरर्वोार के क्तिलए, परिरर्वोार को ग्राम के क्तिलए, ग्राम को जनपद के क्तिलए और जनपद को प्रदेश के क्तिलए मरना सीखना चाकिहए, उसी तरह किकसी देश को स् र्वोतंत्र इसक्तिलए होना चाकिहए किक र्वोह आर्वोश् यकता होने पर संसार के कल् याण के क्तिलए अपना बक्तिलदान दे सके। इसक्तिलए रा�् ट्रर्वोाद की मेरी कल् पना यह है किक मेरा देश इसक्तिलए स् र्वोाधीन हो किक प्रयोजन उपस्थि^त होने पर सारी ही देश मानर्वो-जाकित की प्राणरक्षा के क्तिलए स् र्वोेच् छापूर्वो2क मृत् यु का आचिल�गन करे। उसमें जाकितदे्व� के क्तिलए कोई स् थान नहीं है। मेरी कामना है किक हमारा रा�् ट्रपे्रम ऐसा ही हो।

मैं भारत का उत् थान इसक्तिलए चाहता हूँ किक सारी दुकिनया उससे लाभ उFा सके। मैं यह नहीं चाहता किक भारत का उत् थान दूसरे देशों के नाश की नींर्वो पर हो।

यूरोप के पाँर्वोों में पड़ा हुआ अर्वोनत भारत मानर्वो-जाकित को कोई आशा नहीं दे सकता। हिक�तु जाग्रत और स् र्वोतंत्र भारत दद2 से कराहती हुई दुकिनया को शांकित और सद्भार्वो का संदेश अर्वोश् य देगा।

रा�् ट्रर्वोादी हुए किबना कोई अंतर-रा�् ट्रीयतार्वोादी नहीं हो सकता। अंतर-रा�् ट्रीयतार्वोाद तभी संभर्वो है जब रा�् ट्रर्वोाद क्तिसद्ध हो चुके-यानी जब किर्वोणिभन् न देशों के किनर्वोासी अपना संघटन कर लें और किहल-मिमलकर एकतापूर्वो2क काम करने की सामथ्2 य प्राप् त कर लें। रा�् ट्रर्वोाद में कोई बुराई नहीं हैा; बुराई तो उस संकुक्तिचतता, स् र्वोाथ2रृ्वोणिu और बकिह�् कार-र्वोृणिu में है, जो मौजूदा रा�् ट्रों के मानस में जहर की तरह मिमली हुई है। हर एक रा�् ट्र दूसरे की हाकिन करके अपना लाभ करना चाहता है और उसके नाश पर अपना किनमा2ण करना चाहता है। भारतीय रा�् ट्रर्वोाद ने एक नया रास् ता क्तिलया हैं। र्वोह अपना संघटन या अपने क्तिलए आत् म -प्रकाशन का पूरा अर्वोकाश किर्वोशाल मानर्वो-जाकित के लाभ के क्तिलए उसकी सेर्वोा के क्तिलए ही चाहता है।

भगर्वोान ने मुझे भारत में जन् म ठिदया और इस तरह मेरा भाग् य इस देश की प्रजा के भाग् य के साथ बाँध ठिदया है, इसक्तिलए यठिद मैं उसकी सेर्वोा न करँू तो मैं अपने किर्वोधाता के सामने अपराधी Fहरँूगा। यठिद मैं यह नहीं जानता किक उसकी सेर्वोा कैसे की जाए, तो मैं मानर्वो-जाकित की सेर्वोा करना सीख ही नहीं सकता और यठिद अपने देश की सेर्वोा करते हुए मैं दूसरे देशों को काई नुकसान नहीं पहुँचाता, तो मेरे पथभ2�् ट होने की कोई संभार्वोना नहीं है।

मेरा देशपे्रम कोई बकिह�् कारशील र्वोस् तु नहीं बल्किwक अकितशय र्वो् यापक र्वोस् तु है और मैं उस देशपे्रम को र्वोज्2 य मानता हूँ जो दूसरे रा�् ट्रों को तकलीफ देकर या उनका शो�ण करके अपने देश को उFाना चाहता है। देशपे्रम की मेरी कल् पना यह है किक र्वोह हमेशा, किबना किकसी अपर्वोाद के हर एक स्थि^कित में, मानर्वो-जाकित के किर्वोशालतम किहत के साथ सुसंगत होना चाकिहए। यठिद ऐसा न हो तो देशपे्रम की कोई कीमत नहीं इतना ही नहीं, मेरे धम2 और उस धम2 से ही प्रसूत मेरे देशपे्रम के दायरे में प्राणिणयों का समारे्वोश होता है। में न केर्वोल मनु�् य नाम से पहचाने जाने र्वोाले प्राणिणयों के साथ भ्रातृत् र्वो ओर एकात् मता क्तिसद्ध करना चाहता हूँ, बल्किwक समस् त प्राणिणयों के साथ-रेंगने र्वोाले साँप आठिद जैसे प्राणिणयों साथ भी-उसी एकात् मता का अनुभर्वो करना चाहता हूँ। कारण, हम सब उसी एक सृ�् टा की संतकित होने का दार्वोा करते हैं और इसक्तिलए सब प्राणी, उनका रूप कुछ भी हो, मूल में एक ही हैं।

हमारा रा�् ट्रर्वोाद दूसरे देशों के क्तिलए संकट का कारण नहीं हो सकता क् योंकिक जिजस तरह हम किकसी को अपना शो�ण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किकसी का शो�ण नहीं करेंगे। स् र्वोराज् य के द्वारा हम सारी मानर्वो-जाकित की सेर्वोा करेंगे।

सार्वो2जकिनक जीर्वोन के लगभग 50 र्वो�2 के अनुभर्वो के बाद आज मैं यह कह सकता हूँ किक अपने देश की दुकिनया की सेर्वोा से असंगत नहीं है - इस क्तिसद्धांत में मेरा किर्वोश्र्वोास बढ़ा ही है। यह एक उत्तम क्तिसद्धांत है। इस क्तिसद्धांत को स्

र्वोीकार करके ही दुकिनया की मौजूदा कठिFनाइयाँ आसान की जा सकती हैं और किर्वोणिभन्न राष्ट्रों में जो पारस्परिरक दे्व�भार्वो नजर आता है उसे रोका जा सकता है।

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4 भारतीय लोकतंत्र पीछे     आगे

सर्वो�च् च कोठिट की स् र्वोतंत्रता के साथ सर्वो�च् च कोठिट का अनुशासन और किर्वोनय होता है। अनुशासन और किर्वोनय से मिमलने र्वोाली स् र्वोतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता। संयमहीन स् र्वोच् छंदता संस् कारहीनता की द्योतक है; उससे र्वो् यक्ति) की अपनी और पड़ोक्तिसयों की भी हाकिन होती है।

कोई भी मनु�् य की बनाई हुई संस् था ऐसी नहीं है जिजसमें खतरा न हो। संस् था जिजतनी बड़ी होगी, उसके दुरुपयोग की संभार्वोनाए ँभी उतनी ही बड़ी होंगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस् था है, इसक्तिलए दसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है। लेकिकन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं, बल्किwक दुरुपयोग की संभार्वोना को कम-से-कम करना है।

जनता की राय के अनुसार चलने र्वोाला राज् य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यठिद र्वोह जनमत के खिखलाफ जाए तो न�् ट हो जाए। अनुशासन और किर्वोरे्वोकयुक् त जनतंत्र दुकिनया की सबसे संुदर र्वोस् तु है। लेकिकन राग-दे्व�, अज्ञान और अंध-किर्वोश् र्वोास आठिद दुगु2णों से ग्रस् त जनतंत्र अराजकता के गडे्ढ में किगरता है और अपना नाश खुद कर डालता है।

मैंने अक् सर यह कहा है किक अमुक किर्वोचार रखने र्वोाला कोई भी पक्ष यह दार्वोा नहीं कर सकता है। हम सबसे भूलें होती हैं और हमें अक् सर अपने किनण2यों परिरर्वोत2न करने पड़ते हैं। हमारे जैसा किर्वोशाल देश में ईमानदारी से किर्वोचार करने र्वोाले सभी पक्षों को स् थान होना चाकिहए। इसक्तिलए हमारा अपने प्रकित और दूसरों के प्रकित कम-से-कम यह कत्2 तर्वो् य तो है ही किक हम प्रकितपक्षी का दृमिNकोण समझने की कोक्तिशक करें। और यठिद हम उसे स् र्वोीकार न कर सकें तो भी जिजस तरह हम यह चाहेंगे किक र्वोह हमारे मत का आदर करे, उसी तरह हम भी उसके मत का आदर करें। यह चीज स् र्वोस् थ सार्वो2जकिनक जीर्वोन की और स् र्वोराज् य की योग् यता की अकिनर्वोाय2 कसौठिटयों में से एक है। यठिद हममें उदारता और सकिह�् णुता नहीं है, तो हम अपने भेद कभी मिमत्रतापूर्वो2क नहीं सुलझा सकें गे और फल यह होगा किक हमें तीसरे पक्ष को अपना पंच मानना पडे़गा, यानी किर्वोदेशी अधीनता स् र्वोीकार करनी पडे़गी।

जब राज् यसत् ता जनता के हाथ में आ जाती है, तब प्रजा की आजादी में होने र्वोाले हस् तक्षेप की मात्रा कम-से-कम हो जाती है। दूसरी शब् दों में, जो रा�् ट्र अपना काम राज् य के हस् तक्षेप के किबना ही शांकितपूर्वो2क और प्रभार्वोपूण2 ढँग से कर ठिदखाता है, उसे ही सच् चे अथk में लोकतंत्रात् मक कहा जा सकता है। जहाँ ऐसी स्थि^कित न हो र्वोहाँ सरकार का बाहरी रूप लोकतंत्रात् मक भले हो, परंतु र्वोह नाम के क्तिलए ही लोकतंत्रात् मक है।

लोकतंत्र और हिह�सा का मेल नहीं बैF सकता। जो राज् य आज नाम मात्र के क्तिलए लोकतंत्रात् मक हैं उन् हें तो स् प�् ट रूप से तानाशाही का हामी हो जाना चाकिहए, या अगर उन् हें सचमुच लोकतंत्रात् मक बनना है तो उन् हें साहस के साथ अहिह�सक बन जाना चाकिहए। यह कहना किबलकुल अकिर्वोचारपूण2 है किक अहिह�सा का पालन केर्वोल र्वो् यक्ति) ही कर सकते हैं, और रा�् ट्र - जो र्वो् यक्ति)यों से बनते हैं - हरकिगज नहीं।

प्रजातंत्र का सार ही यह है किक उसमें हर एक र्वो् यक्ति) उन किर्वोकिर्वोध स् र्वोाथk का प्रकितकिनमिधत् र्वो करता है जिजनसे रा�् ट्र बनता है। यह सच है किक इसका यह मतलब नहीं किक किर्वोशे� स् र्वोाथk के किर्वोशे� प्रकितकितमिधत् र्वो करने से रोक ठिदया जाए, लेकिकन ऐसा प्रकितकिनमिधत् र्वो उसकी कसौटी नहीं है। यह उसकी अपूण2ता की एक किनशानी है।

सच् ची लोकसत् ता या जनता का स् र्वोराज् य कभी भी असत् यमय या हिह�सक साधनों से नहीं आ सकता। कारण स् प�् ट और सीधा है। यठिद असत् यमय और हिह�सक उपायों का प्रयोग किकया गया, तो उसका स् र्वोाभाकिर्वोक परिरणाम यह होगा किक सारा किर्वोरोध या तो किर्वोरोमिधयों को दबाकर या उनका नाश करके खतम कर ठिदया जाएगा। ऐसी स्थि^कित में र्वोैयक्ति)क स् र्वोतंत्रता की रक्षा नहीं हो सकती। र्वोैयक्ति)क स् र्वोतंत्रता को प्रगट होने का पूरा अर्वोकाश केर्वोल किर्वोशुद्ध अहिह�सा पर आधरिरत शासन में ही मिमल सकता है।

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आजाद प्रजातंकित्रक भारत आग्रमण के खिखलाफ पारस् परिरक रक्षण और आर्थिथ�क सहकार के क्तिलए दूसरे आजाद देशों के साथ खुशी से सहयोग करेगा। र्वोह आजादी और जनतंत्र पर आधारिरत ऐसी किर्वोश् र्वो-र्वो् यर्वोस् था की स् थापना के क्तिलए काम करेगा, जो मानर्वो-जाकित की प्रगकित और किर्वोकास के क्तिलए दुकिनया के समूचे ज्ञान और उसकी समूची साधन-संपकित का उपयोग करेगी।

प्रजातंत्र का अथ2 मैं यह समझा हूँ किक इस तंत्र में नीचे-से-नीचे और ऊँचे-से-ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अर्वोसर मिमलना चाकिहए। लेकिकन क्तिसर्वोा अहिह�सा के ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। संसार में आज कोई भी देश ऐसा नहीं है जहाँ कमजोर के हक की रक्षा बतौर फज2 के होता हो। अगर गरीबों के क्तिलए कुछ ठिदया भी जाता है, तो र्वोह मेहरबानी के तौर पर किकया जाता है।

पणिZम का आज प्रजातंत्र जरा हलके रंग का नाजी और फाक्तिसस् ट तंत्र ही है। ज ्यादा-से-ज ्यादा प्रजातंत्र साम्राज् यर्वोाद की नाजी और फाक्तिसस् ट चाल को ढँकने के क्तिलए एक आडंबर है। ...हिह�दुस् तान सच् च प्रजातंत्र गढ़ने का प्रयत् न कर रहा है, अथा2त ऐसा प्रजातंत्र जिजसमें हिह�सा के क्तिलए कोई स् थान न होगा। हमारा हक्तिथयार सत् याग्रह है। उसका र्वो् यक् त स् र्वोरूप है चरखा, ग्रामोद्योग, उद्योग के जरिरए प्राथमिमक क्तिशक्षा-प्राणाली, अस् पृश् यता-किनर्वोारण, मद्य-किन�ेध, अहिह�सक तरीक से मजदूरों का संगFन, जैसा किक अहमदाबाद में हो रहा है, और सांप्रदामियक ऐक् य। इस काय2क्रम के क्तिलए जनता को सामुदामियक रूप में प्रयत् न करना पड़ता है, और सामुदामियक रूप से जनता को क्तिशक्षण भी मिमल जाता है। इन प्रर्वोृणिuयों को चलाने के क्तिलए हमारे पास बडे़-बडे़ संघ हैं, पर काय2कत्2 ता पूरी तरह स् र्वोेच् छा से इन कामों में आए हैं। उनके पीछे अगर कोई शक्ति) है, तो र्वोह उनकी अत्यंत दीन-दुब2लों की सेर्वोा-भार्वोना ही है।

जन् मजात लोकतंत्रर्वोादी र्वोह होता है, जो जन् म से ही अनुशासन का पालन करने र्वोाला हो। लोकतंत्र स् र्वोाभाकिर्वोक रूप में उसी को प्राप् त होता है, जो साधारण रूप में अपने को मानर्वोी तथा दैर्वोी सभी किनयमों का स् र्वोच् छापूर्वो2क पालन करने का अभ् यस् त बना ले। ...जो लोग लोकतंत्र के इच् छुक हैं उन् हें चाकिहए किक पहले र्वोे लोकतंत्र की इस कसौटी पर अपने को परख लें। इसके अलार्वोा, लोकतंत्रर्वोादी को किन:स् र्वोाथ2 भी होना चाकिहए। उसे अपनी या अपने दल की दृमिN से नहीं बल्किwक एकमात्र लोकतंत्र की ही दृमिN से सब-कुछ सोचना चाकिहए। तभी मैं र्वोह सकिर्वोनय अर्वोज्ञा का अमिधकारी हो सकता है। ...र्वो् यक्ति)गत स् र्वोतंत्रता की मैं कदर करता हूँ, लेकिकन आपको यह हरकिगज नहीं भूलना चाकिहए किक मनु�् य मूलत: एक सामाजिजक प्राणी ही है। सामाजिजक प्रगकित की आर्वोश् यकताओं के अनुसार अपने र्वो् यक्ति)त् र्वो को ढालना सीखकर ही र्वोह र्वोत2मन स्थि^कित तक पहुँचा है। अबाध र्वो् यक्ति)र्वोाद र्वोन् य पशुओं का किनयम है। हमें र्वो् यक्ति)गत स् र्वोतंत्रता और सामाजिजक संयम के बीच समन् र्वोय करना सीखना है। समस् त समाज के किहत के खाकितर सामाजिजक संयम के आगे स् र्वोच् छापूर्वो2क क्तिसर झुकाने से र्वो् यक्ति) और समाज, जिजसका किक र्वोह एक सदस् य है, दोनों का ही कल् याण होता है।

जो र्वो् यक्ति) अपने कत2र््वो य का उक्तिचत पालन करता है, उसे अमिधकार अपने-आप मिमल जाते हैं। सच तो यह है किक एकमात्र अपने कत2र््वो य के पालन का अमिधकार ही ऐसा अमिधकार है, जिजसके क्तिलए ही मनु�् य को जीना चाकिहए और मरना चाकिहए। उसमें सब उक्तिचत अमिधकारों का समारे्वोश हो जाता है। बाकी सब तो अनमिधकार अपहरण जैसा और उसमें हिह�सा के बीज क्तिछपे रहते है।

लोकशाही में हर आदमी को समाज की इच् छा यानी राज् य की इच् छा के मुताकिबक चलना होता है और उसी मुताकिबक अपनी इच् छाओं की हद बाँधनी होती है। स् टेट लोकशाही के द्वारा और लोकशाही के क्तिलए राज् य चलाती है। अगर हर आदमी कानून को अपने हाथ में ले तो स् टेट नहीं रह जाएगी; अराजकता हो जाएगी, यानी सा माजिजक किनयम या स् टेट की हस् ती मिमट जाएगी। यह आजादी को मिमटा देने र्वोाला रास् ता है। इसक्तिलए आपकी अपने गुस् से पर काबू पाना चाकिहए और राज् य को न् याय पाने का मौका देना चाकिहए।

प्रजातंत्र में लोगों को चाकिहए किक र्वोह सरकार की कोई गलती देखें, तो उसकी तरफ उसका ध् यान खींचे और संतु�् ट हो जाए।ँ अगर र्वोे चाहें तो अपनी सरकार को हटा सकते हैं, मगर उसके खिखलाफ आंदोलन करके उसके कामों में बाधा न डालें। हमारी सरकार जबरदस् त जल सेना और थल सेना रखने र्वोाली कोई किर्वोदेशी सरकार तो है नहीं। उसका बल तो जनता ही है।

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सच् ची लोकशाही कें द्र में बैFे हुए बीस आदमी नहीं चला सकते। र्वोह तो नीचे से हर एक गाँर्वो के लोगों द्वारा चलाई जानी चाकिहए।

भीड़ का राज् य

मैं खुद तो सरकार की नाराजी की उतनी परर्वोाह नहीं करता जिजतनी भीड़ की नाराजी की। भीड़ की मनमानी रा�् ट्रीय बीमारी का लक्ष् ण है और इसक्तिलए सरकार की नाराजी की - जो किक अल् पकाय संघ तक ही सीमिमत होती है - तुलना में उससे किनपटना ज ्यादा मुल्किश्कल है। ऐसी किकसी सरकार को, जिजसने अपने को शासन के क्तिलए अयोग् य क्तिसद्ध कर ठिदया हो, अपदस् थ करना आसान है, लेकिकन किकसी भीड़ में शामिमल अनजाने आदमिमयों का पागलपन दूर करना ज ्यादा कठिFन है।

भीड़ को अनुशासन क्तिसखाने से ज ्यादा आसान और कुछ नहीं है। कारण सीधा है। भीड़ कोई काम बुजिद्धपूर्वो2क नहीं करती, उसकी कोई पहले से सोची हुई योजना नहीं होती। भीड़ के लोग जो कुछ करते हैं सो आरे्वोश में करते हैं। अपनी गलती के क्तिलए पश् चाuाप भी र्वोे जल् दी करते हैं। मैं असहयोग का उपयोग लोकशाही का किर्वोकास करने के क्तिलए कर रहा हूँ।

हमें इन हजारों-लाखों लोगों को, जिजनका हृदय सोने का हैं, जिजन् हें देश से पे्रम है, जो सीखना चाहते हैं और यह इच् छा रखते हैं किक कोई उनका नेतृत् र्वो करें, सही तालीम देनी चाकिहए। केर्वोल थोडे़ से बुजिद्धमान और किन�् Fार्वोान काय2कत्2 ताओं की जरूरत है। र्वोे मिमल जाए ँतो सारे रा�् ट्र को बुजिद्धपूर्वो2क काम करने के क्तिलए संघठिटत किकया जा सकता है तथा भीड़ की अराजकता की जगह सही प्रजातंत्र का किर्वोकास किकया जा सकता है।

सरकार की ओर से या प्रजा की ओर से आतंकर्वोाद चलाया जा रहा हो, तब लोकशाही की भार्वोना की स् थापना करना असंभर्वो है। और कुछ अंशों में सरकारी आतंकर्वोाद की तुलना में प्रजाकीय आतंकर्वोाद लोकशाही की भार्वोना के प्रसार का ज ्यादा बड़ा शत्रु है। कारण, सरकारी आतंकर्वोाद से लोकशाही की भार्वोना को बल मिमलता है, जब किक प्रजाकीय आतंकर्वोाद तो उसका हनन करता है।

बहुसंख् यक दल और अल् पसंख् य दल

अगर हम लोकशाही की सच् ची भार्वोना का किर्वोकास करना चाहते हैं, तो हम असकिह�् णु नहीं हो सकते। असकिह�् णुता यह बताती है किक अपने ध् येय की सचाई में हमारा पूरा किर्वोश् र्वोास नहीं है।

हम अपने क्तिलए यठिद स् र्वोतंत्रतापूर्वो2क अपना मत प्रकट करने और काय2 करने के अमिधकार का दार्वोा करते हैं, तो यही अमिधकार हमें दूसरों को भी देना चाकिहए। बहुसंख् यक दल का शासन, जब र्वोह लोगों के साथ जबरदस् ती करने लगता है तब, उतना ही असह्य हो उFता है जिजतना किकसी अल् पसंख् यक नौकरशाही का। हमें अल् पसंख् यकों को अपने पक्ष में धीरज के साथ, समझा-बुझाकर और दलील करने ही लाने की कोक्तिशश करनी चाकिहए।

बहुसंख् यक दल का शासन अमुक हद तक जरूर माना जाना चाकिहए। यानी, ब् यौरे की बातों में हमें बहुसंख् यक दल का किनण2य स् र्वोीकार कर लेना चाकिहए। लेकिकन उसके किनण2य कुछ भी क् यों न हों, उन् हें हमेशा स् र्वोीकार कर लेना गुलामी का क्तिचह्न है। लोकशाही किकसी ऐसी स्थि^कित का नाम नहीं है जिजसमें लोग भेड़ों की तरह र्वो् यर्वोहार करें। लोकशाही में र्वो् यक्ति) के मत-स् र्वोातंत्र्य और काय2-स् र्वोतंत्र्य की रक्षा अत् यंत सार्वोधानी से की जाती है, और की जानी चाकिहए। इसक्तिलए मैं यह किर्वोश् र्वोास करता हूँ किक अल् पसंख् यकों को बहुसंख् यकों से अलग ढँग से चलने का पूरा अमिधकार है।

अगर व्यक्ति) का महत्त्र्वो न रहे, तो समाज में भी क्या सत्त्र्वो रह जाएगा? र्वोैयक्ति)क स्र्वोतंत्रता ही मनुष्य को समाज की सेर्वोा के क्तिलए स्रे्वोच्छापूर्वो2क अपना सब- कुछ अप2ण करने की प्रेरणा दे सकती है। यठिद उससे यह स्र्वोतंत्रता छीन ली

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जाए, तो र्वोह एक जड़ यंत्र जैसा हो जाता है और समाज की बरबादी होती है। र्वोैयक्ति)क स्र्वोतंत्रता को अस्र्वोीकार करके कोई सभ्य समाज नहीं बनाया जा सकता।

5 भारत और समाजवाद पीछे     आगे

पँूजीपकितयों द्वारा पँूजी के दुरुपयोग की बात लोगों के ध् यान में आई, तब समाजर्वोाद का जन् म हुआ यह ख् याल गलत है। जैसा किक मैंने पहले भी प्रकितपाठिदत किकया है समाजर्वोाद, और उसी तरह साम् यर्वोाद भी, ईशोपकिन�द ्के पहले श् लोक में स् प�् ट रूप से मिमल जाता है। हाँ, यह बात सही है किक जब सुधारकों ने हृदय-परिरर्वोत2न की किक्रया द्वारा आदश2 क्तिसद्ध करने की प्रणाली में किर्वोश् र्वोास खो ठिदया, तब जिजसे र्वोैज्ञाकिनक समाजर्वोाद कहा जाता है उसकी पद्धकित ढँूढ़ी गई। मैं उसी समस् या को हल करने में लगा हुआ हूँ, जो र्वोैज्ञाकिनक समाजर्वोाठिदयों के सामने है। अलबत् ता, काम का मेरा ढँग शुद्ध अहिह�सा के अनुसार प्रयत् न करने का है। यह हो सकता है किक मैं इस क्तिसद्धांत का जिजसमें मेरा किर्वोश् र्वोास प्रकितकिनठिद बढ़ रहा है, अच् छा र्वो् याख् याता न होऊँ। अखिखल भारत चरखा-संघ और अखिखल भारत ग्रामोद्योग-संघ ऐसी सं^ाए ँहैं, जिजनके द्वारा अहिह�सा की काय2-पद्धकित का अखिखल भारतीय पैमाने पर प्रयोग किक जा रहा है। र्वोे कांग्रेस के द्वारा बनाई गई ऐसी स् र्वोतंत्र संस् थाए ँहैं, जिजनकाउदे्दश् य कांग्रेस जैसी लोकतांकित्रक संस् था की नीकित में हमेशा जिजन परिरर्वोत2नों के होने की संभार्वोना है उन परिरार्वोत2नों से बंधे किबना मुझे अपने प्रयोग अपनी इच् छा के अनुसार करते रहने का मौका देना है।

सच् चा समाजर्वोाद तो हमें अपने पूर्वो2जों से प्राप् त हुआ हैं, जो हमें यह क्तिसखा गए हैं किक 'सब भूमिम गोपाल की है; इसमें कहीं मेरी और तेरी की सीमाए ँनहीं हैं। ये सीमाए ँतो आदमिमयों ने बनाई हैं और इसक्तिलए र्वोे इन् हें तोड़ भी सकते हैं। गोपाल यानी कृ�् ण यानी भगर्वोान। आधुकिनक भा�ा में गोपाल यानी राज् य यानी जनता। आज जमीन जनता की नहीं है, यह बात सही है। पर इसमें दो� उस क्तिशक्षा का नहीं है। दो� तो हमारा है जिजन् होंने उस क्तिशक्षा के अनुसार आचरण नहीं किकया। मुझे इसमें कोई संदेश नहीं किक इस आदश2 की जिजस हद तक रूस या और कोई देश पहुँच सकता है उसी हद तक हम भी पहुँच सकते हैं, और र्वोह भी हिह�सा का आश्रय क्तिलए किबना। पँूजीर्वोालों से उनकी पँूजी हिह�सापूर्वो2क छीनी जाए, इसके बजाय यठिद चरखा और उस के सारे फक्तिलताथ2 स् र्वोीकार कर क्तिलए जाए ँतो र्वोही काम हो सकता है। चरखा हिह�सक अपहरण की जगह ले सकने र्वोाला अत् यंत प्रभार्वोकारी साधन है। जमीन और दूसरी सारी संपणिu उसकी है, जो उसके क्तिलए काम करे। दु:ख इस बात का है किक किकसान और मजदूर या तो इस सरल सत् य को जानते नहीं हैं, या यों कहो किक उन् हें इस जानने नहीं ठिदया गया है।

मैं सदा से यहा मानता आया हूँ किक नीचे-से-नीचे और कमजोर-से-कमजोर के प्रकित हम जोर-जबरदस् ती से सामाजिजक न् याय का पालन नहीं कर सकते। मैं यह भी मानता आया हूँ किक पकितत-से-पकितत लोगों को भी मुनाक्तिसब तालीम दी जाए, तो अहिह�सक साधनों द्वारा सब प्रकारके अत् याचारों का प्रकितकार किकया जा सकता है। अहिह�सक असहयोंग ही उसका मुख् य साधन है। कभी-कभी असहयोग भी उतना ही कत2र््वो य-रूप हो जाता है जिजतना किक सहयोगा। अपनी किर्वोफलता या गुलामी में खुद सहायक होने के क्तिलए कोई बंधा हुआ नहीं है। जो स् र्वोतंत्रता दूसरों के प्रयत् नों द्वारा-किफर र्वोे किकतने ही उदार क् यों न हों-मिमलती हैं, र्वोह उन प्रयत् नों के न रहने पर कायम नहीं रखी जा सकती। दूसरे शब् दों में, ऐसी स् र्वोतंत्रता सच् ची स् र्वोतंत्रता नहीं है। लेकिकन जब पकितत-से-पकित त भी अहिह�सक असहयोग द्वारा अपनी स् र्वोतंत्रता प्राप् त करने की कला सीख लेते है, तो र्वोे उसके प्रकाश का अनुभर्वो किकये किबना नहीं रह सकते।

मेरा यह पक् का किर्वोश् र्वोास है किक जिजस चीज को हिह�सा कभी नहीं कर सकती, र्वोहीं अहिह�सात् मक असहयोग द्वारा क्तिसद्ध की जा सकती है। और अंत में जाकर उससे अत् याचारिरयों का हृदय-परिरर्वोत2न भी हो सकता है। हमने हिह�दुस् तान में अहिह�सा को उसके अनुरूप मौका अभी तक ठिदया ही नहीं। किफर भी आश् चय2 है किक अपनी इस मिमलार्वोटी द्वारा भी हम इतनी शक्ति) प्राप् त कर सके हैं। प्रकितमि�त जीर्वोन के क्तिलए जिजतनी जमीन की आर्वोश् यकता है, उससे अमिधक किकसी आदमी के पास नहीं होनी चाकिहए। ऐसा कौन है जो इस हकीकत से इनकार कर सके किक आम जनता की घोर गरीबी का कारण आज यही है उसके पास उसकी अपनी कही जाने र्वोाली कोई जमीन नहीं है?

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लेकिकन यह याद रखना चाकिहए किक इस तरह के सुधार तुरंत नहीं किकए जा सकते। अगर ये सुधार अहिह�सात् मक तरीकों से करने हैं, तो जमींदारों और गैर-जमींदारों को यह क्तिसखाना और समझाना होगा किक उनसे उनकी मरजी के खिखलाफ जबरन कोई काम नहीं ले सकता, और यह किक क�् ट-सहने या अंकिहसा की कला को सीखकर र्वोे अपनी स् र्वोतंत्रता प्राप् त कर सकते है। अगर इस लक्ष् य को हमें प्राप् त करना है, तो ऊपर मैंने जिजस क्तिशक्षा का जिजक्र किकया है उसका आरंभ अभी से हो जाना चाकिहए। इसके क्तिलए पहली जरूरत ऐसा र्वोातार्वोरण तैयार करने की है, जिजसमें पारस् परिरक आदर और सद्भार्वो का सुमेल हो। उस अर्वोस् था में र्वोगk और आम जनता के बीच किकसी प्रकार का हिह�सात् मक संघ�2 हो ही नहीं सकता।

समाजवादी कौन है?

समाजर्वोाद एक संुदर शब् द है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, समाजर्वोाद में समाज के सारे सदस् य बराबर होते हैं, न कोई नीचा और न कोई ऊँचा। किकसी आदश2 के शरीर में क्तिसर इसक्तिलए ऊँचा नहीं है किक र्वोह सबसे ऊपर है और पाँर्वो के तलुरे्वो इसक्तिलए नीचे नहीं हैं किक र्वोे जमीन को छूते हैं। जिजस तर मनु�् य के शरीर के सारे अंग बराबर हैं, उसी तरह समाजरूपी शरीर के सारे अंग भी बराबर है। यही समाजर्वोाद है।

इस र्वोाद में राजा और प्रजा, धनी और गरीब, माक्तिलक और मजदूर सब बराबर हैं। इस तरह समाजर्वोाद यानी अदै्वतर्वोाद। उसमें दै्वत या भेदभार्वो की गंुजाइश ही नहीं है।

सारी दुकिनया के समाज पर नजर डालें तो हम देखेंगे किक हर जगह दै्वत-ही-दै्वत है। एकता या अदै्वत कहीं नाम को भी नहीं ठिदखाई देता। र्वोह आदमी ऊँचा है, र्वोह आदमी नीचा है। र्वोह हिह�दू है, र्वोह मुसलमान है, तीसरा ईसाई है, चौथा पारसी है, पाँचर्वोाँ क्तिसक् ख है, छFा यहूदी है। इनमें भी बहुत सी उप-जाकितयाँ हैं। मेरे अदै्वतर्वोाद में ये सब लोग एक ही जाते हैं; एकता में समा जाते है।

इस र्वोाद तक पहुँचने के क्तिलए हम एक-दूसरे की तरफ ताकते न बैFें । जब तक सारे लोग समाजर्वोादी न बन जाए ँतब तक हम कोई हलचल न करें, अपने जीर्वोन में कोई फेरफर न करके हम भा�ण देते रहें, पार्टिट�याँ बनाते रहें और बाज पक्षी की तरह जहाँ क्तिशकार मिमल जाए र्वोहाँ उस पर टूट पड़ें-यह समाजर्वोाद हरकिगज नहीं हे। समाजर्वोाद जैसी शानदार चीज झड़प मारने से हमसे दूर ही जाने र्वोाली है।

समाजर्वोाद की शुरुआत पहले समाजर्वोादी से होती है। अगर एक भी ऐसा समाजर्वोादी हो तो उस पर क्तिसफर बढ़ाये जा सकते हैं। पहले क्तिसफर से उसकी कीमत दस गुना बढ़ती जाएगी। लेकिकन अगर पहला क्तिसफर ही हो, दूसरे शब् दों में अगर कोई आरंभ ही न करे, तो उसके आगे किकतने ही क्तिसफर क् यों न बढ़ाये जाए ँउनकी कीमत क्तिसफर ही रहेगी। क्तिसफरों को क्तिलखने में मेहनत और कागज की बरबादी ही होगी।

यह समाजर्वोाद बड़ी शुद्ध चीज है। इसक्तिलए इसे पाने के साधन भी शुद्ध ही होने चाकिहए। गंदे साधनों से मिमलने र्वोाली चीज भी गंदी ही होगी। इसक्तिलए राजा को मारकर राजा और प्रजा एक से नहीं बन सकें गे। माक्तिलक का क्तिसर काटकर मजदूर माक्तिलक नहीं हो सकें गे। यही बात सब पर लागू की जा सकती है।

कोई असत् य से सत् य को नहीं पा सकता। सत् य की तो जोड़ी है न ? ᣛ हरकिगज नहीं। सत् य में अहिह�सा क्तिछपी हुई है और अहिह�सा में सत् य। इसक्तिलए मैंने कहा है किक सत् य और अहिह�सा एक ही क्तिसक् के के दो रूप हैं। दोनों की कीमत एक ही है। केर्वोल पढ़ने में की फक2 है; एक तरफ अहिह�सा है, दूसरी तरफ सत् य। संपूण2 पकिर्वोत्रता के किबना अहिह�सा और सत् य किनभ ही नहीं सकते। शरीर या मन की अपकिर्वोत्रता को क्तिछपाने से असत् य और हिह�सा ही पैदा होगी।

इसक्तिलए केर्वोल सत्यर्वोादी, अहिह�सक और पकिर्वोत्र समाजर्वोादी ही दुकिनया में या हिह�दुस्तान में समाजर्वोाद फैला सकता है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, दुकिनया में ऐसा कोई भी देश नहीं है जो पूरी तरह समाजर्वोादी हो। मेरे बताए हुए साधनों के किबना ऐसा समाज कायम करना असंभर्वो है।

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6 भारत और साम्यावाद पीछे     आगे

मुझे स् र्वोीकार करना चाकिहए किक बोलशेकिर्वोज् म शब् द का अथ2 मैं अभी तक पूरा-पूरा नहीं समझा हूँ। मैं इतना ही जानता हूँ किक उसका उदे्दश् य किनजी संपकित की संस् था को मिमटाना है। यह तो अपरिरग्रह के नैकितक आदश2 को अथ2 के के्षत्र में प्रयुक् त करना हुआ; और यठिद लोग इस आदश2 को स् र्वोेच् छा से स् र्वोीकार कर लें, तो इससे अच् छा कुछ हो ही नहीं सक ता। लेकिकन बोलशेकिर्वोज ्म के बारे में मुझे जो कुछ जानने को मिमला है, उससे ऐसा प्रतीत होता है किक र्वोह न केर्वोल हिह�सा के प्रयोग का समथ2न करता है, बल्किwक किनजी संपणिu के अपहरण के क्तिलए और उसे राज् य के स् र्वोामिमत् र्वो के अधीन बनाए रखने के क्तिलए हिह�सा के प्रयोग की खुली छूट देता है। और यठिद ऐसा है तो मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं किक बोलशेकिर्वोक शासन अपने मौजूदा रूप में ज ्यादा ठिदन तक नहीं ठिटक सकता। कारण, मेरा दृढ़ किर्वोश् र्वोास है किक हिह�सा की नींर्वो पर किकसी भी स् थायी रचना का किनमा2ण नहीं हो सकता। लेकिकन, र्वोह जो भी हो, इसमें कोई संदेश नहीं किक बोलशेकिर्वोक आदश2 के पीछे असंख् य पुरु�ों और स्त्रिस्त्रयों के - जिजन् होंने उसकी क्तिसद्धी के क्तिलए अपना सर्वो2स् र्वो अप2ण कर ठिदया है - शुद्धतम त् याग का बल है, कभी र्वो् यथ2 नहीं जा सकता। उनके त् याग का उज् ज ्र्वोल उदाहरण क्तिचरकाल तक जीकिर्वोत रहेगा और समय ज ्यों-ज ्यों बीतेगा त् यों-त् यों र्वोह इस आदश2 को अमिधकामिधक शुजिद्ध और र्वोेग प्रदान करता रहेगा।

समाजर्वोाद और साम् यर्वोाद आठिद पणिZम के क्तिसद्धांत जिजन किर्वोचारों पर अधारिरत हैं र्वोे हमारे तत् संबंधी किर्वोचारों से बुकिनयादी तौर पर णिभन् न हैं। ऐसा एक किर्वोचार उनका यह किर्वोश् र्वोास है किक मनु�् य-स् र्वोभार्वो में मूलगामी स् र्वोाथ2-भार्वोना है। मैं इस किर्वोचार को स् र्वोीकार नहीं करता; क् योंकिक मैं जानता हूँ किक मनु�् य और पशु में यह बुकिनयादी फक2 है किक मनु�् य अपनी अंतर्षिह�त आत् मा की पुकार का उत् तर दे सकता है, उन किर्वोकारों के ऊपर उF सकता है जो उसमें और पशुओं में सामान् य रूप से पाए जाते हैं और इसक्तिलए र्वोह स् र्वोाथ2-भार्वोना और हिह�सा के भी ऊपर उF सकता है। क् योंकिक स् र्वोाथ2-भार्वोना और हिह�सा पशु-स् र्वोभार्वो के अंग हैं, मनु�् य में अंतर्षिह�त उसकी अमर आत् मा के नहीं। यह हिह�दू धम2 का एक बुकिनयादी किर्वोचार है और इस सत् य की शोध के पीछे किकतने ही तपल्किस्र्वोयों की अनेक र्वो�k की तपस् या और साधना है। यही कारण हैं किक हमारे यहाँ ऐसे संत और महात् मा तो हुए हैं, जिजन् होंने आत् मा के गूढ़ रहस् यों की शोध में अपना शरीर मिघसा है और अपने प्राण ठिदए हैं, परंतु पणिZम की तरह हमारे यहाँ ऐसे लोग नहीं हुए, जिजन् होंने पृथ ्र्वोी के सुदूरतम कोनों या ऊँची चोठिटयों की खोज में अपने प्राणों की बक्तिलदान किकया हो। इसक्तिलए हमारे समाजर्वोाद या साम् यर्वोाद की रचना अहिह�सा के आधार पर और मजदूरों तथा पँूजीपकितयों या जमींदारों तथा किकसानों के मीFे सहयोग के आधार पर होनी चाकिहए।

साम् यर्वोाद के अथ2 की छानबीन की जाए तो अंत में हम इसी किनश् चय पर पहुँचते हैं किक उसका मतलब है-र्वोग2हीन समाज। यह बेशक उत् तम आदश2 है और उसके क्तिलए अर्वोश् य कोक्तिशश होनी चाकिहए। लेकिकन जब इस आदश2 को हाक्तिसल करने के क्तिलए र्वोह हिह�सा का प्रयोग करने की बात करने लगता है, तब मेरा रास् ता उससे अलग हो जाता है। हम सब जन् म से समान ही हैं, लेकिकन हम हमेशा से भगर्वोान की इस इच् छा की अर्वोज्ञा करते आए हैं। असमानता की या ऊँच-नीच की भार्वोना एक बुराई है, हिक�तु मैं इस बुराई को मनु�् य के मन से, उसे तलर्वोार ठिदखाकर, किनकाल भगाने में किर्वोश् र्वोास नहीं करता। मनु�् य के मन की शुजिद्ध के क्तिलए यह कोई कारगर साधन नहीं।

रूस का समाजर्वोाद, यानी जनता पर जबरदस् ती लादा जाने र्वोाल साम् यर्वोाद, भारत को रुचेगा नहीं; भारत की प्रकृकित के साथ उसका मेल नहीं बैF सकता। हाँ, यठिद साम् यर्वोाद किबना किकसी हिह�सा के आए तो हम उसका स् र्वोागत करेंगे। क् योंकिक त ब कोई मनु�् य किकसी भी तरह की संपणिu जनता के प्रकितकिनमिध की तरह और जनता के किहत के क्तिलए ही रखेगा; अन् यथा नहीं। करोड़पकित के पास उसके करोड़ रहेंगे तो सही, लेकिकन र्वोह उन् हें अपने पास धरोहर के रूप में जनता के किहत के क्तिलए ही रखेगा और सर्वो2-सामान् य प्रयोजन के क्तिलए आर्वोश् यकता होने पर इस संपणिu को राज् य अपने अमिधकार में ले सकेगा।

साम् यर्वोाठिदयों और समाजर्वोाठिदयों का कहना है किक आज र्वोे आर्थिथ�क समानता को जन् म देने के क्तिलए कुछ नहीं कर सकते। र्वोे उसके क्तिलए प्रचार भर कर सकते हैं। इसके क्तिलए लोगों में दे्व� या र्वोैर पैदा करने और उसे बढ़ाने में उनका

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किर्वोश् र्वोास है। उनका कहना है किक राज् यसत् ता पाने पर र्वोे लोगों से समानता के क्तिसद्धांत पर अमल करर्वोाएगँे। मेरी योजना के अनुसार राज् य प्रजा की इच् छा को पूरा करेगा, न किक लोगों को हुक् म देगा या अपनी आज्ञा जबरन उन पर लादेगा। मैं घृणा से नहीं परंतु पे्रम की शक्ति) से लोगों को अपनी बात समझाऊँगा और अहिह�सा के द्वारा आर्थिथ�क समानता पैदा करँूगा। मैं सारे समाज को अपने मत का बनाने तक रुकँूगा नहीं, बल्किwक अपने पर ही यह प्रयोग शुरू कर दँूगा। इसमें जरा भी शक नहीं किक अगर मैं 50 मोटरों का तो क् या , 10 बीघा जमीन का भी माक्तिलक हूँ, तो अपनी कल् पना की आर्थिथ�क समानता को जन् म नहीं दे सकता। उसके क्तिलए मुझे गरीब बन जाना होगा। यही मैं किपछले 50 सालों से या उससे भी ज ्यादा र्वोक् त से करता आया हूँ।

इसक्तिलए मैं पक् का कम् युकिनस् ट होने का दार्वोा करता हूँ। अगरचे मैं धनर्वोानों द्वारा दी गई मोटरों या दूसरे सुभीतों से फायदा उFाता हूँ मगर मैं उनके र्वोश में नहीं हूँ। अगर आम जनता के किहतों का र्वोैसा तकाजा हुआ, तो बात की बात में मैं उनको अपने से दूर हटा सकता हूँ।

हममें किर्वोदेशों के दान के बजाय हमारी धरती जो कुछ पैदा कर सकती हो उस पर ही अपना किर्वोर्वोा2ह कर सकने की योग्यता और साहस होना चाकिहए। अन्यथा हम एक स्र्वोतंत्र देश की तरह रहने के हकदार न होंगे। यही बात किर्वोदेशी

किर्वोचारधाराओं के क्तिलए भी लागू होती है। मैं उन्हें उसी हद तक स्र्वोीकार करँूगा जिजस हद तक मैं उन्हें हजम कर सकता हूँ और उनमें परिरस्थि^कितयों के अनुरूप फक2 कर सकता हूँ। लेकिकन मैं उनमें बह जाने से इनकार करँूगा।

7 उद्योगवाद का अभिभशाप पीछे     आगे

दुकिनया में ऐसे किर्वोरे्वोकी पुरु�ों की संख् या लगातार बढ़ रही है, जो इस सभ् यता को-जिजसके एक छोर पर तो भौकितक समृजिद्ध की कभी तृप् त न होने र्वोाली आकांक्षा है और दूसरे छोर पर उसके फलस् र्वोरूप पैदा होने र्वोाला युद्ध है-अकिर्वोश् र्वोास की किनगाह से देखते हैं। लेकिकन यह सभ् यता अच् छी हो या बुरी, भारत का पणिZम जैसा उद्योगीकरण करने की क् या जरूरत है? पणिZमी सभ् यता शहरी सभ् यता है। इंग्लैंड और इटली जैसे छोटे देश अपनी र्वो् यर्वोस् था ओं का शहरीकरण कर सकते हैं। अमेरिरका बड़ा देश है, हिक�तु उसकी आबादी बहुत किर्वोरल है। इसक्तिलए उसे भी शायद र्वोैसा ही करना पडे़गा। लेकिकन कोई भी आदमी यठिद सोचेगा तो यह मानेगा किक भारत जैसे बडे़ देश को, जिजसकी आबादी बहुत ज ्यादा बड़ी है और ग्राम-जीर्वोन की ऐसी पुरानी परंपरा में पोकि�त हुई है जो उसकी आर्वोश् यकताओं को बराबर पूरा करती आई है, पणिZम नमूने की नकल करने की कोई जरूरत नहीं है और न उसे ऐसी नकल करनी चाकिहए। किर्वोशे� परिरस्थि^कितयों र्वोाले किकसी एक देश के क्तिलए जो बात अच् छी है र्वोह णिभन् न परिरस्थि^कितयों र्वोाले किकसी दूसरे देश के क्तिलए भी अच् छी ही हो, यह जरूरी नहीं है। जो चीज किकसी एक आदमी के क्तिलए पो�क आहार का काम देती हो, र्वोही दूसरे के क्तिलए जहर जैसी क्तिसद्ध होती है। किकसी देश की संस् कृकित को किनधा2रिरत करने में उसके प्राकृकितक भूगोल का प्रमुख किहस् सा होता है। ध्रुर्वो-प्रदेश के किनर्वोासी के क्तिलए ऊनी कोट जरूरी हो सकता है, लेकिकन भूमध् य-रेखर्वोत� प्रदेशों के किनर्वोाक्तिसयों का तो उससे दम ही घुट जाएगा।

मेरा स् प�् ट मत है और मैं उसे साफ-साफ कहता हूँ किक बडे़ पैमाने पर होने र्वोाला सामूकिहक उत् पादन ही दुकिनया की मौजूदा संकटमय स्थि^कित के क्तिलए जिजम् मेदार है। एक क्षण के क्तिलए मान भी क्तिलया जाए किक यंत्र मानर्वो-समाज की सारी आर्वोश् यकताए ँपूरी कर सकते हैं, तो भी उसका यह परिरणाम तो होगा ही किक उत् पादन कुछ किर्वोक्तिश�् ट के्षत्रों में कें ठिद्रत हो जाएगा और इसक्तिलए किर्वोतरण की योजना के क्तिलए हमें द्राकिर्वोड़ी प्राणायाम करना पडे़गा। दूसरी ओर यठिद जिजन के्षत्रों में र्वोस् तुओं की आर्वोश् यकता है र्वोहीं उनका उत् पादन हो और र्वोहीं किर्वोतरण हो, तो किर्वोतरण का किनयंत्रण अपने-आप हो जाता है। उसमें धोखाधड़ी के क्तिलए कम गंुजाइश होती है और सटे्ट के क्तिलए तो किबलकुल नहीं।

यह तो आप देखते ही हैं किक ये रा�् ट्र (यूरोप और अमेरिरका) दुकिनया की तथाकक्तिथत कमजोर या असंगठिFत जाकितयों का शो�ण करते हैं। यठिद एक बार इन जाकितयों को इस चीज का प्राथमिमक ज्ञान हो जाए और र्वोे इस बात का किनश् चय कर लें किक र्वोे अब अपना शो�ण नहीं देंगी, तो किफर र्वोे जो कुछ खुद पैदा कर सकती हैं उतने से ही संतो� कर लेंगी। ऐसा हो तो जहाँ तक मुख् य आर्वोश् यकताओं का संबंध है सामूकिहक उत् पादन मिमट जाएगा।

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जब उत् पादन और उपभोग दोनों किकसी सीमिमत के्षत्र में होते हैं, तो उत् पादन को अकिनणिZत हद तक और किकसी भी मूल् य पर बढ़ाने का लोभ किफर नहीं रह जाता। उस हालत में हमारी मौजूदा अथ2-र्वो् यर्वोस् था से जो कठिFनाइयाँ और समस्याए ँपैदा होती हैं र्वोे भी नहीं रह जाएगँी।

यंत्रों का भी स् थान है। और यंत्रों ने अपना स् थान प्राप् त भी कर क्तिलया है। लेकिकन मनु�् यों के क्तिलए जिजस प्रकार की मेहनत करना अकिनर्वोाय2 होना चाकिहए, उसी प्रकार की मेहनत का स् थान उन् हें ग्रहण न कर लेना चाकिहए। घर में चलाने लायक यंत्रों में सुधार किकए जाए, तो मैं उसका स् र्वोागत करँूगा। लेकिकन मैं यह भी समझता हूँ किक जब तक लाखों किकसानों को उनके घर में कोई दूसरा धंधा करने के क्तिलए न ठिदया जाए, तब तक हाथ-मेहनत से चरखा चलाने के बदले किकसी दूसरी शक्ति) से कपडे़ का कारखाना चलाना गुनाह है।

यंत्रों की ऊपरी किर्वोजय से चमत् कृत होने से मैं इनकार करता हूँ। और मारक यंत्रों के मै एकदम खिखलाफ हूँ; उसमें मैं किकसी तरह का समझौता स् र्वोीकार नहीं कर सकता। लेकिकन ऐसे सादे औजारों, साधनों या यंत्रों का, जो र्वो् यक्ति) की मेहनत को बचाए ँऔर झोंपकिड़यों में रहने र्वोाले लाखों-करोड़ों लोगों का बोझ कर करें, मैं जरूर स् र्वोागत करँूगा।

हिह�दुस् तान के सात लाख गाँर्वोों में फैले हुए ग्रामर्वोासी-रूपी करोड़ो जीकिर्वोत यंत्रों के किर्वोरुद्ध इन जड़ यंत्रों को प्रकितदं्वकिद्वता में नहीं लाना चाकिहए। यंत्रों का सदुपयोग तो यह कहा जाएगा किक उससे मनु�् य के प्रयत् न को सहारा मिमले और उसे र्वोह आसान बना दे। यंत्रों के मौजूदा उपयोग का झुकार्वो तो इस ओर ही बढ़ता जा रहा है किक कुछ इन-किगने लोगों के हाथ में खूब संपणिu पहुँचाई जाए और जिजन करोड़ों स्त्रिस्त्र-पुरु�ों के मुँह से रोटी छीन ली जाती हैं, उन बचारों की जरा भी परर्वोाह न की जाए।

बडे़ पैमाने पर उद्योगीकरण की अकिनर्वोाय2 परिरणाम यह होगा किक ज ्यों-त् यों प्रकितस् पधा2 और बाजार की समस्याए ँखड़ी होंगी त् यों-त् यों गाँर्वोों का प्रगट या अप्रगट शो�ण होगा। इसक्तिलए हमें अपनी सारी शक्ति) इसी प्रयत् न पर कें ठिद्रत करनी चाकिहए किक गाँर्वो स् र्वोयं पूण2 बनें और र्वोस् तुओं का किनमा2ण और उत् पादन अपने उपयोग के क्तिलए करें। यठिद उत् पादन की यह पद्धकित स् र्वोीकार कर ली जाए तो किफर गाँर्वो र्वोाले ऐसे आधुकिनक यंत्रों और औजारों का जिजन् हें र्वोे बना सकते हों और जिजनका उपयोग उन् हें आर्थिथ�क दृमिN से पुसा सकता हो, उपयोग खुशी से करें। उस पर आपणिu नहीं की जा सकती। अलबत् ता, उनका उपयोग दूसरों का शो�ण करने के क्तिलए नहीं होना चाकिहए।

मैं नहीं मानता किक उद्योगीकरण हर हालत में किकसी भी देश के क्तिलए जरूरी ही है। भारत के क्तिलए तो र्वोह उससे भी कम जरूरी है। मेरा किर्वोश् र्वोास है किक आजाद भारत दु:ख से कराहती हुई दुकिनया के प्रकित अपने कत2र््वो य का ऋण अपने गाँर्वोों का किर्वोकास करके और दुकिनया के साथ मिमत्रता का र्वो् यर्वोहार करके और इस तरह सादा परंतु उदात् त जीर्वोन अपना कर ही चुका सकता है। धन की पूजा ने हमारे ऊपर भौकितक समृजिद्ध के जिजस जठिटल और शीघ्रतागामी जीर्वोन को लाद ठिदया है, उसके साथ 'उच् च चिच�तन' का मेल नहीं बैFता। जीर्वोन का संपूण2 सौंदय2 तभी खिखल सकता है जब हम उच् च कोठिट का जीर्वोन जीना सीखें।

खतरों र्वोाला जीर्वोन जीने में रोमांच और उत् तजना का अनुभर्वो हो सकता है। पर खतरों का सामना करते हुए जीने में और खतरों र्वोाला जीर्वोन जीने में भेद है। जो आदमी जंगली जानर्वोरों से और उनसे भी ज ्यादा जंगली आदमिमयों से भरपूर जंगल में अकेले, किबना बंदूक के और केर्वोल ईश् र्वोर के सहारे हरने की किहम् मत ठिदखाता है, र्वोह खतरों का सामना करते हुए जीता है। दूसरा आदमी लगातार हर्वोा में उड़ता हुआ रहता है और टकटकी लगाकर देखने र्वोाले दश2क-समुदाय की र्वोाहर्वोाही लूटने के खयाल से नीचे की ओ उड़ी लगाता है; र्वोह खतरों र्वोाला जीर्वोन जीता है। पहले आदमी का जीर्वोन लाक्ष् यपूण2 है, दूसरे का लक्ष् यहीन।

किकसी अलग-थलग रहने र्वोाले देश के क्तिलए, भले र्वोह भूकिर्वोस् तार और जनसंख् या की दृमिN से किकतना भी बड़ा क् यों न हो, ऐसी दुकिनया में जो शस् त्रास् त्रों से क्तिसर से पाँर्वो तक लदी है और जिजसमें सर्वो2त्र र्वोैभर्वो-किर्वोलास का ही र्वोातार्वोरण नजर आता है, ऐसा सादा जीर्वोन जीना संभर्वो है या नहीं-यह ऐसा सर्वोाल है जिजसमें संशयशील आदमी को अर्वोश् य संदेश होगा। लेकिकन इसका उत् तर सीधा है। यठिद सादा जीर्वोन जीने योग् य है तो ये प्रयत् न भी करने योग् य है, चाहे र्वोह प्रयत् न किकसी एक ही र्वो् यक्ति) या किकसी एक ही समुदाय द्वारा क् यों न किकया जाए।

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लेकिकन साथ ही मैं यह भी मानता हूँ किक कुछ प्रमुख उद्योग जरूर होन चाकिहए। आराम-कुस� र्वोाले या हिह�सा र्वोाले समाजर्वोाद में मेरा किर्वोश् र्वोास नहीं है। मैं तो अपने किर्वोश् र्वोास के अनुसार आचरण करने में मानता हूँ और उसके क्तिलए सब लोग मेरी बात मान लें तब तक Fहरना अनार्वोश् यक समझता हूँ। इसक्तिलए इन प्रमुख उद्योगों को किगनाए ँकिबना ही मैं कह देता हूँ किक जहाँ कहीं भी लोगों को काफी बड़ी संख् या में मिमलकर काम करना पड़ता है र्वोहाँ मैं राज् य की माक्तिलकों की किहमायत करँूगा। उनकी कुशल या अकुशल मेहनत से जो कुछ उत् पन् न होगा, उसकी माक्तिलकी राज् य के द्वारा उनकी ही होगी। लेकिकन चँूकिक मैं तो इस राज् य के अहिह�सा पर ही आधारिरत होने की कल् पना कर सकता हूँ, इसक्तिलए मैं अमीरों से उनकी संपणिu बलपूर्वो2क नहीं छीनूँगा, बल्किwक उक् त उद्योगों पर राज् य की माक्तिलकी कायम करने की प्रकिक्रया में उनका सहयोग माँगँूगा। अमीर हों या कंगाल, समाज में कोई भी अछूत या पकितत नहीं है। अमीर और गरीब दोनों एक ही रोग के दो रूप हैं। और सत् य यह है किक कोई कैसा भी हो, हैं तो सब मनु�् य ही।

और मैं अपना यह किर्वोश्र्वोास उन सारी बब2रताओं के बार्वोजूद घोकि�त करता हूँ, जो हमने भारत में और दूसरे देशों में घठिटत होने देखी हैं और जिजन्हें शायद हमें आगे और भी देखना पडे़। हम खतरों का सामना करते हुए जीना सीखें।

8 वग*युद्ध पीछे     आगे

मैं आम लोगों को यह क्तिसखाता किक र्वोे पँूजीपकितयों को अपना दुश् मन मानें। मैं तो उन् हें यह क्तिसखाता हूँ किक र्वोे आप ही अपने दुश् मन हैं।

र्वोग2युद्ध भारत के मूल स् र्वोभार्वो के खिखलाफ है। भारत में समान न् याय और सबके बुकिनयादी हकों के किर्वोशाल आधार पर स् थाकिपत एक उदार किकस् म का साम् यर्वोाद किनमा2ण करने की क्षमता है। मेरे सपने के रामराज् य में राजा और रंक सबके अमिधकार सुरणिक्षत होंगे।

मैंने यह कभी नहीं कहा किक शो�कों और शोकि�तों में सहयोग होना चाकिहए। जब जक शो�ण और शो�ण करने की इच् छा कायम है तब तक सहयोग नहीं हो सकता। अलबत् ता, मैं यह नहीं मानता किक सब पँूजीपकित और जमींदार अपनी स्थि^कित किक किकसी आंतरिरक आर्वोश् यकता के फलस् र्वोरूप शो�क ही हैं और न मैं यह मानता हूँ किक उनके और जनता के किहतों में कोई बुकिनयादी या अकाट्य किर्वोरोध है। हर प्रकार को शो�ण शोकि�त के सहयोग पर आधारिरत है, किफर र्वोह सहयोग स् र्वोेच् छा से ठिदया जाता हो या लाचारी से। हम इस सच् चाई को स् र्वोीकार करने से किकतना ही इनकार क् यों न करें, किफर भी सच् चाई तो यही है किक यठिद लोग शो�क की आज्ञा न मानें तो शो�ण हो ही नहीं सकता। लेकिकन उसमें स् र्वोाथ2 आडे़ आता है और हम उन् हीं जंजीरों को अपनी छाती से लगाए रहते हैं जो हमें बाधती हैं यह चीज बंद होना चाकिहए। जरूरत इस बात की नहीं हैं किक पँूजीपकित और जमींदार खतम हो जाए;ँ उनमें और आम लोगों में आज जो संबंध है उसे बदलकर ज ्यादा स् र्वोस् थ और शुद्ध संबंध बनाने की जरूरत है।

र्वोग2युद्ध का किर्वोचार मुझे नहीं भाता। भारत में र्वोग2युद्ध न क्तिसफ2 अकिनर्वोाय2 नहीं हैं, बल्किwक यठिद हम अहिह�सा के संदेश को समझ गए हैं तो उसे टाला जा सकता है। जो लोग र्वोग2युद्ध को अकिनर्वोाय2 बताते हैं, उन् होंने या तो अहिह�सा के फक्तिलताथk को समझा नहीं है, या ऊपरी तौर पर ही समझा है।

हमें पणिZम से आए अुए मोहक नारों के असर में आने से बचना चाकिहए। क् यों हमारे पास हमारी किर्वोक्तिश�् ट पूर्वो� परंपरा नहीं है? क् या हम और पँूजी के सर्वोाल का कोई अपना हल नहीं किनकाल सकते ? ᣛ र्वोण2श्रम की र्वो् यर्वोस् था बडे़ और छोटे का भेद दूर करने या पँूजी और श्रम में मेल साधने का एक उत् तम साधन नहीं तो और क् या है? इस किर्वो�य से संबंमिधत जो कुछ भी पणिZमसे आया है र्वोह हिह�सा के रंग में रंगा हुआ है। मैं उसका किर्वोरोध करता हूँ, क् योंकिक मैंने उस नाश को देखा है जो इस माग2 में आखिखरी छोर पर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। पणिZम के भी ज ्यादा किर्वोचारर्वोान लोग अब यह समझने लगे हैं किक उनकी र्वो् यर्वोस् था उन् हें एक गहरे गत2 की ओर ले जा रही है और र्वोे उससे भयभीत हैं। पणिZम में मेरा जो भी प्रभार्वो है उसका कारण हिह�सा और शो�ण के इस दु�् चक्र के उद्धार का रास् ता ढँूढ़ किनकालने का मेरा अथक प्रयत् न ही है। मैं पणिZम की समाज-र्वो् यर्वोस् था का सहनुभूकितशील किर्वोद्याथ� रहा हूँ और मैं इस किन�् क�2

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पर पहुँचा हूँ किक पणिZम की इस बेचैनी और संघ�2 के पीछे सत् य की र्वो् याकुल खोज की भार्वोना ही हैं। मैं इस भार्वोना की कीमत करता हूँ। र्वोैज्ञाकिनक जाँच की उसी भार्वोना से हम पूर्वो2 की अपनी संस् थाओं का अध् ययन करें तो मेरा किर्वोश् र्वोास है किक दुकिनया ने अभी तक जिजसका सपना देखा है उससे कहीं ज ्यादा सच् चे समाजर्वोाद और सच् चे साम् यर्वोाद का हम किर्वोकास कर सकें गे। यह मान लेना गलत है किक लोगों की गरीबी के सर्वोाल पर पणिZम समाजर्वोाद या साम् यर्वोाद ही अंकितम शब् द हैं।

मैं जमींदार का नाश नहीं करना चाहता, लेकिकन मुझे ऐसा भी नहीं लगता किक जमींदार अकिनर्वोाय2 है। मैं जमींदारों और दूसरे पँूजीपकितयों का अहिह�सा के द्वारा हृदय-परिरर्वोत2न करना चाहता हूँ और इसक्तिलए र्वोग2युद्ध की अकिनर्वोाय2ता को मैं स् र्वोीकार नहीं करता। कम-से-कम संघ�2 का रास् ता लेना मेरे क्तिलए अहिह�सा के प्रयोग का एक जरूरी किहस् सा है। जमीन पर मेहनत करने र्वोाले किकसान और मजदूर ज ्यों ही अपनी ताकत पहचान लेंगे, त् यों ही जमींदारी की बुराई का बुरापन दूर हो जाएगा। अगर र्वोे लोग यह कह दें किक उन् हें सभ् य जीर्वोन की आर्वोश् यकताओं के अनुसार अपने बच् चों के भोजन, र्वोस् त्र और क्तिशक्षण आठिद के क्तिलए जब तक काफी मजदूरी नहीं दी जाएगी, तब तक र्वोे जमीन को जोतेंगे-बोएगेँ ही नहीं, तो जमींदार बेचारा कर ही क् या सकता है? सच तो यह है किक मेहनत करने र्वोाला जो कुछ पैदा करता है उसका माक्तिलक र्वोही है। अगर मेहनत करने र्वोाले बुजिद्धपूर्वो2क एक हो जाए,ँ तो र्वोे एक ऐसी ताकत बन जाएगँे जिजसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। और इसीक्तिलए मैं र्वोग2युद्ध की कोई जरूरत नहीं देखता। यठिद मैं उसे अकिनर्वोाय2 मानता होता तो उसका प्रचार करने में और लोगों को उसकी तालीम देने में मुझे कोई संकोच नहीं होता।

सर्वोाल एक र्वोग2 को दूसरे र्वोग2 के खिखलाफ भड़काने और णिभड़ाने का नहीं है, बल्किwक मजदूर- र्वोग2 को अपनी स्थि^कित के महत्त्र्वो का ज्ञान कराने का है। आखिखर तो अमीरों की संख्या दुकिनया में इनी- किगनी ही है। ज्यों ही मजदूर- र्वोग2 को अपनी ताकत का भान होगा और अपनी ताकत जानते हुए भी र्वोह इमानदारी का व्यर्वोहार करेगा, त्यों ही र्वोे लोग भी

ईमानदारी का व्यर्वोहार करने लगेंगे। मजदूरों को अमीरों के खिखलाफ भड़काने का अथ2 र्वोग2 दे्व� को और उससे किनकलने र्वोाले तमाम बुरे नतीजों को जारी रखना होगा। संघ�2 एक दुष्चक्र है और उसे किकसी भी कीमत पर टालना

ही चाकिहए। र्वोह दुब2लता की स्र्वोीकृकित का, हीनता- गं्रक्तिथ का क्तिचह्न है। श्रम ज्यों ही अपनी स्थि^कित का महत्त्र्वो और गौरर्वो पहचान लेगा, त्यों ही धन को अपना उक्तिचत दरजा मिमल जाएगा, अथा2त् अमीर उसे अपने पास मजदूरों की धरोहर के

ही रूप में रखेंगे। कारण, श्रम धन से श्रेष्F है।

9 हड़ताल पीछे     आगे

आजकल हड़तालों का दौर-दौरा है। र्वोे र्वोत2मान असंतो� की किनशानी हैं। तरह-तरह के अकिनणिZत किर्वोचार हर्वोा में फैल रहे हैं। सबक ठिदलों में एक धुधली-सी आशा बंधी हुई है। और यठिद र्वोह आशा किनणिZत रूप धारण नहीं करेगी, तो लोगों को बड़ी किनराशा होगी। और देशों की तरह भारत में भी मजदूर-जगत उन लोगों की दया पर किनभ2र है, जो सलाहकार और पथदश2क बन जाते हैं। ये लोग सदा क्तिसद्धांत-पालक नहीं होते और क्तिसद्धांत-पालक होते भी हैं तो हमेशा बुजिद्धमान नहीं होते। मजदूरों को अपनी हालत पर असंतो� है। असंतो� के क्तिलए उनके पास पूरे कारण हैं। उन् हें यह क्तिसखाया जा रहा है, और Fीक क्तिसखाया जा रहा है, किक अपने माक्तिलकों को धनर्वोान बनाने का मुख् य साधन र्वोे ही हैं। राजनीकितक स्थि^कित भी भारत के मजदूरों को प्रभाकिर्वोत करने लगी है। और ऐसे मजदूर-नेताओं का अभार्वो नहीं है, जो समझते हैं किक राजनीकितक हेतुओं के क्तिलए हड़ताल कराई जा सकती हैं।

मेरी राय में ऐसे हेतु के क्तिलए मजदूर-हड़तालों का उपयोग करना अत् यंत गंभीर भूल होगी। मैं इससे इनकार नहीं करता किक ऐसी हड़तालों से राजनीकितक गरज पूरी की जा सकती है। परंतु र्वोे अहिह�सक असहयोग की योजना में नहीं आती। यह समझने के क्तिलए बुजिद्ध पर बहुत जोर डालने की जरूरत नहीं है किक जब तक मजदूर देश की राजनीकितक स्थि^कित को समझ न लें और सबकी भलाई के क्तिलए काम करने को तैयार न हों, तब तक मजदूरों का राजनीकितक उपयोग करना बहुत ही खतरनाक बात होगी। इस र्वो् यर्वोहार की उनसे अचानक आशा रखना कठिFन है। यह आशा उस र्वोक् त तक नहीं रखी जा सकती, जब तक र्वोे अपनी खुद की हालत इतनी अच् छी न बना लें किक शरीर और आत् मा की जरूरतें पूरी करके सभ् य और क्तिश�् ट जीर्वोन र्वो् यतीत कर सकें ।

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इसक्तिलए सबसे बड़ी राजनीकितक सहायता मजदूर यह कर सकते हैं किक र्वोह अपनी स्थि^कित सुधार लें, अमिधक जानकार हो जाए,ँ अपने अमिधकारों का आग्रह रखें और जिजस माल के तैयार करने में उनका इतना महत् त् र्वोपू2ण हाथ होता है उसके उक्तिचत उपयोग भी माक्तिलकों से माँग करें। इसक्तिलए मजदूरों के क्तिलए सही किर्वोकास यही होगा किक र्वोे अपना बढ़ाए ँऔर आंक्तिशक माक्तिलक का दरजा प्राप् त करें।

अत: अभी तो हड़तालें मजदूरों हालत के सीधे सुधार के क्तिलए ही होनी चाकिहए और जब उनमें देश-भक्ति) की भार्वोना पैदा हो जाए, तब अपने तैयार किकए हुए माल की कीमतों के किनयंत्रण के क्तिलए भी हड़ताल की जा सकती है।

सफल हड़तालों की शत� सीधी-सादी हैं, और जब र्वोे पूरी हो जाती हैं तो हड़तालें कभी असफल क्तिसद्ध होनी ही नहीं चाकिहए :

1. हड़ताल का कारण न् यायपूण2 होना चाकिहए।

2. हड़ताक्तिलयों में र्वो् यार्वोहारिरक एकमत होना चाकिहए।

3. हड़ताल न करने र्वोालों के किर्वोरुद्ध हिह�सा काम में नहीं लेनी चाकिहए।

4. हड़ताक्तिलयों में या शक्ति) होनी चाकिहए किक संघ के को� का आश्रय क्तिलए किबना र्वोे हड़ताल के ठिदनों में पालन-पो�ण कर सकें । इसके क्तिलए उन् हें किकसी उपयोगों और उत् पादक अस् थायी धंधे में लगना चाकिहए।

5. जब हड़ताक्तिलयों की जगजह लेने के क्तिलए मजदूर काफी हों, तब हड़ताल का उपाय बेकार साकिबत होता है। उस सूरत में अन् यायपूण2 र्वो् यर्वोहार हो, नाकाफी मजदूरी मिमले या ऐसा ही और कोई कारण हो, तो त् यागपत्र ही उसका एकमात्र उपाय है।

6. उपरोक् त सारी शत� पूरी न होने पर भी सफल हड़तालें हुई हैं। परंतु इससे तो इतना ही क्तिसद्ध होता है किक माक्तिलक कमजोर थ ेऔर उनका अंत:कारण अपराधी था।

जाकिहर है किक किबना र्वोजनदार कारण के हड़ताल होनी ही न चाकिहए। नाजायज हड़ताल को न तो कामयाबी हाक्तिसल होनी चाकिहए और न ही किकसी हालत में उसे आम जनता की हमदद� मिमलनी चाकिहए। आमतौर पर लोगों को यह मालूम ही नहीं हो सकता किक हड़ताल जायज है या नाजायज क्तिसर्वोा इसके किक हड़ताल का समथ2न कोई ऐसे लोग करें, जो किन�् पक्ष हों और जिजन पर आम लोगों का पूरा किर्वोश् र्वोास हो। हड़ताली खुद अपने मामले में राय देने के हकदार नहीं। इसक्तिलए या तो मामला ऐसे पंच को सुपुद2 करना चाकिहए, जो दोनों तरफ के लोगों को मंजूर हो, या उसे अदालती फैसले पर छोड़ना चाकिहए। ....

जब इस तरीके से काम किकया जाता है, तो आम तौर पर जनता के सामने हड़ताल का मामला पेश करने की नौबत ही नहीं आती। अलबत् ता, कभी-कभी यह जरूर होता है किक मगरूर माक्तिलक पंच के या अदालत के फैसले को Fुकरा देते हैं, या गुमराह मजदूर अपनी ताकत के बल पर माक्तिलक से जबरदस् ती और भी रिरयायतें पाने के क्तिलए फैसले को मंजूर करने से इनकार कर देते है। ऐसी हालत में मामला आम जनता के सामने आता है।

जब हड़ताल माली हालत की बेहतरी के क्तिलए की जाती है, उसमें कभी अंकितम ध् येय के तौर पर राजनीकितक मकसद की मिमलार्वोट नहीं होनी चाकिहए ऐसा करनेसे राजनीकित तरक् की कभी नहीं हो सकती। बल्किwक होता यह है किक अक् सर हड़ताक्तिलयों को ही इसका नतीजा भुगतना पड़ता है, चाहे उन हड़तालों का असर आम लोगों की जिज�दगी पर पडे़ या न पडे़। सरकार के सामने कुछ ठिदक् कतें जरूर खड़ी हो सकती हैं, लेकिकन उनकी र्वोजह से हुकूमत का काम रुक नहीं सकता। अमीर लोग रुपया खच2 करके अपनी डाक का बंदोबस् त खुद कर लेंगे, लेकिकन असल मुसीबत तो गरीबों को झेलनी पड़ती है। ऐसी हड़तालें तो तभी करना चाकिहए, जब इंसाफ कराने के दूसरे सब उक्तिचत साधन असफल साकिबत हो चुके हो। ...

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ऊपर की इन बातों से यह जाकिहर है किक राजनीकितक हड़तालों की अपनी अलग जगह है और उनकी आर्थिथ�क हड़तालों के साथ न तो मिमलाना चाकिहए और न दोनों का आपस में र्वोैसा कोई रिरश्ता जाना चाकिहए। अहिह�सक लड़ाई

राजनीकितक हड़तालों की अपनी एक खास जगह होती है। र्वोे चाहे जब और चाहे जैसे ढँग से नहीं की जानी चाकिहए। ऐसी हड़तालें किबलकुल खुली होनी चाकिहए और उनमें गुण्डाशाही की कोई गुजाइश नहीं रहनी चाकिहए। उनकी र्वोजह

से कहीं किकसी तरह की हिह�सा नहीं होनी चाकिहए।

10 मजदूर क्या चुनेंगे? पीछे     आगे

भारत के सामने आज दो रास् ते हैं; र्वोह चाहे तो पणिZम के 'शक्ति) ही अमिधकार है' र्वोाले क्तिसद्धांत को अपनाए और चालाए या पूर्वो2 इस क्तिसद्धांत पर दृढ़ रहे और उसी की किर्वोजय के क्तिलए अपनी सारी ताकत लगाए किक 'सत् य की ही जीत होती है'; सत् य में हार कभी हैं ही नहीं; और ताकतर्वोर तथा कमजोर, दोनों को न् याय पाने का समान अमिधकार है। यह चुनार्वो सबसे पहले मजदूर-र्वोग2 को करना है। क् या मजदूरों को अपने र्वोेतन में र्वोृजिद्ध, यठिद र्वोैसा संभर्वो हो तो भी हिह�सा का आश्रय लेकर करानी चाकिहए? उनके दार्वोे किकतने भी उक्तिचत क् यों न हों, उन् हें हिह�सा का आश्रय नहीं लेना चाकिहए। अमिधकार प्राप् त करने के क्तिलए हिह�सा का आश्रय लेना शायद आसान मालूम हो, हिक�तु यह रास् ता अंत में कांटों र्वोाला क्तिसद्ध होता है। जो लोग तलर्वोार के द्वारा जीकिर्वोत रहते हैं, र्वोे तलर्वोार से ही मरते हैं। तैराक अक् सर डूबकर करता है। यूरोप की ओर देखिखए। र्वोहाँ कोई भी सुखी नहीं ठिदखाई देता, क् योंकिक किकसी भी संतो� नहीं है। मजदूर पँूजीपकित का किर्वोश् र्वोास नहीं करता और पँूजीपकित को मजदूर में किर्वोश् र्वोास नहीं है। दोनों में एक प्रकार की स् फूर्षित� और ताकत है, लेकिकन र्वो तो बैलों में भी होती है। बैल भी मरने की हद तक लड़ते हैं। कैसी भी गकित-प्रगकित नहीं है। हमारे पास यह मानने का कोई कारण नहीं हैं किक यूरोप के लोग प्रगकित कर रहे हैं। उनके पास जो पैसा है उससे यह सूक्तिचत नहीं होता किक उनमें कोई नैकितक या आाध् यास्त्रित्मक सद्गणु हैं। दुयkधन असीम धन का स् र्वोामी था, लेकिकन किर्वोदुर या सुदामा की तुलना में र्वोह गरीब ही था। आज दुकिनया किर्वोदुर और सुदामा की पूजा करती है; लेकिकन दुय�धन नाम तो उन सब बुराइयों के प्रतीक के रूप में ही याद किकया जाता है जिजनसे आदमी को बचना चाकिहए।

...पँूजी और श्रम में चल रहे संघ�2 के बारे में आम तौर पर यह कहा जा सकता है किक गलती अक् सर पँूजीपकितयों से ही होती है। लेकिकन जब मजदूरों को अपनी ताकत का पूरा भान हो जाएगा, तब मैं जानता हूँ किक र्वोे लोग पँूजीपकितयों से भी ज ्यादा अत् याचार कर सकते हैं। यठिद मजदूर मिमल-माक्तिलकों की बुजिद्ध हाक्तिसल कर लें, तो मिमल-माक्तिलकों को मजदूरों की दी हुई शतk पर काम करना पडे़गा। लेकिकन यह स् प�् ट है किक मजदूरों में र्वोह बुजिद्ध कभी नहीं आ सकती। अगर र्वोे र्वोैसी बुजिद्ध प्राप् त कर लें तो मजदूर मजदूर ही न रहें और माक्तिलक बन जाए।ँ पँूजीपकित केर्वोल पँूजी की ताकत पर नहीं लड़ते; उनके पास बुजिद्ध और कौशल भी है।

हमारे सामने सर्वोाल यह है: मजदूरों में, उनके मजदूर रहते हुए, अपनी शक्ति) और अमिधकारों की चेतना आ जाए, उस समय उन् हें किकस माग2 का अर्वोलंबन करना चाकिहए? अगर उस समय मजदूर अपनी संख् या के बल का यानी पशु-शक्ति) का आश्रय लें, तो यह उनके क्तिलए आत् म घातक क्तिसद्ध होगा। ऐसा करके र्वोे देश के उद्योगों को हाक्तिल पहुँचाएगँे। दूसरी ओर यठिद र्वोे शुद्ध न् याय का आधार लेकर लड़ें और उस पाने के क्तिलए खुद क�् ट सहन करें, तो र्वोे अपनी हर कोक्तिशश में न क्तिसफ2 सफल होंगे बल्किwक अपने माक्तिलकों के हृदय का परिरर्वोत2न कर डालेंगे, उद्योगों का ज ्यादा किर्वोकास करेंगे और अंत में माक्तिलक और मजदूर दोनों एक ही परिरर्वोार के सदस् यों की भाँकित रहने लगेंगे। मजदूरों की हालत के संतो�जनक सुधार में किनम् नक्तिलकितखत र्वोस् तुओं का समारे्वोश होना चाकिहए :

1. श्रम का समय इतना ही होना चाकिहए किक मजदूरों को आराम करने के क्तिलए भी काफी समय बचा रहे।

2. उन् हें अपने क्तिशक्षण की सुकिर्वोधाए ँमिमलती चाकिहए।

3. उनके बच् चों की आर्वोश् यकता क्तिशक्षा के क्तिलए तथा र्वोस् त्र और पया2प् त दूध के क्तिलए र्वो् यर्वोस् था की जानी चाकिहए।

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4. मजदूरों के क्तिलए साफ-सुथरे घर होने चाकिहए।

5. उन् हें इतना र्वोेतन मिमलना चाकिहए किक र्वोे बुढ़ापे में अपने किनर्वोा2ह के क्तिलए काफी रकम बचा सकें ।

अभी तो इनमें से एक भी शत2 पूरी नहीं होती। इस हालत के क्तिलए दोनों ही पक्ष जिजम् मेदार हैं। माक्तिलक लोग केर्वोल काम की परर्वोाह करते हैं। मजदूरों का क् या होता है, उससे र्वो कोई संबंध नहीं रखते। उनकी सारी कोक्तिशशों का मकसद यही होता है किक पैसा कम-से-कम देना पडे़ और काम ज ्यादा-से-ज ्यादा मिमले। दूसरी ओर मजदूर की कोक्तिशश ऐसी सब युक्ति)याँ करने की होती है, जिजससे पैसा उसे ज ्यादा-से-ज ्यादा मिमले और काम कम-से-कम करना पडे़। परिरणाम यह होता है किक यद्यकिप मजदूरों के र्वोेतन में र्वोृजिद्ध होती है, परंतु काम की मात्रा में कोई सुधार नहीं होता। दोनों पक्षों के संबंध शुद्ध नहीं बनते और मजदूर लोग अपनी र्वोेतन-र्वोृजिद्ध का समुक्तिचत उपयोग नहीं करते।

इन दोनों पक्षों के बीच में एक तीसरा पक्ष खड़ा हो गया है। र्वोह मजदूरों का मिमत्र बन गया है। ऐसे पक्ष की आर्वोश् यकता से इनकार नहीं किकया जा सकता लेकिकन यह पक्ष मजदूरों के प्रकित उसकी मिमत्रता का किनर्वोा2ह उसी हद तक कर सकेगा, जिजस हद तक उनके प्रकित उसकी मिमत्रता स् र्वोाथ2 से अछूती होगी।

अब र्वोह समय आ पहुँचा है जब किक मजदूरों का उपयोग कई तरह से शतरंज के प् यादों की तरह करने की कोक्तिशशें की जाएगँी। जो लोग राजनीकित में भाग लेने की इच् छा रखते हैं, उन् हें इस सर्वोाल पर किर्वोचार करना चाकिहए। र्वोे लोग क् या चुनेंगे: अपना किहत या मजदूरों की और रा�् ट्र की सेर्वोा? मजदूरों को मिमत्रों की बड़ी आर्वोश् यकता है। र्वोे नेतृत् र्वो के किबना कुछ नहीं कर सकते। देखना यह है किक यह नेतृत् र्वो उन् हें किकस किकस् म के लोगों से मिमलता है; क् योंकिक उससे ही मजदूरों की भार्वोी परिरस्थि^कितयों का किनधा2रण होने र्वोाला है।

काम छोड़कर बैF जाना, हड़तालें आठिद बेशक बहुत प्रभार्वोशाली साधन हैं, लेकिकन उनका दरुपयोग आसान है। मजदूरों को अपने शक्ति)शाली यूकिनयन बनाकर अपना संगFन कर लेना चाकिहए और इन यूकिनयनों की सहमकित के किबना कभी भी कोई हड़ताल नहीं करनी चाकिहए। हड़ताल करने के पहले मिमल-माक्तिलकों से बातचीत के द्वारा समझौते कोक्तिशश होनी चाकिहए; उसके किबना हड़ताल का खतरा मोल लेना Fीक नहीं। यठिद मिमल-मालक झगडे़ के किनपटारे के क्तिलए पंच-फैसले का आश्रय लें, तो पंचायत की बात जरूर स् र्वोीकार की जानी चाकिहए। और पंचों की किनयुक्ति) हो जाने के बाद दोनों पक्षों को उसका किनण2य समान रूप से जरूर मान लेना चाकिहए, भले उन् हें र्वोह पंसद आया हो या नहीं।

मेरा सर्वो2त्र सही अनुभर्वो रहा है किक सामान् यत: माक्तिलक की तुलना में मजदूर लोग अपने कत2र््वो य ज ्यादा ईमानदारी के साथ और ज ्यादा परिरणमकारी ढँग से पूरे करते हैं, यद्यकिप जिजस तरह माक्तिलक के प्रकित मजदूरों के कत2र््वो य होते हैं उसी तरह मजदूरों के प्रकित माक्तिलक के भी कत2र््वो य होते हैं। और यही कारण है किक मजदूरों के क्तिलए इस बात की खोज करना आर्वोश् यक हो जाता है किक र्वोे माक्तिलकों से अपनी माँग किकस हद तक मनर्वोा सकते हैं। अगर हम यह देखें किक हमें काफी र्वोेतन नहीं मिमलता या किक हमें किनर्वोास की जैसी सुकिर्वोधा चाकिहए र्वोैसी नहीं मिमल रही है, तो हमें काफी र्वोेतन और समुक्तिचत किनर्वोास की सुकिर्वोधा कैसे मिमले, इस बात का रास् ता ढँूढ़ना पड़ता है। मजदूरों को किकतनी सुख-सुकिर्वोधा चाकिहए, इस बात का किनश् चय कौन करे? सबसे अच् छी बात तो यही होगी की किक तुम मजदूर लोग खुद यह समझो किक तुम् हारे अमिधकार क् या हैं, उन अमिधकारों को माक्तिलकों से मनर्वोाले का उपाय क् या है और किफर उन् हें उन लोगों से तुम खुद ही हाक्तिसल करो। लेकिकन इसके क्तिलए तुम् हारे पास पहले से ली हुई थोड़ी-सी तालीम होनी चाकिहए-क्तिशक्षा होनी चाकिहए।

मेरी नम्र राय में यठिद मजदूरों में काफी संगFन हो और बक्तिलदान की भार्वोना भी हो, तो उन् हें अपने प्रयत् नों में हमेशा सफलता मिमल सकती है। पँूजीपकित किकतने ही अत् याचारी हों, मुझे किनश् चय है किक जिजनका मजदूरों से संबंध है और जो मजदूर-आंदोलन का माग2दश2न करते हैं, खुद उन् हें ही अभी इस बात की कल् पना नहीं है किक मजदूरों की साधन-संपणिu किकतनी किर्वोशाल है। उनकी साधन-संपणिu सचमुच इतनी किर्वोशाल है किक पँूजीपकितयों की उतनी कभी हो ही नहीं सकती। अगर मजदूर इस बात को पूरी तरह समझ लें किक पँूजी श्रम का सहारा पाए किबना कुछ नहीं कर सकती, तो उन् हें अपना उक्तिचत स् थान तुरंत ही प्राप् त हो जाएगा।

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दुभा2ग्यर्वोश हमारा मन पूँजी की मोकिहनी से मूढ़ हो गया है और हम यह मानने लगे है किक दुकिनया में पँूजी ही सब- कुछ है। लेकिकन यठिद हम गहरा किर्वोचार करें तो क्षणमात्र में हमें यह पता चल जाएगा किक मजदूरों के पास जो पँूजी है र्वोह

पँूजीपकितयों के पास कभी हो ही नहीं सकती। ... अँग्रेजी में एक बहुत जोरदार शब्द है- यह शब्द आपकी फ्रैं च भा�ा में और दुकिनया की दूसरी भा�ाओं में भी है। यह है ' नहीं बस, हमने अपनी सफलता के क्तिलए यही सहस्य खोज किनकाला

है किक जब पँूजीपकित मजदूरों से 'हाँ' कहलर्वोाना चाहते हों उस समय यठिद मजदूर 'हाँ' न कहकर 'नहीं' कहने की इच्छा रखते हों, तो उन्हें किनस्संकोच 'नहीं' का ही गज2न करना चाकिहए। ऐसा करने पर मजदूरों को तुरंत ही इस बात का ज्ञान

हो जाएगा किक उन्हें यह आजादी है किक जब र्वोे 'हाँ' कहना चाहें तब 'हाँ' कहें और जब 'नहीं' कहना चाहें तब 'नहीं' कह दें; और यह किक र्वोे पँूजी के अधीन नहीं हैं बल्किwक पँूजी को ही उन्हें खुश रखना है। पँूजी के पास बंदूक और तोप और यहाँ तक किक जगरीले गैस जैसे डारर्वोने अस्त्र भी हैं, तो भी इस स्थि^कित में कोई फक2 नहीं पड़ सकता। अगर

मजदूर अपनी 'नहीं' की टेक कायम रखें, तो पँूजी अपने उन सब शस्त्रास्त्रों के बार्वोजूद पूरी तरह असहाय क्तिसद्ध होगी। उस हालत में मजदूर प्रत्याक्रमण नहीं करेंगे, बल्किwक गोक्तिलयों और जहरीले गैस की मार सहते हुए भी झुकें गे

नहीं और अपनी 'नहीं' की टेक पर अकिडग रहेंगे। मजदूर अपने प्रयत्न में अक्सर असफल होते हैं, उसका कारण यह है किक र्वोे जैसा मैंने कहा है र्वोैसा करके पँूजी का शोधन नहीं करते, बल्किwक ( मैं खुद मजदूर के नाते ही यह कह रहा हूँ)

उस पँूजी को स्र्वोयं हक्तिथयार चाहते है और खुद पूँजीपकित शब्द के बुरे अथ2 में पँूजीपकित बनना चाहते हैं। और इससक्तिलए पँूजीपकितयों को, जो अच्छी तरह संगठिFत हैं और अपनी जगह मजबूती से डटे हुए हैं, मजदूरों में अपना

दरजा पाने के अणिभला�ी उम्मीदर्वोार मिमल जाते हैं और रे्वो मजदूरों के इस अंश का उपयोग मजदूरों को दबाने के क्तिलए करते हैं। अगर हम लोग पँूजी की इस मोकिहनी के प्रभार्वो में न होते, तो हममें से हर एक इस बुकिनयादी सत्य को

आसानी से समझ लेता।

11 अधि2कार या कत*व्य? पीछे     आगे

मैं आज उस बहुत बड़ी बुराई की चचा2 करना चाहता हूँ, जिजसे समाज को मुसीबत में डाल रखा है। एक तरफ पँूजीपकित और जमींदार अपने हकों की बात करते हैं, दूसरी तरफ मजदूर अपने हकों की। राजा-महाराजा कहते हैं किक हमें शासन करने का दैर्वोी अमिधकार मिमला हुआ है, तो दूसरी तरफ उनकी रैयत कहती है किक उसे राजाओं के इस हक का किर्वोरोध करने का अमिधकार है। अगर सब लोग क्तिसफ2 अपने हकों पर ही जोर दें और फजk को भूल जाए,ँ तो चारों तरफ बड़ी गड़बड़ी और अंधाधुंधी मच जाए।

अगर हर आदमी हकों पर जोर देने के बजाय अपना फज2 अदा करे, तो मनु�् य- जाकित में जल् दी की र्वो् यर्वोस् था और अमन का राज् य कायम हो जाए। राजाओं के राज करने के दैर्वोी अमिधकार जैसी या रैयत के इज् जत से अपने माक्तिलकों का हुक् म मानने के नम्र कत2र््वो य जैसी कोई चीज नहीं है। यह सच है किक राजा और रैयत के पैदाइशी भेद मिमटने ही चाकिहए, क् योंकिक र्वोे समाज के किहत को नुकसान पहुँचाते हैं। लेकिकन यह भी सच है किक अभी तक कुचले और दबाकर रखे गए लाखों-करोड़ों लोगों के हकों का ठिढFाई-भरा दार्वोा भी समाज के किहत को ज ्यादा नहीं तो उतना ही नुकसान जरूर पहुँचाता है। उनके इस दार्वोे से दैर्वोी अमिधकारों या दूसरे हकों की दुहाई देने र्वोाले राजा-महाराजा या जमींदारों र्वोगैरा के बकिनस् बत करोड़ों, लोगों को ही ज ्यादा नुकसान पहुँचेगा। ये मुट्ठीभर जमींदार, राजा-महाराजा, या पँूजीपकित बहादुरी या बुजठिदली से मर सकते है, लेकिकन उनके मरने सी ही सारे समाज का जीर्वोन र्वो् यर्वोस्थि^त, सुखी और संतु�् ट नहीं बन सकता। इसक्तिलए यह जरूरी है किक हम हकों और फज� का आपसी संबंध समझ लें। मैं यह कहने की किहम् मत करँूगा किक जो हक पूरी तरह अदा किकए गए फज2 से नहीं मिमलते, र्वोे प्राप् त करने और रखने लायक नहीं हैं। र्वोे दूसरों से छीन गए हक होंगे। उन् हें जल् दी-से-जल् दी छोड़ देने में ही भला है। जो अभागे माँ-बाप बच् चों के प्रकित अपना फज2 अदा किकए किबना उनसे अपना हुक् म मनर्वोाने का दार्वोा करते हैं, र्वोे बच् चों की नफरत को ही भड़काएगँे। जो बदचलन पकित अपनी र्वोफादार पत् नी से हर बात मनर्वोाने की आशा करता है, र्वोह धम2 के र्वोचन को गलत समझता है; उसका एकतरफा अथ2 करता है। लेकिकन जो बच् चे हमेशा फज2 अदा करने के क्तिलए तैयार रहने र्वोाले माँ-बाप को जलील करते हैं, र्वोे कृतघ् न समझे जाएगँे और माँ-बाप के मुकाबले खुद का ज ्यादा नुकसान करेंगे। यही बात पकित और पत् नी के बारे में भी कही जा सकती है। अगर यह सादा और सब पर लागू होने र्वोाला कायदा माक्तिलकों और मजदूरों, जमींदारों और किकसानों, राजाओं और रैयत, या हिह�दू और मुसलमानों पर

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लगाया जाए, जो हम देखेंगे किक जीर्वोन के हर के्षत्र में अच् छे-से-अच् छे संबंध कायम किकए जा सकते हैं। और ऐसा करने से न तो हिह�दुस् तान या दुकिनया के दूसरे किहस् सों की तरह सामाजिजक जीर्वोन या र्वो् यापार में किकसी तरह की रुकार्वोट आएगी और न गड़बड़ी पैदा होगी। मैं जिजसे सत् याग्रह कहता हूँ र्वोह किनयम अपने-अपने फजk और उनके पालन से अपने-आप प्रकट होने र्वोाले हकों के क्तिसद्धांतों को बराबर समझ लेने का नतीजा है।

एक हिह�दू का अपने मुसलमान पड़ोसी के प्रकित क् या फज2 होना चाकिहए? उसे चाकिहए किक र्वोह एक मनु�् य के नाते उससे दोस् ती करे और उसके सुख-दु:ख में हाथ बँटाकर मुसीबत में उसकी मदद करे। तब उसे अपने मुसलमान पड़ोसी से ऐसे ही बरतार्वो की आशा रखने का हक प्राप् त होगा। और शायद मुसलमान भी उसके साथ र्वोैसा ही बरतार्वो करें जिजसकी उसे उम् मीद हो। मान लीजिजए किक किकसी गाँर्वो में हिह�दुओं की तादाद बहुत ज ्यादा है और मुसलमान र्वोहाँ इने-किगने ही हैं, तो उस ज ्यादा तादाद र्वोाली जाकित की अपने थोडे़ से मुसलमान पड़ोक्तिसयों की तरफ की जिजम् मेदारी कई गुनी बढ़ जाती है। यहाँ तक किक उन् हें मुसलमानों को यह महसूस करने का मौका भी न देना चाकिहए किक उनके धम2 के भेद की र्वोजह से हिह�दू यह हक हाक्तिसल कर सकें गे किक मुसलमान उनके सच् चे दोस् त बन जाए ँऔर खतरे के सयक दोनों कौमें एक होकर काम करें। लेकिकन मान लीजिजए किक र्वोे थोडे़ से मुसलमान ज ्यादा तादाद र्वोाले हिह�दुओं के अच् छे बरतार्वो के बार्वोजूद उनसे अच् छा बरतार्वो नहीं करते और हर बात में लड़ने के क्तिलए तैयार हो जाते हैं, यह उनकी कायरता होगी। तब उन ज ्यादा तादाद र्वोाले हिह�दुओं का क् या फज2 होगा ? ᣛ बेशक, बहुमत की अपनी दानर्वोी शक्ति) से उन पर काबू पाना नहीं। यह तो किबना हाक्तिसल किकए हुए हक को जबरदस् ती छीनना होगा। उनका फज2 यह होगा किक र्वोे मुसलमानों के अमानुकि�क बरतार्वो को उसी तरह रोकें , जिजस तरह र्वोे अपने सगे भाइयों के ऐसे बरर्वोात को रोकें गे। इस उदाहरण को और ज ्यादा बढ़ाना मैं जरूरी नहीं समझता। इतना कहकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ किक जब हिह�दुओं की जगह मुसलमान बहुमत में हों और हिह�दू क्तिसफ2 इने-किगने हों, तब भी बहुमत र्वोालों को Fीक इसी तरह का बरर्वोात करना चाकिहए। जो कुछ मैंने कहा है उसका मोजूदा हालत में हर जगह उपयोग करके फायदा उFाया जा सकता हैं। मौजूदा हालत घबड़ाहट पैदा करने र्वोाली बन गई है, क् योंकिक लोग अपने बरतार्वो में इस क्तिसद्धांत पर अमल नहीं करते किक कोई फज2 पूरी तरह अदा करने के बाद ही हमें उससे संबंध रखने र्वोाला हक हाक्तिसल होता है।

यही किनयम राजाओंऔर रैयत पर भी लागू होता है। राजाओं का फज2 है र्वोे रिरआया के सच्चे सेर्वोकों की तरह काम करें। र्वोे किकसी बाहरी सत्ता के ठिदए हुए हकों के बल पर राज्य नहीं करेंगे औ तलर्वोार के जोर से तो कभी नहीं। र्वोे सेर्वोा से हाक्तिसल किकए गए हक से और खुद को मिमली हुई किर्वोशे� बुजिद्ध के हक से राज्य करेंगे। तब उन्हें खुशी से ठिदए जाने र्वोाले टैक्स र्वोसूल करने का और उतनी ही राजी- खुशी से की जाने र्वोाली कुछ सेर्वोाएँ लेने का हक हाक्तिसल होगा। और यह टैक्स रे्वो अपने क्तिलए नहीं बल्किwक अपने आश्रय में रहले र्वोाली प्रजा के क्तिलए र्वोसूल करेंगे। अगर राजा लोग इस सादे और बुकिनयादी फज2 को अदा करने में असफल रहते हैं, तो प्रजा के उनके प्रकित रहने र्वोाले सारे फज2 ही खतम नहीं हो जाते, बल्किwक प्रजा का यह फज2 हो जाता है किक र्वोह राजाओं की मनमानी चालों का मुकाबला करे। दूसरे शब्

दों में यों कहा जा सकता है किक प्रजा राजाओं के बुरे शासन या मनमानी का मुकाबला करने का हक हाक्तिसल कर लेती है। अगर हमारा मुकाबला हत्या, बरबादी और लूट- मार का रूप ले ले, तो फज2 के नाते यह कहा जाएगा किक र्वोह

मुकाबला मनुष्य- जाकित के खिखलाफ एक गुनाह बन जाता है। जो शक्ति) कुदरती तौर पर फज2 को अदा करने से पैदा होती है, र्वोह सत्याग्रह से पैदा होने र्वोाली और किकसी से न जीती जा सकने र्वोाली अहिह�सक शक्ति) होती है।

12 बेकारी का सवाल पीछे     आगे

जब तक एक भी सशक् त आदमी ऐसा हो जिजसे काम न मिमलता हो या भोजन न मिमलता हो, तब तक हमें आराम करने या भरपेट भोजन करने में शम2 महसूस होनी चाकिहए।

ऐसे देश की कल् पना कीजिजए जहाँ लोग प्रकितठिदन औसतन पाँच ही घंटे काम करते हों और र्वोह भी स् र्वोेच् छा से नहीं बल्किwक परिरस्थि^कितयों की लाचारी के कारण; बस, आपको भारत की सही तस् र्वोीर मिमल जाएगी। यठिद पाFक इस तस् र्वोीर को देखना चाहता हो तो उसे अपने मन से शहरी जीर्वोन में पाई जाने र्वोाली र्वो् यस् त दौड़धूप को, या कारखानों के

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मजदूरों की शरीर को चूर कर देने र्वोाली थकार्वोट को या चाय-बागानों में ठिदखाई पड़ने र्वोाली गुलामी को दूर कर देना चाकिहए। ये तो भारत की अबादी के समुद्र की कुछ बँूदें ही हैं। अगर उसे कंकाल-मात्र रह गए भूखे भारतीयों की तस् र्वोीर देखना हो, तो उसे उस अस् सी प्रकितशत आबादी की बात सोचना चाकिहए, जो अपने खेतों में काम करती है, जिजसके पास साल में करीब चार महीने तक कोई धंधा नहीं होता और इसक्तिलए तो लगभग भुखमारी की जिज�दगी जीती है। यह उसकी सामान् य स्थि^कित है। इस किर्वोर्वोश बेकारी में बार-बार पड़ने र्वोाले अकाल काफी बड़ी र्वोृजिद्ध करते हैं।

हमारी औसत आयु इतनी कम है किक सोचकर दु:ख होता है। इसी तरह हम ठिदन-ठिदन अमिधकामिधक गरीब होते जा रहे हैं। इसका कारण यह है किक हमने अपने सात लाख गाँर्वोों की उपेक्षा की है। उनका खयाल नहीं रखा। उनसे जिजतने पैसे मिमल सकें उतने लेने की हम कोक्तिशश करते हैं, उन् हें कंगाल करके हम स् र्वोयं कंगाल हो रहे हैं। यह हिह�दुस् तान पहले सुर्वोण2-भूमिम कहलाता था यह किकसकी बदौलत कंगाल हुआ? हमारी ही बदौलत। हमारे पास तमाम ऐश-आराम की चीजें हैं। मोहरें हैं, सोने को गदे्द हैं और अन् य सुकिर्वोधाए ँहैं, परंतु सच पूछा जाए तो हमको इनमें से एक भी चीज का अमिधकार नहीं है।

हिह�दुस् तान की सभ् यता पणिZम की सभ् यता से किनराली है। जहाँ जमीन ज ्यादा हो और लोग कम, और जहाँ जमीन कम हो और लोग ज ्यादा, उसमें तो फक2 होना ही चाकिहए। मशीनें या कलें उन अमेरिरका र्वोालों के क्तिलए जरूरी होगी ही जहाँ लोग कम और काम ज ्यादा है। हिक�तु हिह�दुस् तान में जहाँ एक काम के क्तिलए अनेक लोग खाली हैं, मशीनरी की जरूरत नहीं और न इस प्रकार भूखों मरकर समय बचाना ही Fीक है। यठिद हम खाना भी यंत्र द्वारा खाए ँतो मैं समझता हूँ किक आप कभी र्वोह पसंद न करेंगे। इसक्तिलए हमें उस खाली या बेकार जनता का उपयोग कर लेना चाकिहए। हिह�दुस् तान की आबादी इतनी बढ़ गई है किक उसके भरण-पो�ण के क्तिलए उसकी जमीन बहुत कम हैं, ऐसा बहुत से अथ2शास् त्र कहते हैं। पर मैं इसे नहीं मानता। यह यठिद उद्योग करें तो दूना पैदा कर सकते है इसमें मुझे पूरा किर्वोश् र्वोास है। यह हमारे सोचने की बात है किक हम सच् चा उद्योग करें और देहकितयों के साथ संपक2 बढ़ार्वोे और उनके सच् चे सेर्वोक बन जाए,ँ तो मुझे पूण2 किर्वोश् र्वोास है किक हम हिह�दुस् तान के छोटे-छोटे उद्योगों से करोड़ों रुपए का धन पैदा कर सकते हैं। उसमें पैसे भी किर्वोशे� आर्वोश् यकता नहीं, जरूरत है लोगों की, मेहनत की। यठिद हम किर्वोचारशील जीर्वोन रखें, तो हमारा बड़ा फायदा हो सकता है।

हम लोग जो आटा खाते हैं र्वोह आटा नहीं, जहर खाते हैं। हमारे क्तिलए आस् टे्रक्तिलया से खाने को आटा आता है, र्वोह तो जहर ही है। ऐसा मैं नहीं कहता आपके डॉक् टर लोग कहते हैं। यहाँ हम अमृत को भी जहर बनाकर खाते हैं। जो आटा हम कल से किपसाकर खाते हैं, उसका सब द्रर्वो् य किनकल जाता है और हम किन:सत् त् र्वो भोजन खाते हैं। इससे हम ठिदनों ठिदन क्षीण हो रहे हैं। आटा तो रोज घर की चक् की में पीसकर ताजा खाना चाकिहए। मनों आटा पीसकर नहीं रख छोड़ना चाकिहए। क् योंकिक कुछ ठिदन के बाद र्वोह दूकि�त हो जाता है। इस प्रकार घर में आटा पीस लेने से दो फायदे हैं। पहला तो शुद्ध, शक्ति)युक् त भोजन खाने को मिमलता है, जिजससे हम दीघ2जीर्वोी हो सकते है; और दूसरे, उस बहाने हमारी बकिहनों का, जो किनकम् मी-सी हो गई हैं, र्वो् यायाम हो जाएगा, जिजससे र्वोे भी स् र्वोास् थ ्य-लाभ कर सकें गी। यठिद इतना पैसा जिजसे हम कल में किपसर्वोाने के क्तिलए देते हैं बचता रहे, तो सब मिमलाकर देश का किकतना फायदा हो सकता है? इससे तो आम के आम और गुFली के दाम भी मिमल जाते हैं। हमारी इससे किकतनी बचत हो सकती है? धन भी बचे और स् र्वोास् थ ्य-लाभ भी हो। यह अथ2शास् त्र की बात नहीं, अनुभर्वो की बात है।

इस प्रकार चार्वोल के साभ भी हम अत् याचार करते हैं। आज मैं यह दु:ख की बात सुनता हूँ। चार्वोल की भूसी कलों द्वारा न किनकलर्वोानी चाकिहए। उससे चार्वोल का पो�क द्रर्वो् य न�् ट हो जाता है। उसे तो घर में ही हाथों से कूटकर साफ करना चाकिहए। यही बात तेल और गुड़ के क्तिलए है। हमें शक् कर का प्रयोग न करके गुड़ खाना चाकिहए। गुड़ की ललाई ही खून को बढ़ाती है, शक् कर का प्रयोग की सफेदी नहीं। र्वोह तो जहर है। लेकिकन आजकल तो शुद्ध गुड़ भी नहीं मिमलता। उसे हमें स् र्वोयं तैयार करना चाकिहए। इससे भी दूना लाभ होगा। शहद-जैसी कीमती चीज भी इसी प्रकार पैदा की जा सकती है। अभी तो शहद इतनी कीमती है किक या तो बडे़-बडे़ लोग उसे काम में ला सकते हैं या र्वोैद्यराज अपनी गोक्तिलयाँ बनाने में, सर्वो2साधारण नहीं।

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शहद भी मधुमस्थिक्खयों को पालकर पैदा किकया जा सकता है। हमें गुड़ और शहद के क्तिलए देखना होगा किक र्वोह सफाई से बनाया और किनकाला जाए। इन छोटे-छोटे उद्योगों से आगे बढ़ें तो हमारा जीर्वोन ही कला मय हो जाए ओर हम करोड़ों रुपया पैदा कर स कें । हम अरोग् यशास् त्र भी नहीं जानते। इससे तो हमें स् र्वोयंही आराग् यशास् त्र का सामान् य ज्ञान हो सकता है। मल भी अशुद्ध नहीं है। उससे भी हम सोनाबना सकते हैं, अथा2त् अच् छी खाद बनाने के उपयोग में र्वोह आ सकता है। उसका प्रयोग न करके हम उसका दुरुपयोग करते हैं और बाहर दरिरया र्वोगैरा में फें क कर अनेक रोग पैदा करते हैं, जो हमारे प्राण-घातक हैं।

संके्षप में मेरा यही किनर्वोेदन है किक मैंने आपका ध् यान इधर खींचने की कोक्तिशश की है। यठिद आप इससे लाभ न उFार्वोें तो मैं लाचार हूँ। आप इन छोटी-छोटी बातों से बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिकन एक शत2 है किक इन् हें चंद लोग करें और बाकी उन पर किनभ2र रहें तो र्वोह अर्वोश् य भूखे मरेंगे। हिक�तु यठिद सब मिमलकर करेंगे तो करोंड़ों रुपयों का फायदा हो सकता हैं ऐसा मेरा पूण2 किर्वोश् र्वोास है। सबको अपना किहस् सा देना चाकिहए। यह बात उद्यमशील के क्तिलए है, अनुद्यमी के क्तिलए नहीं। मैं उम् मीउ करता हूँ किक आप लोग इस पर अर्वोश् य किर्वोचार करके इसे अमल में लाएगेँ।

(इंदौर की एक आम सभा में ठिदए गए मूल हिह�दी भा�ण से संणिक्षप् त अंश)

एक तरह से देखें तो हमारे देश में बेकारी का सर्वोाल उतना कठिFन नहीं है। जिजतना दूसरे देशों में है। इस सर्वोाल का लोगों की रहन-सहन के तरीके से घकिन�् F संबंध है। पणिZम के बेकार मजदूरों को गरम कपड़ा चाकिहए, दूसरे लोगों की ही तरह जूते और मोजे चाकिहए, गरम घर चाकिहए Fंडी आबहर्वोा में आर्वोश् यक अन् य अनेक र्वोस् तुए ँचाकिहए। हमें इन सब चीजों की जरूरत नहीं है। अपने देश में जो भयानक गरीबी और बेकारी है, उसे देखकर मुझे रोना आता है। लेकिकन मुझे स् र्वोीकार करना चाकिहए। किक इस स्थि^कित के क्तिलए हमारी अपनी अपेक्षा और अज्ञान ही जिजम् मेदार हैं। शारीरिरक-श्रम करने में जो गौरर्वो है उसे हम नहीं जानते। उदाहरण के क्तिलए, मोची जूते बनाने के क्तिसर्वोा कोई दूसरा काम नहीं करता; र्वोह ऐसा समझता है किक दूसरे काम उसकी प्रकित�् Fा के अनुकूल नहीं है। यह गलत खयाल दूर होना चाकिहए। उन सब लोगों के क्तिलए, जो अपने हाथों और पाँर्वोों से ईमानदारी के साथ मेहनत करना चाहते हैं, हिह�दुस् तान में काफी धंधा है। ईश् र्वोर ने हर एक को काम करने की और अपनी रोज की रोटी से ज ्यादा कमाने की क्षमता दी है। और जो भी इस क्षमता का उपयोग करने के क्तिलए तैयार हो, उसे काम अर्वोश् य मिमल सकता है। ईमान की कमाई करने की इच् छा रखने र्वोाले को चाकिहए किक र्वोह किकसी भी काम को नीचा न माने। जरूरत इस बात की है किक ईश् र्वोर ने हमें जो हाथ-पाँर्वो ठिदए हैं, उनका उपयोग करने के क्तिलए हम तैयार रहें।

मैं मानता हूँ किक मेहनत- मजदूरी करके अपनी जीकिर्वोका कमाने र्वोालों के क्तिलए किर्वोकिर्वोध धंधों के पया2प्त ज्ञान की र्वोही कीमत है, जो किक पैसे की पँूजीपकित के क्तिलए है। मजदूर का कौशल ही उसकी ऊँची पँूजी है। जिजस तरह पँूजीपकित अपनी पँूजी को मजदूरों के सहयोग के किबना फलप्रद नहीं बना सकता, उसी तरह मजदूर भी अपनी मेहनत को पँूजी

के सहयोग के किबना फलप्रद नहीं बना सकते। और मजदूरों तथा पँूजीर्वोालों, दोनों की बुजिद्ध का किर्वोकास समान रूप से हुआ हो और दोनों को एक- दूसरे से न्यायोंक्तिचत व्यर्वोहार हाक्तिसल करने की अपनी क्षमता में किर्वोश्र्वोास हो, तो र्वोे एक-

दूसरे को किकसी समान काय2 में लगे हुए समान दरजे के सहकारी मानना सीखेंगे, और एक- दूसरे का र्वोैसा ही आदर करने लगेंगे। जरूरत इस बात की है किक रे्वो एक- दूसरे को अपना ऐसा किर्वोरोध समझना बंद कर दें, जिजनमें मेल कभी

हो ही नहीं सकता। कठिFनाई यह है किक आज पँूजी र्वोालों में तो संघटन हैं और ऐसा भी मालूम होता है किक उन्होंने अपने पैर मजबूती से जमा रखें है, लेकिकन मजदूरों का ऐसा नहीं है। इसके क्तिसर्वोा मजदूर अपने जड़ और यांकित्रक व्

यर्वोसाय से भी जकड़ा हुआ है। इस व्यर्वोसाय के कारण उसे अपनी बुजिद्ध का किर्वोकास करने के क्तिलए मौका ही नहीं मिमलता। इसीक्तिलए र्वोह अपनी स्थि^कित की शक्ति) को और उसके गौरर्वो को पूरी तरह समझने में असमथ2 रहा है। उसे

यह मानना क्तिसखाया गया है किक उसका र्वोेतन तो पूँजी र्वोाले ही तय करेंगे; उसके संबंध में र्वोह खुद अपनी कोई माँग नहीं कर सकता। उपाय यह है किक र्वोे सही ढँग से अपना संघटन करें, अपनी बुजिद्ध का किर्वोकास करें और एक से

अमिधक धंधो में किनपुणता प्राप्त करें। ज्यों ही र्वोे ऐसा करेंगे त्यों ही र्वोे अपना क्तिसर ऊँचा रखकर चलने में समथ2 हो जाएगँे और अपनी जीकिर्वोका के बारे में किफर उन्हें डरने की कोई आर्वोश्यकता नहीं रहेंगी।

13 दरिरद्र-नारायण पीछे     आगे

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मनु�् य-जाकित ईश् र्वोर को - जो र्वोैसा नामहीन है और मनु�् य की बुजिद्ध की पहुँच के परे है - जिजन अनंत नामों से पहचानती है, उनमें से एक नाम दारिरद्र-नारायण है; उसका अथ2 है गरीबों का या गरीबों के हृदय में प्रकट होने र्वोाला ईश् र्वोर।

गरीबों के क्तिलए रोटी ही अध् यात् म है। भूख से पीकिड़त उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किकसी और चीज का प्रभार्वो पड़ ही नहीं सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदयों को छू ही नहीं सकती। लेकिकन उनके पास आप रोटी लेकर जाइए और र्वोे आपकों ही भगर्वोान की तरह पूजेंगे। रोटी के क्तिसर्वोा उन् हें और कुछ सूझ ही नहीं सकता।

अपने इन् हीं हाथों से मैंने गरीबों के फटे-पुराने कपड़ों की गाँFों में मजबूती से बँधे हुए मटमैले पैसे इकटे्ठ किकए हैं। उनसे आधुकिनक प्रगकित की बातें न कीजिजए। उनके सामने र्वो् यथ2 ही ईश् र्वोर का नाम लेकर उनका अपमान मत कीजिजए। हम उनसे ईश् र्वोर की बात करेंगे, तो र्वोे आपको और मुझे राक्षस बताएगँे। अगर र्वोे किकसी ईश् र्वोर को पकिहचानते हैं, तो उसके बारे में उनकी कल् पना यही हो सकती है किक र्वोह लोगों को आ तंकिकत करनेर्वोाला, दंड देने र्वोाला, एक किनद2य अत् याचारी है।

भूखा रहकर आत् म हत् या करने की इच् छा का संर्वोरण मैं अपने इसी किर्वोश् र्वोास के कारण कर पाया हूँ किक भारत जागेगा और यह किक उनमें इस किर्वोनाशकारी गरीबी से अपना उद्धार कर सकने की सामथ्2 य है। यठिद इस संभार्वोना में मेरा किर्वोश् र्वोास न हो, तो मुझे जीने में कोई ठिदलचस् पी न रहे।

मेरी उनके पास ईश् र्वोर का संदेश ले जाने की किहम् मत नहीं होती। मैं उन करोड़ों भूखों के सामने, जिजनकी आँखों में तेज नहीं और जिजनका ईश् र्वोर उनकी रोटी ही है, ईश् र्वोर का नाम लँू, तो किफर र्वोहाँ, खडे़ उस कुत् ते के सामने भी ले सकता हूँ। उनके पास ईश् र्वोर का संदेश ले जाना हो, तो यह काम मैं उनके पास पकिर्वोत्र परिरश्रम का संदेश ले जाकर ही कर सकता हूँ। हम यहाँ बठिढ़या नाश् ता उड़ा का बैFे हों और उससे भी बठिढ़या भोजन की आशा रखते हों, तब ईश् र्वोर की बात करना हमें भला मालूम होता हे। लेकिकन जिजन लाखों हों को दो जून खाने को भी नसीब नहीं होता, उनसे मैं ईश् र्वोर की बात कैसे कहूँ ? ᣛ उनके सामने तो ईश् र्वोर रोटी और मक् खन के रूप में ही प्रकट हो सकता है। भारत के किकसानों को रोटी अपनी जमीन से मिमल रही थी। मैंने उन् हें चरखा ठिदया, ताकिक उन् हें थोड़ा मक् खन भी मिमल सके। अगर आज यहाँ मैं लंगोटी पकिहनकर आया हूँ, तो इसका कारण यही है किक मैं उन लाखों आधे भूखे, आधे नंगे और मूक मानर्वो-प्राणिणयों का एकमात्र प्रकितकिनमिध बनकर आया हूँ।

हमारे लाखों मूक देशर्वोाक्तिसयों के हृदयों में जो ईश् र्वोर किनर्वोास करता है, उसके क्तिसर्वोा मैं किकसी दूसरे ईश् र्वोर को नहीं जानता। र्वोे उसकी उपस्थि^कित का अनुभर्वो नहीं करते, मैं करता हूँ। और मैं सत् यरूप ईश् र्वोर रूप सत् य की पूजा इन मूक देशर्वोाक्तिसयों की सेर्वोा के द्वारा ही करता हूँ।

रोज की जरूरत जिजतना ही रोज पैदा करने का ईश् र्वोर का किनयम हम नहीं जानते, या जानते हुए भी उसे पालते नहीं। इसक्तिलए जगत में असमानता और उसमें से पैदा होने र्वोाले दु:ख हम भुगतते हैं। अमीर के यहाँ उसको न चाकिहए र्वोैसी चीजें भरी पड़ी होती हैं, र्वोे लापरर्वोाही से खो जाती हैं, किबगड़ जाती हैं, जब किक इन् हीं चीजों की कमी के कारण करोड़ों लोग भटकते हैं, भूखों मरते हैं, Fंड से ठिFFुर जाते हैं। सब अगर अपनी जरूरत की चीजों का ही संग्रह करें, तो किकसी को तंगी महसूस न हो और सबको संतो� हो। आज तो दोनों (तंगी) महसूस करते हैं। करोड़पकित अरबपकित होना चाहता है, किफर भी उसको संतो� नहीं होता। कंगाल करोड़पकित होना चाहता है, कंगाल को भरपेट ही मिमलने से संतो� होता हो ऐसा नहीं देखा जाता। किफर भी उसे भरपेट पाने का हक है, और उसे उतना पाने र्वोाला बनाना समाज का फज2 है। इसक्तिलए उसके (गरीब के) और अपने संतो� के खाकितर अमीर को पहल करनी चाकिहए। अगर र्वोह अपना बहुत ज ्यादा परिरग्रह छोडे़, तो कंगाल को अपनी जरूरत का आसानी से मिमल जाए और दोनों पक्ष संतो� का सबक सीखें।

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सही सुधार, सच् ची सभ् यता का लक्षण परिरग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्किwक सोच-समझकर और अपनी इच् छा से उसे कम करना है। ज ्यों-ज ्यों हम परिरग्रह घटाते जाते हैं त् यों-त् यों सच् चा सुख और सच् चा संतो� बढ़ता जाता है, सेर्वोा की शक्ति) बढ़ती जाती है। अभ् यास से, आदत डालने से आदमी अपनी हाजतें घटा सकता है; और ज ्यों-ज ्यों उन् हें घटाता जाता है त् यों-त् यों र्वोह सुखी, शांत और सब तरह से तंदुरुस् त होता जाता है।

सुनहला किनयम तो... यह है किक जो चीज लाखों लोगों को नहीं मिमल सकती, उसे लेने से हम भी दृढ़तापूर्वो2क इनकार कर दें। त् याग की यह शक्ति) हमें कहीं से एकाएक नहीं मिमल जाएगी। पहले तो हमें ऐसी मनोर्वोृणिu पैदा करनी चाकिहए किक हमें उन सुख-सुकिर्वोधाओं का उपयोग नहीं करना है, जिजनसे लाखों लोग र्वोंक्तिचत हैं। और उसके बाद तुरंत ही अपनी इस मनोर्वोृणिu के अनुसार हमें शीघ्रतापूर्वो2क अपना जीर्वोन बदलने में लग जाना चाकिहए।

ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, नानक, कबीर, चैतन्य, शंकर, दयानंद, रामकृष्ण आठिद ऐसे व्यक्ति) थ,े जिजनका हजारों- लाखों लोगों पर गहरा प्रभार्वो पड़ा और जिजन्होंने उनके चरिरत्र का किनमा2ण किकया। र्वोे दुकिनया में आए तो उससे दुकिनया समृद्ध

हुई है। और रे्वो सब ऐसे व्यक्ति) थे जिजन्होंने गरीबी को जान- बूझकर अपनाया।

14 शरीर-श्रम पीछे     आगे

महान प्रकृकित की इच् छा तो यही है किक हम अपनी रोटी पसीना बहाकर कमाए।ँ इसक्तिलए जो आदमी अपना एक मिमनट भी बेकारी में किबताता है, र्वोह उस हद तक अपने पड़ोक्तिसयों पर बोझ बनता है। और ऐसा करना अहिह�सा के किबलकुल पहले ही किनयम का उल् लंघन करना है। ...अहिह�सा यठिद अपने पड़ोसी के किहत का खयाल रखना न हो तब तो उसका कोई अथ2 ही न रहे। आलसी आदमी अहिह�सा की इस प्रारंणिभक कसौटी में ही खोटा क्तिसद्ध होता है।

रोटी के क्तिलए हर एक मनु�् य को मजदूरी करना चाकिहए, शरीर को (कमर को) झुकाना चाकिहए, यह ईश् र्वोर का कानून है। मूल खोज टॉल् स् टॉय की नहीं है, लेकिकन उससे बहुत कम मशहूर रक्तिशयन लेखक टी.एम. बोन् दरेर्वो् ह की है। टॉल् स् टॉय ने उसे रोशन किकया और अपनाया। इसकी झाँकी मेरी आँखे भगर्वोद्गीता के तीसरे अध् याय में करती हैं। यज्ञ किकए किबना जो खाता है र्वोह चोरी का अन् न खाता है, ऐसा कठिFन शाप यज्ञ नहीं करने र्वोाले को ठिदया गया है। यहाँ यज्ञ का अथ2 जात-मेहनत या रोटी-मजदूरी ही शोभता है और मेरी राय में यही मुमकिकन है।

जो भी हो, हमारे इस व्रत का जन् म इस तरह हुआ है। बुजिद्ध भी उस चीज की ओर हमें ले जाती है। जो मजदूरी नहीं करता उसे खाने का क् या हक है? बाइबल कहती है: 'अपनी रोटी तू अपना पसीना बहाकर कमा और खा।' करोड़पकित भी अगर अपने पलंग पर लोटता रहे और उसके मुँह में कोई खाना डाले तब खाए, तो र्वोह ज ्यादा देर तक खा नहीं सकेगा, उसमें उसको मजा भी नहीं आएगा। इसक्तिलए र्वोह कसरत र्वोगैरा करके भूख पैदा करता है और खाता तो है अपने ही हाथ-मुँह किहलाकर। अगर यों किकसी-न-किकसी रूप में अंगों की कसरत राजा-रंक सबकों करनी ही पड़ती है, तो रोटी पैदा करने की कसरत ही सब क् यों न करें ? ᣛ यह सर्वोाल कुदरती तौर पर उFता है। किकसान को हर्वोाखोरी या कसरत करने के क्तिलए कोई कहता नहीं है और दुकिनया के 90 फीसदी से भी ज ्यादा लोगों का किनर्वोा2ह खेती पर होता है। बाकी के दस फीसदी लोग अगर इनकी लकल करें, तो जगत में किकतना सुख, किकतनी शांकित और किकतनी तंदुरुस् ती फैल जाएँ ? ᣛ और अगर खेती के साथ बुजिद्ध भी मिमले, तो खेती से संबंध रखने र्वोाली बहुत-सी मुसीबतें आसानी से दूर हो जाएगँी। किफर, अगर इस जात-मेहनत के किनरपर्वोाद कानून को सब मानें तो ऊँच-नीच का भेद मिमट जाए।

आज तो जहाँ ऊँच-नीच गंध भी र्वोहाँ यानी र्वोण2-र्वो् यर्वोस् था में भी र्वोह घुस गई है। माक्तिलक-मजदूर का भेद आम और स् थायी हो गया है और गरीब धनर्वोान से जलता है। अगर सब रोटी के क्तिलए मजदूरी करें, तो ऊँच-नीच का भेद न रहे; और किफर भी धकिनक र्वोग2 रहेगा तो र्वोह खुद को माक्तिलक नहीं बल्किwक उसस धन का रखर्वोाला या ट्रस् टी मानेगा और उसका ज ्यादातर उपयोग क्तिसफ2 लोगों की सेर्वोा के क्तिलए ही करेगा।

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जिजसे अहिह�सा का पालन करना हैं, सत् य की भक्ति) करनी है, ब्रम् हाचय2 को कुदरती बनाना है, उसके क्तिलए तो जात-मेहनत रामबाण-सी हो जाती है। यह मेहनत सचमुच तो खेती में ही हैं। लेकिकन सब खेती नहीं कर सकते, ऐसी आज तो हालत है ही। इसक्तिलए खेती के आदश2 को खयाल में रखकर खेती के एर्वोज में आदमी भले-दूसरी मजदूरी करे-जैसे कताई, बुनाई, बढ़ाईकिगरी, बुहारी र्वोगैरा-र्वोगैरा। सबको खुद के भंगी तो बनना ही चाकिहए। जो खाता है र्वोह टट्टी तो किफरेगा ही। इसक्तिलए जो टट्टी किफरता है र्वोही अपनी टट्टी जमीन में गाड़ दे यह उत् तम रिरर्वोाज है। अगर यह नहीं ही हो सके तो प्रत् येक कुटंुब अपना यह फज2 अदा करे।

जिजस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है, उसमें कोई बड़ा दो� पैF गया है, ऐसा मुझे तो बसरों से लगता रहा है। इस जरूरी और तंदुरुस् ती बढ़ाने र्वोाले (आरोग् य-पो�क) काम को सबसे नीचा काम पहले-पहल किकसने माना, इसका इकितहास हमारे पास नहीं है। जिजसने माना उसने हम पर उपकार तो नहीं ही किकया। हम सब भंगी है यह भार्वोना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाकिहए; और उसका सबसे आसान तरीका यह है किक जो समझ गए हैं र्वोे जात-मेहनत का आरंभ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर, ज्ञानपूर्वो2क यह करेगा, र्वोह उसी क्षण से धम2 को किनराले ढँग से और सही तरीके से समझने लगेगा।

अमिधकारों की उत् पणिu उत् पणिu का सच् चा स् त्रोत कत2र््वो यों का पालन है। यठिद हम सब अपने कत2र््वो यों का पालन करें, तो अमिधकारों को ज ्यादा ढँूढने की जरूरत नहीं रहेगी। लेकिकन यठिद हम कत2र््वो यों को पूरा किकए किबना अमिधकारों के पीछे दौड़ें, तो र्वोह मृग-मरीक्तिचका के पीछे पड़ने जैसा ही र्वो् यथ2 क्तिसद्ध होगा। जिजतने हम उनके पीछे जाएगँे उतने ही र्वोे हमसे दूर हटते जाएगँे। यही क्तिशक्षा श्रीकृ�् ण ने इन अमर शब् दों में दी है : 'तुम् हारा अमिधकार कम2 में ही है, फल में कदाकिप नहीं।' यहाँ कम2 कत्2 तर्वो् य है और फल अमिधकार।

जीर्वोन की आर्वोश् यकताओं को पाने का हर एक आदमी को समान अमिधकार है। यह अमिधकार तो पशुओं और पणिक्षयों को भी है। और चँूकिक प्रत् येक अमिधकार के साथ एक संबंमिधत कत्2 तर्वो् य जुड़ा हुआ है और उस अमिधकार पर कहीं से कोई आक्रमण हो तो उसका र्वोैसा ही इलाज भी है, इसक्तिलए हमारी समस् या का रूप यह है किक हम प्रारंणिभक बुकिनयादी समानता को क्तिसद्ध करने के क्तिलए उस समानता के अमिधकार से जुडे़ हुए कत्2 तर्वो् य और इलाज ढँूढ़ किनकालें। र्वोह कत्2 तर्वो् य यह है किक हम अपने हाथ-पाँर्वो से मेहनत करें और र्वोह इलाज यह है किक जो हमें हमारी मेहनत के फल से र्वोंक्तिचत करे उसके साथ हम असहयोग करें।

जीर्वोन की आर्वोश् यकताओं को पाने का हर एक आदमीको समान अमिधकार है। यह अमिधकार तो पशुओं और पणिक्षयों को भी है। और चँूकिक प्रत् येक अमिधकार के साथ एक संबंमिधत कत्2 तर्वो् य जुड़ा हुआ है और उस अमिधकार पर कहीं से कोई आक्रमण हो तो उसका र्वोैसा ही इलाज भी है, इसक्तिलए हमारी समस् या का रूप यह है किक हम उस प्रारंणिभक बुकिनयादी समानता को क्तिसद्ध करने के क्तिलए उस समानता के अमिधकार से जुडे़ हुए कत्2 तर्वो् य और इलाज ढँूढ़ किनकालें। र्वोह कत्2 तर्वो् य यह है किक हम अपने हाथ-पाँर्वो से मेहनत करें और र्वोह इलाज यह है किक जो हमें हमारी मेहनत के फल से र्वोंक्तिचत करे उसके साथ हम असहयोग करें।

यठिद सब लोग अपने ही परिरश्रम की कमाई खार्वोें तो दुकिनया अन् न की कमी न रहे, और सबको अर्वोकाश का काफी समय भी मिमले। न तब किकसी को जनसंख् या की र्वोृजिद्ध की क्तिशकायत रहे, न कोई बीमारी आरे्वो, और न मनु�् य को कोई क�् ट या क् लेश सतार्वोे। र्वोह श्रम उच् च-से-उच् च प्रकार का यज्ञ होगा। इसमें संदेह नहीं किक मनु�् य अपने शरीर या बुजिद्ध के द्वारा और भी अनेक काम करेंगे, पर उनका र्वोह सब श्रम लोक-कल् याण के क्तिलए पे्रम का रम होगा। उस अर्वोस् था में न कोई राजा होगा, न कोई रंक; न कोई ऊँचा होगा, और न कोई नीच; न कोई स् पृश् य रहेगा, न कोई अस् पृश् य।

भले ही र्वोह एक अलभ् य आदश2 हो, पर इस कारण हमें अपना प्रयत् न बंद कर देने की जरूरत नहीं। यज्ञ के संपूण2 किनयम को अथा2त् अपने 'जीर्वोन के किनयम' को पूरा किकए किबना भी अगर हम अपने किनत् य के किनर्वोा2ह के क्तिलए पया2प् त शारीरिरक श्रम करेंगे, तो उस आदश2 के बहुत कुछ किनकट तो हम पहुँच ही जाएगँे।

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यठिद हम ऐसा करेंगे तो हमारी आर्वोश् यकताए ँबहुत कम हो जाएगँी। और हमारा भोजन भी सादा बन जाएगा। तब हम जीने के क्तिलए खाएगँे, न किक खाने के क्तिलए जिजएगँे। इस बात की यथाथ2ता में जिजसे शंका हो र्वोह अपने परिरश्रम की कमाई खाने का प्रयत् न करे। अपने पसीने की कमाई खाने में उसे कुछ और ही स् र्वोाद मिमलेगा, उसका स् र्वोास् थ ्य भी अच् छा रहेगा, और उसे यह मालूम हो जाएगा किक जो बहुत-सी किर्वोलास की चीजें उसने अपने ऊपर लाद रखी थी र्वोे सब किबलकुल ही किफजूल थीं।

बुजिद्धपूर्वो2क किकया हुआ शरीर-श्रम समाज-सेर्वोा का सर्वो�त् कृ�् ट रूप है।

यहाँ शरीर-श्रम शब् द के साथ 'बुजिद्धपूर्वो2क किकया हुआ' किर्वोशे�ण यह ठिदखाने के क्तिलए जोड़ा गया है किक किकए हुए शरीर-श्रम के पीछे समाज-सेर्वोा का किनणिZत उदे्दश् य हो, तभी उसे समाज-सेर्वोा का दरजा मिमल सकता है। ऐसा न हो तब तो कहा जाएगा किक हर एक मजदूर समाज-सेर्वोा करता ही है। र्वोैसे, एक अथ2 में यह कथन सही भी है, लेकिकन यहाँ उससे कुछ ज ्यादा अभी�् ट है। जो आदमी सब लोगों के सामान् य कल् याण के क्तिलए परिरश्रम करता है, र्वोह जरूर समाज की ही सेर्वोा करता है; और उसकी आर्वोश् यकताए ँपूरी होनी चाकिहए। इसक्तिलए ऐसा शरीर-श्रम समाज-सेर्वोा से णिभन् न नहीं है।

क् या मनु�् य अपने बौजिद्धक श्रम से अपनी आजीकिर्वोका नहीं कमा सकते ? ᣛ नहीं। शरीर की आर्वोश् यकताए ँशरीर द्वारा ही पूरी होनी चाकिहए। केर्वोल मानक्तिसक और बौजिद्धक श्रम आत् मा के क्तिलए और स् र्वोयं अपने ही संतो� के क्तिलए है। उसका पुरस् कार कभी नहीं माँगा जाना चाकिहए। आदश2 राज् य में डॉक् टर, र्वोकील और ऐसे ही दूसरे लोग केर्वोल समाज के लाभ के क्तिलए काम करेंगे; अपने क्तिलए नहीं। शरीरिरक श्रम के धम2 का पालन करने से समाज की रचना में एक शांत क्रांकित हो जाएगी। मनु�् य की किर्वोजय इसमें होगी किक उसने जीर्वोन-संग्राम के बजाय परस् पर सेर्वोा के संग्राम की स् थापना कर दी। पशु-धम2 के स् थान पर मानर्वो-धम2 कायम हो जाएगा।

देहात में लौट जाने का अथ2 यह है किक शरीर-श्रम के धम2 को उसके तमाम अंगों के साथ हम किनणिZत रूप में स् र्वोेच् छापूर्वो2क स् र्वोीकार करते हैं। परंतु आलोचक कहते हैं, 'भारत की करोड़ों संतानें आज भी देहात में रहती हैं, किफर भी उन् हें पेट भर भोजन नसीब नहीं होता।' अफसोस के साथ कहना पड़ता है किक यह किबलकुल सच बात है। सौभाग् य से हम जानते हैं किक उनका शरीर-श्रम के धम2 का पालन स् र्वोेच् छापूण2 नहीं है। उनका सब चले तो र्वोे शरीर-श्रम कभी न करें और नजदीक के शहर में कोई र्वो् यर्वोस् था हो जाए तो र्वोहाँ दौड़कर चले जाए।ँ मजबूर होकर किकसी माक्तिलक की आज्ञा पालना गुलामी की स्थि^कित है, स् र्वोेच् छा से अपने किपता की आज्ञा मानना पुत्रत् र्वो का गौरर्वो है। इसी प्रकार शरीर-श्रम के किनयम का किर्वोर्वोश होकर पालन करने से दरिरद्रता, रोग और असंतो� उत् पन् न होते हैं। यह दासत् र्वो की दशा है। शरीर-श्रम के किनयम का स् र्वोेच् छापूर्वो2क पालन करने से संतो� और स् र्वोास् थ ्य मिमलता है। और तंदुरुस् ती ही असली दौलत है, न किक सोने-चाँदी के टुकडे़। ग्रामोद्योग-संघ स् र्वोेच् छापूण2 शरीर-श्रम का ही एक प्रयोग है।

भिभखारिरयों की समस् या

मेरी अहिह�सा किकसी ऐसे तंदुरुस् त आदमी को मुफ्त खाना देने का किर्वोचार बरदाश् त नहीं करेगी, जिजसने उसके क्तिलए ईमानदारी से कुछ-न-कुछ काम न किकया हो; और मेरा र्वोश चले तो जहाँ मुफ्त भोजन मिमलता है, र्वोे सब सदाव्रत मैं बंद कर दँू। इससे रा�् ट्र का पतन हुआ है और सुस् ती, बेकारी, दंभ और अपराधों को भी प्रोत् साहन मिमला है। इस प्रकार का अनुक्तिचत दान देश के भौकितक या आध् यास्त्रित्मक धन की कुछ भी र्वोृजिद्ध नहीं करता और दाता के मन में पुण् यात् मा होने का झूFा भार्वो पैदा करता है। क् या ही अच् छी और बुजिद्धमानी की बात हो, यठिद दानी लोग ऐसी सं^ाए ँखोलें जहाँ उनके क्तिलए काम करने र्वोाले स् त्री-पुरु�ों को स् र्वोास् थ ्यप्रद और स् र्वोच् छा हालत में भोजन ठिदया जाए। मेरा खुद का तो यह किर्वोचार है किक चरचा या उससे संबंमिधत किक्रयाओं में से कोई भी काय2 आदश2 होगा। परंतु उन् हें यह स् र्वोीकार न हो तो र्वोे कोई भी दूसरा काम चुन सकते हैं। जो भी हो किनयम यह होना चाकिहए किक 'मेहनत नहीं तो खाना भी नहीं।' प्रत् येक शहर के क्तिलए णिभखमंगों की अपनी-अपनी अलग कठिFन समस् या है, जिजसके क्तिलए धनर्वोान जिजम् मेदार हैं। मैं जानता हूँ किक आलक्तिसयों को मुफ्त भोजन करा देना बहुत आसान है, परंतु ऐसी कोई संस् था संगठिFत करना बहुत कठिFन है जहाँ किकसी को खाना देने से पहले उससे ईमानदारी से काम कराना जरूरी हो। आर्थिथ�क दृमिN से, कम-से-कम शुरू में, लोगों से काम लेने के बाद उन् हें खाना खिखलाने का खच2 मौजूदा मुफ्त के भोजनालयों के

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खच2 से ज ्यादा होगा। लेकिकन मुझे पक् का किर्वोश् र्वोास है किक यठिद हम भूमिमकित की ग कित से देश में बढ़ने र्वोाले आर्वोारागद2 लोगों की संख् या नहीं बढ़ना चाहते, तो अंत में यह र्वो् यर्वोस् था अमिधक सस् ती पडे़गी।

भीख माँगने को प्रोत्साहन देना बेशक बुरा है, लेकिकन मैं किकसी णिभखारी की काम और भोजन ठिदए किबना नहीं लौटाऊँगा। हाँ, र्वोह काम करना मंजूर न करे तो मैं उसे भोजन के किबना ही चला जाने दँूगा। जो लोग शरीर से लाचार

हैं, जैसे लंगडे़ या किर्वोकलांग, उनका पो�णराज्य को करना चाकिहए। लेकिकन बनार्वोटी या सच्ची अंधता की आड़ में भी काफी धोखा- धड़ी चल रही है। किकतने ही ऐसे अंधे है जिजन्होंने अपनी अंधता का लाभ उFाकर काफी पैसा जमा कर

क्तिलया है। र्वोे इस तरह अपनी अंधता का एक अनुक्तिचत लाभ उFाए,ँ इसके बजाय यह ज्यादा अच्छा होगा किक उन्हें अपाकिहजों की देखभाल करने र्वोाली किकसी संस्था में रख ठिदया जाए।

15 सव9दय पीछे     आगे

हमने देखा किक मनु�् य की र्वोृणिuयाँ चंचल हैं। उसका मन बेकार की दौड़-धूप किकया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज ्यादा देते जाए ँर्वोैसे-र्वोैसे ज ्यादा माँगता जाता है। ज ्यादा लेकर भी र्वोह सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोग की इच् छा बढ़ती जाती इसक्तिलए हमारे पुरखों ने भोग की हद बाँध दी। बहुत सोचकर उन् होंने देखा किक सुख-दु:ख तो मन के कारण है। अमीर अपनी अमीरी की र्वोजह से सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। करोड़ो लोग तो गरीब ही रहेंगे, ऐसा देखकर पूर्वो2जों ने भोग की र्वोासना छुड़र्वोाई। हजारों साल पहले जो हल काम में क्तिलया जाता था उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपडे़ थ ेउन् हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी क्तिशक्षा थी र्वोही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को जगह नहीं दी। सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन् होंने दस् तूर के मुताकिबक दाम क्तिलए। ऐसा नहीं था किक हमें यंत्र र्वोगैरा की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिकन हमारे पूर्वो2जों ने देखा किक लोग अगर यंत्र र्वोगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीकित को छोड़ देंगे। उन् होंने सोच-समझकर कहा किक हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके र्वोहीं करना चाकिहए। हाथ-पैरों का इस् तेमाल करने में ही सच् चा सुख है, उसी में तंदुरुस् ती है।

उन् होंने सोचा किक बडे़ शहर कायम करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूतk की टीक्तिलयाँ और र्वोेश् याओं की गक्तिलयाँ पैदा होंगे; गरीब अमीरों से लूटे जाएगँे। इसक्तिलए उन् होंने छोटे गाँर्वोों से ही संतो� माना।

उन् होंने देखा किक राजाओं और उनकी तलर्वोार की बकिनस् बत नीकित का बल ज ्यादा बलर्वोान है। इसक्तिलए उन् होंने राजाओं को नीकितर्वोान पुरु�ों-ऋकि�यों और फकीरों-से कम दरज ेका माना।

ऐसी जिजस प्रजा की कFन है, र्वोह प्रजा दूसरों को क्तिसखाने लायक है; र्वोह दूसरों से सीखने लायक नहीं है।

इस रा�् ट्र में अदालतें थी, र्वोकील थ,े डॉक् टर-र्वोैद्य थे। लेकिकन र्वोे सब Fीक ढँग से किनयम के मुताकिबक चलते थे। सब जानते थ ेकिक ये धंधे बडे़ धंधे नहीं है। और र्वोकील, डॉक् टर र्वोगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थ,े र्वोे तो लोग के आणिश्रत थे। र्वोे लोगों के माक्तिलक बनकर नहीं रहते थे। इंसाफ काफी अच् छा होता था। अदालतों में न जाना लोगों का ध् येय था। उन् हें भरमाने र्वोाले स् र्वोाथ� लोग समाज में नहीं थे। इतनी सड़न भी क्तिसफ2 राजा और राजधानी के आस-पास ही थी। यों आम प्रजा तो उनसे स् र्वोतंत्र रहकर अपने खेंतो का माक्तिलकी हक भोगती थी-खेती करके अपना किनर्वोा2ह करती थी। उसके पास सच् चा स् र्वोराज् य था।

ऐसी नम्रता-शून् यता-आदत डालने से कैसे आ सकती है? लेकिकन व्रतों को सही ढँग से समझने से नम्रता अपने-आप आने लगती है। सत् य का पालन करने की इच् छा रखने र्वोाला अहंकारी कैसे हो सकता है? दूसरे के क्तिलए प्राण न् यौछार्वोर करने र्वोाला अपनी जगह बनाने कहाँ जाए ? ᣛ उसने तो जब प्राण न् यौछार्वोर करने का किनश् चय किकया तभी अपनी देह को फें क ठिदया। ऐसी नम्रता का मतलब पुरु�ाथ2 का अभार्वो तो नहीं है? ऐसा अथ2 हिह�दू धम2 में कर डाला

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गया है सही। और इसीक्तिलए आलस् य को और पाखंड को बहुतेरे स् थानों पर जगह मिमल गई है। सचमुच तो नम्रता के मानी हैं तीव्रतम पुरु�ाथ2, सख् त-से-सख् त मेहनत। लेकिकन र्वोह सब परमाथ2 के क्तिलए होना चाकिहए। ईश्वर खुद चौबीसों घंटे एक साँस से काम करता रहता है, अंगड़ाई लेने तक की फुरसत नहीं लेता। उसके हम हो जाए,ँ उसमें हम मिमल जाए,ँ तो हमारा उद्यम उसके जैसा ही अतंठिद्रत हो जाएगा-होना चाकिहए।

भगर्वोान के नाम पर किकया गया और उसे समर्षिप�त किकया गया कोई भी काम छोटा नहीं है। इस तरह किकए गए हर एक छोटे या बडे़ काम का समान मूल् य है। कोई भंगी यठिद अपना काम भगर्वोान की सेर्वोा भार्वोना से करता हो तो उसके और राजा के काम का, जो अपनी प्रकितभा का उपयोग भगर्वोान के नाम पर और ट्रस् टी की तरह करता है, समान महत् त् र्वो है।

अहिह�सा का पुजारी उपयोकिगतार्वोाद (बड़ी-से-बड़ी संख् या का ज ्यादा-से-ज ्यादा किहत) का समथ2न नहीं कर सकता। र्वोह तो 'सर्वो2भूत-किहताय' यानी सबके अमिधकतम लाभ के क्तिलए ही प्रयत् न करेगा और इस आदश2 की प्राप्तिप्त में मर जाएगा। इस प्रकार र्वोह इसक्तिलए मरना चहेगा किक दूसरे जी सकें । दूसरों के साथ-साथ र्वोह अपनी सेर्वोा भी आप मरकर करेगा। सबके अमिधकतम सुख के भीतर अमिधकांश का अमिधकतम सुख भी मिमला हुआ है। और इसक्तिलए अहिह�सार्वोादी और उपयोगर्वोादी अपने रास् ते पर कई बार मिमलेंगे। हिक�तु अंत में ऐसा भी अर्वोसर आएगा, जब उन् हें अलग-अलग रास् ते पकड़ने होंगे और किकसी-किकसी दशा में एक-दूसरे का किर्वोरोध भी करना होगा। तक2 संगत बने रहने के क्तिलए उपयोकिगतार्वोादी अपने को कभी बक्तिल नहीं कर सकता। परंतु अहिह�सार्वोादी हमेशा मिमट जाने को तैयार रहेगा।

जब तक सेर्वोा की जड़ पे्रम या अहिह�सा में न हो तब तक र्वोह संभर्वो ही नहीं है। सच् चा पे्रम समुद्र की तरह किनस् सीम होता है और हृदय के भीतर ज ्र्वोार की तर उFकर बढ़ते हुए र्वोह बाहर फैल जाता है तथा सीमाओं को पार करके दुकिनया के छोरों तक जा पहुँचता है। सेर्वोा के क्तिलए आर्वोश् यक दूसरी चीज है शरीर-श्रम, जिजसे गीता में यज्ञ कहा गया है; शरीर-श्रम के किबना भी सेर्वोा असंभर्वो है। सेर्वोा के क्तिलए जब कोई पुरु� स् त्री शरीर-श्रम करती है, तभी उसे जीने का अमिधकार प्राप् त होता है।

जब तक हम अपना अहंकार भूलकर शून् यता की स्थि^कित प्राप् त नहीं करते, तब तक हमारे क्तिलए अपने दो�ों को जीतना संभर्वो नहीं है। ईश् र्वोर पूण2 आत् मा-समप2ण के किबना संतु�् ट नहीं होता। र्वोास् तकिर्वोक स् र्वोतंत्रता का इतना मूल् य र्वोह अर्वोश् य चाहता है। और जब मनु�् य अपना ऐसा समप2ण कर चुकता है तब तुरंत ही र्वोह अपने को प्राणिणमात्र की सेर्वोा में लीन पाता है। यह सेर्वोा ही तब उसके आनंद और आमोद का किर्वो�य हो जाती है। तब र्वोह एक किबलकुल नया ही आदमी बन जाता है और ईश् र्वोर की इस सृमिN की सेर्वोा में अपने को खपाते हुए कभी नहीं थकता।

इस सत् य की भक्ति) के कारण ही हमारी हस् ती हो। उसी के क्तिलए हमारा हर एक काम, हर एक प्रर्वोृणिu हो। उसी के क्तिलए हम हर साँस लें। ऐसा करना हम सीखें तो दूसरे सब किनयमों के पास भी आसानी से पहुँच सकते हैं; और उनका पालन भी आसान हो जाएगा। सत् य के बगैर किकसी भी किनयम का शुद्ध पालन नामुमकिकन है।

सत् य की खोज करने र्वोाला, अहिह�सा बरतने र्वोाला परिरग्रह नहीं कर सकता। परमात् मा परिरग्रह नहीं करता। अपने क्तिलए जरूरी चीज र्वोह रोज पैदा करता है। इसक्तिलए अगर हम उस पर पूरा भरोसा रखते हैं, तो हमें समझना चाकिहए किक हमारी जरूरत की चीजें र्वोह रोजाना देता है, और देगा।

सा2न और सा2् य

लोग कहते हैं, 'आखिखर साधन तो साधन ही हैं।' मैं कहूँगा, 'आखिखर तो साधन ही सब कुछ हैं।' जैसे साधन होंगे र्वोैसा ही साध् य होगा। साधन और साध् य को अलग करने र्वोाली कोई दीर्वोार नहीं है। र्वोास् तर्वो में सृमिNकता2 ने हमें साधनों पर किनयंत्रण (और र्वोह भी बहुत सीमिमत किनयंत्रण) ठिदया है; साध् य पर तो कुछ भी नहीं ठिदया। लक्ष् य की क्तिसजिद्ध Fीक उतनी ही शुद्ध होती है, जिजतने हमारे साधन शुद्ध होते हैं। यह बात ऐसी है जिजसमें किकसी अपर्वोाद की गंुजाइश नहीं है।

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हिह�सा पूण2 उपायों से क्तिलया गया स् र्वोराज् य भी हिह�सा पूण2 होगा और र्वोह दुकिनया के क्तिलए तथा खुद भारत के क्तिलए भय का कारण क्तिसद्ध होगा।

गंदे साधनों से मिमलने र्वोाली चीज भी गंदी ही होगी। इसक्तिलए राजा को मारकर राजा और प्रजा एक से नहीं बन सकें गे। माक्तिलक का क्तिसर काटकर मजदूर माक्तिलक नहीं हो सकें गे। यही बात सब पर लागू की जा सकती हैं।

कोई असत् य से सत् य को नहीं पा सकता। सत् य को पाने के क्तिलए हमेशा सत् य का आचरण करना ही होगा। अहिह�सा और सत् य की तो जोड़ी है न ? ᣛ हरकिगज नहीं। सत् य में अहिह�सा क्तिछपी हुई है और अहिह�सा में सत् य। इसक्तिलए मैंने कहा है किक सत् य और अहिह�सा एक ही क्तिसक् के के दो रुख हैं। दोनों की कीमत एक ही है। केर्वोल पढ़ने में ही फक2 है; एक तरफ अहिह�सा है, दूसरी तरफ सत् य। पूरी-पूरी पकिर्वोत्रता के किबना अहिह�सा और सत् य किनभ ही नहीं सकते। शरीर या मन की अपकिर्वोत्रता को क्तिछपाने से असत् य और हिह�सा ही पैदा होगी।

इसक्तिलए सत्यर्वोादी, अहिह�सक और पकिर्वोत्र समाजर्वोादी की दुकिनया में या हिह�दुस्तान में समाजर्वोाद फैला सकता है।

16 संरक्षकता का धिसद्धांत पीछे     आगे

फज2 कीजिजए किक किर्वोरासत के या उद्योग-र्वो् यर्वोसाय के द्वारा मुझे प्रचुर संपणिu मिमल गई। तब मुझे जानना चाकिहए किक र्वोह सब संपणिu मेरी नहीं है, बल्किwक मेरा तो उस पर इतना ही अमिधकार है किक जिजस तरह दूसरे लाखों आदमी गुजर करते हैं उसी तरह मैं भी इज् जत के साथ अपना गुजर भर करँू। मेरी शे� संपणिu पर रा�् ट्र का हक है और उसी के किहताथ2 उसका उपयोग होना आर्वोश् यक है। इस क्तिसद्धांत का प्रकितपादन मैंने तब किकया था, जब किक जमींदारों और राजाओं की संपणिu के संबंध में समाजर्वोादी क्तिसद्धांत देश के सामने आया था। समाजर्वोादी इन सुकिर्वोधा-प्राप् त र्वोगk को खतम कर देना चाहते हैं, जब किक मैं यह चाहता हूँ किक र्वोे (जमींदार और राजा-महाराजा) अपने लोभ और संपणिu के बार्वोजूद उन लोगों के समकक्ष बन जाए ँजो मेहनत करके रोटी कमाते हैं। मजदूरों को भी यह महसूस करना होगा किक मजदूर का काम करने की शक्ति) पर जिजतना अमिधकार है, मालदार आदमी का अपनी संपणिu पर उससे भी कम है।

यह दूसरी बात है किक इस तरह के सच् चे ट्रस् टी किकतने हो सकते है? अगर क्तिसद्धांत Fीक हैं, तो यह बात गौण है किक उनका पालन अनेक लोग कर सकते हैं यह केर्वोल एक ही आदमी कर सकता है। यह प्रश् न आत् म किर्वोश् र्वोास का है। अगर आप अहिह�सा के क्तिसद्धांत को स् र्वोीकार करें, तो आपको उसके अनुसार आचरण करने की कोक्तिशश करनी चाकिहए, चाहे उसमें आपको सफलता मिमले या असफलता। आप यह तो कह सकते हैं किक इस पर अमल करना मुल्किश्कल है, लेकिकन इस क्तिसद्धांत में ऐसे कोई बात नहीं है जिजसके क्तिलए यह कहा जा सके किक र्वोह बुजिद्धग्राह्य नहीं है।

आप कह सकते हैं किक ट्रस् टीक्तिशप तो कानून-शास् त्र की एक कल् पना मात्र है; र्वो् यर्वोहार में उसका कहीं कोई अल्किस्तत् र्वो ठिदखाई नहीं पड़ता। लेकिकन यठिद लोग उस पर सतत किर्वोचार करें और उस आचरण में उतारने की कोक्तिशश भी करते रहें, तो मनु�् य-जाकित के जीर्वोन की किनयामक शक्ति) के रूप में पे्रम आज जिजतना प्रभार्वोशाली ठिदखाई देता है, उससे कहीं अमिधक ठिदखाई पडे़गा। बेशक, पूण2 ट्रस् टीक्तिशप तो युस्थिक्लड की हिब�दु की र्वो् याख् या की तरह एक कल् पना ही है और उतनी ही अप्राप् य भी है। लेकिकन यठिद उसके क्तिलए कोक्तिशश की जाए, तो दुकिनया में समानता की स् थापना की ठिदशा में हम दूसरे किकसी उपाय से जिजतनी दूर तक जा सकते हैं, उसके बजाय इस उपाय से ज ्यादा दूर तक जा सकें गे। ...मेरा दृढ़ किनश् चय है किक यठिद राज् य ने पँूजीर्वोाद को हिह�सा के द्वारा दबाने की कोक्तिशश की, तो र्वोह खुद ही हिह�सा के जाल में फँस जाएगा और किफर कभी भी अहिह�सा का किर्वोकास नहीं कर सकेगा। राज् य हिह�सा का एक कें ठिद्रत और संघठिटत रूप हीं है। र्वो् यक्ति) में आत् मा होती है, परंतु चँूकिक राज् य एक जड़ यंत्र मात्र है इसक्तिलए उसे हिह�सा से कभी नहीं छुड़ाया जो सकता। क् योंकिक हिह�सा से ही तो उसका जन् म होता है इसीक्तिलए मैं ट्रस् टीक्तिशप के क्तिसद्धांत को तरजीह देता हूँ। यह डर हमेशा बना रहता है किक कहीं राज् य उन लागों के खिखलाफ, जो उससे मतभेद रखते हैं, बहुत ज ्यादा हिह�सा का उपयोग न करे। लोग यठिद स् र्वोेच् छा से ट्रप्तिस्टयों की तरह र्वो् यर्वोहार करने लगें, तो मुझे सचमुच बड़ी

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खुशी होगी। लेकिकन यठिद र्वोे ऐसा न करें तो मेरा खयाल है किक हमें राज् य के द्वारा भरसक कम हिह�सा का आश्रय लेकर उनसे उनकी संपणिu ले लेनी पडे़गी। ...(यही कारण है किक मैंने गोलमेज परिर�द में यह कहा था किक सभी किनकिहत किहत र्वोालों की संपणिu की जाँच होनी चाकिहए और जहाँ आर्वोश् यक मालूम हो र्वोहीं उनकी संपणिu राज् य को ...मुआर्वोजा देकर या मुआर्वोजा ठिदए किबना ही, जहाँ जैसा उक्तिचत हो, अपने हाथ में कर लेनी चाकिहए। र्वो् यक्ति)गत तौर पर तो मैं यह चाहूँगा किक राज् य के हाथों में शक्ति) का ज ्यादा कें द्रीकरण न हो, उसके बजाय ट्रस् टीक्तिशप की भार्वोना का किर्वोस् तार हो। क् योंकिक मेरी राय में राज् य की हिह�सा की तुलना में र्वोैयक्ति)क माक्तिलकी की हिह�सा कम हाकिनकार है। लेकिकन यठिद राज् य की माक्तिलकी अकिनर्वोाय2 ही हो, तो मैं भरसक कम-से-कम राज् य की माक्तिलकी की क्तिसफारिरश करँूगा।

आजकल यह कहना एक फैशन हो गया है किक समाज को अहिह�सा के आधार पर न तो संघठिटत किकया जा सकता है और न चलाया जा सकता है। मैं इस कथन का किर्वोरोध करता हूँ। परिरर्वोार में जब किपता पुत्र को अपराध करने पर थप् पड़ मार देता है, तो पुत्र उसका बदला लेने की बात नहीं सोचता। र्वोह अपने किपता की आज्ञा इसक्तिलए स् र्वोीकार कर लेता है किक इस थप् पड़ के पीछे र्वोह अपने किपता के प् यार को आहत हुआ देखता है, इसक्तिलए नहीं किक थप् पड़ उसे र्वोैसा अपराध दुबारा करने से रोकता है। मेरी राय में समाज की र्वो् यर्वोस् था इस तरह होनी चाकिहए; यह उसका एक छोटा रूप है। जो बात परिरर्वोार के क्तिलए सही है, र्वोही समाज के क्तिलए भी सही; क् योंकिक समाज एक बड़ा परिरर्वोार ही है।

मेरा धारण है किक अहिह�सा केर्वोल र्वोैयक्ति)क गुण नहीं है। र्वोह एक सामाजिजक गुण भी है और अन् य गुणों की तरह उसका भी किर्वोकास किकया जाना चाकिहए। यह तो मानना ही होगा किक समाज के पारस् परिरक र्वो् यर्वोहारों का किनयमन बहुत हद तक अहिह�सा के द्वारा होता है। मैं इतना ही चाहता हूँ किक इस क्तिसद्धांत का बडे़ पैमाने पर, रा�् ट्रीय और अंतररा�् ट्रीय पैमाने पर किर्वोस् तार किकया जाए।

मेरा ट्रस् टीक्तिशप का क्तिसद्धांत कोई ऐसी चीज नहीं है, जो काम किनकालने के क्तिलए आज गढ़ क्तिलया गया हो। अपनी मंश क्तिछपाने के क्तिलए खड़ा किकया गया आर्वोरण तो र्वोह हरकिगज नहीं है। मेरा किर्वोश् र्वोास है किक दूसरे क्तिसद्धांत जब नहीं रहेंगे तब भी र्वोह रहेगा। उसके पीछे तत् त् र्वोज्ञान और धम2 के समथ2न का बल है। धन के माक्तिलकों ने इस क्तिसद्धांत के अनुसार आचरण नहीं किकया है, इस बात से यह क्तिसद्ध नहीं होता किक र्वोह क्तिसद्धांत झूF है; इससे धन के माक्तिलकों की कमजोरी मात्र क्तिसद्ध होती है। अहिह�सा के साथ किकसी दूसरे क्तिसद्धांत का मेल ही नहीं बैFता।

अहिह�सक माग2 की खुबी यह है किक अन् यायी यठिद अपना अन् याय दूर नहीं करता, तो र्वोह अपना नाश खुद ही कर डालता है। क् योंकिक अहिह�सक असहयोग के कारण या तो र्वोह अपनी गलती देखने और सुधारने के क्तिलए मजबूर हो जाता है या र्वोह किबलकुल अकेला पड़ जाता है।

मैं इस राय के साथ किन: संकोच अपनी सम्मकित जाकिहर करता हूँ किक आमतौर पर धनर्वोान- केर्वोल धनर्वोान ही क्यों, बल्किwक ज्यादातर लोग- इस बात का किर्वोशे� किर्वोचार नहीं करते किक र्वोे पैसा किकस तर कमाते हैं। अहिह�सक उपाय का प्रयोग करते हुए यह किर्वोश्र्वोास तो होना ही चाकिहए किक कोई आदमी किकतना ही पकितत क्यों न हो, यठिद उसका इलाज

कुशलतापूर्वो2क और सहानुभूकित के साथ किकया जाए तो उसे सुधारा जा सकता है। हमें मनुष्यों में रहने र्वोाले दैर्वोी अंश को प्रभाकिर्वोत करना चाकिहए और अपेक्षा करनी चाकिहए किक उसका अनुकूल परिरणाम किनकलेगा। यठिद समाज का हर एक सदस्य अपनी शक्ति)यों का उपयोग र्वोैयक्ति)क स्र्वोाथ2 साधने के क्तिलए नहीं, बल्किwक सबके कwयाण के क्तिलए करे, तो क्या इससे समाज की सुख- समृजिद्ध में र्वोृजिद्ध नहीं होगी? हम ऐसी जड़ समानता का किनमा2ण नहीं करना चाहते, जिजसमें कोई आदमी योग्यताओं का पूरा- पूरा उपयोग कर ही न सके। ऐसा समाज अंत में नष्ट हुए किबना नहीं रह सकता।

इसक्तिलए मेरी यह सलाह किबलकुल Fीक है किक धनर्वोान लोग चाहे करोड़ों रुपए कमाएँ (बेशक, ईमानदारी से), लेकिकन उनका उदे्दश्य र्वोह सारा पैसा सबके कwयाण में समर्षिप�त कर देने का होना चाकिहए। ' तेन त्यक्तेन भंुजीथा:' मंत्र में

असाधारण ज्ञान भरा पड़ा है। मौजूदा जीर्वोन- पद्धकित की जगह जिजसमें हर एक आदमी पड़ोसी की परर्वोाह किकए किबना केर्वोल अपने ही क्तिलए जीता है, सर्वो2- कwयाणकारी नई जीर्वोन- पद्धकित का किर्वोकास करना हो, तो उसका किनणिZत माग2

यही है।

17 अहिहंसक अर्थ*-व्यवस्था पीछे    

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आगे

मैं कहना चाहता हूँ किक हम सब एक तरह से चोर हैं। अगर मैं कोई ऐसी चीज लेता और रखता हूँ, जिजसकी मुझे अपने किकसी तात् काक्तिलक उपयोग के क्तिलए जरूरत नहीं है, तो मैं उसकी किकसी दूसरे से चोरी ही करता हूँ। यह प्रकृकित का एक किनरपर्वोाद बुकिनयादी किनयम है किक र्वोह रोज केर्वोल उतना ही पैदा करती है जिजतना हमें चाकिहए। और यठिद हर एक आदमी जिजनता उसे चाकिहए उतना ही ले, ज ्यादा न ले, तो दुकिनया में गरीबी न रहे और कोई आदमी भूखा न मरे। मैं समाजर्वोादी नहीं हूँ और जिजनके पास संपणिu का संचय है उनसे मैं उसे छीनना नहीं चाहता। लेकिकन मैं यह जरूर कहता हूँ किक हममें से जो लोग प्रकाश की खोज में प्रयत् नशील हें, उन् हें र्वोयक्ति)गत तौर पर इस किनयम का पालन करना चाकिहए। मैं किकसी से उसकी संपणिu छीनना नहीं चाहता, क् योंकिक र्वोैसा करँू तो मैं अहिह�सा के किनयम से च् युत हो जाऊँगा। यठिद किकसी के पास मेरी अपेक्षा ज ्यादा संपणिu हैं तो भले रहे। लेकिकन यठिद मुझे अपना जीर्वोन किनयम के अनुसार गढ़ना है, तो मैं ऐसी कोई चीज अपने पास नहीं रख सकता जिजसकी मुझे जरूरत नहीं है। भारत में लाखो लोग ऐसे हैं जिजन् हें ठिदन में केर्वोल एक ही बार खाकर संतो� कर लेना पड़ता है और उनके उस भोजन में भी सूखी रोटी और चुटकी भर नमक के क्तिसर्वोा और कुछ नहीं होता। हमारे पास जो कुछ भी है उस पर हमें और आपकों तब तक कोई अमिधकार नहीं है, जब तक इन लोगों के पास पहनने के क्तिलए कपड़ा और खाने के क्तिलए अन् न नहीं हो जाता। हम में और आप में ज ्यादा समझ होने की आशा की जाती है। अत: हमें अपनी जरूरतों का किनयमन करना चाकिहए और स् र्वोेच् छापूर्वो2क अमुक अभार्वो भी सहना चाकिहए, जिजससे किक उन गरीबों का पालन-पो�ण हो सके, उन् हें कपड़ा और अन् न मिमल सके।

मुझे स् र्वोीकार करना चाकिहए किक मैं अथ2किर्वोद्या और नीकितकिर्वोद्या में न क्तिसफ2 कोई स् प�् ट भेद नहीं करता, बल्किwक भेद ही नहीं करता। जिजस अथ2किर्वोद्या से र्वो् यक्ति) या रा�् ट्र के नैकितक कल् याण को हाकिन पहुँचती हो, उसे मैं अनीकितमय और इसक्तिलए पापपूण2 कहूँगा। उदाहरण के क्तिलए, जो अथ2किर्वोद्या किकसी देश को किकसी दूसरे देश का शो�ण करने की अनुमकित देती है र्वोह अनै कितक है। जो मजदूरों को योग् य मेहन्ताना नहीं देते और उनके परिरश्रम का शो�ण करते हैं, उनसे र्वोस् तुए ँखरीदनाया उन र्वोस् तुओं का उपयोग करना पापपूण2 है।

मेरी राय में भारत की-न क्तिसफ2 भारत की बल्किwक सारी दुकिनया की-अथ2 रचना ऐसी होनी चाकिहए किक किकसी भी अन् न और र्वोस् त्र के अभार्वो की तकलीफ न सहनी पडे़। दूसरे शब् दों में, हर एक को इतना काम अर्वोश् य मिमल जाना चाकिहए किक र्वोह अपने खाने-पहनने की जरूरतें पूरी कर सके। और यह आदश2 किनरपर्वोाद रूप से तभी काया¡किर्वोत किकया जा सकता है जब जीर्वोन की प्राथमिमक आर्वोश् यकताओं के उत् पादन के साधन जनता के किनयंत्रण में रहें। र्वोे हर एक को किबना किकसी बाधा के उसी तरह उपलब् ध होने चाकिहए जिजस तरह किक भगर्वोान की दी हुई हर्वोा और पानी हमें उपलब् ध है; किकसी भी हालत में र्वोे दूसरों के शो�ण के क्तिलए चलाए जाने र्वोाले र्वो् यापार का र्वोाहन न बनें। किकसी भी देश, रा�् ट्र या समुदाय का उन पर एकामिधकार अन् यायपूण2 होगा। हम आज न केर्वोल अपने इस दुखी देश में बल्किwक दुकिनया के दूसरे किहस् सों में भी जो गरीबी देखते हैं, उसका कारण इस सरल क्तिसद्धांत की उपेक्षा ही है।

जिजस तरह सच् चे नीकित धम2 में और अच् छे अथ2शास् त्र में कोई किर्वोरोध नहीं होता उसी तरह सच् चा अथ2शास् त्र कभी भी नीकितधम2 के ऊँचे-से-ऊँचे आदश2 का किर्वोरोधी नहीं होता। जो अथ2शास् त्र धन की पूजा करना क्तिसखता है और बलर्वोानों को किनब2लों का शो�ण करके धन का संग्रह करने की सुकिर्वोधा देता हे, उसे शास् त्र का नाम नहीं ठिदया जा सकता। र्वोह तो एक झूFी चीज है, जिजससे हमें कोई लाभ नहीं हो सकता। उसे अपनाकर हम मृत् यु की न् यौता देंगे। सच् चा अथ2शास् त्र तो सामाजिजक न् याय की किहमायत करता है; र्वोह समान भार्वो से सबकी भलाई का-जिजनमें कमजोर भी शामिमल हैं-प्रयत् न करता है और सभ् यजनोक्तिचत संुदर जीर्वोन के क्तिलए अकिनर्वोाय2 है।

मैं ऐसी स्थि^कित लाना चाहता हूँ, जिजसमें सबका सामाजिजक दरजा समान माना जाए। मजदूरी करने र्वोाले र्वोगk को सैकड़ो र्वो�k से सभ् य समाज से अलग रखा गया है और उन् हें नीचा दरजा ठिदया गया है। उन् हें शूद्र कहा गया है और इस शब् द का यह अथ2 किकया गया है किक र्वोे दूसरे र्वोगk से नीचे हैं। मैं बुनकर, किकसान और क्तिशक्षक के लड़कों में कोई भेद नहीं होने दे सकता।

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रचनात् मक काम का यह अंग अहिह�सापूण2 स् र्वोराज् य की मुख् य चाबी है। आर्थिथ�क समानता के क्तिलए काम करने का मतलब है, पँूजी और मजदूरी के बीच के झगड़ों को हमेशा के क्तिलए मिमटाह देना। इसका अथ2 यह होता है किक एक ओर से जिजन मुट्ठीभर पैसे र्वोाले लोगों के हाथ में रा�् ट्र की संपणिu का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया उनकी संपणिu को कम करना और दूसरी ओर से जो करोड़ों लोग अधपेट खाते ओर नंगे रहते हैं, उनकी संपणिu में र्वोृजिद्ध करना। जब तक मुट्ठीभर धनर्वोानों और करोड़ों भूखे रहने र्वोालों के बीच बेइंतहा अंतर बना रहेगा, तब त क अहिह�सा की बुकिनयाद पर चनले र्वोाली राज् य-र्वो् यर्वोस् था कायम नहीं हो सकती है। आजाद हिह�दुस् तान में देश के बडे़-से-बडे़ धनर्वोानों के हाथ में हुकूमत का जिजतना किहस् सा रहेगा, उतना ही गरीबों के हाथ में भी होगा; और तब नई ठिदल् ली में महलों और उनकी बगल में बसी हुई गरीब मजदूर-बल्किस्तयों के टूट-फूटे झोंपड़ों के बीच जो दद2नाक फक2 आज नजर आजा है र्वोह एक ठिदन को भी नहीं ठिटकेगा। अगर धनर्वोान लोग अपने धन को और उसके कारण मिमलने र्वोाली सत् ता को खुद राजी-खुशी से छोड़कर और सबके कल् याण के क्तिलए सबके साथ मिमलकर बरतने को तैयार न होंगे, तो यह तय समजिझए किक हमारे देश में हिह�सक और खंूख् र्वोार क्रांकित हुए किबना न रहेगी। ट्रस् टीक्तिशप या सरपरस् ती के मेरे क्तिसद्धांत का बहुत मजाक उड़ाया गया है, किफर भी मैं उस पर कायम हूँ। यह सच है किक उस तक पहुँचने यानी उसका पूरा-पूरा अमल करने का काम कठिFन है। क् या अहिह�सा की भी यही हालत नहीं है? किफर भी 1920 में हमने यह सीधी चढ़ाई चढ़ने का किनश् चय किकया था।

मेरी सूचना है किक यठिद भारत को अपना किर्वोकास अहिह�सा की ठिदशा में करना है, तो उसे बहुत-सी चीजों का किर्वोकें द्रीकरण करना पडे़गा। कें द्रीकरण किकया जाए तो किफर उसे कायम रखने के क्तिलए और उसकी रक्षा के क्तिलए हिह�साबल अकिनर्वोाय2 है। जिजनमें चोरी करने या लूटने के क्तिलए कुछ है ही नहीं ऐसे सादे घरों की रक्षा के क्तिलए पुक्तिलस की जरूरत नहीं होती। लेकिकन धनर्वोानों के महलों के क्तिलए अर्वोश् य बलर्वोान पहरेदार चाकिहए, जो डाकुओं से उनकी रक्षा करें। यही बात बडे़-बडे़ कारखानों की है। गाँर्वोों को मुख् य मानकर जिजस भारत का किनमा2ण होगा उसे शहर-प्रधान भारत की अपेक्षा-शहर-प्रधान भारत जल, स् थल और र्वोासुसेनाओं से सुसस्थि¢त होगा, तो भी-किर्वोदेशी आक्रमण का कम खतरा रहेगा।

आज तो बहुत ज्यादा और इसक्तिलए बहुत भद्दी आर्थिथ�क असमानता है। समाजर्वोाद का आधार आर्थिथ�क समानता है। अन्यायपूण2 असमानताओं की इस हालत में, जहाँ चंद लोग मालामाल हैं और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी

नसीब नहीं होता, रामराज्य कैसे हो सकता है?

18 समान विवतरण का रास्ता पीछे     आगे

आर्थिथ�क समानता, अथा2त जगत के पास समान संपणिu का होना यानी सबके पास इतनी संपणिu का होना किक जिजससे र्वोे अपनी कुदरती आर्वोश् यकताए ँपूरी कर सकें । कुदरत ने ही एक आदमी का हजमा अगर नाजुक बनाया हो और र्वोह केर्वोल पाँच ही तोला अन् न खा सके, और दूसरे को बीस तोला अन् न खाने की आर्वोश् यकता ही, तो दोनों को अपनी पाचन-शक्ति) के अनुसार अन् न मिमलना चाकिहए। सारे समाज की रचना इस आदश2 के आधार पर होनी चाकिहए। अहिह�सक समाज का दूसरा आदश2 नहीं रखना चाकिहए पूण2 आदश2 तक हम कभी नहीं पहुँच सकते। मगर उसे नजर में रखकर हम किर्वोधान बनार्वोें और र्वो् यर्वोस् था करें। जिजस हद तक हम इस आदश2 को पहूँच सकें गे उसी हद तक सुख और संतो� प्राप् त करेंगे और उसी हद तक सामाजिजक अहिह�सा क्तिसद्ध हुई कही जा सकेगी।

इस आर्थिथ�क समानता के धम2 का पालन एक अकेला मनु�् य भी कर सकता है। दूसरों के साथ की उसे आर्वोश् यकता नहीं रहती। अगर एक आदमी इस धम2 का पालन कर सकता हैं, तो जाकिहर है किक एक मंडल भी कर सकता है। यह कहने की जरूरत इसीक्तिलए है किक किकसी भी धम2 के पालन में जहाँ तक दूसरे उसका पालन न करें र्वोहाँ तक हमें रुके रहने की आर्वोश् यकता नहीं। और किफर ध् येय की आाखिखरी हद तक न पहुँच सके र्वोहाँ तक कुछ त् याग न करने की र्वोृणिu बहुधा लोगों में देखने में आती है। यह भी हमारी गकित को रोकती है।

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अहिह�सा के द्वारा आर्थिथ�क समानता कैसे लाई जा सकती है इसका किर्वोचार करें। पहला कदम यह है किक जिजसने इस आदश2 को अपनाया हो र्वोह अपने जीर्वोन में आर्वोश् यक परिरर्वोत2न करे। हिह�दुस् तान की गरीब प्रजा के साथ अपनी तुलना करके अपनी आर्वोश् यकताए ँकम करे। अपनी धन कमाने की शक्ति) को किनयंत्रण में रखे। जो धन कमार्वोे उसे ईमानदारी से कमाने का किनश् चय करे। सटे्ट की र्वोृणिu हो तो उसका त् याग करे। घर भी अपनी सामान् य आर्वोश् यकता पूरी करने लायक ही रखे और जीर्वोन को हर तरह से संयमी बनार्वोे। अपने जीर्वोन में संभर्वो सुधार कर लेने के बाद अपने मिमलने-जुलने र्वोालों और अपने पड़ोक्तिसयों में आर्थिथ�क समानता की जड़ में धकिनक का ट्रस् टीपन किनकिहत है। इस आदश2 के अनुसार धकिनक को अपने पड़ो सी से एक कौड़ी भी ज ्यादा रखन का अमिधकार नहीं। तब उसके पास जो ज ्यादा है, क् या र्वोह उससे छीन क्तिलया जाए ? ᣛ ऐसा करने के क्तिलए हिह�सा का आश्रय लेना पडे़गा। और हिह�सा के द्वारा ऐसा करना संभर्वो हो, तो भी समाज को उससे कुछ फायदा होने र्वोाला नहीं है। क् योंकिक द्रर्वो् य इकट्ठा करने की शक्ति) रखने र्वोाले एक आदमी की शक्ति) को समाज खो बैFेगा। इसक्तिलए अहिह�सक माग2 यह हुआ किक जिजतनी मान् य हो सकें उतनी अपनी आर्वोश् यकताए ँपूरी करने के बाद जो पैसा बाकी बचे उसका र्वोह पजा की ओर से ट्रस् टी बन जाए। अगर र्वोह प्रामाणिणकता से संरक्षक बनेगा तो जो पैसा पैदा करेगा उसका सद्व ्यय भी करेगा। जब मनु�् य अपने-आपको समाज का सेर्वोक मानेगा, समाज के खाकितर धन कमार्वोेगा, समाज के कल् याण के क्तिलए उसे खच2 करेगा, तब उसकी कमाई में शुद्धता आएगी। उसके साहस में भी अहिह�सा होगी। इस प्रकार की काय2-प्रणाली का आयोजन किकया जाए, तो समाज बगैर संघ�2 के मूक क्रांकित पैदा हो सकती है।

इस प्रकार मनु�् य-स् र्वोभार्वो में परिरर्वोत2न होने का उल् लेख इकितहास में कहीं देखा गया है? ऐसा प्रश् न हो सकता है। र्वो् यक्ति)यों में तो ऐसा हुआ ही है। बडे़ पैमाने पर समाज में परिरर्वोत2न हुआ है, यह शायद क्तिसद्ध न किकया जा सके। इसका अथ2 इतना ही है किक र्वो् यापक अहिह�सा का प्रयोग आज तक नहीं किकया गया। हम लोगों के हृदय में इस झूFी मान् यता ने घर कर क्तिलया है किक अहिह�सा र्वो् यक्ति)गत रूप से ही किर्वोकक्तिसत की जा सकती है और र्वोह र्वो् यक्ति) तक ही मया2ठिदत है। दरअसल बात ऐसी है नही। अहिह�सा सामाजिजक धम2 है, सामाजिजक धम2 के तौर पर र्वोह किर्वोकक्तिसत किकया जा सकता है, यह मनर्वोाने का मेरा प्रयत् न और प्रयोग है। यह नई चीज है इसक्तिलए इसे झूF समझकर फें क देने की बात इस यूग में तो कोई नहीं कहेगा। क् योंकिक बहुत-सी चीजें अपनी आँखों के सामने नई-पुरानी होती हमने देखी हैं। मेरी यह मान् यता है किक अहिह�सा के के्षत्र में इससे बहुत ज ्यादा साहस शक् य है, और किर्वोकिर्वोध धमk के इकितहास इस बात के प्रमाणों से भरे पडे़ हैं। समाज में से धम2 को किनकालकर फें क देने का प्रयत् न बाँझ के घर पुत्र पैदा करने जिजतना ही किन�् फल है; और अगर कहीं सफल हो जाए तो समाज का उसमें नाश है। धम2 के रूपांतर हो सकते हैं। उसमें किनकिहत प्रत् यक्ष र्वोहम, सड़न और अपूण2ताए ँदूर हो सकती हैं, हुई हैं और होती रहेंगी। मगर धम2 तो जहाँ तक जगत है र्वोहाँ तक चलता ही रहेगा, क् योंकिक एक धम2 ही जगत का आधार है। धम2 की अंकितम र्वो् याख् या है ईश् र्वोर का कानून। ईश् र्वोर और इसका कानून अलग-अलग चीजें नही हैं। ईश् र्वोर अथा2त अचक्तिलत, जीता-जागता कानून। उसका पार कोई नहीं पा सकता। मगर अर्वोतारों ने और पैगंबरों ने तपस् या करके उसके कानून की कुछ-न-कुछ झाँकी जगत को कराई है।

हिक�तु महाप्रयत् न करने पर भी धकिनक संरक्षक न बनें, और भूखों मरते हुए करोड़ों को अहिह�सा के नाम से और अमिधक कुचलते जाए तब क् या करें ? ᣛ इस प्रश् न का उत् तर ढँूढने में ही अहिह�सक कानून-भंग प्राप् त हुआ। कोई धनर्वोान गरीबो के सहयोग के किबना धन नहीं कमा सकता। मनु�् य को अपनी हिह�सक शक्ति) का भान है, क् योंकिक र्वोह उसे लाखों र्वो�k से किर्वोरासत में मिमली हुई है। जब उसे चार पैर की जगह दो पैर और दो हाथ र्वोाले प्राणी का आकार मिमला, तब उससे अहिह�सक शक्ति) भी आई। अहिह�सा-शक्ति) का भान भी धीरे-धीरे, हिक�तु अचूक रीकित से रोज-रोज बढ़ने लगा। र्वोह भान गरीबों में प्रसार पा जाए,तो र्वोे बलर्वोान बनें और आर्थिथ�क असमानता को, जिजसके किक र्वोे क्तिशकार बने हुए हैं, अहिह�सक तरीके से दूर करना सीख लें।

भारत की जरूरत यह नहीं हे किक चंद लोगों के हाथों में बहुत सारी पँूज इकट्ठी हो जाए। पँूजी का ऐसा किर्वोतरण होना चाकिहए किक र्वोह इस 1900 मील लंबे और 1500 मील चौडे़ किर्वोशाल देश को बनाने र्वोाले साढे़- सात लाख गाँर्वोों को

आसानी से उपलब्ध हो सके।

19 भारत में अहिहंसा की उपासना पीछे     आगे

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मैं भारत के समक्ष आत् म त् याग का पुराना आदश2 रखने का साहस किकया है। सत् याग्रह और उसकी शाखाए,ँ असहयोग और सकिर्वोनय कानून-भंग, तपस् या के ही दूसरे नाम है। इस हिह�सामय जगत में जिजन् होंने अहिह�सा का किनयम ढँूढ किनकाला, र्वोे ऋकि� न् यूटन से कहीं ज ्यादा बडे़ आकिर्वो�् कारक थे। र्वोे र्वोेक्तिलग् टन से ज ्यादा बडे़ योद्धा थे। र्वोे शास् त्रास् त्रों का उपयोग जानते थ ेऔर उन् हें उनकी र्वो् यथ2ता का किनश् चय हो गया था। और तब उन् होंने हिह�सा से ऊबी हुई दुकिनया को क्तिसखाया किक उसे अपनी मुक्ति) का रास् ता हिह�सा में नहीं बल्किwक अहिह�सा में मिमलेगा। अपने सकिक्रय रूप में अहिह�सा का अथ2 है ज्ञानपूर्वो2क क�् ट सहना। उसका अथ2 अन् यायी की इच् छा के आगे दबकर घुटने टेकना नहीं है; उसका अथ2 यह है किक अत् याचारी की इच् छा के खिखलाफ अपनी आत् मा की सारी शक्ति) लगा दी जाए। जीर्वोन के इस किनयम के अनुसार चलकर तो कोई अकेला आदमी भी अपने सम् मान, धम2 और आत् मा की रक्षा के क्तिलए किकसी अन् यायी साम्राज् य के संपूण2 बल को चुनौती दे सकता है और इस तरह उस साम्राज् य के नाश या सुधार की नींर्वो रख सकता है। और इसक्तिलए मैं भारत से अहिह�सा को अपनाने के क्तिलए कह रहा हूँ तो उसका कारण यह नहीं है किक भारत कमजोर है। बल्किwक मुझे उसके बल और उसकी र्वोीरता का भान है, इसक्तिलए मैं यह चाहता हूँ किक र्वोह अहिह�सा के रास् ते पर चले। उसे अपनी शक्ति) को पकिहचानने के क्तिलए शस् त्रास् त्रों की तालीम की जरूरत नहीं है। हमें उसकी जरूरत इसक्तिलए मालूम होती है किक हम समझते हैं किक हम शरीर-मात्र हैं। मैं चाहता हूँ किक भारत इस बात को पहचान ले किक र्वोह शरीर नहीं बल्किwक अमर आत् मा है, जो हर एक शारीरिरक कमजोर के ऊपर उF सकती है और सारी दुकिनया के सस्त्रिम्मक्तिलत शारीरिरक बल को चुनौती दे सकती है।

भारत की हिह�दू, मुसलमान, क्तिसक् ख या गुरखा आठिद सैकिनक जाकितयों की र्वोैयक्ति)क र्वोीरता और साहस से यह क्तिसद्ध है किक भारतीय प्रजा कायर नहीं है। मेरा मतलब इतना ही है किक युद्ध और रक् तपात भारत को किप्रय नहीं है और संभर्वोत: दुकिनया के भार्वोी किर्वोकास में उसे कोई, ऊँचा किहस् सा अदा करना है। यह तो समय ही बताएगा किक उसका भकिर्वो�् य क् या होने र्वोाला है।

भूतकाल में युगों तक भारत को, यानी भारत की आम जनता को जो तालीम मिमलती रही है र्वोह हिह�सा के खिखलाफ है। भारत में मनु�् य-स् र्वोभार्वो का किर्वोकास इस हद तक हो चुका है किक आम लोगों के क्तिलए हिह�सा के बजाय अहिह�सा का क्तिसद्धांत ज ्यादा स् र्वोा भाकिर्वोक हो गया है।

भारत ने कभी किकसी राष्ट्र के खिखलाफ युद्ध नहीं चलाया। हाँ, शुद्ध आत्म रक्षा के क्तिलए उसने आक्रमणकारिरयों के खिखलाफ कभी- कभी किर्वोरोध का असफल या अधूरा संघटन अर्वोश्य किकया है। इसक्तिलए उसे शांकित की आकांक्षा पैदा

करने की जरूरत नहीं है। शांकित की आकांक्षा तो उसमें किर्वोपुल मात्रा में मौजूद ही है, भले र्वोह इस बात को जाने या न जाने। शांकित की रृ्वोजिद्ध के क्तिलए उसे शांकितमय साधनों के द्वारा अपनी स्र्वोतंत्रता हाक्तिसल करनी चाकिहए। अगर र्वोह

सफलतापूर्वो2क ऐसा कर सके तो यह किर्वोश्र्वोशांकित की ठिदशा में उसकी किकसी एक देश के द्वारा दी जा सकने र्वोाली ज्यादा-से- ज्यादा मदद होगी।

20 सव9दयी राज्य पीछे     आगे

मुझसे किकतने ही लोगों ने संदेह से क्तिसर डुलाते हुए कहा है : 'लेकिकन आप सामान् य जनता को अहिह�सा नहीं क्तिसखा सकते। हिह�सा का पालन केर्वोल र्वो् यक्ति) ही कर सकते है। और सो भी किर्वोरले र्वो् यक्ति)।' मेरी राय में यह साधरण एक मोटी भूल है। यठिद मनु�् य-जाकित आदतन अहिह�सक न होती, तो उसने युगों पहले अपने हाथों अपना नाश कर क्तिलया होता। लेकिकन हिह�सा और अहिह�सा के पारस् परिरक संघ�2 में अंत में अहिह�सा ही सदा किर्वोजयी क्तिसद्ध हुई है। सच तो यह है किक हमने राजनीकितक उदे्दश् य की प्राप्तिप्त के क्तिलए लोगों में अहिह�सा की क्तिशक्षा के प्रसार की पूरी कोक्तिशश करने जिजतना धीरज ही कभी प्रकट नहीं किकया।

मेरी दृमिN में राजनीकितक सत् ता कोई साध् य नहीं है, परंतु जीर्वोन के प्रत् येक किर्वोभाग में लोगों के क्तिलए अपनी हालत सुधार सकने का एक साधन है। राजनीकितक सत् ता का अथ2 है रा�् ट्रीय प्रकितकिनमिधयों द्वारा रा�् ट्रीय जीर्वोन का किनयम करने की शक्ति)। अगर रा�् ट्रीय जीर्वोन इतना पूण2 हो जाता है किक र्वोह स् र्वोयं आत् म -किनयमन कर ले, तो किकसी

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प्रकितकिनमिधu् र्वो की आर्वोश् यकता नहीं रह जाती। उस समय ज्ञानपूण2 अराजकता की स्थि^कित हो जाती है। ऐसी स्थि^कित में हर एक अपना राजा होता है। र्वोह इस ढँग से अपने पर शासन करता हे किक अपने पड़ोक्तिसयों के क्तिलए कभी बाधक नहीं बनता। इसक्तिलए आदश2 अर्वोस् था में कोई राजनीकितक सत् ता नहीं होती, क् योंकिक कोई राज् य नहीं होता। परंतु जीर्वोन में आदश2 की पूरी क्तिसजिद्ध कभी नहीं होती। इसीक्तिलए थोरी ने कहा है किक जो सबसे कम शासन करे र्वोही उत् तम सरकार है।

मैं राज् य की सत् ता की र्वोृजिद्ध को बडे़-से-बडे़ भय की दृमिN से देखता हूँ। क् योंकिक जाकिहरा तौर तो र्वोह शो�ण को कम-से-कम करके लाभ पहुँचाती है। परंतु र्वो् यक्ति)त् र्वो को-जो सब प्रकार की उन् नकित की जड़ है-न�् ट करके र्वोह मानर्वो-जाकित को बड़ी-से-बड़ी हाकिन पहुँचाती है।

राज् य के कें ठिद्रत और संगठिFत रूप में हिह�सा का प्रतीक है। र्वो् यक्ति) के आत् मा होती है, परंतु चँूकिक राज् य एक आत् मा-रकिहत जड़ मशीन होता है, इसक्तिलए उससे हिह�सा कभी नहीं छुड़र्वोाई जा सकती; उसका अल्किस्तत् र्वो ही हिह�सा पर किनभ2र है।

मेरा यह पक् का किर्वोश् र्वोास है किक अगर राज् य हिह�सा से पंजीर्वोाद को दबा देगा, तो र्वोह स् र्वोयं हिह�सा की लपेट में फँस जाएगा और किकसी भी समय अहिह�सा की किर्वोकास नहीं कर सकेगा।

मैं स् र्वोयं तो यह अमिधक पसंद करँूगा किक राज् य के हाथों में सत् ता कें ठिद्रत न करके ट्रस् टीक्तिशप की भार्वोना का किर्वोस् तार किकया जाए। क् योंकिक मेरी राज्य में र्वो् यक्ति)गत स् र्वोामिमत् र्वो की हिह�सा राज् य की हिह�सा से कम हाकिनकारक है। हिक�तु अगर यह अकिनर्वोाय2 हो तो मैं कम-से-कम राजकीय स् र्वोामिमत् र्वो का समथ2न करँूगा।

मुझे जो बात नापसंपद है र्वोह है बल के आधार बना हुआ संगFन; और राज् य ऐसा ही संगFन हे। स् र्वोेच् छापूर्वो2क संगFन जरूर होना चाकिहए।

सर्वोाल यह है किक आदश2 समाज में कोई राजसत् ता रहेगी या र्वोह एक किबलकुल अराजक समाज बनेगा ? ᣛ मेरे खयाल में ऐसा सर्वोाल पूछने से कुछ भी फायदा नहीं हो सकता। अगर हम ऐसे समाज के क्तिलए मेहनत करते रहें, तो र्वोह किकसी हद तक बनता रहेगा, और उस हद तक लोगों को उससे फायदा पहुँचेगा। युस्थिक्लड ने कहा है किक लाइन र्वोही हो सकती है जिजसमें चौड़ाई न हो। लेकिकन ऐसी लाइन या लकीर न तो आज तक कोई बना पाया, न बना पाएगा। किफर भी ऐसी लाइन को खयाल में रखने से ही प्रगकित हो सकती है। और, हर एक आदश2 के बारे में यही सच है।

हाँ, इतना याद रखना चाकिहए किक आज दुकिनया में कहीं भी अराजक समाज मौजूद नहीं है। अगर कभी कहीं बन सकता है, तो उसका आरंभ हिह�दुस् तान में ही हो सकता है। क् योंकिक हिह�दुस् तान में ऐसा समाज बनाने की कोक्तिशश की गई है। आज तक हम आखिखर दरज ेकी बहादुरी नहीं ठिदख सके; मगर उसे ठिदखाने का एक ही रास् ता है, और र्वोह यह है किक जो लोग उसे मानते हैं र्वोे उसे ठिदखाए।ँ ऐसा कर ठिदखाने के क्तिलए, जिजस तरह हमने जेलों का डर छोड़ ठिदया है, उसी तरह हमें मृत् यु का डर भी छोड़ देना होगा।

पुधिलस-बल

अहिह�सक राज् य में भी पुक्तिलस की जरूरत हो सकती है। मैं स् र्वोीकार करता हूँ किक यह मेरी अपूण2 अहिह�सा का क्तिचह्न है। मुझमें फौज की तरह पुक्तिलस के बारे में भी यह घो�णा करने का साहस नहीं है किक हम पुक्तिलस की ताक के किबना काम चला सकते हैं। अर्वोश् य ही मैं ऐसे राज् य की कल् पना कर सकता हूँ और करता हूँ जिजसमें पुक्तिलस की जरूरत नहीं होगी; परंतु यह कल् पना सफल होगी या नहीं, यह तो भकिर्वो�् य ही बताएगा।

परंतु मेरी कwपना की पुक्तिलस आजकल की पुक्तिलस से किबलकुल णिभन्न होगा। उसमें सभी क्तिसपाही अहिह�सा में मानने र्वोालें होंगे। र्वोे जनता के माक्तिलक नहीं, सेर्वोक होंगे। लोग स्र्वोाभाकिर्वोक रूप में ही उन्हें हर प्रकार की सहायता देंगे और

आपस के सहयोग से ठिदन- ठिदन घटने र्वोाले दंगों का आसानी से सामना कर लेंगे। पुक्तिलस के पास किकसा न किकसी

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प्रकार के हक्तिथयार तो होंगे, परंतु उन्हें क्र्वोक्तिचत् ही काम में क्तिलया जाएगा। असल में तो पुक्तिलस र्वोालें सुधरक बन जाएगँे। उनका काम मुख्यत: चोर- डाकुओं तक सीमिमत रह जाएगा। मजदूर और पँूजीपकितयों के झगडे़ और हड़तालें अहिह�सक राज्य में यदा- कदा ही होंगी, क्योंकिक अहिह�सक बहुमत का असर इतना अमिधक रहेगा किक समाज के मुख्य तत्

र्वो उसका आदर करेंगे। इसी तरह सांप्रदामियक दंगों की भी गुजाइश नहीं रहेगी।

21 सत्याग्रह और दुराग्रह पीछे     आगे

मेरी यह दृढ़ धारणा है किक सकिर्वोलय कानून-भंग र्वोैधाकिनक आंदोलन का शुद्धतम रूप है। र्वोेशक, उसमें किर्वोनय और अहिह�सा की जिजस किर्वोक्तिश�् टता का दार्वोा किकया जाता है र्वोह यठिद दूसरों को धोखा देने के क्तिलए ओढ़ क्तिलया गया झूFा आर्वोरण मात्र हो, तो र्वोह लोगों को किगराता है और हिन�दनीय बन जाता है।

कानून की अर्वोज्ञा सच् चे भार्वो से और आरदपूर्वो2क की जाए, उसमें किकसी प्रकार की उद्धतता न हो और र्वोह किकसी Fोस क्तिसद्धांत पर आधारिरत हो तथा उसके पीछे दे्व� या कितरस् कार का लेश भी न हो-यह आखिखरी कसौटी सबसे ज ्यादा महत् त् र्वो की है-तो ही उसे शुद्ध सत् याग्रह कहा जा सकता है।

कानून की सकिर्वोनय अर्वोज्ञा में केर्वोल र्वोे लोग ही किहस् सा ले सकते हैं, जो राज् य द्वारा लादे गए क�् टप्रद कानूनों का-अगर र्वोे उनकी धम2बुजिद्ध या अंत: कारण की चोट न पहुँचाते हों तो-स् र्वोेच् छापूर्वो2क पालन करते हैं और जो इस तरह की गई अर्वोज्ञा का दंड भी उतनी ही खुशी से भोगने के क्तिलए तैयार हों। कानून की अर्वोज्ञा सकिर्वोनय तभी कही जा सकती है, जब र्वोह पूरी तरह अहिह�सक ही। सकिर्वोनय अर्वोज्ञा के पीछे क्तिसद्धांत यह है किक प्रकितपक्षी को खुद क�् ट सहकर यानी पे्रम के द्वारा जीता जाए।

सकिर्वोनय अर्वोज्ञा नागरिरक का जन् मक्तिसद्ध अमिधकार है। र्वोह अपने इस अमिधकार को अपना मनु�् यत् र्वो खोकर ही छोड़ सकता है। सकिर्वोनय अर्वोज्ञा का परिरणाम कभी भी अहराजकता में नहीं आ सकता। दु�् ट हेतु से की गई अर्वोज्ञा से ही अराजकता पैदा हो सकती है। दु�् ट हेतु से की जाने र्वोाली अर्वोज्ञा को हर एक राज् य बलपूर्वो2क अर्वोश् य दबाएगा। तो र्वोह खुद न�् ट हो जाएगा। हिक�तु सकिर्वोनय अर्वोज्ञा का दबाने का अथ2 तो अंतरात् मा की आर्वोाज को दबाने की कोक्तिशश करना है।

चँूकिक सत् याग्रह सीधी करार्वोाई के अत् यंत बलशाली उपायों में से एक है, इसक्तिलए सत् याग्रही सत् याग्रह का आश्रय लेने से पहले और सब उपाय आजमा कर देख लेता है। इसके क्तिलए र्वोह सदा और किनरंतर सत् ता धारिरयों के पास जाएगा, लोकमत को प्रभाकिर्वोत और क्तिशणिक्षत करेगा, जो उसकी सुनना चाहते हैं उन सबके सामने अपना मामला शांकित और Fंडे ठिदमाग से रखेगा और जब ये सब उपाय र्वोह आजमा चुकेगा तभी सत् याग्रह का आश्रय लेगा। परंतु जब उसे अंतना2द की पे्ररक पुकार सुनाई देती है और र्वोह सत् याग्रह छेड़ देता है, तब र्वोह अपना सब-कुछ दाँर्वो पर लगा देता है और पीछे कदम नहीं हटाता।

सत् याग्रह शब् द का उपयोग अक् सर बहुत क्तिशक्तिथलतापूर्वो2क किकया जाता है और क्तिछपी हुई हिह�सा को भी यह नाम दे ठिदया जाता है। लेकिकन इस शब् द के रचमियता के नाते मुझे यह कहने की अनुमकित मिमलनी चाकिहए किक उसमें क्तिछपी हुई अथर्वोा प्रकट सभी प्रकार की हिह�सा का, किफर र्वोह कम2 की हो या मन और र्वोाणी की हो, पूरा बकिह�् कार है। प्रकितपक्षी का बुरा चाहना या उसे हाकिन पहुँचाने के इरादे से उससे या उसके बारे में बुरा बोलना सत् याग्रह का उल् लंघन है। सत् याग्रह एक सौम् य र्वोस् तु है, र्वोह कभी चोट नहीं पहुँचाता। उसके पीछे क्रोध या दे्व� नहीं होना चाकिहए। उसमें शोरगुल, प्रदश2न या उतार्वोली नहीं होती। र्वोह जबरदस् ती से किबलकुल उलटी चीज है। उसकी कल् पना हिह�सा से उलटी परंतु हिह�सा का स् थान पूरी तरह भर सकते र्वोाली चीज के रूप में की गई है।

दुराग्रह

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[अप्रैल 1919 में पंजाब जाते हुए जब गांधी जी को किगरफ्तार कर क्तिलया गया, उस समय उनकी किगरफ्तारी की खबर फैलते ही बंबई में और दूसरी जगहों में हिह�सात् मक उपद्रर्वो शुरू हो गए थे। बाद में जब पुक्तिलस की किनगरानी में उनहें बंबई र्वोाकिपस लाया गया और 11 अप्रैल को छोड़ा गया, तब उन् होंने एक संदेश ठिदया था जो शाम को होने र्वोाली सभाओं में पढ़ा जाना था। इस संदेश का एक अंश इस प्रकार था :]

मेरी किगरफ्तारी पर इतना क्षोभ और इतनी गड़बड़ क् यों हुई, इसका कारण मैं नहीं समझ सका हूँ। यह सत् याग्रह तो नहीं है; इतना ही नहीं, यह दुराग्रहों से भी बुरा है। जो लोग सत् याग्रह से संबंमिधत प्रदश2नों में भाग लेते हैं, र्वोे - उन् हें खतरा हो तो भी - हिह�सा न करने के क्तिलए, पत् थर आठिद न फें कने के क्तिलए, किकसी को किकसी भी तरह चोट न पहुँचाने के क्तिलए बंधे हुए हैं। लेकिकन बंबई में हमने पत् थर फें के हैं और रास् तों में रुकर्वोटें डालकर ट्रम-गाकिड़याँ रोकी हैं। यह सत् याग्रह नहीं है। हमने हिह�सक प्रर्वोृणिuयों के कारण किगरफ्तार किकए गए पचास आदमिमयों के छोडे़ जोने की माँग भी की है। हमारा कत्2 तर्वो् य तो मुख् यता: अपने को किगरफ्तार करर्वोाना है। जिजन् होंने हिह�सा की प्रर्वोृणिuयाँ की है उन् हें छुड़र्वोाने की कोक्तिशश करना धार्मिम�क कत्2 तर्वो् य का उल् लंघन है। इसक्तिलए किगरफ्तार लोगों की रिरहाई की माँग करना हमारे क्तिलए किकसी भी आधार पर उक्तिचत नहीं है।

मैंने ये असंख् य बार कहा है किक सत् याग्रह में हिह�सा, लूटमार, आगजनी आठिद के क्तिलए कोई स् थान नहीं है; लेकिकन इसके बार्वोजूद हमने मकान जलाए हैं, बलपूर्वो2क हक्तिथयार छीने हैं, लोगों को डरा-धमकाकर उनसे पैसा क्तिलया है, रेलगाकिड़याँ रोकी हैं, तार काटे हैं, किनद�� आदमिमयों की हत् या की है और दुकानें तथा लोगों के किनजी घरों में लूटमार की है। इस तरह के कामों से मुझे जेल या फाँसी के तख् ते से बचाया जा सकता हो तो भी मैं इस तरह बचाया जाना पसंद नहीं करँूगा।

हिह�सा के उपायों के प्रयोग से मुझे तो भारत के क्तिलए नाश के क्तिसर्वोा और कुछ नजर नहीं आता। अगर मजदूर लोग अपना गुस् सा देश में प्रचक्तिलत कानून को दु�् ट भार्वो से तोड़कर प्रगट करें, तो मैं कहूँगा किक र्वोे आत् म घात कर रहे हैं ओर भारत को उसके फलस् र्वोरूप अर्वोण2नीय क�् ट भोगने पड़ेंगे। जब मैंने सत् याग्रह और सकिर्वोनय अर्वोज्ञा का प्रचार शुरू किकया, तो उसका यह उदे्दश् य कदाकिप नहीं था किक उसमें कानूनों की दु�् ट भार्वो से की जाने र्वोाली अर्वोज्ञा का भी समारे्वोश होगा। मेरा अनुभर्वो मुझे क्तिसखाता है किक सत् य का प्रचार हिह�सा के द्वार कभी नहीं किकया जा सकता। जिजन् हें अपने ध् येय के औक्तिचत् य में किर्वोश् र्वोास है, उनमें असीम धीरज होना चाकिहए। और कानून की सकिर्वोनय अर्वोज्ञा के क्तिलए केर्वोल र्वोे ही र्वो् यक्ति) योग् य माने जा सकते हैं, जो अकिर्वोनय अर्वोज्ञा (किक्रमिमनल किडसओबीकिडयंस) या हिह�सा किकसी तरह कर ही न सकते हों। जिजस तरह कोई आदमी एक ही समय में संयम और कुकिपत नहीं हो सकता, उसी तरह कोई सकिर्वोनय अर्वोज्ञा और अकिर्वोनय अर्वोज्ञा, दोनों एक साथ नहीं कर सकता। और जिजस तरह आत् म -संयम की शक्ति) अपने मनोकिर्वोकारों पर पूरा किनयंत्रण पा चुकने के बाद ही आती है उस तरह जब हम देश के कानूनों का खुशी से और पूरा-पूरा पालन करना सीख चुके हों, तभी हम उनकी सकिर्वोनय अर्वोज्ञा करने की योग् यता प्राप् त करते हैं, किफर, जिजस तरह किकसी आदमी को हम प्रलोभनों की पहुँच के ऊपर तभी कह सकते हैं, जब किक र्वोह प्रलोभनों से मिघरा रहा हो और किफर भी उनका किनर्वोारण कर सका हो, उसी तरह हमने क्रोध को जीत क्तिलया है ऐसा तभी कहा जा सकता है जब क्रोध का काफी कारण होने पर भी हम अपने ऊपर काबू रखने में कामयाब क्तिसद्ध हों।

कुछ किर्वोद्यार्थिथ�यों ने धरना देने के पुराने जंगलीपन को किफर से जिज�दा किकया है। मैं इसे 'जंगलीपन' इसक्तिलए कहता हूँ किक यह दबार्वो डालने का भद्दा ढँग है। इसमें कायरता भी है, क् योंकिक जो धरना देता है र्वोह जानता है किक उसे कुचलकर कोई नहीं जाएगा। इस कृत् य को हिह�सात् मक कहना तो कठिFन है, मगर र्वोह इससे भी बदतर जरूर है। अगर हम अपने किर्वोरोधी से लड़ते हैं तो कम-से-कम उसे बदले में र्वोार करने का मौका तो देते हैं। लेकिकन जब हम उसे अपने को कुचलकर किनकलने की चुनौती देते हैं - यह जानते हुए किक र्वोह ऐसा नहीं करेगा - तब हम उसे एक अत् यंत किर्वो�म और अपमानजनक स्थि^कित में रख देते हैं। मैं जानता हूँ किक धरना देने के अत् यमिधक जोश में किर्वोद्यार्थिथ�यों ने कभी सोचा भी नहीं होगा किक यह कृत् य जंगलीपन है। परंतु जिजससे यह आशा की जाती है किक र्वोह अंत:करण की आर्वोाज पर चलेगा और भारी किर्वोपणिuयों का अकेले ही सामना करेगा, र्वोह किर्वोचारहीन नहीं बन सकता। इसक्तिलए असहयोकिगयों को हर काम में पहले से ही सचेत रहना चाकिहए। उनके काम में कोई अधीरता, कोई जंगलीपन, कोई गुस् ताखी और कोई अनुक्तिचत दबार्वो नहीं होना चाकिहए।

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यठिद हम लोकशाही की सच् ची भार्वोना का किर्वोकास करना चाहते हैं, तो असकिह�् णु नहीं हो सकते। असकिह�् णुता से अपने ध् येय में हमारे किर्वोश् र्वोास की कमी प्रगट होती है।

शासन के खिखलाफ किर्वोरे्वोकरकिहत किर्वोरोध चलाया जाए, तो उससे अराजकता की, अकिनयंकित्रत स् र्वोच् छंदता की स्थि^कित पैदा होगी और समाज अपने ही हाथों अपना नाश कर डालेगा।

कानून की सकिर्वोनय अर्वोज्ञा की पूर्वो2र्वोत� अकिनर्वोाय2 शत2 यह है किक इसमें इस बात का पूरा आश् र्वोासन होना चाकिहए किक अर्वोज्ञा-आंदोलन में भाग लेने र्वोाली की ओर से या आम जनता की ओर से कहीं कोई हिह�सा नहीं होगी। हिह�सक उपद्रर्वो होने पर यह कहना किक उसके पीछे राज् य का या अर्वोज्ञाकारिरयों का किर्वोरोध करने र्वोाले दूसरे दलों का हाथ है उक्तिचत उत् तर नहीं है। जाकिहर है किक सकिर्वोनय अर्वोज्ञा का आंदोलन हिह�सा के र्वोातार्वोरण में नहीं पनप सकता। इसका यह मतलब नहीं किक ऐसी स्थि^कित में सत् याग्रही के पास किफर कोई उपाय ही नहीं रह जाता। उसे सकिर्वोनय अर्वोज्ञा से णिभन् न दूसरे उपायों की खोज करनी चाकिहए।

सत् याग्रह में उपवास

उपर्वोास सत् याग्रह के शस् त्रागार का एक अत् यंत शक्ति)शाली अस् त्र है। उसे हर कोई नहीं कर सकता। केर्वोल शारीरिरक योग् यता इसके क्तिलए कोई योग् यता नहीं है। ईश् र्वोर में जीती-जागती श्रद्धा न हो, तो दूसरी योग् यताए ँकिनरुपयोगी हैं। र्वोह किनरायांकित्रक प्रयत् न या अनुकरण कभी नहीं होना चाकिहए। उसकी पे्ररणा अपनी अंतरात् मा की गहराई से आनी चाकिहए। इसक्तिलए र्वोह बहुत किर्वोरल होता है।

लेकिकन मैं एक सामान् य क्तिसद्धांत का उल् लेख करना चाहूँगा। सत् याग्रही को उपर्वोास अंकितम उपाय के तौर पर ही करना चाकिहए, यानी तब जब किक अपनी क्तिशकायत दूर करर्वोाने के और सब उपाय किर्वोफल हो गए हों। उपर्वोास में अनुकरण के क्तिलए कोई गंुजाइश नहीं है। जिजसमें आंतरिरक शक्ति) न हो उसे उपर्वोास का किर्वोचार भी नहीं करना चाकिहए। उपर्वोास सफलता की आसक्ति) रखकर कभी न कभी जाए। ... जिजनमें उपर्वोास का तत् र्वो नहीं होता ऐसे उपहासास् पद उपर्वोास बीमारी की तरह फैलते हैं और हाकिनकारक क्तिसद्ध होते हैं।

बेशक, इस बात से इनकार नहीं किकया जा सकता किक उपर्वोासों में बलात् कार का तत् र्वो कभी-कभी जरूर हो सकता है। कोई स् र्वोाथ2पूण2 उदे्दश् य प्राप् त करने के क्तिलए किकए जाने र्वोाले उपर्वोासों में यह बात होती है। किकसी र्वो् यक्ति) से उसकी इच् छा के खिखलाफ पैसा खींचने या ऐसा कोई र्वोैयक्ति)क स् र्वोाथ2 क्तिसद्ध करने के क्तिलए किकया गया उपर्वोास अनुक्तिचत दबार्वो डालना या बलात् कार का प्रयोग करना ही कहा जाएगा। मेरे खिखलाफ किकए गए उपर्वोासों में अथर्वोा जब मुझे अपने खिखलाफ उपर्वोास करने की धमकिकयाँ दी गई हैं तब-मैंने उसमें रहे अनुक्तिचत दबार्वो का सफल प्रकितरोध किकया है। अगर यह कहा जाए किक स् र्वोाथ2पूण2 और स् र्वोाथ2हीन प्रयोजनों की किर्वोभाजक रेखा बहुत अस् प�् ट है और इसक्तिलए उनका Fीक किनण2य नहीं किकया जा सकता, तो मेरी सलाह यह है किक जो आदमी किकसी उपर्वोास के उदे्दश् य को स् र्वोाथ2पूर्वो2क या अन् यथा किनदंनीय मानता है उसे उस उपर्वोास के सामने झुकने से दृढ़तापूर्वो2क इनकार कर देना चाकिहए, चाहे इस कारण उपर्वोास करने र्वोाले की मृत् यु ही क् यों हो जाए।

यठिद लोग उपर्वोासों की उपेक्षा करने लग जाए,ँ जो उनके मतानुसार अनुक्तिचत उदे्दश्यों की प्राप्तिप्त के क्तिलए किकए गए हों, तो इन उपर्वोासों में बलात्कार या अनुक्तिचत दबार्वो का जो दो� पाया जाता है उससे रे्वो मुक्त हो जाएगँे। दूसरी मनुष्य-

कृत काय2- प्रणाक्तिलयों की तरह उपर्वोास के भी उक्तिचत और अनुक्तिचत दोनों प्रकार के उपयोग हो सकते हैं।

22 विकसान पीछे     आगे

यठिद भारतीय समाज को शांकितपूण2 माग2 पर सच् ची प्रगकित करनी है, तो धकिनक र्वोग2 को किनणिZत रूप से स् र्वोीकार कर लेना होगा किक किकसान के पास भी र्वोैसी ही आत् मा है जैसी उनके पास है और अपनी दौलत के कारण र्वोे गरीब से

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श्रे�् F नहीं हैं। जैसा जापान के उमरार्वोों ने किकया, उसी तरह उन् हें भी अपने-आपको संरक्षक मानना चाकिहए। उनके पास जो धन है उसे यह समझकर रखना चाकिहए किक उसका उपयोग उन् हें अपने संरणिक्षत किकसानों की भलाई के क्तिलए करना है। उस हालत में र्वोे अपने परिरश्रम के कमीशन के रूप में र्वोाजिजब रकम से ज ्यादा नहीं लेंगे। इस समय धकिनक र्वोग2 के सर्वो2था अनार्वोश् यक ठिदखारे्वो और किफजूल-खच� में तथा जिजन किकसानों के बीच में र्वोे रहते हैं उनके गंदगी भरे र्वोातार्वोरण और कुचल डालने र्वोाले दारिरद्रय में कोई अनुपात नहीं है। इसक्तिलए एक आदश2 जमींदार किकसान का बहुत कुछ बोझा, जो र्वोह अभी उFा रहा है, एकदम घटा देगा। र्वोह किकसानों के गहरे संपक2 में आएगा और उनकी आर्वोश् यकताओं को जानकर उस किनराशा के स् थान पर, जो उनके प्राणों को सुखाए डाल रही हैं, उनमें आशा का संचार करेगा। र्वोह किकसानों के सफाई और तंदुरुस् ती के किनयमों के अज्ञान को दश2क की तरह देखता नहीं रहेगा बल्किwक इस अज्ञान को दूर करेगा। किकसानों के जीर्वोन की आर्वोश् यकताओं की पूर्षित� करने के क्तिलए र्वोह स् र्वोयं अपने को दरिरद्र बना लेगा। र्वोह अपने किकसानों की आर्थिथ�क स्थि^कित का अध् ययन करेगा और ऐसे स् कूल खोलेगा, जिजनमें किकसानों के बच् चों के साथ-साथ अपने खुद के बच् चों को भी पढ़ाएगा। र्वोह गाँर्वो के कुए ँऔर तालाब को साफ कराएगा। र्वोह किकसानों को अपनी सड़कें और अपने पाखाने खुद आर्वोश् यक परिरश्रम करके साफ करना क्तिसखाएगा। र्वोह किकसानों के बेरोक-टोक इस् तेमाल के क्तिलए अपने खुद के बाग-बगीचे किन:संकोच भार्वो से खोल देगा। जो गैर-जरूरी इमारतें र्वोह अपनी मौज के क्तिलए रखता है, उनका उपयोग अस् पताल, स् कूल या ऐसे ही कामों के क्तिलए करेगा।

किकसानों का-किफर र्वोे भूमिमहीन मजदूर हों या मेहनत करने र्वोाले जमीन-माक्तिलक हों-स् थान पहला है। उनके परिरश्रम से ही पृथ ्र्वोी फलप्रसू और समृद्ध हुई हैं और इसक्तिलए सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाकिहए, जमीन से दूर रहने र्वोाले जमींदारों की नहीं। लेकिकन अहिह�सक पद्धकित में मजदूर-किकसान इन जमींदारों से उनकी जमीन बलपूर्वो2क नहीं छीन सकता। उसे इस तरह काम करना चाकिहए किक जमींदार के क्तिलए उसका शो�ण करना असंभर्वो हो जाए। किकसानों में आपस में घकिन�् F सहकार होना किनतांत आर्वोश् यक है। इस हेतु की पूर्षित� के क्तिलए, जहाँ र्वोैसी समिमकितयाँ न हों र्वोहाँ र्वोे बनाई जानी चाकिहए और जहाँ हों र्वोहाँ आर्वोश् यक होने पर उनका पुनग2Fन होना चाकिहए। किकसान ज ्यादातर अनपढ़ हैं। स् कूल जाने की उमर र्वोालों को और र्वोयस् कों को क्तिशक्षा दी जानी चाकिहए। क्तिशक्षा पुरू�ों और स्त्रिस्त्रयों, दोनों को दी जानी चाकिहए। भूमिमहीन खेकितहर मजदूरों को मजदूरी इस हद तक बढ़ाई जानी चाकिहए किक र्वोे सभ् य जनोक्तिचत जीर्वोन की सुकिर्वोधाए ँप्राप् त कर सकें । यानी, उन् हें संतुक्तिलत भोजन और आरोग् य की दृमिN से जैसी चाकिहए र्वोैसे घर और कपडे़ मिमल सकें ।

मुझे इसमें कोई संदेह नहीं किक यठिद हमें लोकतांकित्रक स् र्वोराज् य हाक्तिसल हो और यठिद हमने अपनी स् र्वोतंत्रता अहिह�सा से पाई तो जरूर ऐसा ही होगा- तो उसमें किकसानों के पास राजनीकितक सत् ता के साथ हर किकस् म की सत् ता होनी चाकिहए।

अगर स्र्वोराज्य सारी जनता की कोक्तिशशों के फलस्र्वोरूप आता है, और चँूकिक हमारा हक्तिथयार अहिह�सा है इसक्तिलए ऐसा ही होगा, तो किकसानों को उनकी योग्य स्थि^कित मिमलनी ही चाकिहए और देश में उनकी आर्वोाज ही सबसे ऊपर होनी

चाकिहए। लेकिकन यठिद ऐसा नहीं होता है और मया2ठिदत मतामिधकार के आधार पर सरकार और प्रजा के बीच कोई व् यर्वोहारिरक समझौता हो जाता है, तो किकसानों के किहतों को ध्यान से देखते रहना होगा। अगर किर्वोधान- सभाएँ किकसानों

के किहतों की रक्षा करने में असमथ2 क्तिसद्ध होती हैं, तो किकसानों के पास सकिर्वोनय अर्वोज्ञा और असहयोग का अचूक इलाज तो हमेशा होगा ही। लेकिकन .... अंत में अन्याय या दमन से जो चीज प्रजा की रक्षा करती है, र्वोह कागजों पर

क्तिलखे जाने र्वोाले कानून, र्वोीरतापूण2 शब्द या जोशीले भा�ण नहीं हैं, बल्किwक अहिह�सक संघटन, अनुशासन और बक्तिलदान से पैदा होने र्वोाली ताकत हैं।

23 गाँवों की ओर पीछे     आगे

मेरा किर्वोश् र्वोास है और मैंने इस बात को असंख् य बार दुहराया है किक भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्किwक सात लाख गाँर्वोों में बसा हुआ है। लेकिकन हम शहरर्वोाक्तिसयों का ख् याल है किक भारत शहरों में ही है और गाँर्वोों का किनमा2ण शहरों की जरूरतें पूरी करने के क्तिलए ही हुआ है। हमने कभी यह सोचने की तकलीफ ही नहीं उFाई किक उन गरीबों को पेट

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भरने जिजतना अन् न और शरीर ढकने जिजतना कपड़ा मिमलता है या नहीं और धूप तथा र्वो�ा2 से बचने के क्तिलए उनके क्तिसर पर छप् पर है या नहीं।

मैंने पाया है किक शहरर्वोाक्तिसयों ने आम तौर पर ग्रामर्वोाक्तिसयों का शो�ण किकया है; सच तो यह है किक र्वोे गरीब ग्रामर्वोाक्तिसयों की ही मेहनत पर जीते हैं। भारत के किनर्वोाक्तिसयों की हालत पर कई किब्रठिटश अमिधकारिरयों ने बहुत कुछ क्तिलखा है। जहाँ तक मैं जानता हूँ किक किकसी ने भी यह नहीं कहा है किक भारतीय ग्रामर्वोाक्तिसयों को भरपेट अन् न मिमलता है। उलटे, उन् होंने यह स् र्वोीकार किकया है किक अमिधकांश आबादी लगभग भुखमरी की हालत में रहती है, दस प्रकितशत अधभूखी रहती है और लाखों लोग चुटकी भर नमक और मिमचk के साथ मशीनों का पाक्तिलश किकया हुआ किन:सत् त् र्वो चार्वोल या रूखा-सूखा अनाज खाकर अपना गुजारा चलाते हैं।

आप किर्वोश् र्वोास कीजिजए किक यठिद उस किकस् म के भोजन पर हम लोगों में से किकसी को रहने के क्तिलए कहा जाए, तो हम एक माह से ज ्यादा जीने की आशा नहीं कर सकते, या किफर हमें यह डर लगेगा किक ऐसा खाने में कहीं हमारी ठिदमागी शक्ति)याँ न�् ट न हो जाए।ँ लेकिकन हमारे ग्रामर्वोाक्तिसयों को इस हालत में से रोज-रोज गुजरना पड़ता है।

हमारी आबादी का पचहत् तर प्रकितशत से ज ्यादा किहस् सा कृकि� जीर्वोी है। लेकिकन यठिद हम उनसे उनकी मेहनत का सारा फल खुद छीन छीन लें या दसरों को छीन लेने दें, तो यह नहीं कहा जा सकता किक हममें स् र्वोराज् य की भार्वोना काफी मात्रा में है।

शहर अपनी किहफाजत आप कर कर सकते हैं। हमें तो अपना ध् यान गाँर्वोों की ओर लगाना चाकिहए। हमें उन् हें उनकी संकुक्तिचत दृमिN, उनके पूर्वोा2ग्रहों और र्वोहमों आठिद से मुक् त करना है; और इसे करने का क्तिसर्वोा इसके और कोई तरीका नहीं है किक हम उनके साथ उनके बीच में रहें, उनके सुख-दु:ख में किहस् सा लें और उनमें क्तिशक्षा का तथा उपयोगी ज्ञान का प्रचार करें।

हमें आदश2 ग्रामर्वोासी बनना है; ऐसे ग्रामर्वोा सी नहीं जिजन् हें सफाई की या तो कोई समझ ही नहीं है या तो बहुत किर्वोक्तिचत्र प्रकार की, और जो इस बात का कोई किर्वोचार ही नहीं करते किक र्वोे क् या खाते हैं और कैसे खाते हैं। उनमें से ज ्यादातर लोग चाहे जिजस तरह अपना खाना पका लेते हैं, किकसी भी तरह खा लेते हैं और किकसी भी तरह रह लेते हैं। र्वोैसा हमें नहीं करना है। हमें चाकिहए किक हम उन् हें आदश2 आहार बतलाए।ँ आहार के चुनार्वो में हमें अपनी रुक्तिचयों और अरुक्तिचयों का किर्वोचार नहीं करना चाकिहए, बल्किwक खाद्य र्वोस् तुओं के पो�क तत् र्वोों पर नजर रखनी चाकिहए।

हमें जिजनकी पीF पर जलता हुआ सूरज अपनी किकरणों के तीर बरसात है और उस हालत में भी जो कठिFन परिरश्रम करते रहते हैं उन ग्रामर्वोाक्तिसयों से एकता साधनी है। हमें सोचना है किक जिजस पोखर में र्वोे नहाते हैं और अपने कपडे़ तथा बरतन धोते हैं और जिजसमें उनके पशु लोटते और पानी पीते हैं, उसी में से यठिद हमें भी उनकी तरह पीने का पानी लेना पडे़ तो हमें कैसा लगेगा। तभी हम उस जनता का Fीक प्रकितकिनमिधत् र्वो कर सकें गे और तब र्वोे हमारे कहने पर जरूर ध् यान देंगे।

हमें उन् हें बताना है किक र्वोे अपनी साग-भाजिजयाँ किर्वोशे� कुछ खच2 किकए किबना खुद उगा सकते हैं औ अपने स् र्वोास् थ ्य की Fीक रक्षा कर सकते हैं। हमें उन् हें यह भी क्तिसखाना है किक पत् ता-भाजिजयों को र्वोे जिजस तरह पकाते हैं, उसमें उनके अमिधकांश किर्वोटामिमन न�् ट हो जाते हैं।

हमें उन् हें यह क्तिसखाना है किक र्वोे समय, स् र्वोास् थ ्य और पैसे की बचत कैसे क र सकते हैं। क्तिलओनेल कार्टिट�स ने हमारे गाँर्वोों का र्वोण2न करते हुए उन् हें 'घूरे के ढेर' कहा है। हमें उन् हें आदश2 बल्किस्तयों में बदलना है। हमारे ग्रामर्वोाक्तिसयों को शुद्ध हर्वोा नहीं मिमलती, यद्यकिप र्वोे शुद्ध हर्वोा से मिघरे हुए हैं; उन् हें ताजा अन् न नहीं मिमलता, यद्यकिप उनके चारों ओर ताजे-से-ताजा अन् न होता है। इस अन् न के मामले में मैं मिमशनरी की तरह इसीक्तिलए बोलता हूँ किक मैं गाँर्वोों को एक संुदर दश2नीय र्वोस् तु बना देने की आकांक्षा रखता हूँ।

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क् या भारत के गाँर्वो हमेशा र्वोैसे ही थ ेजैसे किक र्वोे आज हैं, इस प्रश् न की छान-बीन करने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर र्वोे कभी भी इससे अच् छे नहीं थ ेतो इससे हमारी पुरानी सभ् यता का, जिजस पर हम इतना अणिभमान करते हैं, एक बड़ा दो� प्रगट होता है। लेकिकन यठिद र्वोे कभी अच् छे नहीं थ ेतो सठिदयों से चली आ रही नाश की किक्रया को, जो हम अपने आस-पास आज भी देख रहे हैं, र्वोे कैसे सह सके? ...हर एक देश-पे्रमी के सामने आज जो काम है र्वोह यह है किक इस नाश की किक्रया को कैसे रोका जाए या दूसरे शब् दों में भारत के गाँर्वोों का पुनर्षिन�मा2ण कैसे किकया जाए, ताकिक किकसी के क्तिलए भी उनमें रहना उतना ही आसान हो जाए जिजतना आसान र्वोह शहरों में माना जाता है। सचमुच हर एक देशभक् त के सामने आज यही काम है। संभर्वो है किक ग्रामर्वोाक्तिसयों का पुनरुद्धार अशक् य हो, और यही सच हो किक ग्राम-सभ् यता के ठिदन अब बीत गए हैं और सात लाख गाँर्वोों की जगह अब केर्वोल सात सौ सुर्वो् यर्वोस्थि^त शहर ही रहेंगे और उनमें 30 करोड़ आदमी नहीं, केर्वोल तीन ही करोड़ आदमी रहेंग। अगर भारत के भाग् य में यही हो तो भी यह स्थि^कित एक ठिदन में तो नहीं आएगी; आखिखर गाँर्वोों और ग्रामर्वोाक्तिसयों की इतनी बड़ी संख् या के मिमटने में और जो बच रहेंगे उनका शहरों और शहरर्वोाक्तिसयों में परिरर्वोत2न करने में समय तो लगेगा ही।

ग्राम-सुधार आंदोलन में केर्वोल ग्रामर्वोाक्तिसयों के ही क्तिशक्षण की बात नहीं है; शहरर्वोाक्तिसयों को भी उससे उतना ही क्तिशक्षण लेना है। इस काम को उFाने के क्तिलए शहरों से जो काय2कता2 आए,ँ उन् हें ग्राम-मानस का किर्वोकास करना है और ग्रामर्वोाक्तिसयों की तरह रहने की कला सीखनी है। इसका यह अथ2 नहीं किक उन् हें ग्रामर्वोाक्तिसयों की तरह भूखे मरना है; लेकिकन इसका यह अथ2 जरूर है किक जीर्वोन की उनकी पुरानी पद्धकित में आमूल परिरर्वोत2न होना चाकिहए।

इसका एक ही उपाय है: हम जाकर उनके बीच में बैF जाए ँऔर उनके आश्रयदाताओं की तरह नहीं बल्किwक उनके सेर्वोकों की तरह दृढ़ किन�् Fा से उनकी सेर्वोा करें; हम उनके भंगी बन जाए ँऔर उनके स् र्वोास् थ ्य की रक्षा करने र्वोाले परिरचारक बन जाए।ँ हमें अपने सारे पूर्वोा2ग्रह भुला देने चाकिहए। एक क्षण के क्तिलए हम स् र्वोराज् य को भी भूल जाए ँऔर अमीरों की बात तो भूल ही जाए,ँ यद्यकिप उनका होना हमें हर कदम पर खटकता है। र्वोे तो अपनी जगह हैं ही। और कई लोग हैं जो इन बडे़ सर्वोालों को सुलाझाने में लगे हुए हैं। हमें तो गाँर्वोों के सुधार के इस छोटे काम में लग जाना चाकिहए, जो आज भी जरूरी है और तब भी जरूरी होगा जब हम अपना उदे्दश् य प्राप् त कर चुकें गे। सच तो यह है किक ग्रामकाय2 की यह सफलता स् र्वोयं हमें अपने उदे्दश् य के किनकट ले जाएगी।

ग्राम-बल्किस्तयों का पुनरुत् थान होना चाकिहए। भारतीय गाँर्वो भारतीय शहरों की सारी जरूरतें पैदा करते थ ेऔर उन् हें देते थे। भारत की गरीबी तब शुरू हुई जब हमारे शहर किर्वोदेशी माल के बाजार बन गए और किर्वोदेशों का सस् ता और भद्दा माल गाँर्वोों में भरकर उन् हें चूसने लगे।

गाँर्वोों और शहरों के बीच स् र्वोास् थ ्यपूण2 और नीकितयुक् त संबंध का किनमा2ण तब होगा जब किक शहरों को अपने इस कत्2 तर्वो् य का ज्ञान होगा किक उन् हें गाँर्वोों का अपने स् र्वोाथ2 के क्तिलए पो�ण करने के बजाय गाँर्वोों से जो शक्ति) और पो�ण र्वोे प्राप् त करते हैं उसका पया2प् त बदला देना चाकिहए। और यठिद समाज के पुनर्षिन�मा2ण के इस महान और उदात् त काय2 में शहर के बालकों को अपना किहस् सा अदा करना है तो जिजन उद्योगों के द्वारा उन् हें अपनी क्तिशक्षा दी जाती है र्वोे गाँर्वोों की जरूरतों से सीधे संबंमिधत होने चाकिहए।

हमें गाँर्वोों को अपने चंगुल में जकड़ रखने र्वोाली जिजस कित्रकिर्वोध बीमारी का इलाज करना है; र्वोह इस प्रकार है : 1. सार्वो2जकिनक स् र्वोच् छता की कमी, 2. पया2प् त और पो�क आहार की कमी, 3. ग्रामर्वोाक्तिसयों की जड़ता। ... ग्रामर्वोासी जनता अपनी उन् नकित की ओर से उदासीन है। स् र्वोच् छता के आधुकिनक उपायों को न तो र्वोे समझते हैं और न उनकी कद्र करते हैं। अपने खेतों को जोतने-बोने या जिजस किकस् म का परिरश्रम र्वोे करते आए हैं र्वोैसा परिरश्रम करने के क्तिसर्वोा अमिधक कोई श्रम करनेके क्तिलए र्वोे राजी नहीं हैं। ये कठिFनाइयाँ र्वोास् तकिर्वोक और गंभीर हैं। लेकिकन उनसे हमें घबड़ाने की या हतोत् साह होने की जरूरत नहीं। हमें अपने ध् येय और काय2 में अमिमट श्रद्धा होनी चाकिहए। हमारे र्वो् यर्वोहार में धीरज होना चाकिहए। ग्रामकाय2 में हम खुद नौक्तिसखिखया ही तो हैं। हम एक पुरानी और जठिटल बीमारी का इलाज कारना है। धीरज और सतत परिरश्रम से, यठिद हममें ये गुण हों तो, कठिFनाइयों के पहाड़ तक जीते जा सकते हैं। हम उन परिरचारिरकाओं की स्थि^कित में हैं, जो उन् हें सौंपे हुए बीमारों को इसक्तिलए नहीं छोड़ सकती किक उन बीमारों की बीमारी असाध् य है।

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इन भारतीय किकसानों से ज ्यों ही तुम बातचीत करोगे और र्वोे तुमसे बोलने, लगेंगे, त् यों ही तुम देखोगे किक उनके होंFों से ज्ञान का किनझ2र बहता है। तुम देखोगे किक उनके अनगढ़ बाहरीरूप के पीछे आध् यास्त्रित्मक अनुभर्वो और ज्ञान का गहरा सरोर्वोर भरा पड़ा है। मैं इसी चीज को संस् कृकित कहता हूँ। पणिZम में तुम् हें यह चीज नहीं मिमलेगी। तुम किकसी यूरोपीय किकसान से बातचीत करके देखों; तुम पाओगे किक उसे आध् यास्त्रित्म र्वोस् तुओं में कोई रस नहीं है।

भारतीय किकसान में फूहड़पन के बाहरी आर्वोरण के पीछे युगों पुरानी संस्कृकित क्तिछपी पड़ी है। इस बाहरी आर्वोरण को अलग कर दें, उसकी दीघ2कालीन गरीबी और किनरक्षरता को हटा दें, तो हमें सुसंस्कृत, सभ्य और आजाद नागरिरक

का एक संुदर-से- संुदर नमूना मिमल जाएगा।

24 ग्राम-स्वराज्य पीछे     आगे

ग्राम-स् र्वोराज् य की मेरी कल् पना यह है किक र्वोह एक ऐसा पूण2 प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के क्तिलए अपने पड़ोसी पर भी किनभ2र नहीं करेगा; और किफर भी बहुतेरी जरूरतों के क्तिलए-जिजसमें दूसरों का सहयोग अकिनर्वोाय2 होगा-र्वोह परस् पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गाँर्वो का पहला काम यह होगा किक र्वोह अपनी जरूरत को तमाम अनाज और कपडे़ के क्तिलए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी सुरणिक्षत जमीन होनी चाकिहए, जिजसमें ढोर चर सकें और गाँर्वो के बड़ों र्वो बच् चों के क्तिलए मन बहलार्वो के साधन और खेल-कूद के मैदान र्वोगैरा का बंदोबस् त हो सके। इसके बाद भी जमीन बची तो उसमें र्वोह ऐसी उपयोगी फसलें बोएगा, जिजन् हें बेचकर र्वोह आर्थिथ�क लाभ उFा सके; यों र्वोह गांजा, तंबाकू, अफीम र्वोगैरा की खेती से बचेगा।

हर एक गाँर्वो में गाँर्वो की अपनी एक नाटकशाला, पाFशाला और सभा-भर्वोन रहेगा। पानी के क्तिलए उसका अपना इंतजाम होगा-र्वोाटर र्वोक्2 स होंगे-जिजससे गाँर्वो के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिमला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँर्वो का पूरा किनयंत्रण रखकर यह काम किकया जा सकता हैं। बुकिनयादी तालीम के आखिखर दरज ेतक क्तिशक्षा सब के क्तिलए लाजिजमी होगी। जहाँ तक हो सकेगा, गाँर्वो के सारे काम सहयोग के आधार पर किकए जाएगँे। जात-पात और क्रमागत अस् पृश् यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में जाए जाते हैं, र्वोैसे इस ग्राम-समाज में किबल् कुल नहीं रहेंगे।

सत् याग्रह और असयोग के शस् त्र के साथ अहिह�सा की सत् ता ही ग्रामीण समाज का शासन-बल होगी। गाँर्वो की रक्षा के क्तिलए ग्राम-सैकिनकों का एक ऐसा दल रहेगा, जिजसे लाजिजमी तौर पर बारी-बारी से गाँर्वो के चौकी-पहरे का काम करना होगा। इसके क्तिलए गाँर्वो में ऐसे लोगों का रजिजस् टर रखा जाएगा। गाँर्वो का शासन चलाने के क्तिलए हर साल गाँर्वो के पाँच आदमिमयों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके क्तिलए किनयमानुसार एक खास र्वो किनधा2रिरत योग् यता र्वोाले गाँर्वो के बाक्तिलग स् त्री-पुरु�ों को अमिधकार होगा किक र्वोे अपने पंच चुन लें। इन पंचायतों को सब प्रकार की आर्वोश् यकता सत् ता और अमिधकार रहेंगे। चँूकिक इस ग्राम-स् र्वोराज् य में आज के प्रचक्तिलत अथk सजा या दंड का कोई रिरर्वोाज नहीं रहेगा, इसक्तिलए यह पंचायत अपने एक साल के काय2काल में स् र्वोयं ही धारा सभा, न् याय सभा और काय2कारिरणी सभा का सारा काम संयुक् त रूप से करेगी।

आज भी अगर कोई गाँर्वो चाहें तो अपने यहाँ इस तरह का प्रजातंत्र कायम कर सकता है। उसके इस काम में मौजूदा सरकार भी ज ्यादा दस् तदाजी नहीं करेगी। क् योंकिक उसका गाँर्वो से जो भी कारगर संबंध है, र्वो ह क्तिसफ2 मालगुजारी र्वोसूल करने तक ही सीमिमत है। यहाँ मैंने इस बात का किर्वोचार नहीं किकया है किक इस तरह के गाँर्वो का अपने पास-पड़ोस के गाँर्वोों के साथ या कें द्रीय सरकार के साथ, अगर र्वोैसी कोई सरकार हुई, क् या संबंध रहेगा। मेरा हेतु तो ग्राम-शासन की एक रूपरेखा पेश करने का ही है। इस ग्राम-शासन में र्वो् यक्ति)गत स् र्वोतंत्रता पर आधार रखने र्वोाला संपूण2 प्रजातंत्र काम करेग। र्वो् यक्ति) ही अपनी इस सरकार का किनमा2ता भी होगा। उसकी सरकार और र्वोह दोनों अहिह�सा के किनयम के र्वोश होकर चलेंगे। अपने गाँर्वो के साथ र्वोह सारी दुकिनया की शक्ति) का मुकाबला कर सकेगा। क् योंकिक हर एक देहाती के जीर्वोन का सबसे बड़ा किनयम यह होगा किक र्वोह अपनी और गाँर्वो की इज् जत की रखा के क्तिलए मर मिमटे।

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संभर्वो है ऐसे गाँर्वो को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिज�दगी खतम हो जाए। सच् चे प्रजातंत्र का और ग्राम-जीर्वोन का कोई भी पे्रमी एक गाँर्वो को लेकर बैF सकता है और उसी को अपनी सारी दुकिनया मानकर उसके काम में मशगूल रह सकता है। किनश् चय ही उसे इसका अच् छा फल मिमलेगा। र्वोह गाँर्वो में बैFते ही एक साथ गाँर्वो के भंगी, कतरै्वोये, चौकीदार, र्वोैद्य और क्तिशक्षक का काम शुरू कर देगा। अगर गाँर्वो का कोई आदमी उसके पास न फटके, तो भी र्वोह संतो� के साथ अपने सफाई और कताई के काम में जुटा रहेगा।

देहातर्वोालों में ऐसी कला और कारीगरी का किर्वोकास होना चाकिहए, जिजससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत की जा सके। जब गाँर्वो का पूरा-पूरा किर्वोकास हो जाएगा, तो देहाकितयों की बुजिद्ध और आत् मा को संतु�् ट करने र्वोाली कला-कारीगरों के धनी स् त्री-पुरु�ों की गाँर्वोों में कमी नहीं रहेगी। गाँर्वो में ककिर्वो होंगे, क्तिचत्रकार होंगे, क्तिशल् पी होंगे, भा�ा के पंकिडत और शोध करने र्वोाले लोग भी होंगे। थोडे़ में, जिज�दगी की ऐसी कोई चीज न होगी जो गाँर्वो में न मिमले। आज हमारे देहात उजडे़ हुए और कूडे़-कचरे के ढेर बने हुए हैं। कल र्वोहीं संुदर बगीचे होंगे और ग्रामर्वोाक्तिसयों को Fगना या शो�ण करना असंभर्वो हो जाएगा।

इस तरह के गाँर्वोों की पुनर2चना का काम आज से ही शुरू हो जाना चाकिहए। गाँर्वोों की पुनर2चना का काम काम चलाऊ नहीं, बल्किwक स् थायी होना चाकिहए।

उद्योग, हुनर, तंदुरुस् ती और क्तिशक्षा, तंदुरुस् ती और हुनर का संुदर समन् र्वोय करना चाकिहए। नई ताक्तिलम में उद्योग और क्तिशक्षा, तंदुरुस् ती और हुनर का संुदर समन् र्वोय है। इन सबके मेल से माँ के पेट में आने के सयम से लेकर बुढ़ापे तक का एक खूबसूरत फूल तैयार होता है। यही नई तालीम है। इसक्तिलए मैं शुरू में ग्राम-रचना के टुकडे़ नहीं करँूगा, बल्किwक यह कोक्तिशश करँूगा किक इन चारों का आपस में मेल बैFे। इसक्तिलए मैं किकसी उद्योग और क्तिशक्षा को अलग नहीं मानँूगा, बल्किwक उद्योग को क्तिशक्षा का जरिरया मानँूगा, और इसक्तिलए ऐसी योजना में नई तालीम को शामिमल करँूगा।

मेरी कल् पना की ग्राम-इकाई मजबूत-से-मजबूत होगी। मेरी कल् पना के गाँर्वो में 1000 आदमी रहेंगे। ऐसे गाँर्वो को अगर स् र्वोार्वोलंबन के आधार पर अच् छी तरह संगठिFत किकया जाए, तो र्वोह बहुत कुछ कर सकता है।

आदश2 भारतीय ग्राम इस तरह बनाया जाएगा किक उसमें आसानी से स्र्वोच्छता की पूरी- पूरी व्यर्वोस्था रहे। उसकी झोपकिड़यों में पया2प्त प्रकाश और हर्वोा का प्रबंध होगा, और उसके किनमा2ण में जिजस सामान का उपयोग होगा र्वोह ऐसा

होगा, जो गाँर्वो के आस- पास पाँच मील की कित्रज्या के अंदर आने र्वोाले प्रदेश में मिमल सके। इस झोपकिड़यों में आँगन या खुली जगह होगी, जहाँ उस घर के लोग अपने उपयोग के क्तिलए साग- भाजिजयाँ उगा सकें और अपने मर्वोेक्तिशयों को रख सकें । गाँर्वो की गक्तिलयों और सड़के जिजस धूल को हटाया जा सकता है। उससे मुक्त होंगी। उस गाँर्वो में उसकी

आर्वोश्यकता के अनुसार कुएँ होंगे और रे्वो सबके क्तिलए खुले होंगे। उसमें सब लोगों के क्तिलए पूजा के स्थान होंगे, सबके क्तिलए एक सभा- भर्वोन होगा, मरे्वोक्तिशयों के चरने के क्तिलए गाँर्वो का चरागाह होगा, सहकारी डेरी होगी, प्राथमिमकऔर

माध्यमिमक शालाएँ होंगी जिजनमें मुख्यत: औद्योगक क्तिशक्षा दी जाएगी, और झगड़ों के किनपटारे के क्तिलए ग्राम- पंचायत होगी। र्वोह अपना अनाज, साग- भाजिजयाँ और फल तथा खादी खुद पैदा कर लेगा।

25 पंचायत राज पीछे     आगे

आजादी नीचे से शुरू होनी चाकिहए। हर एक गाँर्वो में जमहूरी सल् तनत पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत् ता और ताकत होगी। इसका मतलब यह है किक हर गाँर्वो को अपने पाँर्वो पर खड़ा होना होगा-अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी, ताकिक र्वोह अपना सारा कारोबार खुद चला सके। यहाँ तक किक र्वोह सारी दुकिनया के खिखलाफ अपनी रक्षा खुद कर सके। उसे तालीम देकर इस हद तक तैयार करना होगा किक र्वोह बाहरी हमले के मुकाबलें में अपनी रक्षा करते हुए मर-मिमटने के लायक बन जाए। इस तरह आखिखर हमारी बुकिनयादी र्वो् यक्ति) पर होगी। इसका यह मतलब नहीं किक पड़ोक्तिसयों पर या दुकिनया पर भरोसा न रखा जाए; या उनकी राजी-खुशी से दी हुई मदद न ली जाए। कल् पना यह है किक सब लोग आजाद होंगे और सब एक-दूसरे पर अपना असर डाल सकें गे। जिजस समाज का हर एक

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आदमी यह जानता है किक उसे क् या चाकिहए और इससे भी बढ़कर जिजसमें यह माना जाता है किक बराबरी की मेहनत करके भी दूसरों को जो चीज नहीं मिमलती है र्वोह खुद भी किकसी को नहीं लेनी चाकिहए, र्वोह समाज जरूर ही बहुत ऊँचे दरजे की सभ् यता र्वोाला होना चाकिहए।

ऐसे समाज की रचना सत् य और अहिह�सा पर ही हो सकती है। मेरी राय है किक जब तक ईश् र्वोर पर जीता-जागता किर्वोश् र्वोास न हो, तब तक सत् य और अहिह�सा पर चलना असंभर्वो है। ईश् र्वोर या खुद र्वोह जिज�दा ताकत है, जिजसमें दुकिनया की तमाम ताकतें समा जाती हैं। र्वोह किकसी का सहारा नहीं लेती और दुकिनया की दूसरी सब ताकतों के खतम हो जाने पर भी कायम रहती है। इसी जीती-जागती रोशनी पर, जिजसने अपने दामन में सब-कुछ लपेट रखा हैं, मैं यठिद किर्वोश् र्वोास न रखँू, तो मैं समझ न सकँूगा किक मैं आज किकस तरह जिज�दा हूँ।

ऐसा समाज अनकिगनत गाँर्वोों का बना होगा। उसका फैलार्वो एक के ऊपर एक के ढँग पर नहीं बल्किwक लहरों की तरह एक के बाद एक के शकल में होगा। जिज�दगी मीनार की शकल में नहीं होगा, जहाँ ऊपर की तंग चोटी को नीचे के चौडे़ पाए पर खड़ा होना पड़ता है। र्वोहाँ तो समुद्र की लहरों की तरह जिज�दगी एक के बाद एक घेरे की शकल में होगी और र्वो् यक्ति) उसका मध् यहिब�दु होगा। यह र्वो् यक्ति) हमेशा अपने गाँर्वो के खाकितर मिमटने को तैयार रहेगा। गाँर्वो अपने इद2किगद2 के गाँर्वोों के क्तिलए मिमटने को तैयार होगा। इस तरह आखिखर सारा समाज ऐसे लोगों का बन जाएगा, जो उद्धत बनकर कभी किकसी पर हमला नहीं करते, बल्किwक हमेशा नम्र रहते हैं और अपने में समुद्र की उस शान को महसूस करते हैं जिजसके र्वोे एक जरूरी अंग हैं।

इसक्तिलए सबसे बाहर का घेरा या दायरा अपनी ताकत का उपयोग भीतर र्वोालों को कुचलने में नहीं करेगा, बल्किwक उन सबको ताकत देगा और उनसे ताकत पाएगा। मुझे ताना ठिदया जा सकता है किक यह सब तो खयाली तस् र्वोीर है, इसके बारे में सोचकर र्वोक् त क् यों किबगाड़ा जाए? युस्थिक्लड की परिरभा�ा र्वोाला हिब�दु कोई मनु�् य खींच नहीं सकता, किफर भी उसकी कीमत हमेशा रही है और रहेगी। इसी तरह मेरा इस तस् र्वोीर की भी कीमत है। इसके क्तिलए मनु�् य जिज�दा रह सकता है। अगरचे इस तस् र्वोीर को पूरी तरह बनाना या पाना संभर्वो नहीं हैं, तो भी इस स ही तस् र्वोीर को पाना या इस हद तक पहुँचना हिह�दुस् तान की जिज�दगी का मकसद होना चाकिहए। जिजस चीज को हम चाहते हैं उसकी सही-सही तस् र्वोीर हमारे सामने होनी चाकिहए, तभी हम उससे मिमलती-जुलती कोई चीज पाने की आशा रख सकते हैं। अगर हिह�दुस् तान के हर एक गाँर्वो में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस् र्वोीर की सच् चाई साकिबत कर सकँूगा - जिजसमें सबसे पहला और आखिखरी दोनों बराबर होंगे या यों ककिहए किक न तो कोई पहला होगा, न आखिखरी।

इस तस् र्वोीर में हर एक धम2 की अपनी पूरी और बराबरी की जगह होगी। हम सब एक ही आलीशान पेड़ के पत् ते हैं। इस पेड़ की जड़ किहलाई नहीं जा सकती, क् योंकिक र्वोह पाताल तक पहुँची हुई है। जबरस् त से जबरदस् त आँधी भी उसे किहला नहीं सकती।

इस तस् र्वोीर में उन मशीनों के क्तिलए कोई जगह नहीं होगी, जो मनु�् य की मेहनत की जगह लेकर कुछ लोगों के हाथों में सारी ता कत इकट्ठी कर देती हैं। सभ् य लोगों की दुकिनया में मेहनत की अपनी अनोखी जगह है। उसमें ऐसी मशीनों की गंुजाइश होगी, जो हर आदमी को उसके काम में मदद पहुँचाए।ँ लेकिकन मुझे कबूल करना चाकिहए किक मैंने कभी बैFकर यह सोचा नहीं किक इस तरह की मशीन कैसी हो सकती है। क्तिसलाई की चिस�गर मशीन का खयाल मुझे आया था। लेकिकन उसका जिजक्र भी मैंने यों ही कर ठिदया था। अपनी इस तस्र्वोीर को पूण2 बनाने के क्तिलए मुझे उसकी जरूरत नहीं।

जब पंचायत राज स्थाकिपत हो जाएगा तब लोकमत ऐसे भी अनेक काम कर ठिदखाएगा, जो हिह�सा कभी नहीं कर सकती। जमींदारों, पँूजीपकितयों और राजाओं की मौजूदा सत्ता तभी तक चल सकती है, जब तक किक सामान्य

जनता को अपनी शक्ति) का भान नहीं होता। अगर लोग जमींदारी और पँूजीर्वोाद की बुराई से सहयोग करना बंद करदें, तो र्वोह पो�ण के अभार्वो में खुद ही मर जाएगी। पंचायत राज्य में केर्वोल पंचायत की आज्ञा मानी जाएगी और

पंचायत अपने बनाए हुए कानून के द्वारा ही अपना काय2 करे।

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26 ग्रामोद्योग पीछे     आगे

ग्रामोद्योगों का यठिद लोप हो गया, तो भारत के 7 लाख गाँर्वोों का सर्वो2नाश ही समजिझए।

ग्रामोद्योग-संबंधी मेरी प्रस् ताकिर्वोत योजना पर इधर दैकिनक पत्रों में जो टीकाए ँहुई हैं उन् हें मैंने पढ़ा है। कई पत्रों ने तो मुझे यह सलाह दी है किक मनु�् य की अंर्वोे�ण-बुजिद्ध ने प्रकृकित की जिजन शक्ति)यों को अपने र्वोश में कर क्तिलया है, उनका उपयोग करने से ही गाँर्वोों की मुक्ति) होगी। उन आलोचकों का यह कहना है किक प्रगकितशील पणिZम में जिजस तरह पानी, हर्वोा, तेल और किबजली का पूरा-पूरा उपयोग हो रहा है, उसी तरह हमें भी इन चीजों को काम में लाना चाकिहए। र्वोे कहते हैं किक इन गुप् त प्राकृकितक शक्ति)यों पर कब् जा कर लेने से प्रत् येक अमेरिरका-र्वोासी 33 गुलामों रख सकता है, अथा2त् 33 गुलामों का काम र्वोह इन शक्ति)यों के द्वारा ले सकता है।

इस रास् तें अगर हम हिह�दुस् तान में चले, तो मैं यह बेधड़क कह सकता हूँ किक प्रत् येक मनु�् य को 33 गुलाम मिमलने के बजाय इस मुल् क के एक-एक मनु�् य की गुलामी 33 गुनी बढ़ जाएगी।

यंत्रों से काम लेना उसी अर्वोस् था में अच् छा होता है, जब किक किकसी किनधा2रिरत काम को पूरा करने के क्तिलए आदमी बहुत ही कम हो, या नपे-तुले हों। पर यह बात हिह�दुस् तान में तो है नहीं। यहाँ काम के क्तिलए जिजतने आदमी चाकिहए, उनसे कहीं अमिधक बेकार पडे़ हुए है। इसक्तिलए उद्योगों के यंत्रीकरण से यहाँ की बेकारी घटेगी या बढे़गी? कुछ र्वोग2गज जमीन खोदने के क्तिलए मैं हल का उपयोग नहीं करँूगा। हमारे यहाँ सर्वोाल यह नहीं हे किक हमारे गाँर्वोों में जो लाखों-करोड़ों आदमी पडे़ हैं उन् हें परिरश्रम की चक् की से किनकालकर किकस तरह छुट्टी ठिदलाई जाए, बल्किwक यह है किक उन् हें साल में जो कुछ महीनों का समय यों ही बैFे-बैFे आलस में किबताना पड़ता है उसका उपयोग कैसे किकया जाए। कुछ लोगों को मेरी यह बात शायद किर्वोक्तिचत्र लगेगी, पर दरअसल बात यह है किक प्रत् येक मिमल सामान् यत: आज गाँर्वोों की जनता के क्तिलए त्रास रूप हो रही है। उनकी रोजी पर ये मायाकिर्वोनी मिमलें छापा मार रही है। मैंने बारीकी से आंकडे़ एकत्र नहीं किकए हैं, पर इतना तो मैं कह ही सकता हूँ किक गाँर्वोों में बैFकर कम-से-कम दस मजदूर जिजतना काम करते हैं उतना ही काम मिमल का एक मजदूर करता है। इसे यों भी कह सकते है किक दस आदमिमयों की रोजी छीनकर यह एक आदमी गाँर्वो में जिजतना कमाता था उससे कहीं अमिधक कमा रहा है। इस तरह कताई और बुनाई की मिमलों ने गाँर्वोों के लोगों की जीकिर्वोका का एक बड़ा भारी साधन छीन क्तिलया है।

ऊपर की दलील का यह कोई जर्वोाब नहीं है किक ये मिमलें जो कपड़ा तैयार करती हैं र्वोह अमिधक अच् छा और काफी सस् ता होता है। कारण यह है किक इन मिमलों ने अगर हजारों मजदूरों का धंधा छीनकर उन् हें बेकार बना ठिदया है, तो सस् ते-से-सस् ता मिमल का कपड़ा गाँर्वोों की बनी हुई महँगी-से-महँगी खादी से भी ज ्यादा महँगा है। कोयले की खान में काम करने र्वोाले मजदूर जहाँ रहते हैं र्वोहीं र्वोे कोयले का उपयोग अपनी जरूरत भर के क्तिलए खुद खादी बना लेता है, उसे र्वोह महँगी नहीं पड़ती। पर मिमलों का बना कपड़ा अगर गाँर्वोों के लोगों को बेकार बना रहा है, तो चार्वोल कूटने ओर आटा पीसने की मिमलें हजारों स्त्रिस्त्रयों की न केर्वोल रोजी ही छीन रही हैं, बल्किwक बदले में तमाम जनता के स् र्वोास् थ ्य को हाकिन भी पहुँचा रही हैं। जहाँ लोगों को माँस खाने में कोई आपणिu न हो और जहाँ माँसाहार पुसाता हो, र्वोहाँ मैदा और पॉक्तिलशदार चार्वोल से शायद हाकिन न होती हो। लेकिकन हमारे देश में, जहाँ करोड़ों आदमी ऐसे हैं जो माँस मिमले तो खाने में आपणिu नहीं करेगे, पर जिजन् हें माँस मिमलता ही नहीं, उन् हें हाथ की चक् की के किपसे हुए गेहुँ के आटे और हाथ-कुटे चार्वोल के पौमिNक तथा जीर्वोनप्रद सत् त् र्वोों से र्वोंक्तिचत रखना एक प्रकार का पाप है। इसक्तिलए डॉक् टरों तथा दूसरे आहार-किर्वोशे�ज्ञों को चाकिहए किक मैदे और मिमल के कुटे पॉक्तिलशदार चार्वोल से लोगों के स् र्वोास् थ ्य की जो हाकिन हो रही है उससे र्वोे जनता को आगाह कर दें।

मैंने सहज ही नजर में आने र्वोाली जो कुद मोटी-मोटी बातों की तरफ यहाँ ध् यान खीचा है, उसका उदे्दश् य यही है किक अगर ग्रामर्वोाक्तिसयों को कुछ काम देना है तो र्वोह यंत्रों के द्वारा संभर्वो नहीं। उनके उद्धार का सच् चा माग2 तो यही है किक जिजन उद्योग-धंधों को र्वोे अब तक किकसी कदर करते चले आ रहे हैं, उन् हीं को भलीभाँकित जीकिर्वोत किकया जाए।

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ग्रामोद्योगों की योजना के पीछे मेरी कल् पना तो यह है किक हमें अपनी रोजमरा2 की आर्वोश् यकताए ँगाँर्वोों की बनी चीजों से ही पूरी करनी चाकिहए; और जहाँ यह मालूम हो किक अमुक चीजें गाँर्वोों में मिमलती ही नहीं, र्वोहाँ हमें यह देखना चाकिहए किक उन चीजों को थोडे़ परिरश्रम और संगFन से बनाकर गाँर्वो र्वोाले उनसे कुछ मुनाफा उFा सकते हैं या नहीं। मुनाफे का अंदाज लगाने में हमें अपना नहीं, हिक�तु गाँर्वो र्वोालों का खयाल रखना चाकिहए। संभर्वो है किक शुरू में हमें साधारण भार्वो से कुछ अमिधक देना पडे़ और चीज हलकी मिमले। पर अगर हम उन चीजों के बनाने र्वोालों के काम में रस लें और यह आग्रह रखें किक र्वोे बठिढ़य-से-बठिढ़या चीजें तैयार करें, और क्तिसफ2 आग्रह ही नहीं रखे बल्किwक उन लोगों को पूरी मदद भी दें, तो यह हो नहीं सकता किक गाँर्वोों की बनी चीजों में ठिदन-ठिदन तरक् की न होती जाए।

मैं कहूँगा किक अगर गाँर्वोों का नाश होता है तो भार का भी नाश हो जाएगा। उस हालत में भारत नहीं रहेगा। दुकिनया को उसे जो संदेश देना है उस संदेश को र्वोह खो देगा।

गाँर्वोों में किफर से जान तभी आ सकती है, तब र्वोहाँ की लूट-खसोट रुक जाए। बडे़ पैमारे पर माल की पैदार्वोार जरूर ही र्वो् यापारिरक प्रकितस् पधा2 तथा माल किनकालकर की धुन के साथ-साथ गाँर्वोों की प्रत् यक्ष अथर्वोा अप्रत् यक्ष रूप से होने र्वोाली लूट के क्तिलए जिजम् मेर्वोार है। इसक्तिलए हमें इस बात की सबसे ज ्यादा कोक्तिशश करनी चाकिहए किक गाँर्वो हर बात में स् र्वोार्वोलंबी और स् र्वोयं पूण2 हो जाए। र्वोे अपनी जरूरतें पूरी करने भर के क्तिलए चीजें तैयार करें। ग्रामोद्योग के इस अंग की अगर अच् छी तरह रक्षा की जाए, तो किफर भले ही देहाती लोगा आजकल के उन यंत्रों और औजारों से भी काम ले सकते हैं, जिजन् हें र्वोे बना और खरीद सकते हैं। शत2 क्तिसफ2 यही है किक दूसरों को लूटने के क्तिलए उनका उपयोग नहीं होना चाकिहए।

सच तो यह है किक हमें गाँर्वोों र्वोाला भारत और शहरों र्वोाला भारत, इन दो में से एक को चुन लेना है। गाँर्वो उतने ही पुराने हैं जिजतना किक यह भारत पुराना है। शहरों को किर्वोदशी आमिधपत् य मिमट जाएगँा, तब शहरों को गाँर्वोों के मातहत होकर रहना पडे़गा। आज तो शहरों का बोलबाला है और र्वोे गाँर्वोों की सारी दौलत खींच लेते हैं। इससे गाँर्वोों का ह्रास और नाश हो रहा है। गाँर्वोों का शो�ण खुद एक संगठिFत हिह�सा है। अगर हमें स् र्वोराज् य की रचना अहिह�सा के पाए पर करनी है, तो गाँर्वोों को उनका उक्तिचत स् थान देना होगा।

खादी

मेरा किर्वोचार में हिह�दुस् तान की समस् त जनता की एकता की, उसकी आर्थिथ�क स् र्वोतंत्रता और समानता की प्रतीक है, और इसक्तिलए जर्वोाहरलाल के कार्वो् यमय शब् दों में कहूँ तो र्वोह 'हिह�दुस् तान की आजादी की पोशक' है।

इसके क्तिसर्वोा, खादीरृ्वोणिu का अथ2 है, जीर्वोन के क्तिलए जरूरी चीजों की उत् पणिu और उनके बँटर्वोारे का किर्वोकें द्रीकरण। इसक्तिलए अब तक जो क्तिसद्धांत बना है र्वोह यह है किक हर एक गाँर्वो को अपनी जरूरत की सब चीजें खुद पैदा कर लेनी चाकिहए, और शहरों की जरूरतें पूरी करने के क्तिलए कुछ अमिधक उत् पणिu करनी चाकिहए।

अलबत् ता, बडे़-बडे़ उद्योग-धंधों को तो एक जगह कें ठिद्रत करके रा�् ट्र के अधीन रखना होगा। लेकिकन समूचा देश मिमलकर गाँर्वोों में जिजन बडे़-बडे़ आर्थिथ�क उद्योगों को चलाएगा, उनके सामने ये कोई चीज न रहेंगे।

खादी के उत् पादन में ये काम शामिमल हैं कपास बोना, कपास चुनना, उसे सूत को माँड़ लगाना, सूत रंगना, उसका ताना भरना और बाना तैयार करना, सूत बुनना और कपड़ा धोना। इनमें से रंगसाजी को छोड़कर बाकी के सारे काम खादी के क्तिसलक्तिसले में जरूरी और महत् त् र्वो के हैं, और उन् हें किकए किबना काम नहीं चल सकता। इनमें से हर एक काम गाँर्वोों में अच् छी तरह हो सकता है; और सच तो यह है किक अखिखल भारत चरखा-संघ समूचे हिह�दुस् तान के जिजन कई गाँर्वोों में काम कर रहा है, र्वोहाँ ये सारे काम आज हो रहे हैं।

जब से गाँर्वोों में चलने र्वोाले अनेक उद्योगों में से इस मुख् य उद्योग का और इसके आस-पास जुड़ी हुई कई दस् तकारिरयों का किबना सोचे-समझे, मनमाने तरीके से और बेरहमी के साथ नाश किकया गया है, तब से हमारे गाँर्वोों की

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बुजिद्ध और तेज न�् ट हो गया है। र्वोे सब किनस् तेज और किन�् प्राण बन गए हैं, और उनकी हालत उनके अपने भूखों मरने र्वोाले मरिरयल ढोरों की-सी हो गई है।

दूसरे ग्रामोद्योग

खादी के मुकाबले देहात में चलने र्वोाले और देहात के क्तिलए जरूरी दूसरे धंधों की बात अलग है। उन सब धंधों में अपनी राजी-खुशी से मजदूरी करने की बात उपयोगी होने जैसी नहीं हैं। किफर, उनमें से हर एक धंधा या उद्योग ऐसा है, जिजसमें एक खाद तादाद में ही लोगों को मजदूरी मिमल सकती है। इसक्तिलए ये उद्योग खादी के मुख् य काम में सहायक हो सकते हैं। खादी के अभार्वो में उनकी कोई हस् ती नहीं, और उनके किबना खादी का गौरर्वो या शोभा नहीं है। हाथ से पीसना, हाथ से कूटना और पछारना, साबुन बनाना, कागज बनाना, चमड़ा कमाना, तेल पेरना और इस तरह के सामाजिजक जीर्वोन के क्तिलए जरूरी और महत् त् र्वो के दूसरे धंधों के किबना गाँर्वोों की आर्थिथ�क रचना संपूण2 नहीं हो सकती, यानी गाँर्वो स् र्वोयंपूण2 घटक नहीं बन सकते। कांग्रेसी आदमी इन सब धंधों में ठिदलचस् पी लोगा, और अगर र्वोह गाँर्वो का बाचिश�दा होगा या गाँर्वो में जाकर रहता होगा, तो इन धंधों में में नई जान फँूकेगा और इन् हें नए रास् ते ले जाएगा। हर एक आदमी को, हर हिह�दुस् तानी को, इसे अपना धम2 समझना चाकिहए किक जब-जब और जहाँ-जहाँ मिमले, र्वोहाँ र्वोह हमेशा गाँर्वोों की बनी चीजें ही बरते। अगर ऐसी चीजों की माँग पैदा हो जाए, तो इसमें जरा भी शक नहीं किक हमारी ज ्यादातर जरूरतें गाँर्वोों से पूरी हो सकती हैं। जब हम गाँर्वोों के क्तिलए सहानुभूकित से सोचने लगेंगे और गाँर्वोों की बनी चीजें हमें पसंद आने लगेंगी, तो पणिZम की नकल के रूप में यंत्रों की बनी चीजें हमें नहीं जँचेंगी; और हम ऐसी रा�् ट्रीय अणिभरुक्तिच का किर्वोकास करेंगे, जो गरीबों, भुखमारी और आलस् य या बेकारी से मुक् त नए हिह�दुस् तान के आदश2 के साथ मेल खाती होगी।

मिमश्र खाद

भारत की जनता इस प्रयत् न में खुशी से सहयोग करे, तो यह देश न क्तिसफ2 अनाज की कमी को पूरा कर सकता है, बल्किwक हमें जिजतना चाकिहए उससे कहीं ज ्यादा अनाज पैदा कर सकता है। यह जीकिर्वोत खाद (आरगेकिनक मैन् युर) जमीन के उपजाऊपन को हमेशा बढ़ाता ही है, तभी कम नहीं करता। हर ठिदन जो कूड़ा-कचरा इकटFा होता है उसे Fीक किर्वोमिध के अनुसार गड्ढों में इकटFा किकया जाए, तो उसका सुनहला खाद बन जाता है; और बत उसे खेत की जमीन में मिमला ठिदया जाए तो उससे अनाज की उपज कई गुनी बढ़ जाती है और फलत: हमें करोड़ों रुपयों की बचत होती है। इसके क्तिसर्वोा कूडे़-कचरे का इस तरह खाद बनाने के क्तिलए उपयोग कर क्तिलया जाए, तो आस-पास की जगह साफ रहती है। और स् र्वोच् छाता एक सद्गणु होने के साथ-साथ स् र्वोास् थ ्य की पो�क भी है।

गाँवों में चमडे़ का 2ं2ा

हमारे गाँर्वोों का चमडे़ का धंधा उतना ही प्राचीन है जिजतना किक स् र्वोयं भारतर्वो�2। यह कोई नहीं बतला सकता किक चमड़ा कमाने का यह धंधा कब अनादर की चीज समझा जाने लगा। प्राचीन काल में तो यह बात हुई नहीं होगी। लेकिकन हम जानते हैं किक आज हमारे यहाँ के इस अत्यंत जरूरी और उपयोगी उद्योग ने संभर्वोत: दस लाख आदमिमयों को पुश् तैनी अछूत बना ठिदया है। र्वो कुठिदन ही होबा जिजस ठिदन से इस अभागे देश में परिरश्रम को लोग घृणा की दृमिN से देखने लगे। और इस प्रकार उसकी उपेक्षा करने लगे होंगे। लाखों-करोड़ों मनु�् य, जो दुकिनया के हीरे थ ेऔर जिजनके उद्योग पर यह देश जी रहा था, नीच समझे जाने लगे। और ऊपर से बडे़ दीखने र्वोाले थोडे़ से अहदी आदमिमयों का र्वोग2 प्रकितमि�त समझा जाने लगा! इसका दु:ख परिरणाम यह हुआ किक भारत को नैकितक और आर्थिथ�क दोनों ही प्रकार की भारी क्षकित पहुँची। यह किहसाब लगाना असंभर्वो नहीं तो कठिFन जरूर है किक इन दोनों में से कौन-सी हाकिन बड़ी थी। हिक�तु किकसानों कारीगरों के प्रकित बताई गई अपराध पूण2 लापरर्वोाही ने हमें दरिरद्र, मूढ़ और काकिहल बनाकर ही छोड़ा। भारत के पास कौन से साधन हीं है? उसका संुदर जलर्वोायु, उसके गगनचंुबी पर्वो2त, उसकी किर्वोशाल नठिदयाँ और उसका किर्वोस् तृत समुद्र-ये सब ऐसे असीम साध हैं किक अगर इन सबका पूरा-पूरा उपयोग किकया जाए, तो इस स् र्वोण2 देश में दारिरद्रय और रोग आए ँही क् यों? पर जब से हमने शारीरिरक श्रम से बुजिद्ध का संबंध छुड़ाया, तब से हमारी कौम का सब तरह से पतन हो गया; दुकिनया में आज हम सबसे अल् पजीर्वोी, किनपट साधनहीन

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और अत्यंत पराजिजत प्रजा माने जाते हैं। चमडे़ के देशी धंधे की आज जो हालत है, र्वोह शायद मेरे इस कथन का सबसे अच् छा सबूत है।

किहसाब लगाकर देखा गया है किक नौ करोड़ रुपए का कच् चा चमड़ा हर साल हिह�दुस् तान से बाहर जाता है और र्वोह सबका सब बनी-बनाई चीजों के रूप में किफर यहाँ र्वोापस आ जाता है। यह यह देश का क्तिसफ2 आर्थिथ�क ही नहीं बौजिद्धक शो�ण भी है। चमड़ा कमाने और अपने किनत् य के उपयोग में आने र्वोाली उसकी अनकिगनत चीजें बनाने की क्तिशक्षा हमें आज कहाँ मिमल रहीं है?

यहाँ शत-प्रकितशत स्र्वोदेशी-पे्रमी के क्तिलए काफी काम पड़ा हुआ है। साथ ही एक बहुत बडे़ सर्वोाल को हल करने में जिजस र्वोैज्ञाकिनक ज्ञान की आर्वोश् यकता है उसे काम में लाने का के्षत्र भी मौजूद है। इस एक काम से ती अथ2 सधते है। और तीसरे मध् यमर्वोग2 के जो बुजिद्धशाली लोग रोजगार-धंधे की खोज में बेकार किफरते हैं, उन् हें जीकिर्वोका का एक प्रकितमि�त साधन मिमल जाता है। और यह लाभ तो जुदा ही है किक गाँर्वो की जनता के सीधे संसग2 में आने का भी उन् हें संुदर अर्वोसर मिमलता है।

आरंभ कैसे करे?

बहुत से सज ्जन तो पत्र क्तिलख-क्तिलखकर और अनेक मिमत्र खुद मुझसे मिमलकर यह प्रश् न पूछ रहे है किक किकस प्रकार हम ग्रामोद्योग-काय2 का आरंभ करें और सबसे पहले किकस चीज को हाथ में लें।

इसका स् प�् ट उत् तर तो यही है किक 'इस काय2 का श्रीगणेश आप खुद ही करें, और सबसे पहले उसी काम को हाथ में ले, जो आपको आसान-से-आसान जान पडे़।

पर इस सूत्रात्मक उत्तर से पूछताछ करने र्वोालों को संतो� थोडे़ ही होता है। इसक्तिलए इसे मैं जरा और स्पष्ट कर दँू। हममें से हर एक आदमी खाने-पीने, पहनने- ओढ़ने और अपने किनत्य के उपयोग की चीजों को जाँच- परख सकता है,

और किर्वोलायती अथर्वोा शहर की बनी चीजों की जगह ग्रामर्वोाक्तिसयों की बनाई हुई उन चीजों को काम में ला सकता है जिजन्हें किक र्वोे अपनी मढै़या में या खेत- खक्तिलहान में चार- छह पैसे के मामूली औजारों से सहज ही तैयार कर सकते हैं।

इन औजारों को र्वोे लोग आसानी से चला सकते हैं और किबगड़ जाएँ तो उन्हें सुधार भी सकते हैं। किर्वोदेशी या शहर की बनी चीजों की जगह गाँर्वोों की बनीं चीजों को आप काम में लाने लगें, तो ग्रामोद्योग- काय2 का यह बड़ा अच्छा आरंभ

होगा, औरआपके क्तिलए यह खुद ही एक बडे़ महत्त्र्वो की चीज होगी। इसके बाद किफर क्या करना होगा, यह तो आप ही मालूम हो जाएगा। मान लीजिजए किक आज तक कोई आदमी बंबई के किकसी कल- कारखाने में बने टूथब्रश से दाँत

साफ करता आ रहा है। अब उसकी जगह र्वोह गाँर्वो का बना टूथब्रश चाहता है। तो उसे बबूल या नीम की दातौन से दाँत साफ करने की सलाह दें। अगर उसके दाँत साफ कमजोर हैं या दाँत हैं ही नहीं, तो र्वोह दातौन का एक क्तिसरा तो लोढ़ी या हथौड़ी से कुचल ले और दूसरे क्तिसरे को चीरकर उसकी फाँकों से जीभी का काम ले। दातौन का यह ब्रश सस्

ता भी काफी पडे़गा और कारखानों के बने हुए स्र्वोच्छा ब्रशों से स्र्वोच्छ भी अमिधक होगा। शहरों के बने दंत- मंजन को र्वोह छुएगा ही नहीं। र्वोह तो लकड़ी के कोयले को खूब महीन पीसकर और उस में थोड़ा- सा साफ नमक मिमलाकर

अपने घर में ही बठिढ़या मंजन तैयार कर लेगा। मिमल के बने कपडे़ के बजाय र्वोह गाँर्वो की बुनी खादी पहनेगा, मिमल के दले चार्वोल कली जगह हाथ के दले किबना पॉक्तिलश किकए चार्वोल का और सफेद शक्कर के स्थान पर गाँर्वो के बने गुड़ का उपयोग करेगा। इन चीजों को मैंने यहाँ बतौर नमूने के ही ठिदया है और इनकी चचा2 यद्यकिप मैं ' हरिरजन सेर्वोक' में

पहले कर चुका हूँ तो भी इस किर्वो�य पर मेरे साथ जिजन लोगों की क्तिलखा- पढ़ी या बातचीत चल रहीं है, उनकी बताई हुई कठिFनाइयों को दृमिN में रखकर मैंने पुन: खादी, चार्वोल और गुड़ का यहाँ उwलेख किकया है।

27 सरकार क्या कर सकती है? पीछे     आगे

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यह पूछना जाएज है किक कांग्रेसी मंत्री, जो अब ओहदों पर आ गए हैं, खद्दर और दूसरे देहाती धंधों के क्तिलए क् या करेंगे ? ᣛ मैं तो इस सर्वोाल को और भी फैलाना चाहता हूँ, ताकिक यह हिह�दुस् तान के तमाम सूबों की सरकारों पर लागू हो। गरीबी तो हिह�दुस् तान के तमाम सबूतो में फैली हुई है। इसी तरह आम जनता के उद्धार के जरिरए भी र्वोहाँ हैं। अखिखल भारत चरखा-संघ और अखिखल भारत ग्रामोद्योग-संघ का ऐसा ही अनुभर्वो है। एक यह तजबीज भी आई है किक इस काम के क्तिलए एक अलग मंत्री होना चाकिहए। क् योंकिक इसके Fीक संगFन में एक मंत्री का पूरा समय लग जाएगा। मैं तो इस तजबीज से डरता हूँ, क् योंकिक अभी तक हम अपने खच2 के नाप में से अँग्रेजी पैमाने को छोड़ नहीं सकें हैं। चाहे अलग मंत्री रखा जाए या न रखा जाए, इस काम के क्तिलए एक महकमा तो बेशक जरूरी है। आजकल खाने और पहनने के संकF के जमाने में यह महकमा बड़ी मदद कर सकता है। अखिखल भारत चरखा-संघ ओर अखिखल भारत ग्रामोद्योग-संघ के किर्वोशे�ज्ञ मंकित्रयों से मिमल सकते हैं। आज यह संभर्वो है किक थोडे़ समय में थोड़ी-से-थोड़ी रकम लगाकर सारे हिह�दुस् तान को खादी पहना दी जाए। हर प्रांत की सरकार को गाँर्वो र्वोालों से कहना होगा किक उनको अपने उपयोग के क्तिलए अपनी खादी आप तैयार कर लेनी चाकिहए। इस तरह अपने-आप स् थायनीय उत् पादन और बँटर्वोारा हो जाएगा। और बेशक शहरों के क्तिलए कम-से-कम कुछ जरूर बच रहेगा, जिजससे स् थानीय मिमलों पर दबार्वो कम हो जाएगा। तब ये मिमलें दुकिनया के दूसरे किहस् सों में कपडे़ की जरूरत पूरी करने में किहस् सा लेने योग् य हो जाएगँी।

यह नतीजा कैसे पैदा किकया जा सकता है?

सरकारों को चाकिहए किक गाँर्वो र्वोालों को यह सूचना कर दें किक उन से यह आशा रखी जाएगी किक र्वोे अपने गाँर्वो की जरूरतों के क्तिलए एक किनणिZत तारीख के अंदर खादी तैयार करें। इसके बाद उनको कोई कपड़ा नहीं ठिदया जाएगा। सरकार अपनी तरफ से गाँर्वो र्वोालों को किबनौले या रूई (जिजसकी भी जरूरत हो,) दाम के दाम देगी और उत् पादन के औजार भी ऐसे दामों पर देगी, जो आसानी से र्वोसूल होने र्वोाली किकस् तों में लगभग पाँच साल या इससे भी ज ्यादा में अदा हो सकें । सरकार जहाँ कहीं जरूरी हो उन् हें क्तिसखाने र्वोाले भी दे और यह जिजम् मा ले किक अगर गाँर्वो र्वोालों के पास उनकी तैयार की हुई खादी से उनकी जरूरतें पूरी हो जाए,ँ तो फालतू खादी सरकार खरीद लेगी। इस तरह किबना हलचल के और बहुत थोडे़ ऊपरी खच2 के साथ कपडे़ की कमी दूर हो जाएगी।

गाँर्वोों की जाँच-पड़ताल की जाएगी और ऐसी चीजों की एक खादी तैयार ही जाएगी, जो किकसी मदद के किबना या बहुत थोड़ी मदद से स् थानीय स् तर पर तैयार हो सकती हैं और जिजनकी जरूरत गाँर्वो में बरतने के क्तिलए या बाहर बेचने के क्तिलए हो। जैसे, घानी का तेल, घानी की खली, घानी से किनकला हुआ जलाने का तेल, हाथ का कुटा हुआ चार्वोल, ताड़ी का गुड़, शहद, खिखलौने, मिमFाइयाँ, चटाइयाँ, हाथ से बना हुआ कागज, गाँर्वो का साबुन र्वोगैरा चीजें। अगर इस तरह काफी ध् यान ठिदया जाए तो उन गाँर्वोों में, जिजनमें से ज ्यादातर उजड़ चुके हैं या उजड़ रहे हैं, जीर्वोन की चहल-पहल पैदा हो जाए और उनमें अपनी और हिह�दुस् तान के शहरों और कस् बों की बहुत ज ्यादा जरूरतें पूरी करने की जो ज ्यादा-से-ज ्यादा शक्ति) है र्वोह ठिदखाई पड़ने लगे।

किफर हिह�दुस् तान में अनकिगनत पशुधन है, जिजसकी तरु हमने ध् यान न देकर गुनाह किकया है। गोसेर्वोा-संघ को अभी Fीक अनुभर्वो नहीं है, किफर भी र्वोह कीमती मदद दे सकता है।

बुकिनयादी तालीम के किबना गाँर्वो र्वोाले किर्वोद्या से र्वोंक्तिचत रहते हैं। यह जरूरी बात हिह�दुस्तानी तालीमी संघ पूरी कर सकता है।

28 ग्राम-प्रदश*विनयाँ पीछे     आगे

अगर हम यह चाहते हैं और मानते हैं किक गाँर्वोों को न केर्वोल जीकिर्वोत रहना चाकिहए, बल्किwक उन् हें बलर्वोाल तथा समृद्ध बनना चाकिहए, तो हमारे दृमिNकोण में गाँर्वो की ही प्रधानता होनी चाकिहए। और यठिद यह सही हो तो किफर हमारी प्रदश2किनयों में शहरों की तड़क-भड़क के क्तिलए कोई जगह नहीं हो सकती। शहरी खेलों या मनोरंजनों की भी कोई

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जरूरत नहीं। हम अपनी प्रदश2नी को 'तमाशे' का रूप नहीं दे सकते, और न उसे आय का साधन ही बना सकते हैं। उसे र्वो् यापारिरयों के क्तिलए उनके माल का किर्वोज्ञापन करने र्वोाला साधन भी नहीं बनने देना चाकिहए। र्वोहाँ किकसी तरह की किबक्री नहीं होनी चाकिहए। प्रदश2नी को क्तिशक्षा का माध् यम होना चाकिहए, उसे आक�2क होना चाकिहए और ऐसा होना चाकिहए जिजसे देखकर गाँर्वो र्वोालों को कोई ग्रामद्योग सीखने और चलाने की पे्ररणा मिमले। उसे मौजूदा ग्राम-जीर्वोन की तु्रठिटयाँ और कमिमयाँ ठिदखानी चाकिहए और उन् हें सुधारने के उपाय बताने चाकिहए। उसे यह भी बताना चाकिहए किक जब ग्राम-सुधार के इस आंदोलन का आरंभ हुआ तब से आज तक इस ठिदशा में क् या-क् या किकया जा चुका है। उसे यह भी क्तिसखाना चाकिहए किक ग्राम-जीर्वोन को संुदर और कलामय कैसे बनाया जा सकता है।

अब हम देखें किक यठिद ये सब शत� पूरी की जाए ँतो प्रदश2नी का रूप क् या हो :

1. गाँर्वोों के दो तरह के नमूने ठिदखाए जाए-ँएक तो जैसे र्वोे आज हैं उसका और दूसरा सुधरा हुआ, जैसा किक हम उसे बनाना चाहते हैं। सुधरा हुआ गाँर्वो एकदम साफ-सुथरा होगा। उसके घर, गक्तिलयाँ और सड़कें , आस-पास की जमीन और खेत, सब स् र्वोच् छ होंगे। मरे्वोक्तिशयों की हालत भी आज से बेहतर होगा। किकताबों, नक् शों और र्वोस् र्वोीरों के द्वारा यह ठिदखाना चाकिहए किक किकन उद्योग से ज ्यादा आय हो सकती है और कैसे।

2. उसे यह जरूर बताना चाकिहए किक किर्वोकिर्वोध ग्रामद्योग कैसे चलाए जाए, उनके जरूरी औजार कहाँ से मिमल सकते हैं, और उन् हें कैसे बनाया जा सकता है। हर एक उद्योग की काय2-प्रणाली प्रत् यक्ष करके ठिदखाई जानी चाकिहए। इनके क्तिसर्वोा नीचे क्तिलखी बातें भी रहनी चाकिहए :

(क) आदश2 ग्राम-आहार

(ख) ग्रामोद्योगों और यंत्र-उद्योगों की तुलना

(ग) पशु-पालन की आदश2 क्तिशक्षा

(घ) कला-किर्वोभाग

(ङ) ग्रामीण पाखाने का आदश2 नमूना

(च) खेतों से मिमलने र्वोाले, यानी कूड़ा-कचरा और गोबर के योग से बनने र्वोाले, खाद और रासयकिनक खाद की तुलना

(छ) मरे्वोक्तिशयों के चमडे़ और उनकी हकि§यों आठिद का उपयोग

(ज) ग्रामीण संगीत, ग्रामीण र्वोाद्य और ग्रामीण नाटक

(झ) ग्रामीण खेल, अखाडे़ और शारीरिरक र्वो् यायम के प्रकार

(ञ) नई तालीम

(ट) ग्रामीण दर्वोाइयाँ

(F) ग्रामीण प्रसूकित-ग्रह।

लेख के आरंभ में बताई गई नीकित को ध्यान में रखकर इस सूची में और रृ्वोजिद्ध की जा सकती है। मैंने जो कुछ बताया है र्वोह केर्वोल माग2- दश2न के क्तिलए है। उसमें सब आ गया हैं, ऐसी बात नहीं है। मैंने चरखे की और दूसरे ग्रामोद्योगों की

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चचा2 नहीं की हैं, क्योंकिक उनकी आर्वोश्यकता तो अब एक जानी- मानी चीज हो गई है। उनके किबना प्रदश2नी एकदम व् यथ2 होगी।

29 चरखे का संगीत पीछे     आगे

मैं जिजतनी बार चरखे पर सूत किनकालता हूँ उतनी ही बार भारत के गरीबों का किर्वोचार करता हूँ। भूख की पीड़ा से र्वो् यक्तिथत और पेट भरने के क्तिसर्वोा और कोई इच् छा न रखने र्वोाले मनु�् य के क्तिलए उसका पेट ही ईश् र्वोर है। उसे जो रोटी देता है र्वोही उसका माक्तिलक है। उसके द्वारा र्वोह ईश् र्वोर के भी दश2न कर सकता है। ऐसे लोगों को, जिजनके हाथ-पैर सही-सलामत हैं, दान देना अपना और उनका दोनों का पतना करना है। उन् हें तो किकसी-न-किकसी तर ह के धंधे की जरूरत है; और र्वोह धंधा, जो करोड़ो को काम देगा, केर्वोल हाथ- कताई का ही हो सकता है। ... इसक्तिलए मैंने कताई को प्रायणिZत या यज्ञ बताया है। और चँूकिक मैं मानता हूँ किक जहाँ गरीबों के क्तिलए युद्ध और सकिक्रय पे्रम है र्वोहाँ ईश् र्वोर भी है, इसक्तिलए चरखे पर मैं जो सूत किनकालता हूँ उसके एक-एक धागे में मुझे ईश् र्वोर ठिदखाई देता है।

मेरा पक् का किर्वोश् र्वोास है किक हाथ-कताई और हाथ-बुनाई के पुनरुज् जीर्वोन से भारत के आर्थिथ�क और नैकितक पुनरुद्धार में सबसे बड़ी मदद मिमलेगी। करोड़ों आदमिमयों को खेती की आय में र्वोृजिद्ध करने के क्तिलए कोई सादा उद्योग चाकिहए। बरसों पहले र्वोह गृह-उद्योग कताई का था; और करोड़ो को भूखों मरने से बचाना हो तो उन् हें इस योग् य बनाना पडे़गा किक र्वोे अपने घरों में किफर से कताई जारी कर सकें और हर गाँर्वो को अपना ही बुनकर किफर से मिमल जाए।

जब मैं सोचता हूँ किक यज्ञाथ2 किकए जाने र्वोाले शरीर-श्रम का सबसे अच् छा और सबको स् र्वोकाय2 रूप क् या होगा, तो मुझे कताई के क्तिसर्वोा और कुछ नहीं सूझता। मैं इससे ज ्यादा उदात् त और ज ्यादा रा�् ट्रीय किकसी दूसरी चीज की कल् पना नहीं कर सकता किक प्रकितठिदन एक घंटा हम सब कोई ऐसा परिरश्रम करें, जो गरीबों को करना ही पड़ता है, और इस तरह उनके साथ और उनके द्वारा सारी मानर्वो-जाकित के साथ अपनी एकता साधें। मैं भगर्वोान की इससे अच् छी पूजा की कल् पना नहीं कर सकता उसके नाम पर मैं गरीबों के क्तिलए गरीबों की ही तरह परिरश्रम करँू। चरखा दुकिनया के धन का अमिधक समानतापूण2 बँटर्वोारा क्तिसद्ध करता है।

मैं... चरखे के क्तिलए इस सम् मान का दार्वोा करता हूँ किक र्वोह हमारी गरीबी की समस् या को लगभग किबना कुछ खच2 किकए और किबना किकसी ठिदखारे्वो के अत्यंत सरल और स् र्वोाभाकिर्वोक ढँग से हल कर सकता है। इसक्तिलए चरखा न केर्वोल किनरुपयोगी नहीं हैं... बल्किwक र्वोह एक ऐसी आर्वोश् यक चीज है जो हर एक घर में होनी चाकिहए। र्वोह रा�् ट्र की समृजिद्ध का और इसक्तिलए उसकी आजादी का क्तिचह्न है।

चरखा र्वो् यापारिरक युद्ध की नहीं, र्वो् यापारिरक शांकित की किनशानी है। उसका संदेश संसार के रा�् ट्रों के क्तिलए दुभा2र्वो का नहीं, परंतु सद्भार्वो का और स् र्वोार्वोलंबन का है। उसे संसार की शांकित के क्तिलए खतरा बनने र्वोाली या उसके साधनों का शो�ण करने र्वोाली किकसी जल सेला के संरक्षण की जरूरत नहीं होगी, परंतु उसे जरूरत होगी ऐसे लाखों लोगों के धार्मिम�क किनश् चय की, जो अपने-अपने घरों में उसी तरह सूत कात लें जैसे आज र्वोे अपने-अपने घरों में भोजन बना लेते हैं। मैंने करने के काम न करके ऐसी अनेक भूले की हैं, जिजनके क्तिलए मैं भार्वोी संतान के शाप भाजन बन सकता हूँ। मगर मुझे किर्वोश् र्वोास है किक चरखे का पुनरुद्धार सुझाकर तो मैं उनके आशीर्वोा2द का ही अमिधकारी बना हूँ। मैंने उस पर सारी बाजी लगा दी हैं, क् योंकिक चरखे के हर तार में शांकित, सद्भार्वो और पे्रम की भार्वोना भीर है और चँूकिक चरखे की छोड़ देने से हिह�दुस् तान गुलाम बना है, इसक्तिलए चरखे के सब फक्तिलताथk के साथ उसके स् र्वोेच् छापूण2 पुनरुद्धार का अथ2 होगा हिह�दुस् तान की स् र्वोतंत्रता।

कताई के पक्ष में जो दार्वोे किकए जाते हैं र्वोे ये हैं :

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1. जिजन लोगों को फुरसत है और जिजन् हें थोडे़ से पैसों की भी जरूरत है, उन् हें इससे आसानी से रोजगार मिमल जाता है;

2. इसका हजारों को ज्ञान है;

3. यह आसानी से सीखी जाती है;

4. इसमे लगभग कुछ भी पँूजी लगाने की जरूरत नही होती;

5. चरखा आसानी से और सस् ते दामों में तैयार किकया जा सकता है। हममे से अमिधकांश को यह मालूम नहीं है किक कताई एक Fीकरी और बाँस की खपच् ची से यानी तकली पर भी की जा सकती है;

6. लोगों को इससे अरुक्तिच नहीं है;

7. इससे अकाल के समय तात् काक्तिलक राहत मिमल जाती है;

8. किर्वोदेशी कपड़ा खरीदने से भारत का जो धन बाहर चला जा रहा है, उसे यही रोक सकती है;

9. इससे करोड़ो रुपयों की जो बाचत होती है, र्वोह अपने-आप सुपात्र गरीबों में बँट जाती है;

10. इसकी छोटी-से-छोटी सफलता से भी लोगों को बहुत कुछ तात् काक्तिलक लाभ होता है;

11. लोगों में सहयोग पैदा करने का यह अत् यंत प्रबल साधन है।

अब आलोचक यह पूछेगा किक 'अगर हाथ-कताई में र्वोे सब गुण हैं जो आप बताते हैं, तो क् या बात है किक अभी तक र्वोह सब जगह नहीं अपनाई गई है?' प्रश् न किबलकुल न् यायपूण2 है। उत् तर सीधा है। चरखे का संदेश ऐसे लोगों के पास पहुँचाना है, जिजनमें कोई आशा, कोई आरंभ-शक्ति) रह नहीं गई है और जिजन् हें यों ही छोड़ ठिदया जाए तो भूखों मर जाना मंजूर है, परंतु काम करके जिज�दा रहना मंजूर नहीं। पहले यह हाल नहीं था, परंतु लंबी उपेक्षा ने आलस् य को उनकी आदत बना ठिदया है। यह आलस् य ऐसे चरिरत्रर्वोान और उद्योगी मनु�् यों के सजीर्वो संपक2 से ही मिमटाया जा सकता है, जो उनके सामने चरखा चलाए ँऔर उन् हें पे्रमपूर्वो2क रास् ता ठिदखाए।ँ दूसरी बड़ी कठिFनाई खादी के क्तिलए यह है किक उसकी तुरंत किबक्री नहीं होती। मैं स् र्वोीकार करता हूँ किक किफलहाल र्वोह मिमल के कपडे़ के साथ स् र्वोधा2 नहीं कर सकती। मैं ऐसी किकसी घातक स् र्वोधा2 में पडँ़ूगा भी नही। पँूजीपकित लोग बाजार पर कब् जा करने के क्तिलए अपना माल मुफ्त में भी बेच सकते हैं। लेकिकन जिजस आदमी की एकमात्र पँूजी श्रम है, र्वोह ऐसा नहीं कर सकता। क् या जड़ कृकित्रम गुलाब में-किफर र्वोह किकतना ही संुदर और सुडौल हो-और जीकिर्वोत कुदरती गुलाब में, जिजसकी कोई दो पंखंुकिड़या समान नहीं होतीं, कोई तना हो सकती है? खादी सजीर्वो र्वोस् तु है। लेकिकन हिह�दुस् तान ने सच् ची कला की परख खो दी है। इसक्तिलए र्वोह बाहरी कृकित्रम संुदरता से संतु�् ट हो जाता है। उस स् र्वोस् थ रा�् ट्रीय सुरुक्तिच को किफर से जगाइए और भार का हर गाँर्वो उद्योगों से गँूजने लगेगा। अभी तो खादी-संस् थाओं को अपनी अमिधकांश शक्ति) खादी बेचने में ही लगानी पड़ती है। अद्भतु बात यह है किक भारी कठिFनाइयाँ होते हुए भी यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है।

मैं हाथ-कताई के पक्ष में ऊपर जो कुछ कहा है, उससे किकसी तरह का किर्वोचार-भ्रम नहीं होना चाकिहए। मैं हाथ-करघे के किर्वोरुद्ध नहीं हूँ र्वोह एक महान और फलता-फूलता गृह-उद्योग है। अगर चरखा सफल हुआ तो हाथ-करघे की प्रगकित अपने-आप होगी। अगर चरखा असफल हुआ तो हाथ-करघा मरे किबना नहीं रहेगा।

चरखा मुझे जन-साधारण की आशाओं का प्रतीक मालूम होता है। चरखे को खोकर उन् होंने अपनी आजादी, जैसी कुछ भी र्वोह थी, खो दी। चरखा देहात की खेती की पूर्षित� करता था और उसे गौरर्वो प्रदान करता था। र्वोह किर्वोधर्वोाओं का मिमत्र और सहारा था। र्वोह देहाकितयों को आलस् य से बचाता था, क् योंकिक चरखें में पहले और पीछे के सब उद्योग-

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लोढ़ाई, हिप�जाई, ताना करना, माँड़ लगाना रंगाई और बुनाई-आ जाते थे। और इनमें गाँर्वो के बढ़ई और लुहार काम में लगे रहते थे। चरखे से सात लाख गाँर्वो आत् म -किनभ2र रहते थे। चरखे के चले जाने पर तेलघानी आठिद दूसरे ग्रामोद्योग भी खतम हो गए। इन धंधों की जगह और किकसी धंधे ने नहीं ली इसक्तिलए गाँर्वोों के किर्वोकिर्वोध धंधे, उनकी उत् पादक प्रकितभा और उनसे होने र्वोाली थोड़ी आमदनी, सबका सफाया हो गया।

इसक्तिलए अगर ग्रामीणों की किफर से अपनी स्थि^कित में र्वोापस आना हो, तो सबसे स् र्वोाभाकिर्वोक बात जो सूझती है, र्वोह यह है किक चरखे और उसके साथ लगी हुई बात बातों का पुनरुद्धार हो।

यह पुनरुद्धार तब तक नहीं हो सकता जब तक बुजिद्ध और देश- भक्ति) र्वोाले किन: स्र्वोाथ2 भारतीयों की एक सेना न हो और र्वोह चरखे का संदेश देहाकितयों में फैलाने और उनकी किनस्तेज आँखों में आशा और प्रकाश की किकरण जगाने के क्तिलए दत्तक्तिचत होकर काम न करने लगे। यह सही ढँग के सहयोग और प्रौढ़ क्तिशक्षा का जबरदस्त प्रयत्न है। यह चरखे

की शांत परंतु प्राणदायक गकित की तरह ही एक शांत और किनणिZत क्रांकित को लाने र्वोाला है।

30 मिमल-उद्योग पीछे     आगे

हमारी मिमलें अभी इतना सूत पैदा नहीं कर सकतीं किक कपडे़ की हमारी सारी जरूरत उनसे पूरी हो जाए, और यठिद र्वोे करती होती, तो भी जब तक उन् हें बाध् य न किकया जाता र्वोे कीमत कम करने के क्तिलए तैयार न होतीं। उनका उदे्दश् य जाकिहर तौर पर पैसे कमाना है और इसक्तिलए यह तो हो नहीं सकता किक र्वोे रा�् ट्र की आर्वोश् यकताओं का खयाल करके अपनी कीमतों का किनयमन करें। अत: हाथ-कताई ही एक ऐसा साधन है जिजसके द्वारा गरीब देहाकितयों के हाथों मे करोड़ों रुपए रखे जा सकते है। हर एक कृकि�-प्रधान देश को ऐसे एक पूरक उद्योग की जरूरत होती है, जिजससे किकसान अपने अर्वोकाश के समय का उपयोग कर सकें । भारत में यह पूरक उद्योग हमेशा कताई रहा है। जिजस उद्योग के नाश के फलस् र्वोरूप गुलामी और गरीबी आई और उस अनुपम कला-प्रकितभा का लोप ही गया, जो किकसी समय चमत् कार पूण2 भारतीय र्वोस् त्रों में ठिदखाई देती थी और जो दुकिनया की ई�्2 या का किर्वो�य बन गई थी, उस प्राचीन उद्योग को पुनज�किर्वोत करने के प्रयत् न को क् या स् र्वोप् न-सेकिर्वोयों का आदश2 कहा जा सकता है ?ᣛ

आम तौर पर यह दार्वोा जरूर किकया जा सकता है किक बड़ा मिमल-उद्योग हिह�दुस् तानी उद्योग है। पर जापान और लंकाशायर के साथ टक् कर लेने की शक्ति) होते हुए भी यह उद्योग जिजतने अंशों मे खादी के ऊपर किर्वोजय प्राप् त करता है, उतने ही अंशो में जन-साधरण का शो�ण खडे़ कर देने की इस जमाने की धुन में मेरे इस किर्वोचार को यद्यकिप किबलकुल Fुकरा नहीं ठिदया गया है, तो भी इसके किर्वो�य में कुछ लोगों ने शंका तो उFाई ही हे। इसके किर्वोरोध में यह कहा गया है किक यांकित्रक उद्योगों की प्रगकित के कारण जन-साधारण की दरिरद्रता जो बढ़ती जाती है र्वोह अकिनर्वोाय2 है, और इसक्तिलए उसको सहना करना ही चाकिहए। इस अकिन�् ट को सहन करता तो दूर, मैं तो यह भी नहीं मानता किक र्वोह अकिनर्वोाय2 है। अखिखल भारत चरखा-संघ ने सफलतापूर्वो2क यह बता ठिदया है किक लोगों के फुरसत के समय का उपयोग अगर कातने और उसके पूर्वो2 की किक्रयाओं में किकया जाए, तो इतने से ही गाँर्वोों में हिह�दुस् तान की जरूरत के लायक कपड़ा पैदा हो सकता है। कठिFनाई तो जनता से मिमल का कपड़ा छुड़र्वोाने में है।

मिमल-माक्तिलक कुछ परोपकारी तो हैं नहीं किक र्वोे हाथ-करघे के बुनकरों को तब भी सूत देते रहेंगे जब ये उनके साथ उन् हें नुकसान पहुँचाने र्वोाली प्रकितस् पधा2 करने लगेंगे।

ज ्यों ही मिमल-माक्तिलकों को ऐसा लगेगा किक सूत बेचने के बजाय बुनने में ज ्यादा लाभ हैं, त् यों ही र्वोे उसे बेचना बंद कर देंगे और बुनना शुरू कर देंगे। र्वोे कोई परोपकारी नहीं है। उन् होंने मिमलें पैसा कमाने के क्तिलए ही खड़ी की हे। यठिद र्वोे देखेंगे किक सूत बुनने में ज ्यादा लाभ है, तो र्वोे उसे हाथ-करघ के बुनकरों को बेचना बंद कर देंगे।

मिमल के सूत का उपयोग हाथ-करघा उद्योग के माग2 की एक घातक बाधा है। उसकी मुक्ति) हाथ-कताई के सूत का उपयोग करने में ही है। अगर चरखा असफल रहा और मिमट गया, तो हाथ-करघे का नाश भी किनणिZत ही है।

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मैं अनेक कंपकिनयों के संघबद्ध होकर काम करने या बडे़-बडे़ यंत्रों का उपयोग करके उद्योगों का कें द्रीक रण करने के खिखलाफ हूँ। अगर भारत खादी को और खादी के फक्तिलताथk को अपनाए,ँ तो मैं ऐसी आशा करता हूँ किक भारत आधुकिनक यंत्रों में से केर्वोल उतनों का ही उपयोग करेगा, जो जीर्वोन की सुख-सुकिर्वोधा बढ़ाने और श्रम की बचत के क्तिलए आर्वोश् यक माने जाए।

चंद लोगों के हाथ में धन और सत्ता का कें द्रीकरण करने के क्तिलए यंत्रों के सघटन को मैं किबलकुल गलत समझता हूँ। आजकल यंत्रों की अमिधकांश योजनाओं का यही उदे्दश्य होता है। चरखे का आंदोलन यंत्रों द्वारा होने र्वोाला शो�ण

और धन तथा सत्ता का यह कें द्रीकरण रोकने के क्तिलए किकया जा रहा संघठिटत प्रयत्न है। इसक्तिलए मेरी योजना में यंत्रों के अमिधकारी अपने लाभ की या अपने देश के उदाहरण के क्तिलए, लंकाशायर के लोग अपने यंत्रो का उपयोग भारत के या दूसरे देशों के शो�ण के क्तिलए नहीं करेंगे; उलटे र्वोे ऐसे साधन ढूढ़ेंगे जिजनसे भारत अपने कपास को अपने गाँर्वोों में ही कपडे़ का रूप देने में समथ2 हो जाए। इसी तरह मेरी योजना में अमेरिरका के लोग भी अपनी आकिर्वोष्कारक

प्रकितभा के द्वारा दुकिनया की दूसरी जाकितयों का शो�ण करने की कोक्तिशश नहीं करेंगे।

31 स्वदेशी पीछे     आगे

स् र्वोदेशी की भार्वोना का अथ2 है हमारी यह भार्वोना, जो हमें दूर को छोड़कर अपने समीपर्वोत� प्रदेश का ही उपयोग और सेर्वोा करना क्तिसखाती है। उदाहरण के क्तिलए इस परिरभा�ा के अनुसार धम2 के संबंध में यह कहा जाएगा किक मुझे अपने पूर्वो2जों से प्राप् त धम2 का ही पालना करना चाकिहए। अपने समीपर्वोत� धार्मिम�क परिरर्वोे�् टन का उपयोग इसी तरह हो सकेगा। यठिद मैं उसमें दो� पाऊँ तो मुझे उन दो�ों को दूर करके उसकी सेर्वोा करना चाकिहए। इसी तरह राजनीकित के के्षत्र में मुझे स् थानीय संस् थाओं का उपयोग करना चाकिहए और उनके जाने-माने दो�ों को दूर करके उनकी सेर्वोा करनी चाकिहए। अथ2 के के्षत्र में मुझे अपने पड़ोक्तिसयों द्वारा बनाई गई र्वोस् तुओं का ही उपयोग करना चाकिहए और उन उद्योगों की कमिमयाँ दूर करके, उन् हें ज ्यादा संपूण2 और सक्षम बनाकर उनकी सेर्वोा करना चाकिहए। मुझे लगता है किक यठिद स् र्वोदेशी को र्वो् यर्वोहार में उतारा जाए, तो मानर्वोता के स् र्वोण2युग की अर्वोतारणा की जा सकती है। ...

ऊपर स् र्वोदेशी की जिजन तीन शाखाओं का उल् लेख हुआ है, उन पर अब हम थोड़ा किर्वोचार करें। हिह�दू धम2 उसकी बुकिनयाद में किनकिहत इस स् र्वोदेशी की भार्वोना के कारण ही स्थि^कितशील और फलस् र्वोरूप अत् यंत शक्ति)शाली बन गया। चँूकिक र्वोह दूसरे धमk के अनुयामिययों को अपने दायरे में खींचने को न तो इच् छा ही रखता है और न प्रयत् न ही करता है, इसक्तिलए र्वोह सबसे ज ्यादा सकिह�् णु है और आज भी र्वोह अपना किर्वोस् तार करने की र्वोैसी ही योग् यता रखता है जैसा किक र्वोह भूतकाल में ठिदखा चुका है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं किक उसने बौद्ध धम2 को खदेड़कर भारत के बाहर भगा ठिदया। यह धारणा गलत है। उलटे उसने बौद्ध धम2 का आत् म सात् कर क्तिलया है। स् र्वोदेशी की भार्वोना के ही कारण हिह�दू अपने धम2 का परिरर्वोत2न करने से इनकार करता है। इसका यह अथ2 नहीं किक उसे सर्वो2शे्र�् F मानता है, लेकिकन र्वोह जानता है किक र्वोह उसमें जरूरी सुधार दाखिखल कर सकता है और उसे संपूण2 बना सकता है। और जो कुछ मैंने हिह�दू धम2 के बारे में कहा है, मेरा खयाल है र्वोह सब दुकिनया के दूसरे धमk के क्तिलए भी सही है। अंतर केर्वोल यह है किक हिह�दू धम2 के क्तिलए यह किर्वोशे� रूप से सही है। यहाँ मुझे एक बात कहनी है। भारत में काम करने र्वोाली मिमशनरी संस् थाओं ने भारत के क्तिलए बहुत-बहुत किकया है और अभी भी कर रही हैं और कोई सत् य है, तो क् या यह ज ्यादा अच् छा न होगा किक र्वोे धम2-परकिर्वोत2न का काय2 छोड़ दें और केर्वोल परोपकार की ही प्रर्वोृणिuयाँ जारी रखें ? ᣛ क् या इस तरह र्वोे ईसाई धम2 के आंतरिरक तत् र्वो की अमिधक सेर्वोा नहीं करेंगी?

स् र्वोदेशी की भार्वोना की खोज करते हुए जब मैं देश की संस् थाओं पर नजर, डालता हूँ, तो मुझे ग्राम-पंचायतें बहुत ज ्यादा आकर्षि��त करती हैं। भारत र्वोस् तुत:प्रजातंत्र का उपासक देश है, और र्वोह प्रजातंत्र का उपासक है इसक्तिलए र्वोह उन सब चोटों को सह सका है, जो आज तक उस पर की गई हैं। राजाओं और नर्वोाबों ने, र्वोे भारतीय रहे हों या किर्वोदेशी, प्रजा से क्तिसफ2 कर र्वोसूल किकया है, उसके क्तिसर्वोा प्रजा से उनका कोई संपक2 शायद ही रहा है। और प्रजा ने राजा को उसका प्राप् य देकर अपना बाकी जीर्वोन-र्वो् यर्वोहार अपनी इच् छा के अनुसार चलाया है। र्वोण2 और जाकितयों का किर्वोशाल संघटन न केर्वोल समाज की धार्मिम�क आर्वोश् यकताए ँपूरी करता था, बल्किwक उसकी राजनीकितक आर्वोश्

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यकताओं की पूर्षित� भी करता था। गाँर्वो र्वोाले अपना आंतरिरक कामकाज जाकित-संघटन के द्वारा चलाते थ ेऔर उसी के द्वारा र्वोे राजकीय शक्ति) के अत् याचारों का भी मुकाबला करते थे। जाकित-संघटन के द्वारा अपनी संघटन-शक्ति) का ऐसा अच् छा परिरचय जिजस रा�् ट्र ने ठिदया है, उसकी संघटन-शक्ति) की क्षमता से इनकार नहीं किकया जा सकता। आप हरिरद्वार के कंुभ मेले को देखें। आपको पता चल जाएगा किक जो संघटन लगभग अनायास ही लाखों तीथ2याकित्रयों की र्वो् यर्वोस् था कर सकता है, र्वोह किकतना कौशलपूण2 न होगा ? ᣛ किफर भी यह कहने की फैशन हो गई है किक हम लोगों में संघटन की योग् यता नहीं है। हाँ, यह बात उनके बारे में अमुक हद तक सही हो सकती है, जो नई परंपराओं में पले और बडे़ हुए हैं।

स् र्वोदेशी की भार्वोना से हट जाने के कारण हमें भयंकर किर्वोघ् न-बाधाओं से गुजरना पड़ा है। हम क्तिशणिक्षत र्वोग2 के लोगों को हमारी क्तिशक्षा किर्वोदेशी भा�ा के माध् यम से मिमली है। इसक्तिलए आम जनता को हम तकिनक भी प्रभाकिर्वोत नहीं कर सके हैं। हम जनता का प्रकितकिनमिधत् र्वो करना चाहते हैं, पर हम उसमें असफल क्तिसद्ध होते हैं। र्वोे किकसी अँग्रेज अमिधकारी को जिजतना जानते-पकिहचानते हैं, उससे अमिधक हमें नहीं जानते-पकिहचानते। उनके ठिदल में क् या है, इसे न अँग्रेज शासन जानते हैं, न हम लोग। उनकी आकांक्षाए ँहमारी आकांक्षाए ँनहीं हैं। इसक्तिलए हमारी और उनका संबंध-सूत्र टूट-सा गया है। हम प्रजा का संघटन करने में असफल क्तिसद्ध हुए हैं, यह बात नहीं है; सच बात यह है किक प्रकितकिनमिधयों में और प्रजा में आपस का नाता ही नहीं है। अगर किपछले पचास र्वो�k में हमें अपनी ही भा�ाओं के माध् यम से क्तिशक्षा मिमली होती, तो हमारी बडे़-बूढे़, घर के नौकर और पड़ोसी, सब हमारे उस ज्ञान में किहस् सा लेते। बोस और राय जैसे र्वोैज्ञाकिनकों के आकिर्वो�् कार रामायण और महाभारत की तरह ही हर एक घर में प्रर्वोेश कर जाते। अभी तो स्थि^कित ऐसी है किक जनता के क्तिलए ये आकिर्वो�् कार किर्वोदेश र्वोैज्ञाकिनकों द्वारा किकए गए आकिर्वो�् कारों जैसे ही हैं। यठिद किर्वोकिर्वोध पाठ्य-किर्वो�यों की क्तिशक्षा देशी भा�ाओं द्वारा दी गई होती, तो मैं यह कहने का साहस करता हूँ किक हमारी इन भा�ाओं की आश् यच2जनक समृजिद्ध हुई होती। गाँर्वोों की स् र्वोच् छता आठिद के सर्वोाल र्वो�k पहले हल हो गए होते। ग्राम-पंचायतें जीकिर्वोत शक्ति) के रूप में काम कर रही होती, भारत को जैसा स्र्वोराज् य चाकिहए र्वोैसा स् र्वोराज् य र्वोह भोगता होता और उसे अपनी पुनीतभूमिम पर संघठिटत हत् या का अपमानकारी दृश् य न देखना पड़ता। खैर, अभी भी अर्वोसर है किक हम अपनी भूलें सुधार लें।

अब हम स् र्वोदेशी की अंकितम शाखा पर किर्वोचार करें। यहाँ भी जनता की अमिधकांश गरीबी का कारण यह है किक आर्थिथ�क और औद्योकिगक जीर्वोन में हमारे स् र्वोदेशी के किनयम का भंग किकया है। अगर भारत में र्वो् यापार की कोई भी र्वोस् तु किर्वोदेशों से न लाई गई होती, तो हमारी भूमिम में दूध और मधु की नठिदयाँ बहती होती। लेकिकन यह तो होना नहीं था। हमें लोभ था और इंग्लैंड को भी लोभ था। इग्लैंड और भारत का संबंध स् प�् टतया गलती पर कायम था। लेकिकन यहाँ रहले में र्वोह गलती नहीं कर रहा है। यहाँ रहने में उसकी घोकि�त नीकित यह है किक र्वोह भारत को अपनी संपणिu नहीं मानता; र्वोह उसे जनता की धरोहर के रूप में उसी के भले के क्तिलए अपने पास रख रहा है। अगर यह सही है तो लंकाशायर को भारत में र्वो् यापार करने का लालच छोड़ देना चाकिहए। और यठिद स् र्वोदेशी का क्तिसद्धांत सही है तो इससे लंकाशायर की कोई हाक्तिल नहीं होगी। अलबत् ता, शुरू में कुछ समय के क्तिलए उसे कुछ अटपटा-सा लगेगा। मैं स् र्वोदेशी को बदला लेने के क्तिलए चलाया गया बकिह�् कार का आंदोलन नहीं मानता। मैं उसे ऐसा धार्मिम�क क्तिसद्धांत मानता हूँ, जिजसका पालन सब लोगों को करना चाकिहए। मैं अथ2शास् त्री नहीं हूँ लेकिकन मैंने कुछ किकताबें पढ़ी हैं, जिजनमें बतलाया गया है किक इंग्लैंड आसानी से अपनी सारी जरूरतें खुद पैदा करने र्वोाला आत् म -किनभ2र देश बकिन सकता था। हो सकता है यह बात हास् यास् पद हो; और र्वोह सच नहीं हो सकती, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है किक इग् लैंड दुक्तिलया के उन देशों में है जो बाहर से सबसे ज ्यादा माल आयात करते हैं। लेकिकन जब तक भारत अपने जीर्वोन का उत् तम किनर्वोा2ह करने योग् य नहीं हो जाता है, तब तक उससे यह आशा नहीं की जा सकती किक यह लंकाशायर के अथर्वोा किकसी दूसरे देश के क्तिलए जिजए। और र्वोह अपने जीर्वोन का उत् तम किनर्वोा2ह तभी कर सकता है जब र्वोह-अपने प्रयत् न से या दूसरों की मदद लेकर-अपनी आर्वोश् यकता की सारी र्वोस् तुए ँअपनी ही सीमा में उत् पन् न करने लगे। उसे नाशकारी प्रकितस् पधा2 के उस चक् कर में नहीं पड़ना चाकिहए, जो आपसी लड़ाई-झगड़, ई�्2 या और अन् य अनेक बुराइयों को जन् म देता है। लेकिकन उसके बडे़ सेFों और करोड़पकितयों की इस किर्वोश् र्वोर््वो यापी प्रकितस् पधा2 में पड़ने से कौन रोकेगा? कानून तो किनश् चय ही ऐसा नहीं कर सकता। लेकिकन लोकमत का बल और समुक्तिचत क्तिशक्षा आर्वोश् य इस ठिदशा में बहुत कुछ कर सकती है। हाथ-करघा उद्योग लगभग मरने की स्थि^कित में है। अपनी यात्राओं में... मैनें भरसक ज ्यादा-से-ज ्यादा बुनकरों से मिमलने और उनकी कठिFनाइयाँ समझने की कोक्तिशश की और मुझे यह

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देखकर हार्टिद�क दु:ख हुआ किक किकसी तरह अनेक बुनकर परिरर्वोारों को यह उद्योग-जो किकसी समय तरक् की पर था और सम् मानास् पद माना जाता था-छोड़ देना पड़ा है।

अगर हम स् र्वोेदशी के क्तिसद्धांत का पालन करे, तो हमारा और आपका यह कत्2 तर्वो् य होगा किक हम उन बेरोजगार पड़ोक्तिसयों को ढँूढे़, जो हमारी आर्वोश् यकता की र्वोस्तुए,ँ हमें देख सकते हों और यठिद र्वोे इन र्वोस् तुओं को बनाना न जानते हों तो उन् हें उसकी प्रकिक्रया क्तिसखाए।ँ ऐसा हो तो भारत का हर एक गाँर्वो लगभग एक स् र्वोाश्रयी और स् र्वोयंपूण2 इकाई बन जाए। दूसरे गाँर्वो के साथ उन चंद र्वोस् तुओं का आदान-प्रदान जरूर करेगा, जिजन् हें र्वोह खुद अपनी सीमा में पैदा नहीं कर सकता। मुमकिकन है कुछ लोगों को यह बात र्वो् यथ2 मालूम हो। उन लोगों से मैं कहूँगा किक भारत एक किर्वोक्तिचत्र देश है। कोई दयालु मुसलमान शुद्ध पानी किपलाने के क्तिलए तैयार हो, तो भी हजारों परंपरार्वोादी हिह�दू ऐसे है जो प् यास से अपना गला सूखने देंगे, लेकिकन मुसलमान के हाथ का पानी नहीं किपएगँे। यह बात अथ2हीन तो है, लेकिकन इस देश में र्वोह होती है। इसी तरह इन लोगों को एक बार इस बात का किनश् चय करा ठिदया जाए किक धम2 के अनुसार उन् हें भारत में ही बने हुए कपडे़ पहनना चाकिहए और भारत में ही पैदा हुआ अन् न खाना चाकिहए, तो किफर र्वोे कोई दूसरे पकडे़ पहनने या दूसरा अन् न खाने से इनकार कर देंगे।

भगर्वोद्गीता का एक श् लोक है, जिजसमें कहा गया है किक सामान् य जन श्रे�् F जनों का अनुकरण करते हैं। स् र्वोदेशी व्रत लेने पर कुछ समय तक असुकिर्वोधाए ँतो भोगनी पड़ेंगी, लेकिकन उन असुकिर्वोधाओं के बार्वोजूद यठिद समाज के किर्वोचारशील र्वो् यक्ति) स् र्वोदेशी का व्रत अपना लें, तो हम उन अनेक बुराइयों का किनर्वोारण कर सकते हैं जिजनसे हम पीकिड़त हैं। मैं कानून द्वारा किकए जाने र्वोाले हस् तक्षेप को, र्वोह जीर्वोन के किकसी भी किर्वोभाग में क् यों न किकया जाए, किबलकुल नापसंद करता हूँ। उसके समथ2न में ज ्यादा-से-ज ्याद यही कहा जा सकता है किक दूसरी बुराई की तुलना में र्वोह कम बुरी है। लेकिकन अपनी इस नापसंदगी के बार्वोजूद मैं किर्वोदेशी माल पर सख् त आया-कर लगाना न क्तिसफ2 सह लँूगा, बल्किwक मैं चाहूँगा किक ऐसा किकया जाए। नेटाल एक किब्रठिटश उपकिनर्वोेश है, हिक�तु उसने एक दूसरे किब्रठिटश उपकिनर्वोेश मारीशस से आने र्वोाली शक् कर पर काफी कर लगाया था और इस तरह अपनी शक् कर की रक्षा की थी। इंग्लैंड ने भारत पर स् र्वोतंत्र र्वो् यापार की नीकित लादकर भारत के प्रकित बड़ा अन् याय किकया है। यह नीकित इंग्लैंड के क्तिलए आहार की तरह पो�क क्तिसद्ध हुई होगी, हिक�तु भारत के क्तिलए तो र्वोह जहर साकिबत हुई है।

कहा जाता है किक भारत कम-से-कम आर्थिंथ�क जीर्वोन में तो स् र्वोदेशी के किनयम का आचरण नहीं कर सकता। जो लोग यह दलील देते हैं र्वोे स् र्वोेदशी को जीर्वोन के एक अकिनर्वोा2य क्तिसद्धांत के रूप में नहीं मानते। उनके क्तिलए र्वोह महज देश-सेर्वोा का काय2 है, जो अगर उसमें ज ्यादा आत् मा-किनग्रह करना पड़ता हो तो छोड़ भी जा सकता है। जैसा किक ऊपर बताया गया है, स्र्वोदेशी एक धार्मिम�क किनयम है जिजसका पालन उससे होने र्वोाले सारे शारीरिरक क�् टों के बार्वोजूद भी होना चाकिहए। स् र्वोदेशी का सच् चा पे्रम हो तो सुई या किपन जैसी चीजों का अभार्वो-क् योंकिक र्वोे भारत में नहीं बनती हैं-भय का कारण नहीं होना चाकिहए। स् र्वोदेशी का व्रत लेने ऐसी सैकड़ों चीजों के किबना ही अपना काम चलाना सीख लेगा, जिजन् हें आज र्वोह जरूरी समझता है। किफर यह बात भी तो है जो लोग स् र्वोेदशी को असंभर्वो कहकर टाल देना चाहते हैं, र्वोे यह भूल जाते हैं किक स् र्वोदेशी आखिखर एक आदश2 है जिजसे लगातार कोक्तिशश करके क्रमश: प्राप् त करना है। और यठिद किफलहाल हम इस किनयम को अमुक र्वोस् तुओं तक ही मया2ठिदत रखें और जो र्वोस् तुए ँदेश में प्राप् त नहीं हैं उनका उपयोग जारी रखें, तो भी हम आदश2 की ठिदशा में बढ़ते रह सकते हैं।

अंत में मुझे स् र्वोदेशी के खिखलाफ उFाए जाने र्वोाले एक अन् य आके्षप पर और किर्वोचार करना है। आके्षपकारों का कहना है किक र्वोह एक अत्यंत स् र्वोाथ2पूण2 क्तिसद्धांत है और सभ् यजनों की मानी हुई नीकित में उसे कोई स् थान नहीं हो सकता। र्वोे समझते हैं किक स् र्वोदेशी का पालन तो असभ् यता के युग की और लौटने जैसा होगा। मैं यहाँ इस कथन का किर्वोस् तृत किर्वोश् ले�ण नहीं कर सकता। हिक�तु मैं यह कहूँगा किक नम्रता और पे्रम के किनयमों के साथ एकमात्र स् र्वोदेशी का ही मेल बैF सकता है। यठिद मैं अपने परिरर्वोार को भी यथोक्तिचत सेर्वोा नहीं कर पाता हूँ, तो उस हालत में मेरा संपूण2 भारत की सेर्वोा का किर्वोचार करना दुरणिभमान ही कहा जाएगा। उस हालत में तो यहीं अच् छा होगा किक मैं अपना प्रयत् न परिरर्वोार की सेर्वोा पर ही कें ठिद्रत करँू और एसा समझँू किक परिरर्वोार की सेर्वोा द्वारा मैं पूरे देश की या यों कहो किक पूरी मानर्वो-जाकित की सेर्वोाकर रहा हूँ। नम्रता और पे्रम इसी में है। काय2 का मूल् य उसके पे्ररक हेतु से किनणिZत होता है। परिरर्वोार की सेर्वोा मैं उससे दूसरों को होने र्वोाले क�् टों की परर्वोाह किकए किबना भी कर सकता हूँ। उदाहरण के क्तिलए, हम लोगों से जबरदस् ती उनका पैसा छीनने का पेश अस्थिख्तयार कर सकते हैं। उसके द्वारा हम धनर्वोान बनकर

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परिरर्वोार की अनेक अनुक्तिचत माँगों को पूराकर सकते हैं। लेकिकन यठिद हम ऐसा करें तो उससे न तो परिरर्वोार की सेर्वोा होगी और न राज् य की। परिरर्वोार की सेर्वोा का दूसरा तरीका यह होगा किक मैं इस बात को पकिहचान लँू किक भगर्वोान ने मुझे अपने आणिश्रतों के पो�ण के क्तिलए हाथ-पाँर्वो ठिदए हैं, और मुझे उनसे काम लेना चाकिहए। ऐसा हो तो मैं एकदम अपना और जिजनसे मेरा सीधा संबंध है उनका जीर्वोन सादा बनाने में लग जाऊँगा। यठिद मैं ऐसा करँू तो अपने परिरर्वोार की भी सेर्वोा करँूगा और किकसी दूसरे की कोई हाकिन भी नहीं करँूगा। अगर हर एक आदमी यह जीर्वोन-पद्धकित अपना ले, तो एकदम आदश2 स्थि^कित को एक साथ नहीं प्राप् त करेंगे। लेकिकन जिजन लोगों ने इस बात को समझ क्तिलया है और इसक्तिलए जो उसे अपने आचरण में उतारेंगे, र्वोे स् प�् टत: उस शुभ ठिदन को पास लाने में बड़ी मदद करेंगे। जीर्वोन की इस योजना में मैं केर्वोल भारत की ही सेर्वोा करता ठिदखता हूँ, किफर भी मैं किकसी दूसरे देश को हाकिन न हीं पहुँचाता। मेरी देशभक्ति) र्वोज2नशील भी है और ग्रहणशील भी है। र्वोह र्वोज2नशील इस अथ2 में है किक मैं अत् यंत नम्रतापूर्वो2क अपना ध् यान अपनी जन् मभूमिम पर ही देता हूँ और ग्रहणशील इस अथ2 में है किक मेरी सेर्वोा में स् पधा2 या किर्वोरोध की भार्वोना किबलकुल नहीं है। 'अपनी संपणिu का उपयोग इस तरह करों किक उससे तुम् हारे पड़ोसी को को कोई क�् ट न हो' - यह केर्वोल कानून का क्तिसद्धांत नहीं, परंतु एक महान जीर्वोन-क्तिसद्धांत भी है। र्वोह अहिह�सा या पे्रम के समुक्तिचत पालन की कंुजी है।

लेकिकन जो लोग चरखे से जैसे-तैसे सूत कातकर खादी पहन-पहना कर स् र्वोदेशी-धम2 का पूरा पालन हुआ मान लेते हैं, र्वोे बडे़ मोह में डूबे हुए हैं। खादी सामाजिजक स् र्वोदेशी की प्रथम सीढ़ी है, र्वोह स् र्वोदेशी-धम2 की आखिखरी हद नहीं है। ऐसे खादीधारी देखे गए हैं, जो और सब चीजें परदेशी खरीदते हैं। र्वोे स् र्वोदेशी-धम2 का पालन नहीं करते। र्वोे तो क्तिसफ2 चालू बहार्वो में ब ह रहे है। स् र्वोदेशी व्रत का पालन करने र्वोाले हमेशा अपने आस-पास किनरीक्षण करेगा और जहाँ-जहाँ पड़ोक्तिसयों की सेर्वोा की जा सके, यानी जहाँ-जहाँ उनके हाथ का तैयार किकया हुआ जरूरत का माल होगा, र्वोहाँ दूसरा छोड़कर उसे लेगा। किफर भले ही स्र्वोदेशी चीज पहले-पहल महँगी और कम दरजे की हो। व्रत धारी उसको सुधार ने की कोक्तिशश करेगा। स् र्वोदेशी खराब है, इसक्तिलए कायर बनकर र्वोह परदेशी का इस् तेमाल करने नहीं जाएगा।

लेकिकन स्र्वोदेशी- धम2 जानने र्वोाला अपने कुएँ में डूब नहीं जाएगा। जो चीज स्र्वोदेशी में नहीं बनती हो या बड़ी तकलीफ से बन सकती हो, र्वोह परदेश के दे्व� के कारण अपने देश में बनाने लग जाए तो उसमें स्र्वोदेशी- धम2 नहीं है। स्र्वोदेशी-

धम2 पालने र्वोाला परदेशी का दे्व� कभी नहीं करेगा। इसक्तिलए पूण2 स्र्वोदेशी में किकसी का दे्व� नहीं हैं। र्वोह संकुक्तिचत धम2 नहीं है। र्वोह पे्रम में से- अहिह�सा में से- किनकला हुआ संुदर धम2 है।

32 गोरक्षा पीछे     आगे

हिह�दू धम2 की मुख् य र्वोस् तु है गोरक्षा। गोरक्षा मुझे मनु�् य के सारे किर्वोकास-क्रम में सबसे अलौकिकक र्वोस् तु मालूम हुई है। गाय का अथ2 मैं मनु�् य से नीचे की सारी गंूगी दुकिनया करता हूँ। इसमें गाय के बहाने इस तत् त् र्वो के द्वारा मनु�् य को संपूण2 चेतन-सृमिN के साथ आत् मीयता का अनुभर्वो कराने का प्रयत् न है। मझे तो यह भी स् प�् ट दीखता है किक गाय को ही यह देर्वोभार्वो क् यों प्रदान किकया गया होगा। हिह�दुस् तान में गाय ही मनु�् य का सबसे सच् चा साथी, सबसे बड़ा आधार था। यही हिह�दुस् तान की एक कामधेनु थी। र्वोह क्तिसफ2 दूध ही नहीं देती थी, बल्किwक सारी खेती का आधार-स् तंभ थी। गाय दयाधम2 की मूर्षित�मंत ककिर्वोता है। इस गरीब और शरीफ जानर्वोर में हम केर्वोल दया ही उमड़ती देखते हैं। यह लाखों-करोड़ों हिह�दुस् ताकिनयों को पालने र्वोाली माता है। इस गाय की रक्षा करना ईश् र्वोर की सारी मूक सृमिN की रक्षा करना है। जिजस अज्ञात ऋकि� या द्र�् टा ने गोपूजा चलाई उसने गाय से शुरूआत की। इसके क्तिसर्वोा और कोई ध् येय हो ही नहीं सकता। इस पशुसृमिN की फरिरयाद मूक होने से और भी प्रभार्वोशाली है। गोरक्षा हिह�दू धम2 की दुकिनया को दी हुई एक कीमतों भेंट है। और हिह�दू धम2 भी तभी तक रहेगा, जब तक गाय की रक्षा करने र्वोाले हिह�दू हैं।

हिह�दुओं की परीक्षा कितलक करने स् र्वोरशुद्ध मंत्र पढ़ने, तीथ2 यात्राए ँकरने या जाता-किबरादरी के छोटे-छोटे किनयमों को कट्टरता से पालने से नहीं होगी, बल्किwक गाय को बचाने की उनकी शक्ति) से ही होगी।

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गोमाता जन् म देने र्वोाली माँ से कहीं बढ़कर है। माँ तो साल दो साल दूध किपलाकर हमसे किफर जीर्वोनभर सेर्वोा की आशा रखती है। पर गोमाता को तो क्तिसर्वोा दाने और घास के कोई सेर्वोा की आर्वोश् यकता ही नहीं। माँ की तो हमें उसकी बीमारी में सेर्वोा करनी पड़ती है। परंतु गोमाता केर्वोल जीर्वोन-पय¡त ही हमारी अटूट सेर्वोा नहीं करती, बल्किwक उसके मरने के बाद भी हम उसके माँस, चम2 ह§ी, सींग आठिद से अनेक लाभ उFाते हैं। यह सब मैं जन् मदात्री माता का दरजा कम करने को नहीं कहता, बल्किwक यह ठिदखाने के क्तिलए कहता हूँ किक गोमाता हमारे क्तिलए किकतनी पूज ्य है।

हमारे ढोरों की दुद2शा के क्तिलए अपनी गरीबी का राग भी हम नहीं अलाप सकते। यह हमारी किनद2य लापरर्वोाही के क्तिसर्वोा और किकसी भी बात की सूचक नहीं है। हालांकिक हमारे हिप�जरापोल हमारी दयार्वोृणिu पर खड़ी हुई सं^ाए ँहैं, तो भी र्वोे उस र्वोृणिu का अत्यंत भद्द अमन करने र्वोाली सं^ाए ँही हैं। र्वो आदश2 गोशालाओं या डेरिरयों और समृ द्ध रा�् ट्रीय संस् थाओं के रूप में चलने के बजाय केर्वोल लूले-लंगडे़ ढोर रखने के धमा2दा खाते बन गए है। गोरक्षा के धम2 का दार्वोा करते हुए भी हमने गाय और उसकी संतान को गुलाम बनाया है और हम खुद भी गुलाम बन गए है।

लेकिकन मैं किफर से इस बात पर जोर देता हूँ किक कानून बनाकर गोर्वोध बंद करने से गोरक्षा नहीं हो जाती। र्वोह तो गोरक्षा के काम का छोटे-से-छोटा भाग है। ... लोग ऐसा मानते दीखते हैं। किक किकसी भी बुराई के किर्वोरुद्ध कोई कानून बना किक तुरंत र्वोह किकसी झंझट के किबना मिमट जाएगी। ऐसी भयंकर आत् म -र्वोंचन और कोई नहीं हो सकती। किकसी दु�् ट बुजिद्ध र्वोाले अज्ञानी या छोटे से समाज के खिखलाफ कानून बनाया जाता है और उसका असर भी होता है। लेकिकन जिजस कानून के किर्वोरुद्ध समझदार और संगठिFत लोकमत हो, या धम2 के बहाने छोटे-से-छोटे मंडल का भी किर्वोरोध हो, र्वोह कानून सफल नहीं होता। गोरक्षा के प्रश् न का जैसे-जैसे मैं अमिधक अध् ययन करता जाता हूँ, र्वोैसे-र्वोैसे मेरा यह मत दृढ़ होता जाता है किक गाँर्वोों और उनकी जनता की रक्षा तभी हो सकता है, जब किक मेरी ऊपर बताई हुई ठिदशा में किनरंतर प्रयत् न किकया जाए।

अब सर्वोाल यह हैं किक जब गाय अपने पालन-पो�ण के खच2 से भी कम दूध देने लगती हें या दूसरी तरह से नुकसान पहुँचाने र्वोाला बोझ बन जाती है, तब किबना मारे उसे कैसे बचाया जा सकता है? इस सर्वोाल का जर्वोाब थोडे़ में इस तरह ठिदया जा सकता है:

1. हिह�दू गाय औार उसकी संतान की तरफ अपना फज2 पूरा करके उसे बचा सकते हैं। अगर र्वोे ऐसा करें तो हमारे जानर्वोर हिह�दुस् तान और दुकिनया के गौरर्वो बन सकते हैं। आज इससे किबलकुल उलटा ही हो रहा है।

2. जानर्वोरों के पालन-पो�ण का शास् त्र सीखकर गाय की रक्षा की जा सकती है। आज तो इस काम में पूरी अंधाधुंधी चलती है।

3. हिह�दुस् तान में आज जिजस बेरहम तरीकें से बैलों को बमिधया बनाया जाता है, उसकी जगह पणिZम के हमदद� भरे और नरम तरीके काम में लाकर उसे क�् ट से बचाया जा सकता है।

4. हिह�दुस् तान के सारे हिप�जरापोलों का पूरा-पूरा सुधार किकया जाना चाकिहए। आज तो हर जगह हिप�जरापोल का इंतजाम ऐसे लोग करते हैं, जिजनके पास न तो कोई योजना होती हैं और न र्वोे अपने काम की जानकारी ही न रखते हैं।

5. जब ये महत् त् र्वो के काम कर क्तिलए जाएगँे, तो मुसलमान खुद दूसरे किकसी कारण से नहीं तो अपने हिह�दू भाइयों के खाकितर ही माँस या दूसरे मतलब के क्तिलए गाय को न मारने की जरूरत को समझ लेंगे।

पाFक यह देखेंगे किक ऊपर बताई हुई जरूरतों के पीछे एक खास चीज है। र्वोह है अहिह�सा जिजसे दूसरे शब् दों में प्राणिणमात्र पर दया कहा जाता है। अगर इस सबसे बडे़ महत् तर्वो की बात को समझ क्तिलया जाए, तो दूसरी सब बातें आसान बन जाती हैं। जहाँ अहिह�सा है र्वोहाँ अपार धीरज, भीतर शांकित, भले-बुरे का ज्ञान, आत् म त् याग और सच् ची जानकारी भी है। गोरक्षा कोई आसान काम नहीं है। उसके नाम पर देश में बहुत पैसा बरबाद किकया जाजाता है। किफर

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भी अहिह�सा के न होने से हिह�दू गाय के रक्षक बनने के बजाय उसके नाश करने र्वोाले बन गए हैं। गोरक्षा का काम हिह�दुस् तान से किर्वोदेशी हुकूमत को हटाने के काम से भी ज ्यादा कठिFन है।

[नोट: कहा जाता है किक हिह�दुस् तान की गाय रोजाना लगभग 2 पौंड दूध देती है, जब किक न् यूजीलैंड की 14 पौंड की 15 पौंड और हालैंड की गाय रोजाना 20 पौंड दूध देती है। जैसे-जैसे दूध की पैदार्वोर बढ़ती है र्वोैसे-र्वोैसे तंदुरुस् ती के आँकडे़ भी बढ़ते हैं।]

मुझे यह देखकर आश्चय2 होता है किक हम लोग भैंस के दूध- घी का किकतना पक्षपात करते हैं। असल में हम किनकट का स्र्वोाथ2 देखते हैं, दूर के लाभ का किर्वोचार नहीं करते। नहीं तो यह साफ है किक अंत में गाय ही ज्यादा उपयोगी है। गाय

के घी और मक्खन में एक खास तरह का पीला रंग होता है, जिजसमें भैंस के मक्खन से कहीं अमिधक केरोटीन यानी किर्वोटामिमन 'ए' रहता है। उसमें एक खास तरह का स्र्वोाद भी है। मझसे मिमलने आने र्वोाले किर्वोदेशी यात्री सेर्वोाग्राम में गाय

का शुद्ध दूध पीकर खुश हो जाते है। और यूरोप में तो भैंस के घी और मक्खन के बारे में कोई जानता ही नहीं। हिह�दुस् तान ही एक ऐसा देश है, जहाँ भैंस का घी- दूध इतना पसंद किकया जाता है। इससे गाय की बरबादी हुई है। इसीक्तिलए

मैं कहता हूँ किक हम क्तिसफ2 गाय पर ही जोर न देंगे तो गाय नहीं बच सकेगी।

33 सहकारी गो पालन पीछे     आगे

प्रत् येक किकसान अपने घर में गाय-बैल रखकर उनका पालन भली-भाँकित और शास् त्रीय पद्धकित से नहीं कर सकता। गोर्वोंश के ह्रास के अनेक कारणों में र्वो् यक्ति)गत गोपालन भी एक कारण रहा है। यह बोझ र्वोैयक्ति)क किकसान की शक्ति) के किबलकुल बाहर है।

मैं तो यहाँ तक कहता हूँ किक आज संसार हर एक काम में सामुदामियक रूप से शक्ति) का संगFन करने की ओर जा रहा है। इस संगFन का नाम सहयोग है। बहुत-सी बातें आजकल सहायोग से हो रही हैं। हमारे मुल् क में भी सहयोग आया तो है, लेकिकन र्वोह ऐसे किर्वोकृत रूप में आया है किक उसका सही लाभ हिह�दुस् तान के गरीबों को किबलकुल नहीं मिमलता।

हमारी आबादी बढ़ती जा रही है और उसके साथ किकसान की र्वो् यक्ति)गत जमीन कम होती जा रही हे। नतीजा यह हुआ है किक प्रत् येक किकसान के पास जिजतनी चाकिहए उतनी जमीन नहीं है। जो है र्वोह उसकी अड़चनों को अढ़ाने र्वोाली है। ऐसा किकसान अपने घर में या खेत पर गाय-बैल नहीं रख सकता। रखता है तो अपने हाथों अपनी बरबादी को न् यौता भी देता है। आज हिह�दुस् तान की यही हालत है। धम2, दया या नीकित की परर्वोाह न करने र्वोाला अथ2शास् त्र तो पुकार-पुकार कर कहता है किक आज हिह�दुस् तान में लाखों पशु मनु�् य को खा रहे हैं। क् योंकिक उनसे कुछ लाभ नहीं पहुँचने पर भी उन् हें खिखलाना तो पड़ता ही है। इसक्तिलए उन् हें मार डालना चाकिहए। लेकिकन धम2 कहों, नीकित कहों या दया कहों, ये हमें इस किनकम् मे पशुओं को मारने से रोकते हैं।

इस हालत में क् या किकया जाए? यही किक जिजतना प्रयत् न पशुओं को जीकिर्वोत रखने और उन् हें बोझ न बनने देने का हो सकता है उतना किकया जाए। इस प्रयत् न में सहयोग का बड़ा महत् त् र्वो है। सहयोग अथर्वोा सामुदामियक पद्धकित से पशु-पालन करने से:

1. जगह बचेगी। किकसान को अपने घर में पधु नहीं रखने पड़ेंगे। आज तो जिजस घर में किकसान रहता है, उसी में उसके सारे मरे्वोशी भी रहते हैं। इससे हर्वोा किबगड़ती है और घर में गंदगी रहती है। मनु�् य पशु के साथ एक ही घर में रहने के क्तिलए पैदा नहीं किकया गया है। ऐसा करने में न दया हैं, न ज्ञान।

2. पशुओं की र्वोृजिद्ध होने पर एक घर में रहना असंभर्वो हो जाता है। इसक्तिलए किकसान बछडे़ को बेच डालता है और भैंसे या पाडे़ को मार डालता है, या मरने के क्तिलए छोड़ देता है। यह अधमता है। सहयोग से यह रुकेगा।

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3. जब पशु बीमार होता है तब र्वो् यक्ति)गत रूप से किकसान उसका शास् त्रीय उपचार नहीं करर्वोा सकता। सहयोग से ही क्तिचकिकत् सा सुलभ होती है।

4. प्रत् येक किकसान साँड़ नहीं रख सकता। सहयोग के आधार पर बहुत से पशुओं के क्तिलए एक अच् छा सांड़ रखना सरल है।

5. प्रत् येक किकसान गोचर-भूमिम तो Fीक पशुओं के क्तिलए र्वो् यायम की यानी किहरने-किफरने की भूमिम भी नहीं छोड़ सकता। हिक�तु सहयोग के द्वारा ये दोनों सुकिर्वोधाए ँआसानी से मिमल सकती हैं।

6. र्वो् यक्ति)गत रूप में किकसान को घास इत् याठिद पर बहुत खच2 करना पड़ता है। यहयोग के द्वारा कम खच2 में काम चल जाएगा

7. किकसान र्वो् यक्ति)गत रूप में अपना दूध आसानी से नहीं बेच सकता। सहयोग के द्वारा उसे दाम भी अच् छे मिमलेंगे और र्वोह दूध में पानी र्वोगैरा मिमलाने के लालच से भी बच सकेगा।

8. र्वो् यक्ति)गत रूप में किकसान के क्तिलए पशुओं की परीक्षा करना असंभर्वो है, हिक�तु गाँर्वो भर के पशुओं की परीक्षा सुलभ है। और उनकी नसल के सुधार का प्रश् न भी आसान हो जाता है।

9. सामुदामियक या सहयोगी पद्धकित के पक्ष में इतने कारण पया2प् त होने चाकिहए। परंतु सबसे बड़ी और सचोट दलील तो यह है किक र्वो् यक्ति)गत पद्धकित के कारण ही हमारी और पशुओं की दशा आज इतनी दयानीय हो उFी है। उसे बदल दें तो हम भी बच सकते हैं और पशुओं को भी बचा सकते हैं।

मेरा तो किर्वोश् र्वोास है किक जब हम अपनी जमीन को सामुदामियक पद्धकित से जोतेंगे, तभी उससे फायदा उFा सकें गे। गाँर्वो की खेती अलग-अलग सौ टुकड़ों में बँट जाए, इसके बकिनस् बत क् या यह बेहतर नहीं होगा किक सौ कुटंब सारे गाँर्वो की खेती सहयोग से करें और उसकी आमदनी आपस में बाँट क्तिलया करें ? ᣛ और जो खेती के क्तिलए सच है, र्वोह पशुओं के क्तिलए भी सच है।

यह दूसरी बात है किक आज लोगों को सहयोग की पद्धकित पर लाने में सभी अंग कठिFनाई हे। कठिFनाई ताक सभी सच् चे और अच् चे कामों में होती है। गोसेर्वोा के सभी अंग कठिFन हैं। कठिFनाइयाँ दूर करने से ही सेर्वोा का माग2 सुगम बन सकता है। यहाँ तो मुझे इतना ही बताना था किक सामुदामियक पद्धकित क् या चीज है और यह किक र्वोैयक्ति)क पद्धकित गलत है और सामुदामियक सही है। र्वो् यक्ति) अपने स् र्वोातंत्र्य की रक्षा भी सहयोग को स् र्वोीकार करके ही का सकता है। अतएर्वो सामुदामियक पद्धकित अहिह�सात् मक है, र्वोैयक्ति)क हिह�सात् मक।

गोबर, कचरे और मनुष्य के मल र्वोगैरा में से खूबसूरत और सुगंमिधत खाद मिमल सकता है। यह सुनहली चीज है। धूल में सेक धन पैदा करने की बात है। ... यह खाद बनाना भी एक ग्रामोद्योग है। यह तभी चल सकता है जब करोड़ों

लोग उसमें किहस्सा लें, मदद दें।

34 गाँवों की सफाई पीछे     आगे

श्रम और बुजिद्ध के बीच जो अलगार्वो हो गया है, उसके कारण हम अपने गाँर्वोों के प्रकित इतने लापरर्वोाह हो गए हैं किक र्वोह एक गुनाह ही माना जा सकता है। नतीजा यह हुआ है किक देश में जगह-जगह सुहार्वोने और मनभार्वोने छोटे-छोटे गाँर्वोों के बदले हमें घूरे जैसे गँदे गाँर्वो देखने को मिमलते हैं। बहुत से या यों ककिहए किक करीब-करीब सभी गाँर्वोों में घुसते समय जो अनुभर्वो होता है, उससे ठिदल को खुशी नहीं होती। गाँर्वो के बाहर और आस-पास इतनी गंदगी होती है और र्वोहाँ इतनी बदबू आती है किक अक् सर गाँर्वो में जाने र्वोालो को आँख मूँदकर और नाक दबाकर ही जाना पड़ता है। ज ्

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यादातर कांग्रेसी गाँर्वो के बा चिश�दे होने चाकिहए; अगर ऐसा हो तो उनका फज2 हो जाता है किक र्वोे अपने गाँर्वोों को सब तरह से सफाई के नमूने बनाए।ँ लेकिकन गाँर्वो र्वोालों के हमेशा के यानी रोज-रोज के जीर्वोन में शरीक होने या उनके साथ घुलने-मिमलने को उन् होंने कभी अपना कत्2 तर्वो् य माना ही नहीं। हमने रा�् ट्रीय या सामाजिजक सफाई को नतो जरूरी गुण माना, और न उसका किर्वोकास ही किकया। यों रिरर्वोाज के कारण हम अपने ढँग से नहा भर लेते हैं मगर जिजस नहीं, तालाब या कंुए के किकनारे हम श्राद्ध या र्वोैसी ही दूसरी कोई धार्मिम�क किक्रया करते हैं और जिजन जलाशयों में पकिर्वोत्र होने के किर्वोचार से हम नहाते हो, उनके पानी को किबगाड़ने या गन् दा करने में हमें कोई किहचक नहीं होती। हमारी इस कमजोरी को मैं एक बड़ा दुगु2णमानता हूँ। इस दुगु2ण का ही यह नतीजा है किक हमारे गाँर्वोों की और हमारी पकिर्वोत्र नठिदयों के पकिर्वोत्र तटों की लज ्जाजनक दुद2शा और गंदगी से पैदा होने र्वोाली बीमारिरयां हमें भोगनी पड़ती हैं।

गाँर्वोों में करने के काय2 ये है किक उनमें जहाँ-जहाँ कूडे़-करकट तथा गोबर के ढेर हों, र्वोहाँ-र्वोहाँ से उनको हटाया जाए और कुओं तथा तालाबों की सफाई की जाए। अगर काय2कता2 लोग नौकर रखे हुए भंकिगयों की भाँकित खुद रोज सफाई का काम करना शुरू कर दें और साथ ही गाँर्वो र्वोालों को यह भी बतलाते रहें किक उनसे सफाई के काय2 में शरीक होने की आशा रखी जाती है, ताकिक आगे चलकर अंत में सारा काम गाँर्वो र्वोाले स् र्वोयं करने लग जाए,ँ तो यह किनणिZत है किक आगे या पीछे गाँर्वो र्वोालें इस काय2 में अर्वोश् य सहयोग देने लगेंगे।

र्वोहाँ के बजार तथा गक्तिलयों को सब प्रकार का कूड़ा-करकट हटाकर स् र्वोच् छ बना लेना चाकिहए। किफर उस कूडे़ का र्वोग�करण कर देना चाकिहए। उसमें से कुछ का तो खाद बनाया जा सकता है, कुछ को क्तिसफ2 जीमन में गाड़ देना भर बस होगा और कछ किहस् सा ऐसा होगा किक जो सीधा संपणिu के रूप में परिरणत किकया जा सकेगा र्वोहाँ मिमली हुई प्रत् येक हडडी एक बहुमूल् य कच् चा माल होगी, जिजससे बहुत-सी उपयोग चीजें बनाई जा सकें गी, या जिजसे पीसकर कीमती खाद बनाया जा सकेगा। कपडे़ के फटे-पुराने क्तिचथड़ों तथा रद्दी कागजों से कागज बनाए जा सकते हैं और इधर-उधर से इकटFा किकया हुआ मल-मूत्र गाँर्वो के खेतों के जिजए सुनहले खाद का काम देगा। मल-मूत्र को उपयोगी बनाने के क्तिलए यह करना चाकिहए किक उसके साथ-चाहे र्वोह सूखा हो या तरल-मिमट्टी मिमलाकर दसे ज ्यादा-से-ज ्यादा एक फुट गहरा गडढा खोदकर जमीन में गाड़ ठिदया जाए। गाँर्वोों की स् र्वोास् थ ्य-रक्षा पर क्तिलखी हुई अपनी पुस् तक में डॉ. पूअरे कहते हो किक जमीन में मल-मूत्र नौ या बारह इंच से अमिधक गहरा नहीं गाड़ना चाकिहए। (मैं यह बात केर्वोल स् मृकित के आधार पर क्तिलख रहा हूँ।) उनकी मान् यता यह है किक जमीन की ऊपरी सतह सूक््ष म जीर्वोों से परिरपूण2 होती हैं और हर्वोा एक रोशनी की सहायता से-जो किक आसानी से र्वोहाँ तक पहुँच जाती है ये जीर्वो मल-मूत्र को एक हफ्ते के अंदर एक अच् छी, मुलायम और सुगंमिधत मिमट्टी में बदल देते हैं। कोई भी ग्रामर्वोासी स् र्वोयं इस बात की सच् चाई का पता लगा सकता है। यह काय2 दो प्रकार से किकया जा सकता है। या तो पाखाने बनाकर उनमें शौच जाने के क्तिलए मिमट्टी तथा लोहे की बास्त्रिwटयाँ रख दी जाए ँऔर किफर प्रकितठिदन उन बास्त्रिwटयों को पहले से तैयार की हुई जमीन में खाली करके ऊपर से मिमट्टी डाल दी जाए या किफर जमीन में चौरस गडढा खोदकर सीधे उसी में मल-मूत्र का त् याग करके ऊपर से मिमट्टी डाल दी जाए। यह मल-मूत्र या तो देहात के सामूकिहक खेतों में गाड़ा जा सकता है या र्वो् यक्ति)गत खेतों में। लेकिकन यह काय2 तभी संभर्वो है। जब किक गाँर्वो र्वोालें सहयोग दें कोई भी उद्योगी ग्रामर्वोासी कम-से-कम इतना काम तो खुद भी कर ही सकता है किक मल-मूत्र को एकत्र करके उसकों अपने क्तिलए संपणिu में परिरर्वोर्षित�त कर दें। आजकल तों यह सारा कीमती खाद, जो लाखों रुपए ँकी कीमत का है, प्रकितठिदन र्वो् यथ2 जाता है और बदले में हर्वोा को गंदी करता तथा बीमारिरयों फैलाता रहता है।

गाँर्वोों के तालाबों से स् त्री और पुरु� सब स् नान करने, कपडे़ धोने, पानी पीने तथा भोजन बनाने का काम क्तिलया करते हैं। बहुत से गाँर्वोों के तालाब पशुओं के काम भी आते हैं। बहुधा उनमें भैंसे बैFी हुई पाई जाती हैं। आश् चय2 तो यह है किक तालाबों का इतना पापपूण2 दुरुपयोग होते रहने पर भी महामारिरयों से गाँर्वोों का नाश अब तक क् यों नहीं हो पाया है? आरोग् य-किर्वोज्ञान इस किर्वो�य में एकमत है किक पानी की सफाईके संबंध में गाँर्वो र्वोालों की उपेक्षा-र्वोृणिu ही उनकी बहुत-सी बीमारिरयों का कारण है।

पाFक इस बात को स् र्वोीकार करेंगे किक इस प्रकार का सेर्वोा काय2 क्तिशक्षाप्रद होने के साथ-ही-साथ अलौकिकक रूप से आनंद दायक भी है और इसमें भारतर्वो�2 के संतान-पीकिड़त जन-समाज का अकिनर्वो2चनीय कल् याण भी समाया हुआ है। मुझे उम् मीद है किक इस समस् या को सुलझाने के तरीके का मैंने ऊपर जो र्वोण2न किकया है, उससे इतना तो साफ हो गया होगा किक अगर ऐसे उत् साही काय2कता2 मिमल जाए,ँ जो झाड़ू और फार्वोडे़ को भी उतने ही आराम और गर्वो2 के

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साथ हाथ में ले लें जैसे किक र्वोे कलम और पेंक्तिसल को लेते हैं, तो इस काय2 में खच2 का कोई सर्वोाल ही नहीं उFेगा। और किकसी खच2 की जरूरत पडे़गी भी तो र्वोह केर्वोल झाड़ू, फार्वोड़ा, टोकरी, कुदाली और शायद कुछ कीटाणु-नाशक दर्वोाइयाँ खरीदने तक ही सीमिमत रहेगा। सूखी राख संभर्वोत: उतनी ही अच् छी कीटाणु-नाशक दर्वोा है, जिजतनी किक कोई रसायनशास् त्री दे सकता है।

आदश2 भारतीय गाँर्वो इस तरह बसाया और बनाया जाना चाकिहए, जिजससे र्वोह संपूण2तया नीरोग हो सके। उसके झोंपड़ो और मकानों में काफी प्रकाश और र्वोायु आ-जा सके। ये झोंपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और र्वोायु आ-जा सके। ये झोंपड़ों ऐसी चीजों के बने हों जो पाँच मील की सीमा के अंदर उपलब् ध हो सकती हैं। हर मकान के आस-पास या आगे-पीछे इतना बड़ा आँगन हो, जिजसमें गृहस् थ अपने क्तिलए साग-भाजी लगा सकें और अपने पशुओं को रख सकें । गाँर्वो की गक्तिलयों और रास्तों पर जहाँ तक हो सके धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गाँर्वो में कुए ँहों, जिजनसे गाँर्वो के सब लोग पानी भर सकें । सबके क्तिलए प्राथ2ना-घर या मंठिदर हों, सार्वो2जकिनक सभा र्वोगैरा के क्तिलए एक अलग स् थान हो, गाँर्वो की अपनी गोचर-भूमिम हो, सहकारी ढँग की एक गोशाला हो ऐसी प्राथमिमक और माध् यमिमक शालाए ँहो जिजनमें उद्योग की क्तिशक्षा सर्वो2-प्रधान र्वोस् तु हो, और गाँर्वो के अपने मामलों का किनपटारा करने के क्तिलए एक ग्राम-पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के क्तिलए अनाज, साग-भाजी, फल, खादी र्वोगैरा खुद गाँर्वो में ही पैदा हों। एक आदश2 गाँर्वो की मेरी अपनी यह कल् पना है। मौजूदा परिरस्थि^त में उसके मकान ज ्यों-के-त् यों रहेंगे, क्तिसफ2 यहाँ-र्वोहाँ थोड़ा-सा सुधार कर देना अभी काफी होगा। अगर कहीं जमींदार हो और र्वोह भला आदमी होग या गाँर्वो के लोगों में सहयोग और पे्रमभार्वो हो, तो बगैर सरकारी सहायता के खुद ग्रामीण ही जिजनमें जमींदार भी शामिमल है-अपने बल पर लगभग ये सारी बातें कर सकते हैं। हाँ, क्तिसफ2 नए क्तिसरे से मकानों को बनाने की बात छोड़ दीजिजए। और अगर सरकारी सहायता भी मिमल जाए तब तो ग्रामों की इस तरह पुनर2चना हो सकती है किक जिजसकी कोई सीमा ही नहीं। पर अभी तो मैं यहीं सोच रहा हूँ किक खुद ग्राम किनर्वोासी अपने बल पर परस् पर सहयोग के साथ और सारे गाँर्वो के भले के क्तिलए किहल-मिमलकर मेहनत करें, तो र्वोे क् या-क् या कर सकते है? मुझे तो यह किनश् चय हो गया है किक अगर उन् हें उक्तिचत सलाह और माग2दश2न मिमलता रहे, तो गाँर्वो की-मैं र्वो् यक्ति)यों की बात नहीं करता-आय बराबर दूनी हो सकती है। र्वो् यापारी दृमिN से काम में आने लायक अखूट साधन-सामग्री हर गाँर्वो में है। पर सबसे बड़ी बदकिकस् मती तो यह है किक अपनी दशा सुधारने के क्तिलए गाँर्वो के लोग खुद कुछ नहीं करना चाहते।

एक गाँर्वो के काय2कता2 की सबसे पहले गाँर्वो की सफाई और आरोग्य के सर्वोाल को अपने हाथ में लेना चाकिहए। यों तो ग्रामसेर्वोकों को हिक�कत्त2व्य- किर्वोमूढ़ बना देने र्वोाली अनेक समस्याएँ हैं, पर यह समस्या ऐसी है जिजसकी सबसे अमिधक लापरर्वोाही की जा रही है। फलत: गाँर्वो की तंदुरुस्ती किबगड़ती रहती है और रोग फैलते रहते हैं। इधर ग्रामसेर्वोक स्र्वोेच्

छापूर्वो2क भंगी बन जाए, तो र्वोह प्रकितठिदन मैला उFाकर उसका खाद बना सकता है और गाँर्वो के रास्ते बुहार सकता है। र्वोह लोगों से कहे किक उन्हें पाखाना- पेशाब कहाँ करना चाकिहए, किकस तरह सफाई रखनी चाकिहए, उसके क्या लाभ

हैं, और सफाई के न रखने से क्य- क्या नुकसान होते हैं। गाँर्वो के लोग उसकी बात चाहे सुनें या न सुनें, र्वोह अपना काम बराबर करता रहे।

35 गाँव का आरोग्य पीछे     आगे

मेरी राज में जिजस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई हो तथा युक् ताहार और योग् य र्वो् यायाम हो, र्वोहाँ कम-से-कम बीमारी होती है। और, अगर क्तिचत् तशुजिद्ध भी हो, तो कहा जा सकता है किक बीमारी असंभर्वो हो जाती है। राम नाम के किबना क्तिचत् तशुजिद्ध नहीं हो सकती। अगर देहात र्वोाले इतनी बात समझ जाए ँतो र्वोैद्य हकीम या डॉक् टर की जरूरत नरह जाए।

कुदरती उपचार के गभ2 में यह बात रही है किक मानर्वो-जीर्वोन की आदश2 रचना में देहात की या शहर की आदश2 रचना आ ही जाती है। और उसका मध् यहिब�दु तो ईश् र्वोर ही हो सकता है।

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कुदरती इलाज के गभ2 में यह बात रही है किक उसमें कम-से-कम खच2 और ज ्यादा से ज ्यादा सादगी होनी चाकिहए। कुदरती उपचार का आदश2 ही यह है किक जहाँ तक संभर्वो हो, उसके साधन ऐसे होने चाकिहए किक उपचार देहात में ही हो सके। जो साधन नहीं हैं र्वोे पैदा किकए जाने चाकिहए। कुदरती उपचार जीर्वोन-परिरर्वोत2न की बात आती है। यह कोई र्वोैद्य की दी हुई पुकिड़या लेने की बात नहीं है, और न अस् पताल जाकर मुफ्त दर्वोा लेने या र्वोहाँ रहने की बात है। जो मुफ्त दर्वोा लेता है र्वोह णिभक्षुक बनता है। जो कुदरती उपचार करता है, र्वोह कभी णिभक्षुक नहीं बनता। र्वोह अपनी प्रकित�् Fा बढ़ाता है और अच् छा होने का उपाय खुद ही कर लेता है। र्वोह अपने शरीर से जहर किनकालकर ऐसा प्रयत् न करता है, जिजससे दुबारा बीमार न पड़ सके। और कुदरती इलाज में मध् यहिब�दु तो रामनाम ही है न ?ᣛ

पथ ्य खुराक-युक् ताहार-इस उपचार का अकिनर्वोाय2 अंग है। आज हमारे देहात हमारी ही तरह कंगाल हैं। देहात में साग-सब् जी, फल-दूध र्वोगैरा पैदा करना कुदरती इलाज का खास अंग है। इसमें जो समय खच2 होता है, र्वोह र्वो् यथ2 नहीं जाता। बल्किwक उससे सारे देहाकितयों को और आखिखर में सारे हिह�दुस् तान को लाभ होता है।

किनचोड़ यह किनकला किक अगर हम सफाई के किनयम जानें, उनका पालन करें और सही खुराक लें, तो हम खुद अपने डॉक् टर बन जाए।ँ जो आदमी जीने के क्तिलए खाता है, जो पाँच महभूतों का यानी मिमट्टी, पानी, आकाश, सूरज और हर्वोा का दोस् त बनकर रहता है, जो उनको बनानेर्वोाले ईश् र्वोर का दास बनकर जीता है, र्वोह कभी बीमार न पडे़गा। पड़ा भी तो ईश् र्वोर के भरोसे रहता हुआ शांकित से मर जाएगा। र्वोह अपने गाँर्वो के मैदानों या खेतों में मिमलने र्वोाली जड़ी-बूटी या औ�मिध लेकर ही संतो� मानेगा। करोड़ो लोग इसी तरह जीते और मरते है। उन् होंने तो डॉक् टर का नाम तक नहीं सुना। र्वोे उसका मुँह कहाँ से देखें ? ᣛ हम भी Fीक ऐसे ही बन जाए ँऔर हमारे पास जो देहाती लड़के और बडे़ आते है, उनको भी इसी तरह रहना क्तिसखा दें। डॉक् टर लोग कहते हैं किक 100 में से 99 रोग गंदगी से, न खाने से और खाने लायक चीजों के न मिमलने और न खाने से होते हैं। अगर हम इन 99 लोगों को जीने की कला क्तिसखा दें, तो बाकी एक को हम भूल जा सकते हैं। उसके क्तिलए कोई परोपकारी डॉक् टर मिमल जाएगा। हम उसकी किफकर न करें। आज हमें न तो अच् छा पानी मिमलता है, न अच् छी मिमट्टी और न साफ हर्वोा ही मिमलती है। हम सूरज से क्तिछप-क्तिछपकर रहते हैं। अगर हम इन सब बातों को सोचें और सही खुराक सही तरीके से लें, तो स मजिझए किक हमने जमानों का काम कर क्तिलया। इसका ज्ञान पाने के क्तिलए न तो हमें कोई किडग्री चाकिहए और न करोड़ों रुपए! जरूरत क्तिसफ2 इस बात की है किक हममे ईश् र्वोर पर श्रत्रा हो, सेर्वोा की लगन हो, पाँच महाभूतों का कुछ परिरचय हो, और सही भोजन का सही ज्ञान हो। इतना तो हम स् कूल और कॉलेज की क्तिशक्षा के बकिनस् बत खुद ही थोड़ी मेहनत से और थोडे़ समय में हाक्तिसलकर सकते हैं।

जाने-अनजाने कुदरत के कानूनों को तोड़ने से ही बीमारी पैदा होती है। इसक्तिलए उसका इलाज भी यही हो सकता है किक बीमारी किफर कुदरत के कानूनों पर अमल करना शुरू कर दे। जिजस आदमी ने कुदरत के कानून को हद से ज ्यादा तोड़ा है, उसे तो कुदरत की सजा भोगनी ही पडे़गी, या किफर उससे बचने के क्तिलए अपनी जरूरत के मुताकिबक डॉक् टरों या सज2नों की मदद लेनी होगी। र्वोाजिजब सजा को सोच-समझकर चुपचाप सह लेने से मन की ताकत बढ़ती है, मगर उसे टालने की कोक्तिशश करने से मन कमजोर बनता है।

मैं यह जानना चाहूँगा किक ये डॉक् टर और र्वोैज्ञाकिनक लोग देश के क्तिलए क् या कर रहे हैं? र्वोे हमेशा खास-खास बीमारिरयों के इलाज के नए-नए तरीके सीखने के क्तिलए किर्वोदेशों में जाने के क्तिलए तैयार ठिदखाई देते हैं। मेरी सलाह है किक र्वोे हिह�दुस् तान के 7 लाख गाँर्वोों की तरफ ध् यान दें। ऐसा करने पर उन् हें जल् दी ही मालूम हो जाएगा किक डॉक् टरी की किडकिग्रयाँ क्तिलए हुए सारे मद2 और औरतों की, पणिZमी नहीं बल्किwक पूर्वो� ढँग पर, ग्रामसेर्वोा के काम में जरूरत है। तब र्वोे इलाज के बहुत से देशी तरीकों को अपना लेंगे। जब हिह�दुस् तान के गाँर्वोों में ही कई तरह की जड़ी-बूठिटयों और दर्वोाइयों का अखूट भंडार मौजूद है, तब उसे पणिZमी देशों से दर्वोाइयाँ मँगाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिकन दर्वोाइयों से भी ज ्यादा इन डॉक् टरों को जीने का सही तरीका गाँर्वो र्वोालों को क्तिसखाना होगा।

मेरा कुदरती इलाज तो क्तिसफ2 गाँर्वो र्वोालों और गाँर्वोों के क्तिलए ही है। इसक्तिलए उसमें खुद2बीन, एक् स-रे र्वोगैरा की कोई जगह नहीं है। और न ही कुदरती इलाज में कुनैन, अमिमटीन, पेकिनक्तिसलीन र्वोगैरा दर्वोाओं की गँुजाइश है। उसमें अपनी सफाई, घर की सफाई, गाँर्वो की सफाई और तंदुरुस् ती की किहफाजत का पहला और पूरा-पूरा स् थान है। इसकी तह में खयाल यह है किक अगर इतना किकया जाए या हो सके, तो कोई बीमारी ही न हो। और बीमारी आ जाए तो उसे

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मिमटाने के क्तिलए कुदरत के सभी कानूनों पर अमल करने के साथ-साथ राम-नाम ही उसका असल इलाज सार्वो2जकिनक या आम नहीं हो सकता। जब तक खुद इलाज करने र्वोाले में राम-नाम की क्तिसजिद्ध न आ जाए, तब तक राम-नाम-रूपी इलाज को एकदम आम नहीं बनाया जा सकता।

36 गाँवों का आहार पीछे     आगे

हार्थ-कुटाई का चावल

अगर चार्वोल पुरानी पद्धकित से गाँर्वोों में ही कूटा जाए, तो उसकी मजदूरी हाथ-कटाई करने र्वोाली बहनों के हाथ में जाएगी और चार्वोल खाने र्वोाले लाखें लोगों को, जिजन् हें आज मिमलों के पाक्तिलश किकए हुए चार्वोल से केर्वोल स् टाच2 मिमलता है, हाथ-कुटे चार्वोल से कुछ पो�क तत् त् र्वो भी मिमलेंगे। चार्वोल पैदा करने र्वोाले प्रदेशों में जहाँ-तहाँ जो भयार्वोनी चार्वोल की मिमलें खड़ी ठिदखाई देती हैं, उनका कारण मनु�् य का र्वोह अमया2ठिदत लोभ ही है, जो न तों अपनी तृप्तिप्त के क्तिलए अपने पंज ेमें आए हुए लोगों के स् र्वोास् थ ्य की परर्वोाह करता है और न उनके सुख की। अगर लोकमत शक्ति)शाली होता तो र्वोह चार्वोल की मिमलों के माक्तिलकों से इस र्वो् यापार को-जो समूजें रा�् ट्र के स् र्वोास् थ ्य को खोखला बनाता है और गरीबों को जीकिर्वोकोपाज2न के एक ईमानदारी के साधन से र्वोंक्तिचत करता है-बंद करने का अनुरोध करता और हाथ-कुटाई के चार्वोलों के ही उपयोग का आग्रह रखकर चार्वोल कूटनेर्वोाली मिमलों का चलना अशक् य कर देता।

गेहँू का चोरक-युक् त आटा

यह तो सभी डॉक् टरों की राय है किक किबना चोकर का आटा उतना ही हाकिनकार है जिजतना किक पाक्तिलश किकया हुआ चार्वोल। बाजार में जो महीन आटा या मैदा किबकता है उसके मुकाबले में घर की चक् की का किपसा हुआ किबना चला गेहूँ का आटा अच् छा भी होता है और सस् ता भी। सस् ता इसक्तिलए होता है किक किपसाई का पैसा बच जाता है। किफर घर के किपसे हुए आटे का र्वोजन कम नहीं होता। महीन आटे या मैदे में तौल कम हो जाती है। गेहूँ का सबसे पोमिNक अंश उसके चोकर में होता है। गेहूँ की भूसी चालकर किनकाल डालने से उसके पौमिNक तत् त् र्वो की बहुत बड़ी हाकिन होती है। ग्रामर्वोासी या दूसरे लोग, जो घर की चक् की का किपसा आटा किबना चला हुआ खाते हैं, र्वोे पैसे के साथ-साथ अपना स् र्वोास् थ ्य भी न�् ट होने से बचा लेते हैं। आज आटे की मिमलें जो लाखों रुपए कमा रही है, उस रकम का काफी बड़ा किहस् सा गाँर्वोों में हाथ की चस्थिक्कयाँ किफर से चलने लगने से गाँर्वोों में ही रहेगा और र्वोह सत् पात्र गरीबों के बीच बँटता रहेगा।

गुड़

डॉक् टरों की राय के अनुसार गुड़... सफेद चीनी की अपेक्षा कहीं अमिधक पौमिNक है; और अगर गाँर्वो र्वोालों ने गुड़ बनाना छोड़ ठिदया, तो उनके बल-बच् चों के आहार में से एक जरूरी चीज किनकल जाएगी। र्वोे खुद शायद गुड़ के किबना अपना काम चला सकें गे, पर उनके बच् चों की शारीकिक ताक गुड़ के अभार्वो में किनश् चय ही घट जाएगा। ...अगर गुड़ बनाना जारी रहा और लोगों ने उसका उपयोग करना न छोड़ा, तो ग्रामर्वोाक्तिसयों का करोड़ों रुपया उनके पास ही रहेगा।

हरी पत् ता-भाजिजयाँ

आहार या किर्वोटामिमनों के किर्वो�य पर क्तिलखी गई कोई भी आधुकिनक पाठ्य-पुस् तक उFाइए, तो उसमें आप इस बात की जोरदार क्तिसफारिरश पाएगँे किक हर एक भोजन के साथ थोड़ी-सी कच् ची हरी पत् ता-भाजी जरूर ली जाए। बेशक,

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खाने से पहले उन् हें चार-छह बार अच् छी तरह धो लेना चाकिहए, ताकिक उनमें लगी हुई मिमट्टी और दूसरा कचरा किबलकुल साफ हो जाए। ये पत् ता-भाजिजयाँ हर एक गाँर्वो में आसानी से मिमल सकती है; क्तिसफ2 उन् हें तोड़ने की जरूरत है। किफर भी, हरी पत् ता-भाजिजयाँ शहरों के ही लोगों के शौक की चीज समझी जाती हैं।

भारत के अमिधकांश किहस् सों में गाँर्वो र्वोाले तो दाल, चार्वोल या रोटी पर ही गुजारा करते हैं और इनके साथ बहुत-सी मिमच� खाते हैं, जो शरीर को नुकसान पहुँचाती हैं। चँूकिक गाँर्वोों के आर्थिथ�क पुनग2Fन का काम आहार के सुधार से शुरू किकया गया है, इसक्तिलए सस् ते और सादे ऐसे खाद्यों को ढँूढ़ किनकालना बहुत जरूरी है, जिजनसे गाँर्वो र्वोाले अपना खोया हुआ स् र्वोास् थ ्य पुन: प्राप् त कर सकें । भोजन के साथ थोड़ी-सी हरी पत् ता-भाजी लेने से गाँर्वो के लोग ऐसे अनेक रोगों से बच जाएगँे जिजनमें र्वोे आज अमिधकांश की पूर्षित� ताज ेहरे पत् तोंसे हो सकती है। मैंने अपने भोजन में सरसों, सोया, शलजम, गाजर और मूली की पणिuयाँ लेना शुरू क्तिलया है। यह कहने की जरूरत नहीं किक शलजम, गाजर और मू ली की क्तिसफ2 पणिuयां ही नहीं, उनके कंद भी कच् चे खाए जाते हैं। इनकी पणिuयों या कंदों को आग पर पकाकर खाना उनके सुकिप्रय स् र्वोाद को मारना और पैसे का दुर्वो्2 यय करना है। आग पर पकाने से इन भाजिजयों के किर्वोटामिमन किबलकुल या अमिधकांश न�् ट हो जाते है। इन् हें पकाकर खाना इनके स् र्वोाद की हत् या करना है। ऐसा मैं इसक्तिलए कहता हूँ किक कच् ची भाजिजयों में एक प्राकृकितक स् र्वोाद होता है, जो पकाने से न�् ट हो जाता है।

37 ग्राम सेवक पीछे     आगे

गाँर्वोों में जाकर काम करने से हम चौंकते हैं। हम शहरी लोगों को देहाती जीर्वोन अपनाना बहुत मुल्किश्कल मालूम होता है। बहुतों के शरीर ही गाँर्वो की कठिFन चया2 को सहने से इनकार कर देते हैं। परंतु यठिद हम स् र्वोराज् य की स् थापना जनता की भलाई के क्तिलए करना चाहते हैं, तथा क्तिसफ2 शासकों के मौजूदा दल की जगह उनके जैसा ही कोई दूसरा दल-जो शायद उनसे भी बुरा क्तिसद्ध हो-नहीं किबFाना चाहते, तो इस कठिFनाई का मुकाबला हमें साहस के साथ ही नहीं बल्किwक र्वोीरता के साथ, अपने प्राणों की बाजी लगाकर करना होगा। आज तक देहाती लोग, हजारों और लाखों की संख् या में, हमारे जीर्वोन का पो�ण करने के क्तिलए मरते आए है; अब उनके जीर्वोन का पो�ण करने के क्तिलए हमें करना होगा। बेशक, उनके मरने में और हमारे मरने में बुकिनयादी फक2 होगा। र्वोे किबन-जाने और अकिनच् छापूर्वो2क मरे हैं। उनके इस किर्वोर्वोश बक्तिलदान ने हमें किगराया है। अब यठिद हम ज्ञानपूर्वो2क और इच् छापूर्वो2क मरेंगे, तो हमार बक्तिलदान हमें और हमारे साथ समूचे रा�् ट्र को ऊपर उFाएगा। यठिद हम एक आजाद और स् र्वोार्वोलंबी देश की तरह जीना चाहते हैं, तो इस आर्वोश् य बक्तिलदान से हमें अपना कदम पीछे नहीं हटाना चाकिहए।

सुसंस् कृत घर जैसी कोई पाFशाला नहीं और ईमानदार तथा सदाचारी माता-किपता जैसे कोई क्तिशक्षक नहीं। स् कूलों में मिमलने र्वोाली प्रचक्तिलत क्तिशक्षा गाँर्वो र्वोालों पर एक र्वो् यथ2 का बोझ है, जिजसका उनके क्तिलए कोई उपयोग नहीं है। उनके बच् चे उसे पाने की आशा नहीं कर सकते। और भगर्वोान को धन् यर्वोाद है किक यठिद उन् हें सुसंस् कृत घर की तालीम मिमल सके, तो उन् हें कभी भी उसकी कमी खटकेगी नहीं। अगर ग्रामसेर्वोक संस् कारर्वोान नहीं है, अगर र्वोह अपने घर में सुसंस् कृत र्वोातार्वोरण पैदा करने को क्षमता नहीं रखता, तो उसे ग्रामसेर्वोक बनने की, ग्रामसेर्वोक होने का सम् मान और अमिधकार पाने की, आकांक्षा छोड़ देना चाकिहए। ...उन् हें क्तिलखने-पढ़ने के ज्ञान की नहीं, अपनी आर्थिथ�क स्थि^कित के और उसे सुधारने के उपायों के ज्ञान की जरूरत है। आज तो र्वोह यंत्रों की तरह जड़र्वोत काम करते है, न तो उनमें अपने आस-पास की परिरस्थि^कितयों के प्रकित अपनी जिजम् मेदारी का भान है और न उन् हें अपने काम में कोई आनंद ही आता है।

गाँर्वोों की ऐसी बुरी हालत का कारण यह है किक जिजन् हें क्तिशक्षा का सौभाग् य प्राप् त हुआ है, उन् होंने गाँर्वोों की बहुत उपेक्षा की है। उन् होंने अपने क्तिलए शहरी जीर्वोन चुना ग्राम-आंदोलन तो इसी बात का एक प्रयत् न है किक जो लोग सेर्वोा की भार्वोना रखते हैं, उन् हें गाँर्वोों में बसकर ग्रामर्वोाक्तिसयों की सेर्वोा में लग जाने के क्तिलए पे्ररिरत करके गाँर्वोों के साथ स् र्वोास् थ ्यप्रद संपक2 स् थाकिपत किकया जाए। जो लोग सेर्वोाभार्वो से ग्रामों में बसे हैं, र्वोे अपने सामने कठिFनाइयाँ देखकर

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हतोत् साह नहीं होते। र्वोे तो इस बात को जानकर ही र्वोहाँ जाते हैं किक अनेक कठिFनाइयों में, यहाँ तक किक गाँर्वो र्वोालों की उदासीनता के होते हुए भी, उन् हें र्वोहाँ काम करना है। जिजन् हें अपने मिमशन में और खुद अपने-आप में किर्वोश् र्वोास है, र्वोे ही गाँर्वो र्वोालों की सेर्वोा करके उनके जीर्वोन पर कुछ असर डाल सकें गे। सच् चा जीर्वोन किबताना खुद ऐसा सबक है, जिजसका आस-पास के लोगों पर जरूर असर पड़ता है। लेकिकन इस नर्वोयुर्वोक के साथ शायद कठिFनाई यह है किक र्वोह किकसी सेर्वोाभार्वो से नहीं, बल्किwक क्तिसफ2 अपने जीर्वोन-किनर्वोा2ह के क्तिलए रोजी कमाने को गाँर्वो में गया है, और जो क्तिसफ2 कमाई के क्तिलए ही र्वोहाँ जाते हैं, उनके क्तिलए ग्राम-जीर्वोन में कोई आक�2णन ही है, यह मै स् र्वोीकार करता हूँ। सेर्वोाभार्वो के बगैर जो लोग गाँर्वोों में जाते हैं, उनके क्तिलए तो उसकी नर्वोीनता न�् ट होते ही ग्राम-जीर्वोन नीरस हो जाएगा।

अत: गाँर्वोों में जानेर्वोाले किकसी नर्वोयु र्वोक को कठिFनाइयों से घबराकर तो कभी अपना रास् ता नहीं छोड़ना चाकिहए। सब्र के साथ प्रयत् न जारी रखा जाए, तो मालूम पडे़गा किक गाँर्वो र्वोाले शहरर्वोालों से बहुत णिभन् न नहीं हैं। और उन पर दया करने और ध् यान देने से र्वोे भी साथ देंगे। यह किनस्संदेह सच है किक गाँर्वोों में देश के बडे़ आदमिमयों के संपक2 का अर्वोसर नहीं मिमलता है। हाँ, ग्राम-मनोर्वोृणिu की र्वोृजिद्ध होने पर नेताओं के क्तिलए यह जरूरी हो जाएगा किक र्वोे गाँर्वोों में दौरा करके उनके साथ जीकिर्वोत संपक2 स् थाकिपत करें। मगर चैतन् य, रामकृ�् ण, तुलसीदास, कबीर, नानक, दादू, तुकाराम, कितरुर्वोल् लुर्वोर जैसे संतों के गं्रथों के रूप में महान और श्रे�् F जनों का सत् संग तो सबको आज भी प्राप् त है। कठिFनाई यही है किक मन को इन स् थायी महत् त् र्वो की बातों को ग्रहण करने लायक कैसे बनाया जाए। अगर आधुकिनक किर्वोचारों का राजनीकितक, सामाजिजक, आर्थिथ�क और र्वोैज्ञाकिनक साकिहत् य प्राप् त करने से यहाँ आशय हो, तो कुतूहल शांत करने के क्तिलए ऐसा साकिहत् य मिमल सकता है। लेकिकन मैं यह मंजूर करता हूँ किक जिजस आसानी से धार्मिम�क साकिहत् य मिमल सकता है। लेकिकन मैं यह मंजूर करता हूँ किक जिजस आसानी से धार्मिम�क साकिहत् य मिमल जाता है र्वोैसे यह साकिहत् य नहीं मिमलता। संतों ने तो सर्वो2-साधारण के ही क्तिलए क्तिलखा और कहा है। पर आधुकिनक किर्वोचारों को सर्वो2-धारण के ग्रहण करने योग् य रूप में अनूठिदत करने का शौक अभी पूरे रूप में सामने नहीं आया है। यह जरूर है किक समय रहते ऐसा होना चाकिहए। अतएर्वो नर्वोयुर्वोकों को मेरी सलाह है किक …र्वोे अपना प्रयत् न छोड़ न दें, बल्किwक उसमें लगे रहें और अपनी उपस्थि^कित से गाँर्वोों को अमिधक किप्रय और रहने योग् य बना दें। लेकिकन यह र्वोे करेंगे ऐसी सेर्वोा के ही द्वारा, जो गाँर्वो र्वोालो के अनुकूल हो। अपने ही परिरश्रम से गाँर्वोों को अमिधक साफ-सुथरा बनाकर और अपनी योग् यतानुसार गाँर्वोों की किनरक्षरता दूर करके हर एक र्वो् यक्ति) इसकी शुरुआत कर सकता है। और अगर उनके जीर्वोन साफ, सुघड़ और परिरश्रम हों, तो इसमें कोई शक नहीं किक जिजन गाँर्वोों में र्वोे काम कर रहे होंगे, उनमें भी उसकी छूत फैलेगी और गाँर्वो र्वोाले भी साफ, सुघड़ और परिरश्रम बनेंगे।

ग्राम सेवा के आवश् यक अंग

ग्राम-उद्धार में अगर सफाई न आरे्वो, तो हमारे गाँर्वो कचरे के घूरे जेसे ही रहेंगे। ग्राम-सफाई का सर्वोाल प्रजा की जीर्वोन का अकिर्वोभाज् य अंग है। यह प्रश् न जिजतना आर्वोश् यक है उतना ही कठिFन भी है। दीघ2 काल से जिजस अस् र्वोच् छता की आदत हमें पड़ गई है, उसे दूर करने के क्तिलए महान पराक्रम की आर्वोश् यकता है। जो सेर्वोक ग्राम-सफाई का शास् त्र नहीं जानता, खुद भंगी का काम नहीं करता, र्वोह ग्राम सेर्वोा के लायक नहीं बन सकता।

नई तालीम के किबना हिह�दुस् तान के करोड़ों बालकों को क्तिशक्षण देना लगभग असंभर्वो है, यह चीज सर्वो2मान् य हो गई कही जा सकती है। इसक्तिलए ग्रामसेर्वोक को उसका ज्ञान होना ही चाकिहए। उसे नई तालीम का क्तिशक्षक होना चाकिहए। इस तालीम के पीछे प्रौढ़-क्तिशक्षण तो अपने-आप चला आएगा। जहाँ नई तालीम ने घर कर क्तिलया होगा, र्वोहाँ बच् चे ही माता-किपता के क्तिशक्षक बन जाने र्वोाले हैं। कुद भी हो, ग्रामसेर्वोक के मन में प्रौढ़-क्तिशक्षा देने की लगन होनी चाकिहए।

स् त्री को अधा¡किगनी माना गया है। ज ब तक कानून से स् त्री और पुरु� के हक समान नहीं माने जाते, जब तक समझना चाकिहए किक हिह�दुस् तान जिजतना ही स् र्वोागत नहीं किकया जाता, तब तक समझना चाकिहए किक हिह�दुस् तान लकरे्वो के रोग से ग्रस् त है। स् त्री की अर्वोगणना अहिह�सा की किर्वोरोधी है। इसक्तिलए ग्रामसेर्वोक को चाकिहए किक र्वोह हर स् त्री को माँ, बहन या बेटी के समान समझे और उसके प्रकित आदर-भार्वो रखे। ऐसा ग्रामसेर्वोक ही ग्रामर्वोाक्तिसयों का किर्वोश् र्वोास प्राप् त कर सकेगा।

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रोगी प्रजा के क्तिलए स् र्वोराज् य प्राप् त करना मैं असंभर्वो मनता हूँ। इसक्तिलए हम लोग आरोग् य-शास् त्र की जो अर्वोगणना करते हैं र्वोह दूर होनी चाकिहए। अत: ग्रामसेर्वोक को आरोग् य-शास् त्र का सामान् य ज्ञान होना चाकिहए।

रा�् ट्रभा�ा के किबना रा�् ट्र नहीं बन सकता। 'हिह�दू-हिह�दुस् तानी-उदू2 ' के झगडे़ में न पड़कर ग्रामसेर्वोक, अगर र्वोह रा�् ट्रभा�ा नहीं जानता, उसका ज्ञान हाक्तिसल करे। उसकी बोली ऐसी होनी चाकिहए, जिजसे हिह�दू-मुसलमान सब समझ सकें ।

हमने अँग्रेजी के मोह में फंसकर मातृभा�ा का द्रोह किकया है। इस द्रोह के प्रायणिZत के तौर पर भी ग्रामसेर्वोक मातृभा�ा के प्रकित लोगों केमन में पे्रम उत् पन् न करेगा। उसके मन में हिह�दुस् तान की सब भा�ाओं के क्तिलए आदर होगा। उसकी अपनी मातृभा�ा जो भी हो, जिजस प्रदेश में र्वोह बसेगा र्वोहाँ की मातृभा�ा र्वोह स् र्वोयं सीखकर अपनी मा तृभा�ा के प्रकित र्वोहाँ के लोगों की भार्वोना बढ़ाएगा।

अगर इस सबके साथ-साथ आर्थिथ�क समानता का प्रचार न किकया गया, तो यह सब किनकम् मा समझना चाकिहए। आर्थिथ�क समानता का यह अथ2 हरकिगज नहीं किक हर एक के पास धन की समान राक्तिश होगी। मगर यह अथ2 जरूर है किक हर एक के पास ऐसा घर-बार, र्वोस् त्र और खाने-पीने का समान होगा किक जिजससे र्वोह सुख से रह सके। और जो घातक असमानता आज मौजूद है, र्वोह केर्वोल अहिह�सक उपायों से ही न�् ट होगी।

आवश् यक योग् यताएँ

(नीचे दी गई कुछ आर्वोश् यक योग् यताए ँगांधीजी ने सत् याग्रकिहयों के क्तिलए आर्वोश् यक बतलाई थीं। लेकिकन चँूकिक उनके मतानुसार एक ग्रामसेर्वोक को भी सच् चा सत् याग्रही होना चाकिहए, इसक्तिलए ये योग् यताए ँग्रामसेर्वोक पर भी लागू होने र्वोाली मानी जा सकती हैं।)

1. ईश् र्वोर में उसकी सजीर्वो श्रद्धा होनी चाकिहए, क् योंकिक र्वोही उसका आधार है।

2. र्वोह सत् य और अहिह�सा को धम2 मानता हो और इसक्तिलए उसे मनु�् य-स् र्वोभार्वो की सुप् त साल्कित्त्र्वोकता में किर्वोश् र्वोास होना चाकिहए। अपनी तपश् चया2 के रूप में प्रदर्थिश�त सत् य और पे्रम के द्वारा र्वोह उस साल्कित्त्र्वोकता को जाग्रत करना चाहता है।

3. र्वोह चारिरत्रयर्वोान हो और अपने लक्ष् य के क्तिलए जान और माल को कुरबान करने के क्तिलए तैयार हो।

4. र्वोह आदतन खादीधारी हो और कातता हो। हिह�दुस् तान के क्तिलए यह लाजिजमी है।

5. र्वोह किनर्वो्2 यसनी हो, जिजससे किक उसकी बुजिद्ध हमेशा स् र्वोच् छ और स्थि^र रहे।

6. अनुशासन के किनयमों का पालन करने में हमेशा तत् पर रहता हो:

यह न समझना चाकिहए किक इन शतk में ही सत्याग्रही की योग्यताओं की परिरसमाप्तिप्त हो जाती है। ये तो केर्वोल ठिदशा- दश2क हैं।

38 समग्र ग्राम सेवा पीछे     आगे

गाँर्वो में जिजतने लोग रहते हैं उन् हें पहचानना, उन् हें जो सेर्वोा चाकिहए र्वोह देना, अथा2त उसके क्तिलए साधन जुटा देना और उनको र्वोह काम करना क्तिसखा देना, दूसरे काय2कता2 पैदा करना आठिद काम ग्रामसेर्वोक करेगा। ग्रामसेर्वोक

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ग्रामर्वोाक्तिसयों पर इतना प्रभार्वो डालेगा किक र्वोे खुद आकर उससे सेर्वोा माँगेंगे, और उसके क्तिलए जो साधन या दूसरे काय2कता2 चाकिहए, उन् हें जुटाने के क्तिलए उसकी पूरी मदद करेंगे। मानों किक मैं देहात में घानी लगाकर बैFा हूँ, तो मैं घानी से संबंध रखने र्वोाले सब काम तो कर ही लँूगा। मगर मैं सामान् य 15-20 रुपए कमाने र्वोाला घांची (तेल) नहीं बनूँगा। मैं तो महात् मा घांची बनूँगा। 'महात् मा' शब् द मैंने किर्वोनोद में इस् तेमाल किकया। इसका अथ2 केर्वोल यह हैं किक अपने घांचीपनों में मैं इतनी क्तिसजिद्ध डाल दँूगा किक गाँर्वो र्वोाले आश् चय2चकिकत हो जाएगँे। मैं गीता पढ़ने र्वोाला, कुरानशरीफ पढ़ने र्वोाला, उनके लड़कों को क्तिशक्षा दे सकने की शक्ति) रखने र्वोाला घांची होऊँगा। समय के अभार्वो से मैं लड़कों को क्तिसखा न सकँू, यह दूसरी बात है। लोग आकर कहेंगे: 'तेली महाशय, हमारे लड़कों के क्तिलए एक क्तिशक्षक तो ला दीजिजएगा।' मैं कहूँगा, 'क्तिशक्षक मैं ला दँूगा, मगर उसका खच2 आपको बरदाश् त करना होगा।' र्वोे खुशी से उसका स् र्वोीकार करेंगे। मैं उन् हें कातना क्तिसखा दँूगा। जब र्वोे बुनकर की मदद की माँग करेंगे, तो क्तिशक्षक की तरह उन् हें बुनकर ला दँूगा, ताकिक जो चाहे सो बुनना भी सीख ले। उन् हें मैं ग्राम-सफाई का महत् त् र्वो बताऊँगा जब र्वोे सफाई के क्तिलए भंगी माँगेंगे तो मैं कहूँगा, मैं खुद भंगी हूँ, आइए आपको यह काम भी क्तिसखा दँू। यह है मेरी समग्र ग्राम सेर्वोा की कल् पना। आप कह सकते हैं किक इस युग में तो ऐसा घांची पैदा नहीं होने र्वोाला है, तो मैं आप से कहूँगा, तब इस युग में ग्राम भी ऐसा-के-ऐसा रहने र्वोाले हैं।

राक्तिशया के घांची को लीजिजए। तेल की मिमलें चलाने र्वोाले भी तो घांची ही है न? उनके पास पैसे रहते हैं। मगर पैसे को क् या महत् त् र्वो देना था? पैसा तो मनु�् य के हाथ का मैल है। सच् ची शक्ति) ज्ञान में रही है। ज्ञानी के पास नैकितक प्रकित�् Fा और नैकितक बल रहता है, इसक्तिलए सब लोग ऐसे आदमी की सलाह पूछने जाते है।

गाँवों में दलबंदी और मतभेद

यह हिह�दुस्तान की बदकिकस्मती है किक जैसी दलबंदी और मतभेद शहरों में हैं, र्वोैसा ही देहातों में भी देखे जाते हैं। और जब गाँर्वोों की भलाई का खयाल न रखते हुए अपनी पाट� की ताकत बढ़ाने के क्तिलए गाँर्वोों का उपयोग करने के

खयाल से राजनीकितक सत्ता की बू हमारे देहातों में पहँुचती है, तो उससे देहाकितयों को मदद मिमलने के बजाय उनकी तरक्की में रुकार्वोट ही होती है। मैं तो कहँूगा किक चाहे जो नतीजा हो, हमें ज्यादा-से- ज्यादा मात्रा में स्थानीय मदद

लेनी चाकिहए। और अगर हम राजनीकितक सत्ता हड़पने की बुराई से दूर रहें, तो हमारे हाथों कोई बुराई होने की संभार्वोना नहीं रहती। हमें याद रखना चाकिहए किक शहरों के अँगे्रजी पढे़- क्तिलखें स्त्री- पुरु�ों ने हिह�दुस्तान के आधार बने

हुए गाँर्वोों को भुला देने का गुनाह किकया है। इसक्तिलए आज तक की हमारी इस लापरर्वोाही को याद करने से हममें धीरज पैदा होगा। अभी तक मैं जिजस- जिजस गाँर्वो में गया हूँ, र्वोहाँ मुझे एक-न- एक सच्चा काय2कता2 मिमला ही है। लेकिकन गाँर्वोों में भी लेने लायक कोई अच्छी चीज होती है, ऐसा मानने की नम्रता हममे नहीं है। और यही कारण है

किक हमें र्वोहाँ कोई नहीं मिमलता। बेशक, हमें स्थानीय राजनीकितक मामलें से परे रहना चाकिहए। लेकिकन यह हम तभी कर सकते हैं, जब हम सारी पार्टिट�यों की और किकसी भी पाट� में शामिमल न होने र्वोाले लोगों की सच्ची मदद लेना सीख

जाएगँे।

39 युवकों को आह्वान पीछे     आगे

मेरी आशा देश के युर्वोकों पर है। उनमें से जो आदतों के क्तिशकार हैं, र्वोे स् र्वोभार्वो से बुरे नहीं है। र्वोे उनमें लाचारी से और किबना सोचे-समझे फँस जाते है। उन् हें समझना चाकिहए किक इससे उनका और देश के युर्वोकों का किकतना नुकसान हुआ है। उन् हे यह भी समझना चाकिहए किक कFोर अनुशासन द्वार किनयमिमत जीर्वोन ही उन् हें और रा�् ट्र को संपूण2 किर्वोनाश से बचा सकता है; कोई दूसरी चीज नहीं।

सबसे बड़ी बात तो यह है किक उन् हें ईश् र्वोर की खोज करनी चाकिहए और प्रलोभनों से बचने के क्तिलए उसकी मदद माँगनी चाकिहए। उसके किबना यंत्र की तरह केर्वोल अनुशासन का पालन करने से किर्वोशे� लाभ नहीं होगा। ईश् र्वोर की खोज का, उसके ध् यान और दश2न का अथ2 यह है किक जिजस तरह बालक किबना किकसी प्रदश2न की आर्वोश् यकता के अपनी माँ के पे्रम को महसूस करता है, उसी तरह हम भी यह महसूस करें किक ईश् र्वोर हमारे हृदयों में किर्वोराजमान है।

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युर्वोकों को, जो भकिर्वो�् य के किर्वोधाता होने का दार्वोा करते है, रा�् ट्र का नामक-रक्षक तत् त् र्वो-होना चाकिहए। यठिद यह नाम ही अपना खारापन छोड़ दे, तो उसे खारा कैसे बनाया जाए?

युर्वोक तो सर्वो2त्र भार्वोन के प्रर्वोाह में बह जाने र्वोाले होते हैं। इसक्तिलए अध् ययन-काल में, यानी कम-से-कम 25 र्वो�2 की आयु तक प्रकितज्ञापूर्वो2क ब्रह्मचय2 का पालन करने की आर्वोयकता है।

युर्वोार्वोस् था की किनद�� पकिर्वोत्रता एक अमूल् य किनमिध है। इंठिद्रयों की क्षणिणक तृप्तिप्त के क्तिलए, जिजसे भूल से सुख का नाम ठिदया जाता है, उसे खोना नहीं चाकिहए।

अपना सारा ज्ञान और पांकिडत् य तराजू के एक पलडे़ पर और सत् य तथा पकिर्वोत्रता को दूसरे पलडे़ पर रखकर देखो। सत् य और पकिर्वोत्रता र्वोाला पलड़ा पहले पलडे़ से कहीं भारी पडे़गा। नैकितक अपकिर्वोत्रता की किर्वो�ैली हर्वोा आज हमारे किर्वोद्यार्थिथ�यों में भी जा पहुँची है और किकसी क्तिछपी हुई महामारी की तरह उनकी भयंकर बरबादी कर रही है। इसक्तिलए मैं तुम लोगों से, लड़कों से और लड़किकयों से, अनुरोध करता हूँ किक तुम अपने मन और शरीर को पकिर्वोत्र रखो। तुम् हारा सारा पांकिडत् य और शास् त्रों का तुम् हारा सारा अध् ययन किबलकुल बेकार होगा, यठिद तुम उनकी क्तिशक्षाओं को अपने दैकिनक जीर्वोन में न उतार सको। मैं जानता हूँ किक कुछ क्तिशक्षक भी ऐसे हैं, जो पकिर्वोत्र और स् र्वोच् छ जीर्वोन नहीं किबताते। उनसे मैं कहूँगा किक र्वोे अपने छात्रों को दुकिनया का सारा ज्ञान क्तिसखा दें, परंतु यठिद र्वोे उनमें सत् य और पकिर्वोत्रता की लगन पैदा न करें, तो यही कहना होगा किक उन् होंने अपने छात्रों का द्रोह किकया है और उन् हें ऊपर उFाने के बजाय आत् म नाश के माग2 की ओर प्रर्वोृत् त किकया है। चरिरत्र के अभार्वो में ज्ञान बुराई को ही बढ़ाने र्वोाली शक्ति) है, जैसा किक हम ऊपर से भले ठिदखाई देने र्वोाले हिक�तु भीतर से चोरी और बेईमानी का धंधा करने र्वोाले अनेक लोगों के मामले में देखते हैं।

मैं चाहता हूँ किक तुम (नर्वोयुर्वोक) गाँर्वोों में जाओं और र्वोहाँ जमकर बैF जाओं-उनके माक्तिलकों या उपकारकता2ओं की तरह नहीं, बल्किwक उनके किर्वोनम्र सेर्वोकों की तरह। तुम् हारी दैकिनक चया2 से और तुम् हारे रहन-सहन से उन् हें समझने दो किक उन् हें खुद क् या करना है और अपना रहने का ढँग किकस तरह बदलना है महज भार्वोना का कोई उपयोग नहीं है, Fीक तरह जैसे किक भाप का अपने-आप में कोई उपयोग नहीं। भाप को उक्तिचत किनयंत्रण में रखा जाए तभी उसमें प्रचंड शक्ति) पैदा होती है। यही बात भार्वोना की है। मैं चाहता हूँ किक तुम भारत की आहत आत् मा के क्तिलए शांकितदायी लेप लेकर जाने र्वोाले भगर्वोान के दूतों की तरह उनके बीच में जा पहुँचों।

अनेक लड़कों और लड़किकयो के या तुम चाहो तो कह सकते हो किक हजारों लड़कों ओर लड़किकयों के किपता के नाते मैं तुमसे कहना चाहता हूँ किक आखिखर तुम् हारा भाग् य तुम् हारे ही हाथों में है। यठिद तुम केर्वोल दो शतk का पालन करो तो तुम पाFशाला में क् या सीखते हो या क् या नहीं सीखते, इसकी मैं किबलकुल परर्वोाह नहीं करँूगा। एक शत2 तो यह किक परिरस्थि^कित कुछ भी क् यों न हो, तुम् हें भारी-से-भारी कठिFनाइयों में भी पूरी किनभ2यता के साथ सत् य का ही पालन करना चाकिहए। सत् यकिन�् F लड़का-सच् चा र्वोीर अपने मन में कभी किकसी चींटी को भी चोट पहुँचाने का खयाल नहीं आने देगा। र्वोह अपनी पाFशाला के सारे कमजोर लड़कों का रक्षक बनकर रहेगा और पाFशाला के भीतर या बाहर उन सब लोगों की मदद करेगा जिजन् हें उसकी मदद की आर्वोश् यकता है। जो लड़का मन, शरीर ओर काय2 की पकिर्वोत्रता की रखा नहीं करता, उसका पाFशाला में कोई काम नहीं, उसे पाFशाला से किनकाल देना चाकिहए। शूरर्वोीर लड़का हमेशा अपना मन पकिर्वोत्र रखेगा, अपनी आँखें पकिर्वोत्र रखेगा और अपने हाथ पकिर्वोत्र रखेगा। जीर्वोन के इन बुकिनयादी उसूलों को सीखने के क्तिलए तुम् हें किकसी स् कूल में जाने की आर्वोश् यकता नहीं है। और यठिद तुमसे इस कित्रकिर्वोध पकिर्वोत्रता को प्राप् त कर क्तिलया, तो तुम यह मान लो किक तुम् हारे जीर्वोन का किनमा2ण सुदृढ़ नींर्वो पर होगा।

हम एक ऊँचा ग्राम-सभ् यता के उत् तरामिधकारी हैं। हमारे देश की किर्वोशालता, आबादी की किर्वोशालता और हमारी भूमिम की स्थि^कित तथा आबोहर्वोा ने, मेरी राय में, मानों यह तय कर ठिदया है किक उसकी सभ् यता ग्राम-सभ् यता ही होगी। उसके दो� तो मशहूर है, लेकिकन उनमें कोई ऐसा नहीं है जिजसका इलाज न हो सकता हो। इस सभ् यता को मिमटाकर उसकी जगह दूसरी सभ् यता को जमाना मुझे तो अशक् य मालूम होता है। हाँ, हम लोग किकन् हीं कFोर उपायों के द्वार अपनी आबादी 30 करोड़ से घटाकर 3 करोड़ या 30 लाख तक करने को तैयार हो जाए ँतो दूसरी बात है और उसक माने हुए दो�ों को दूर करने का प्रयत् न करना है, मैं उन दो�ों के इलाज सुझा सकता हूँ। लेकिकन इन इलाजों का

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उपयोग तभी हो सकता है जब किक देश का युर्वोक-र्वोग2 ग्राम-जीर्वोन को अपना ले। और अगर र्वोे ऐसा करना चाहते हों, तो उन् हें अपने जीर्वोन का तौर-तरीका बदलना चाकिहए और अपनी छुठिटटयों का हर एक ठिदन अपने कालेज या हाईस् कूल के आस-पास र्वोाले गाँर्वोों में किबताना चाकिहए; और जो लोग अपनी क्तिशक्षा पूरी कर चुके हों या जो क्तिशक्षा ले ही न रहे हों, उन् हें गाँर्वोों में बसने का इरादा कर लेना चाकिहए।

शारीरिरक श्रम के साथ अकारण ही जो शम2 की भार्वोना जुड़ गई है र्वोह अगर दूर की जा सके,तो सामान् य बुजिद्ध र्वोाले हर एक युर्वोक और युर्वोती के क्तिलए उन् हें जिजतना चाकिहए उससे कहीं अमिधक काम पड़ा हुआ है।

जो आदमी अपनी जीकिर्वोका ईमानदारी से कमाना चाहता है, र्वोह किकसी भी श्रम को छोटा यानी अपनी प्रकितष्Fा को घटाने र्वोाला नहीं मानेगा। महत्त्र्वो की बात यह है किक भगर्वोान ने हमें जो हाथ- पाँर्वो ठिदए हैं, उनका उपयोग करने के

क्तिलए हम तैयार रहें।

40 राष्ट्र का आरोग्य, स्वच्छता और आहार पीछे     आगे

अब तो यह बात किनर्षिर्वो�र्वोाद क्तिसद्ध हो चुकी है किक तंदुरुस् ती के किनयमों को न जानने से और उन किनयमों के पालन में लापरर्वोाह रहने से ही मनु�् य-जाकित का जिजन-जिज रोगों से परिरचय हुआ है, उनमे से ज ्यादातर रोग उसे होते हैं। बेशक, हमारे देश की दूसरे देशों से बढ़ी-चढ़ी मृत् यु संख् या का ज ्यादातर कारण गरीबी है। जो हमारे देशर्वोाक्तिसयों के शरीर को कुरेदकर खा रही है; लेकिकन अगर उनकी तंदुरुस् ती के किनयमों की Fीक-Fीक तालीम दी जाए, तो इसमें बहुत कमी की जा सकती है।

मनु�् य-जाकित के क्तिलए साधारणत: पहला किनयम यह है किक मन चंगा है तो शरीर भी चंगा है। नीरोग शरीर में किनर्षिर्वो�कार मन का र्वोास होता है, यह एक स् र्वोयं क्तिसद्ध सच् चाई है। मन और शरीर के बीच अटूट संबंध है। अगर हमारे मन किनर्षिर्वो�कार यानी नीरोग हों, तो र्वोे हर तरह की हिह�सा से मुक् त हो जाए;ँ किफर हमारे हाथों तंदुरुस् ती के किनयमों का सहज भार्वो से पालन होने लगे और किकसी तरह की खास कोक्तिशश के किबना ही हमारे शरीर तंदुरुस् त रहने लगें। इन कारणों से मैं यह आशा रखता हूँ किक कोई भी कांग्रेसी रचनात् मक काय2क्रम के इस अंग के बारे में लापरर्वोाह न रहेगा। तंदुरुस् ती के कायदे और आरोग् यशास् त्र के किनयम किबलकुल सरल और सादे हैं, और र्वोे आसानी से सीखे जा सकते हैं। मगर उन पर अमल करना मुल्किश्कल है। नीचे मैं ऐसे कुछ किनयम देता हूँ:

1. हमेशा शुद्ध किर्वोचार करों और तमाम गंदे र्वो किनकम् मे किर्वोचारों को मन से किनकाल दो।

2. ठिदन-रात ताजी-से-ताजी हर्वोा का सेर्वोन करो।

3. शरीर और मन के काम का तौल बनाए रखो, यानी दोनों को बेमेल न होने दो।

4. तनकर खडे़ रहो, तनकर बैFो और अपने हर काम से साफ-सुथरे रहो; और इन सब आदतों को अपनी आंतरिरक स् र्वोस् थता का प्रकितहिब�ब बनने दो।

5. खाना इसक्तिलए खाओं किक अपने जैसे अपने मानर्वो-बंधुओं की सेर्वोा के क्तिलए ही जिजया जा सके। भोग-भोगने के क्तिलए जीने और खाने का किर्वोचार छोड़ दो। अतएर्वो उतना ही खाओं जिजतने से आपका मन और आपका शरीर अच् छा हालत में रहे और Fीक से काम कर सके। आदमी जैसा खाना खाता है, र्वोैसा ही बन जाता है।

6. आप जो पानी पीए,ँ जो खाना खाए ँऔर जिजस हर्वोा में साँस लें, र्वोे सब किबलकुल साफ होने चाकिहए। आप क्तिसफ2 किनज की सफाई से संतो� न मानें, बल्किwक हर्वोा पानी और खुराक की जिजतनी सफाई आप अपने क्तिलए रखें, उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आस-पास के र्वोातार्वोरण में भी फैलाए।ँ

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न् यूनतम आहार

एक समय एक ही अनाज इस् तेमाल करना चाकिहए। चपाती, दाल-भात, दूध-घी, गुड़ और तेल ये खाद्य-पदाथ2 सब् जी-तरकारी और फलों के उपरांत आम तौर पर हमारे घरों में इस् तेमाल किकए जाते हैं। आरोग् य की दृमिN से यह मेल Fीक नहीं है। जिजन लोगों को दूध, पनीर, अंडे या माँस के रूप में 'स् नायुर्वोध2क तत् त् र्वो' मिमल जाते हैं, उन् हें दाल की किबलकुल जरूरत नहीं रहती। गरीब लोगों को तो क्तिसफ2 र्वोनस् पकित द्वारा ही स् नायुर्वोध2क तत् त् र्वो मिमल सकते हैं। अगर धकिनक र्वोग2 दाल और तेल लेना छोड़ दे, तो गरीबों को जीर्वोन-किनर्वोा2ह के क्तिलए ये आर्वोश् यक पदाथ2 मिमलने लगें। इन बेचारों को न तो प्राणिणयों के शरीर से पैदा हुए स् नायुर्वोद्ध2क तत् त् र्वो और न चब� ही मिमल सकती है। अन् न को दक्तिलया की तरह मुलायम बनाकर कभी न खना चाकिहए। अगर उसको किकसी रसीली या तरल चीज में डुबोए बगैर सूखा ही खाया जाए, तो आधी मात्रा से ही काम चल जाता है। अन् न को कच् ची सलाद, जैसे किक प् याज, गाजर, मूली, लेठिटस, हरी पणिuयां और टमाटर के साथ खाया जाए तो अच् छा होता है। कच् ची हरी सस्थिब्जयों को सलाद के एक दो औंस ही आF औंस पकाई हुई सस्थिब्जयों के बराबर होते हैं। चपाती या डबल रोटी दूध के साथ नहीं लेनी चाकिहए। शुरू में एक र्वोक् त चपाती या डबल रोटी और कच् ची सस्थिब्जयां, और दूसरे र्वोक् त पकाई हुई सब् जी, दूध या दही के साथ ले सकते हैं। मिम�् टान् न भोजन किबलकुल बंद कर देना चाकिहए। इसकी जगह गुड़ या थोड़ी मात्रा में शक् कर अकेले या दूध या डबल रोटी के साथ ले सकते हैं।

ताजे फल खाना अच् छा है, परंतु शरीर के पो�ण के क्तिलए थोड़ा फल-सेर्वोन भी पया2प् त होता है। यह महँगी र्वोस् तु है और धकिनक लोगों के आर्वोश् यकता से अत्यंत अमिधक फल-सेर्वोन के कारण गरीबों और बीमारों को, जिजन् हें धकिनकों की अपेक्षा अमिधक फलों की जरूरत है, फल मिमलना दुश् र्वोार हो गया है।

कोई भी र्वोैद्य या डॉक् टर, जिजसने भोजन के शास् त्र का अध् ययन किकया है, प्रमाण के साथ कह सकेगा किक मैंने ऊपर जो बताया है, उससे शरीर को किकसी प्रकार का नुकसान नहीं हो सकता। उलटे, तंदुरुस् ती अमिधक अच् छी अर्वोश् य हो सकती है।

मनु�् य को अपनी शक्ति) के सर्वो�च् च स् तर पर काय2 कर सकने के क्तिलए पूरा पो�ण पहूँचाने की र्वोनस् पकित-जगत की अपार क्षमता की आधुकिनक औ�मिध-किर्वोज्ञान ने अभी तक कोई जाँच-पड़ताल नहीं की है। उसने तो बस माँस या बहुत हुआ तो दूध और दूध से प्राप् त दूसरे पदाथk का ही सहारा पकड़ रखा है। भारतीय क्तिचकिकत् सकों का, जो परंपरा से शाकाहारी है, कत्2 तर्वो् य है किक र्वोे इस काय2 को पूरा करें। किर्वोटामिमनों की तेजी से हो रही खोजों से, और इस संभार्वोना से किक अमिधक महत् त् र्वो के किर्वोटामिमनों को सूय2 से सीधा पाया जा सकता है, ऐसा प्रकट होता है किक आहार के के्षत्र एक बड़ी क्रांकित होने जा रही है और उसके किर्वो�य में अभी तक जो स् र्वोीकृत क्तिसद्धांत चले आ रहे थ ेतथा औ�मिध-किर्वोज्ञान अभी तक जिजन किर्वोश् र्वोासों का पो�ण करता आ रहा था, उनमें शीघ्र ही परिरर्वोत2न होने र्वोाला है।

मुझे ऐसा ठिदखाई देता है किक इस रास् ते की किर्वोकट कठिFनाइयों को पार करने और अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी इस किर्वो�य के सत् य को ढँूढ़ किनकालने का काम क्तिल�् णाता डॉक् टर लोग नहीं, बल्किwक समान् य परंतु उत् साही जिजज्ञासु ही करने र्वोाले हैं। यठिद सत् य के इन किर्वोनम्र शोधकों को र्वोैज्ञाकिनक लोग मदद दे, तो मझे उससे ही संतो� हो जाएगा।

मेरा यह किर्वोश् र्वोास है किक मनु�् यों को शायद ही दर्वोा लेने की आर्वोश् यकता रहती है। पथ ्य तथा पानी, मिमट्टी इत् यादी के घरेलू उपचारों से एक हजार में से 999 रोगी स् र्वोस् थ हो सकते हैं।

शरीर का भगर्वोान के मंठिदर की तरह उपयोग करने के बजाए हम उसका उपयोग किर्वो�य भोगों के साधन की तरह करते हैं और इन किर्वो�य-सुखों को बढ़ाने की कोक्तिशश में डॉक् टरों के पास दौड़ जाने में तथा अपने पार्थिथ�क आर्वोास, इस शरीर का, दुरुपयोग करने में लज् जा का अनुभर्वो नहीं करते।

मनु�् य जैसा आहार करता है र्वोैसा ही र्वोह बनता है-इस कहार्वोत में काफी सत् य है। आहार जिजतना तामस होगा, शरीर भी उतना ही तामस होगा।

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मैं यह अर्वोश् य महसूस करता हूँ किक आाध् यास्त्रित्मक प्रगकित के क्रम में एक अर्वोस् था ऐसी जरूर आती है, जिजसकी यह माँग होती है किक हम अपने शरीर की आर्वोश् यकताओं की पूर्तिंत� के क्तिलए अपने सहजीर्वोी प्राणिणयों की हत् या करना बंद कर दें। आपके साथ शाकाहार के प्रकित अपने इस आक�2ण की चचा2 करते हुए मुझे गोल् डल्किस्मथ की ये संुदर पंक्ति)याँ याद आती है :

पहाड़ की इस घाटी में आजादी से किर्वोचरने र्वोाले

इन प्राणिणयों की मैं हत् या नहीं करता।

जो परमशक्ति) हमें अपनी दया का दान देती है,

उससे मैं दया की सीख लेता हूँ;

और उन् हें अपनी दया देता हूँ।

किकसी भी देश में, किकसी भी जलर्वोायु में और किकसी भी स्थि^कित में, जिजसमें मनु�् यों का रहना साधारणत: संभर्वो हो, मेरी समझ में हम लोगों के क्तिलए माँसाहार आर्वोश्यक नहीं है। मेरा किर्वोश् र्वोास है किक हमारी नसल (मनु�् य-जाकित) के क्तिलए माँसाहार अनुपयुक् त है। अगर हम पशुओं से अपने को ऊँचा मानते हैं, तो उनकी नकल करने में भूल करते है। यह बात अनुभर्वो-क्तिसद्ध है किक जिजन् हें आत् म -संयम इ�् ट है, उनके क्तिलए माँसाहार अनुपयुक् त है।

हिक�तु चरिरत्र-गFन और आत् मा-संयम के क्तिलए भोजन के महत् त् र्वो का अनुमान करने में अकित करना भी भूल है। इस बात को भूलना नहीं होगा किक इसके क्तिलए भोजन एक मुख् य र्वोस् तु है। मगर जिजस प्रकार भोजन में किकसी तरह का संयम न रखना और मनमाना खाना-पीना अनुक्तिचत है; उसी प्रकार सभी धम2-कम2 का सार भोजन में ही मान बैFना भीं, जैसा किक प्राय: हिह�दुस् तान में हुआ करता हैं, गलत है। हिह�दू धम2 के अमूल् य उपदेशों में शाकाहार भी एक है। इसे हलके मन से छोड़ देना Fीक न हीं होगा। इसक्तिलए इस भूल का संशोधन करना परमार्वोश् यक है किक शाकाहार के कारण ठिदमाग और देह से हम कमजोर हो गए हैं और कम2शीलता में आलसी या किनराग्रही बन गए हैं। हिह�दू धम2 के बडे़-से-बडे़ सुधारक अपने अपने जमाने के सबसे बडे़ कम2F पुरु� हुए हैं। जैसे, शंकर या दयानंद के जमाने का कौन पुरु� उनसे अमिधक कम2शीलता ठिदखा सका था?

उपवास कब विकया जाए?

अपने और अपने ही जैसे दूसरे प्रयोकिगयों के काफी किर्वोस् तृत अनुभर्वो के आधार पर मैं किबना किकसी किहचकिकचाहट के यह कहता हूँ किक नीचे क्तिलखी हालती में उपर्वोास जरूर किकया जाए :

1. यठिद कब् ज की क्तिशकायत हो, 2. यठिद शरीर में रक् त का अभार्वो हो और उसका रंग पीला पड़ गया हो, 3. यठिद बुखार मालूम होता हो, 4. यठिद अपच हो, 5. यठिद क्तिसर में दद2 हो, 6. यठिद संमिधर्वोात हो, 7. यठिद घुटनों में और शरीर के दूसरे जोड़ों में दद2 की बीमारी हो, 8. यठिद बेचैनी महसूस होती हो, 9. यठिद मन उदास हो, 10. यठिद अकितशय आनंद के कारण मन ठिFकाने न हो।

यठिद इन अर्वोसरों पर उपर्वोास का आश्रय क्तिलया जाए, तो डॉक् टरों की या कोई दूसरी पेटेंट दर्वोाइयाँ खाने की कोई जरूरत न रहेगी।

राष् ट्रीय भोजन

मेरा खयाल है किक हमें ऐसी टेर्वो डालनी चाकिहए किक अपने प्रांत के क्तिसर्वोा दूसरे प्रांतों में प्रचक्तिलत भोजन को भी हम स् र्वोाद से खा सकें । मैं जानता हूँ किक यह सर्वोाल उतना आसान नहीं हैं, जिजतना र्वोह ठिदखाई देता है। मैं ऐसे कई दणिक्षण-

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भारतीयों को जानता हूँ, जिजन् होंने गुजराती भोजन करने की आदत डालने की बेहद कोक्तिशश की, लेकिकन जो उसमें कामयाब नहीं हो सके। दूसरी तरफ, गुजराकितयों को दणिक्षण-भारतीयों की किर्वोमिध से बनाई गई रसोई पसंद नहीं आती। बंगाल के लोगों की बानकिगयाँ दूसरे प्रांत र्वोालों को आसानी से नहीं रुचतीं। लेकिकन यठिद हम प्रांतीयता से ऊपर उFकर अपनी रहन-सहन की आदतों में रा�् ट्रीय बनना चाहें, तो हमें अपनी भोजन-संबंधी आदतों में फक2 करने के क्तिलए तथा उनके आदान-प्रदान के क्तिलए तैयार होना पडे़गा, अपनी रुक्तिचयाँ सादी करनी पड़ेंगी और ऐसी बानकिगयाँ बनाने और खान का रिरर्वोाज डालना होगा, जो स् र्वोास् थ ्यप्रद हों और जिजन् हें सब लोग किन:संकोच लें सकें । इसके क्तिलए पहले तो हमें किर्वोकिर्वोध प्रांतों, जाकितयों और समुदायों के भोजन का सार्वोधानी से अध् ययन करना होगा। दुभा2ग् य से या सौभाग् य से, न क्तिसफ2 हर एक प्रांत का अपना किर्वोशे� भोजन है, बल्किwक एक ही प्रांत के किर्वोकिर्वोध समुदायों की भोजन की अपनी-अपनी शैक्तिलयाँ हैं। इसक्तिलए रा�् ट्रीय काय2कता2ओं को चाकिहए किक र्वोे किर्वोकिर्वोध प्रांतों के भोजनों में पाई जानेर्वोाली ऐसी सामान् य, सादी और सस् ती बानकिगयाँ ढँूढ़ किनकालें, जिजन् हें सब लोग अपने पाचन-यंत्र को किबगाड़ने का खतरा उFाए किबना खा सकें । और जो भी हो, यह तो स् र्वोीकार करना ही चाकिहए किक किर्वोकिर्वोध प्रांतों और जाकितयों के रीकित-रीर्वोाजों और रहन-सहन के तरीको का ज्ञान हमारे काय2कता2ओं को होना ही चाकिहए और इस ज्ञान का न होना शम2 की बात मानी जानी चाकिहए। ...इस कोक्तिशश में हमार उदे्दश् य सामान् य लोगों के क्तिलए कुछ समान बानकिगयां ढँूढ़ किनकालने का होना चाकिहए। और हमारी इच् छा हो तो यह आसानी से हो सकता है। लेकिकन इस संभर्वो बनाने के क्तिलए काय2कता2ओं को स् र्वोेच् छापूर्वो2क रसोई करने की कला सीखनी पडे़गी, किर्वोकिर्वोध भोजनों के पो�क मूल् यों का अध् ययन करना होगा और आसानी से बनने र्वोाली सस् ती बानकिगयां तय करनी पड़ेंगी।

कोढ़ का रोग

हिह�दुस् तान में लाखों आदमी इस रोग के क्तिशकार हैं। लोग कोढ़ की बीमारी से और कोठिढ़यों से नफरत करते हैं। मेरी राय में जो लोग गंदे किर्वोचार रखते हैं, र्वोे शरीर के कोठिढ़यों से ज ्यादा बुरे कोढ़ी हैं। किकसी दूसरी बीमारी के बजाय कोढ़ की बीमारी के बारे में ही कलंक की बात क् यों समझी जानी चाकिहए?

पहले क्तिसफ2 ईसाई मिमशनरी ही कोठिढ़यों की सेर्वोा का करीब-करीब सारा भार अपने ऊपर क्तिलए हुए थे। मगर बाद में परोपकार की भार्वोना र्वोाले हिह�दुस् ताकिनयों ने भी (अगरचे बहुत कम तादाद में) इस सेर्वोा के काम को अपने हाथ में क्तिलया। मैंने ऐसी एक संस् था कलकत् ता में देखी है। इस तरह के दूसरे जनसेर्वोक श्री मनोहर दीर्वोान हैं। र्वोे श्री किर्वोनोबा के क्तिश�् य हैं और उनकी पे्ररणा से उन् होंने यह काम अपने हाथ में क्तिलया है। मैं उन् हें सच् चा महात् मा मानता हूँ।

खुजली, हैजा, यहाँ तक किक मामूली जुकाम भी ऐसी छूत की बीमारीयां है, जिजनसे कोढ़ के बारे में इतनी नफरत क् यों रहनी चाकिहए? मैं आपसे कह चुका हूँ किक सच् चे कोढ़ी तो र्वोे हैं जिजनके ठिदल गंदे हैं। किकसी इंसान को अपने से नीचा समझना, किकसी जाकित या किफरके को नफरत की नजर देखना बीमार ठिदमाग की किनशानी है, जिजसे मैं शरीर के कोढ़ से ज ्यादा बुरा समझता हूँ। ऐसे लोग समाज के असली कोढ़ी हैं। मैं खुद तो शब् दों को ज ्यादा महत् त् र्वो नहीं देता। अगर गुलाब को किकसी दूसरे नाम से पूकारा जाए, तो उसकी खुशबू चली नहीं जाएगी।

अनुक्रम 41 शराब और अन्य मादक द्रव्य पीछे     आगे

जैसा किक कहा जाता है, शराब शैतान की ईजाद है। इस् लाम की किकताबों में कहा गया हैं किक जब शैतान न पुरु�ों और स्त्रिस्त्रयों को ललचाना शुरू किकया,तो उसने उन् हें शराब ठिदखाई थी। मैंने किकतने ही मामलें में यह देखा है किक शराब आदमिमयों से न क्तिसफ2 उनका पैसा छीन लेती है, बल्किwक उनकी बुजिद्ध भी हर लेती है। उसके नशे में र्वोे कुछ क्षणों के क्तिलए उक्तिचत और अनुक्तिचत का, पुण् य और पाप का, यहाँ तक किक माँ और पत् नी का भेद भी भूल जाते हैं। मैंने शराब के नशे में मस् त बैरिरस् टरों को नाक्तिलयों में लोटते और पुक्तिलस के द्वारा घर ले जोय जाते देखा है। दो अर्वोसरों पर मैंने जहाज के कप् तानों को शराब के नशे में एकसा गक2 देखा है किक उनकी हालत जब तक उनका होश र्वोाकिपस नहीं

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आया तब तक अपने जहाजों का किनयंत्रण करने योग् य नहीं रह गई थी। माँसाहार और शराब, दोनों के बारे में उत् तम किनयम तो यह है किक हमें खान, पीने और आमोद-प्रमोद के क्तिलए नहीं जीना चाकिहए, बल्किwक इसक्तिलए खाना और पीना चाकिहए किक हमारे शरीर ईश् र्वोर के मंठिदर बन जाए ँऔर हम उनका उपयोग मनु�् य की सेर्वोा में कर सकें । औ�मिध के रूप में कभी-कभी शराब की आर्वोश् यकता हो सकती है और मुमकिकन है किक जब आदमी मरने के करीब हो तो शराब का घंट उसकी जिज�दगी को थोड़ा और बढ़ा दे। लेकिकन शराब के पक्ष में इससे अमिधक और कुछ नहीं कहा जा सकता।

अपको ऊपर से Fीक ठिदखाई देने र्वोाली इस दलील के भुलारे्वो में नहीं आना चाकिहए किक शराब बंदी जोर-ज बरदस् ती के आधार पर नहीं होनी चाकिहए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन् हें उसकी सुकिर्वोधाए ँमिमलनी ही चाकिहए। राज् य का यह कोई कत्2 तर्वो् य नहीं है किक र्वोह अपनी प्रज्ञा की कुटेर्वोों के क्तिलए अपनी ओर से सुकिर्वोधाए ँदे। हम र्वोेश् यालयों को अपना र्वो् यापार चलाने के क्तिलए अनुमकित-पत्र नहीं देते। इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रर्वोृणिu पूरी करने की सुकिर्वोधाए ँनहीं देते। मैं शराब को चोरी और र्वो् यणिभचार, दोनों से ज ्यादा हिन�द्य मानता हूँ। क् या र्वोह अक् सर इन दोनों बुराइयों की जननी नहीं होती?

शराब की लत कुटेर्वो तो है ही, लेकिकन कुटेर्वो से भी ज ्यादा र्वोह एक बीमारी है। मैं ऐसी बीक्तिसयों आदमिमयों को जानता हूँ, जो यठिद छोड़ सकें तो शराब पीना बड़ी खुशी से छोड़ दें। मैं ऐसे भी कुछ लोगों को जानता हूँ, जिजन् होंने यह कहा है किक शराब उनके सामने न लाई जाए। और जब उनके कहने के अनुसार शराब उनके सामने नहीं लाई गई, तो मैंने उन् हें लाचार होकर शराब की चोरी करते हुए देखा है। लेकिकन इसक्तिलए मैं यह नहीं मानता किक शराब उनके पास से हटा लेना गलत था। बीमारों को अपने-आपसे यानी अपनी अनुक्तिचत इच् छाओं से लड़ने में हमें मदद देनी ही चाकिहए।

मजदूरों के साथ अपनी आत् मीयता के फलस् परूप मैं जानता हूँ किक शराब की लत में फँसे हुए मजदूरों के घरों का शराब ने कैसा नाश किकया है। मैं जानता हूँ किक शराब आसानी से न मिमल सकती हो तो र्वोे शराब को छूते भी नहीं। इसके क्तिसर्वोा, हमारे पास हाल के ऐसे प्रमाण मौजूद हैं किक शराकिबयों में से ही कई खुद शराबबंदी की माँग कर रहे हैं।

शराब की आदत मनु�् य की आत् माका नाश कर देती है और उसे धीरे-धीरे पशु बना डालती है, जो पत् नी, माँ और बहन में भेद करना भूल जाता है। शराब के नशे में यह भेद भूल जाने र्वोाले लोगों को मैंने खुद देखा है।

शराब और अन् य मादक द्रर्वो् यों से होने र्वोाली हाकिन कई अंशों में मलेरिरया आठिद बीमारिरयों से तो केर्वोल शरीर को ही हाकिन पहुँचती है, जब किक शराब आठिद से शरीर और आत् मा, दोनों का नाश हो जाता है।

मैं भारत का गरीब होना पसंद करँूगा, लेकिकन मैं यह बरदाश् त नहीं कर सकता किक हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के क्तिलए लोगों को क्तिशक्षा देना बंद करना पडे़ तो कोई परर्वोाह नहीं; मैं यह कीमत चुकाकर भी शराब खोरी को बंद करँूगा।

जो रा�् ट्र शराब की आदत का क्तिशकार है, कहना चाकिहए किक उसके सामने किर्वोनाश मुँह बाए खड़ा है। इकितहास में इस बात के किकतने ही प्रमाण हैं किक इस बुराई के कारण कई साम्राज् य मिमट्टी में मिमल गए हैं। प्रचीन भारतीय इकितहास में हम जानते हैं किक र्वोह पराक्रमी जाकित, जिजसमें श्रीकृ�् ण ने जन् म क्तिलया था, इसी बुराई के कारण न�् ट हो गई। रोम-साम्राज् य के पतन का एक सहायक कारण किनस्संदेह यह बुराई ही थी।

यठिद मुझे एक घंटे के क्तिलए भारत का किडक् टेटर बन ठिदया जाए, तो मरा पहना काम यह होगा किक शराब की दुकानों को किबना मुआर्वोजा ठिदए बंद करा ठिदया जाए और कारखानों के माक्तिलकों को अपने मजदूरों के क्तिलए मनु�् योक्तिचत परिरस्थि^कितयाँ किनमा2ण करने तथा उनके किहत में ऐसे उपाहार-गृह और मनोरंज-गृह खोलने के क्तिलए मजबूर किकया जाए, जहाँ मजदूरों को ताजगी देने र्वोाले किनद�� पाए और उतने ही किनद�� मनोरंजन प्राप् त हो सकें ।

ताड़ी

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एक पक्ष ऐसा है किक जो किनणिZत (मया2ठिदत)मात्रा में शराब पीने का समथ2न करता है और कहता है किक इससे फायदा होता है। मुझे इस दलील में कुछ सार नहीं लगता। पर घड़ी भर के क्तिलए इस दलील को मान लें, तो भी अनेक ऐसे लोगों के खाकितर, जो किक मया2दा में रह ही नहीं सकते, इस चीज का त् याग करना चाकिहए।

पारसी भाइयों ने ताड़ी का बहुत समथ2न किकया है। र्वोे कहते हैं किक ताड़ी में मादकता तो है, मगर ताड़ी एक खुराक है और दूसरी खुराक को हजम करने में मदद पहुँचाती है। इस दालील पर मैंने खूब किर्वोचार किकया है और इस बारे में काफी पड़ा भी है। मगर ताड़ी पीने र्वोाले बहुत से गरीबों की मैंने जो दुद2शा देखी है, उस पर से मैं इस किनण2य पर पहुँचा हूँ किक ताड़ी को मनु�् य की खुराक में स् थान देने की कोई आर्वोश् यकता नहीं है।

ताड़ी में जो गुण माने गए हैं र्वोे सब हमें दूसरी खुराक में मिमल जाते है। ताड़ी खजूरी के रस से बनती है। खजूरी के शुद्ध रस में मादकता किबलकुल नहीं होती। उसे नीरा कहते हैं। ताजी नीरा को ऐसी-की-ऐसी पीने से कोई लोगों को दस् त साफ आता है। मैंने खुद नीरा पीकर देखी है। मुझ पर उसका ऐसा असर नहीं हुआ। परंतु र्वोह खुराक का काम तो अच् छी तरह से देती है। चाय इत् यादी के बदले मनु�् य सबेरे नीरा ले, तो उसे दूसरा कुछ पीने या खाने की आर्वोश् यकता नहीं रहनी चाकिहए।

नीरा को गन् ने के रस की तरह पकाया जाए, तो उससे बहुत अच् छा गुड़ तैयार होता है। खजूरी ताड़ की एक किकस् म है। हमारे देश में अनेक प्रकार के ताड़ कुदरती तौर पर उगते हैं। उन सबमें से नीरा किनकल सकती है। नीर ऐसी चीज है जिजसे किनकालने की जगह पर ही तुरंत पीना अच् छा है। नीरा में मादकता जल् दी पैदा हो जाती है। इसक्तिलए जहाँ उसका तुरंत उपयोग न हो सके र्वोहाँ उसका गुड़ बना क्तिलया जाए, तो र्वोह गन् ने के गुड़ किक जगह ले सकता है। कई लोग मानते है किक ताड़-गुड़ गन् ने के गुड़ के अमिधक गुणकारी है। उसमें मिमFास कम होती है, इसक्तिलए र्वोह गन् ने के गुड़ की अपेक्षा अमिधक मात्रा में खाया जा सकता है। जिजन ताड़ों के रस से ताड़ी बनाई जाती है उन् हीं से गुड़ बनाया जाए, तो हिह�दुस् तान में गुड़ और खांड़ की कभी तंगी पैदा न हो और गरीबों को सस् ते दाम में अच् छा गुड़ मिमल सकें ।

ताड़-गुड़ की मिमश्री और शक् कर भी बनाई जा सकती है। मगर गुड़ शक् कर या चीनी से बहुत अमिधक गुणकारी है। गुड़ में जो क्षार होते हैं र्वोे शक् कर या चीनी में नहीं होते। जैसे किबना भूसी का आटा और किबना भूसी का चार्वोल होता है, र्वोैसे ही किबना क्षार की शक् कर को समझना चाकिहए। अथा2त यह कहा जा सकता है किक खुराक जिजतनी अमिधक स् र्वोाभाकिर्वोक स्थि^कित में खाई जाए,उतना ही अमिधक पो�ण उसमें से हमें मिमलता है।

बीड़ी और धिसगरेट पीना

शराब की तरह बीड़ी और क्तिसगरेट के क्तिलए भी मेरे मन में गहरा कितरस् कार है। बीड़ी और क्तिसगरेट को मैं कुटेर्वो ही मानता हूँ। र्वोह मनु�् य की किर्वोरे्वोक-बजिद्ध को जड़ बना देती है और अक् सर शराब से ज ्यादा बुरी क्तिसद्ध होती है,क् योंकिक उसका परिरणाम अप्रत् यक्ष रीकित से होता है। यह आदत आदमी को एक बार लग भर जाए, किफर उससे हिप�ड छुड़ाना बहुत कठिFन होता है। इसके क्तिसर्वोा र्वोह खच�ली भी है। र्वोह मुँह को दुग¡ध-युक् त बनाती है, दाँतों का रंग किबगाड़ती है और कभी-कभी कैं सर जैसी भयानक बीमारी को जन् म देती है। र्वोह एक गंदी आदत है।

एक दृमिN से बीड़ी और क्तिसगरेट पीना शराब से भी ज ्यादा बड़ी बुराई है, क् योंकिक इस र्वो् यसन का क्तिशकार उससे होने र्वोाली हाकिन को समय रहते अनुभर्वो नहीं करता। र्वोह जंगलीपन का क्तिचह्र नहीं मानी जाती, बल्किwक सभ् य लोग तो उसका गुणगान भी करते हैं। मैं इतना कहूँगा किक जो लोग छोड़ सकते हैं र्वोे उसे छोड़ दे और दूसरों के क्तिलए उदाहरण पेश करें।

तंबाकू ने तो गजब ही ढाया है। भाग् य से ही कोई इसके पंज ेसे छूटता है। ...टॉल् स् टॉय ने इसे र्वो् यानों में सबसे खराब र्वो् यसन माना है।

हिह�दुस्तान में हम लोग तंबाकू केर्वोल पीते ही नहीं, संूघते भी हैं और जरदे के रूप में खाते भी हैं। ... आरोग्य का पुजारी दृढ़ किनश्चय करके सब व्यसनों की गुलामी से छूट जाएगा। बहुतों को इसमें से एक या दो तीनों व्यसन लगे होते है।

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इसक्तिलए उन्हें इससे घृणा नहीं होती। मगर शान्त क्तिचत्त से किर्वोचार किकया जाए तो तंबाकू फँूकने की किक्रया मे या लगभग सारा ठिदन जरदे या पान के बीडे़ से गाल भर रखने में या नसर्वोार की किडकिबया खोलकर संूघते रहने में कोई

शोभा नही है। ये तीनों व्यसन गंदे हैं।

42 शहरों की सफाई पीछे     आगे

पणिZम से हम एक चीज जरूर सीख सकते हैं और र्वोह हमें सीखनी ही चाकिहए - र्वोह है शहरों की सफाई का शास् त्र। पणिZम के लोगों ने सामुदामियक आरोग् य और सफाई का एक शास् त्र ही तैयार कर क्तिलया है, जिजससे हमें बहुत-कुछ सीखना है। बेशक, सफाई की पणिZम की पद्धकितयों को हम अपनी आर्वोश् यकताओं के अनुसार बदल सकते हैं।

'भगर्वोान के पे्रम के बाद महत् त् र्वो की दृमिN से दूसरा स् थान स् र्वोच् छता के पे्रम का ही है।'जिजस तरह हमार मन मक्तिलन हो तो हम भगर्वोान का पे्रम संपाठिदत नहीं कर सकते, उसी तरह हमारा शरीर मक्तिलन हो तो भी हम उसका आशीर्वोा2द नहीं पा सकते। और शहर अस् र्वोच् छ हो तो शरीर स् र्वोच् छ रहता संभर्वो नहीं है।

कोई भी म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी शहर की अस् र्वोच् छता और आबादी की सघनता का सर्वोाल महज टैक् स र्वोसूल करके और सफाई का काम करने र्वोाले नौकरों को रखकर हल करने की आशा नहीं कर सकती। यह जरूरी सुधार तो अमीर और गरीब, सब लोगों के संपूण2 और स् र्वोेच् छापूण2 सहयोग द्वारा ही शक् य है।

हम अछूत भाइयों की बस् ती र्वोाले गाँर्वोों की सफाई करते हैं यह अच् छा है। पर र्वोह काफी नहीं हैं। अछूत लोग समझाने-बुझाने से समझ जाते हैं। क् या हमें यह कहना पडे़गा किक तथाकक्तिथक उच् च जाकितयों के लोग समझाने-बुझाने से नहीं समझते; या किक शहर का जीर्वोन किबताने के क्तिलए आरोग् य और सफाई के जिजन किनयमों का पालन करना जरूरी है र्वोे उन पर लागू नहीं है? गाँर्वोों में तो हम कई बातें किकसी किकस् म का खतरा उFाए किबना कर सकते हैं। लेकिकन शहरों की घनी आबादी र्वोाली तंग गक्तिलयों में जहाँ साँस लेने के क्तिलए साफ हर्वोा मुल्किश्कल से मिमलती है, हम ऐसा नहीं कर सकते। र्वोहाँ का जीर्वोन दूसरे प्रकार का है और र्वोहाँ हमें सफाई के ज ्यादा बारीक किनयमों का पालन करना चाकिहए। क् या हम ऐसा कर सकते हैं? भारत के हर एक शहर के मध् यर्वोत� भागों में सफाई की जो दयनीय स्थि^कित ठिदखाई देती है, उसकी जिजम् मेदारी हम म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी पर नहीं डाल सकते। और मेरा खयाल है किक दुकिनया की कोई भी म् युकिनक्तिस पैक्तिलठिट लोगों के अमुक र्वोग2 की उन आदतों का प्रकितकार नहीं कर सकती, जो उन् हें पीठिढ़यों की परंपरा से मिमली है। .. इसक्तिलए मैं कहना चहता हूँ किक अगर हम अपने म् युकिनक्तिसपैक्तिलटीयों से यह उम् मीद करते हो किक इन बडे़ शहरों में जो सफाई-संबंधी सुधार का सर्वोाल पेश है उसे र्वोे इस स् र्वोेच् छापूण2 सहयोग की मदद के किबना ही हल कर लेंगी तो यह अशक् य अलबत् ता,मेरा मतलब यह किबलकुल नहीं है किक म् युकिनक्तिसपैक्तिलटीयों की इस संबंध में कोई जिजम् मेदारी नहीं है।

मुझे म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी की प्रर्वोृणिuयों में बहुत ठिदलचस् पी है। म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी का सदस् य होना सचमुच बड़ा सौभाग् य है। लेकिकन सार्वो2जकिनक जीर्वोन का अनुभर्वो रखने र्वोाले र्वो् यक्ति) के नाते मैं आप से यह भी कह दँू किक इस सौभाग् यपूण2 अमिधकार के उक्तिचत किनर्वोा2ह की एक अकिनर्वोा2य शत2 यह हैकिक इन सदस् यों को इस पद से कोई किनजिज स् र्वोाथ2 साधने की अच् छा न रखनी चाकिहए। उन् हें अपना काय2 सेर्वोाभार्वो से ही करना चाकिहए। तभी उसकी पकिर्वोत्रता कायम रहेगी। उन् हें अपने को शहर की सफाई का काम करने र्वोाली भंगी कहने में गौरर्वो का अनुभर्वो करना चाकिहए। मेरी मातृभा�ा में म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी का एक साथ2क नाम है; लोग उसे 'कचरा-पट्टी'कहते हैं, जिजसका मतलब है भंकिगयों का किर्वोभाग। सचमुच म् युकिनक्तिसक्तिलटी की सफाई-काम करने र्वोाली एक प्रमुख संस् था होना ही चाकिहए और उसमें न क्तिसफ2 शहर की बाहरी सफाई का बल्किwक सामाजिजक और सार्वो2जकिनक जीर्वोन की भीतरी सफाई का भी समारे्वोश होना चाकिहए।

यठिद मैं किकसी म् युकिनक्तिसक्तिल टी या लोकल बोड2 की सीमा में रहने र्वोाला उसका करदाता होता, तो जब तक करके रूप में हम इन संस् थाओं को जो पैसा देते हैं र्वोह उससे चौगुनी सेर्वोाओं के रूप में न लौटाया जाता तब तक अकितरिरक् त कर के रूप में एक पाई भी ज ्यादा देने से मैं इनकार कर देता और दूसरों को भी ऐसा ही करने की सलाह देता। जो

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लोगा लोकल बोडk या म् युकिनक्तिसपैक्तिलटीयों में प्रकितकिनमिधयों की हैक्तिसयल से जाते हैं, र्वोे र्वोहाँ प्रकित�् Fा के लालच से या आपस में लड़ने-झगड़ने के क्तिलए नहीं जाते, बल्किwक नागरिरकों की पे्रमपूण2 सेर्वोा करने के क्तिलए जाते हैं। यह सेर्वोा पैसे पर आधार नहीं रखती। हमारा देश गरीब है। अगर म् युकिनक्तिसपैक्तिलटयों में जाने र्वोाले सदस् यों में सेर्वोा की भार्वोना हो, तो र्वोे अर्वोैतकिनक मेहतर, भंगी और सड़कें बनाने र्वोाले बन जाएगँे और उसमें गौरर्वो का अनुभर्वो करेंगे। र्वोे दूसरे सदस् यों को, जो कांग्रेस के ठिटकिकट पर न चुने गए हो, अपने काम में शरीक होने का न् यौता देंगे; और अपने में और अपने काय2 में उन् हें श्रद्धा होगी, तो उनके उदाहरण का दूसरों पर अर्वोश् य ही अनुकूल प्रभार्वो पडे़गा। इसका अथ2 यह है किक म् युकिनक्तिसपल संस् था के सदस् य को अपना सारा समय उसी काम लें लगाने र्वोाला होना चाकिहए। उसका अपना कोई स् र्वोाथ2 नहीं होना चाकिहए। उनका दूसरा कदम यह होगा किक म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी या लोकल बोड2 की सीमा के अंदर रहने र्वोाली सारी र्वोयस् क आबादी की गणना कर ली जाए और उन सबसे म् युकिनक्तिसपैक्तिलटी की प्रर्वोृणिuयों में योग देने के क्तिलए कहा जाए। इसका एक र्वो् यर्वोस्थि^त रजिजस् टर रखा जाना चाकिहए। जो लोग ज ्यादा गरीब हैं और पैसे की मदद नहीं दे सकते उनसे अगर र्वोे सशक् त हों तो, श्रमदान करने के क्तिलए कहा जा सकता है।

अगर मैले का Fीक- Fीक उपयोग किकया जाए, तो हमें लाखों रुपयों की कीमत का खाद मिमले और साथ ही किकतनी ही बीमारिरयों से मुक्ति) मिमल जाए। अपनी गंदी आदतों से हम अपनी पकिर्वोत्र नठिदयों के किकनारे किबगाड़ते हैं और

मस्थिक्खयों की पैदाइश के क्तिलए बठिढ़या जमीन तैयार करते हैं। परिरणाम यह होता है किक हमारी दंडनीय लापरर्वोाही के कारण जो मस्थिक्खयाँ खुले मैले पर बैFती है, र्वोे ही हमारे नहाने के बाद हमारे शरीर पर बैFती है और उसे गंदा बनाती

है। इस भंयकर गंदगी से बचने के क्तिलए कोई बड़ा साधन नहीं चाकिहए; मात्र मामूली फार्वोडे़ का उपयोग करने की जरूरत है। जहाँ- तहाँ शौच के क्तिलए बैF जाना, नाक साफ करना या सड़क पर थूकना ईश्र्वोर और मानर्वो- जाजिज के खिखलाफ अपराध है और दूसरों के प्रकित क्तिलहाज की दयनीय कमी प्रकट करता है। जो आदमी अपनी गंदगी को

ढकता नहीं है र्वोह भारी सजा का पात्र है, किफर चाहे र्वोह जंगल में ही क्यों न हो।

43 विवदेशी माध्यम की बुराई पीछे     आगे

करोड़ों लोगों को अँग्रेजी की क्तिशक्षा देना उन् हें गुलामी में डालने जैसा है। मेकॉले ने क्तिशक्षा की जो बुकिनयादी डाली, र्वोह सचमुच गुलामी की बुकिनयाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं सुझाना नहीं चाहता। लेकिकन उसके काम का नतीजा यही किनकता है। ...यह क् या कम जुल् म की बात है किक अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो, तो मझे अँग्रेजी भा�ा का उपयोग करना पडे़! बैरिरस् टर होने पर मैं स् र्वोभा�ा बोल ही नहीं सकँू! दूसरे आदमी को मेरे क्तिलए तरजुमा कर देना चाकिहए! यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क् या है? इसमें मैं अँग्रेजों का दो� किनकालँू या अपना ? ᣛ हिह�दुस् तान को गुलाम बनाने र्वोाले तो हम अँग्रेजी जानने र्वोाले लोग हैं। प्रजा की हाय अँग्रेजों पर नहीं पडे़गी, बल्किwक हम लोगों पर पडे़गी।

किर्वोदेशी भा�ा द्वारा क्तिशक्षा पाने में जो बोझ ठिदमाग पर पड़ता है र्वोह असह्म है। यह बोझ केर्वोल हमारे ही बच् चे उFा सकते हैं, लेकिकन उसकी कीमत उन् हें चुकानी ही पड़ती है। र्वोे दूसरा बोझ उFाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे गे्रज् युएट अमिधकतर किनकम् मे, कमजोर, किनरुत् साही,रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज की शक्ति), किर्वोचार करने की ताकत, साहस, धीरज, बहादुरी, किनडरता आठिद गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नई योजनाए ँनहीं बना सकते। बनाते हैं तो उन् हें पूरा नहीं कर सकते। कुछ लोगा, जिजनमें उपरोक् त गुण ठिदखाई देते हैं, अकाल मृत् यु के क्तिशकार हो जाते हैं। ... अँग्रेजी क्तिशक्षा पाए हुए हम लोग नुकसान का अंदाजा नहीं लगा सकते। यठिद हम यह अंदाजा लगा सकें किक सामान् य लोगों पर हमने किकतना कम असर डाला है, तो उसका कुछ खयाल हो सकता है।

माँ के दूध के साथ जो संस् कार मिमलते हैं और जो मीFे शब् द सुनाई देते हैं, उनके और पाFशाला के बीच जो मेल होना चाकिहए, र्वोह किर्वोदेशी भा�ा द्वारा क्तिशक्षा लेने से टूट जाता है। इासे तोड़ने र्वोालों का हेतु पकिर्वोत्र हो तो भी र्वोे जनता के दुश् मन हैं। हम ऐसी क्तिशक्षा के क्तिशकार होकर मातृद्रोह करते हैं। किर्वोदेशी भा�ा द्वादा मिमलने र्वोाली क्तिशक्षा की हाकिन यहीं नहीं रुकती। क्तिशणिक्षत र्वोग2 और सामान् य जनता के बीच में भेद पड़ गया है। हम सामान् य जना को नहीं

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पहचानते। सामान् य जनता हमें नहीं जानती। हमें तो र्वोह साहब समझ बैFती है और हमसे डरती है; र्वोह हम भरोसा नहीं करती। ... सौभाग् य से क्तिशणिक्षत र्वोग2 अपनी मूच्2 छा से जागते ठिदखाई देते हैं। उनमें जो जोश है र्वोह जनता में कैसे भरा जाए? अँग्रेजी से तो यह काम हो नही सकता। ... यह रुकार्वोट पैदा हो जाने से रा�् ट्रीय जीर्वोन का प्रर्वोाह रुक गया है।

सच तो यह है किक जब अँग्रेजी अपनी जगह पर चली जाएगी और मातृभा�ा को अपना पद मिमल जाएगा, तब हमारे मन जो अभी रंुधे हुए हैं, कैद से छूटेंगे और क्तिशणिक्षत और सुसंस् कृत होने पर भी ताजा रहे हुए हमारे ठिदमाग को अँग्रेजी भा�ा का ज्ञान प्राप् त करने का बोझ भारी नहीं लगेगा। और मेरा तो यह भी किर्वोश् र्वोास है किक उस समय सीखी हुई अँग्रेजी हमारी आज की अँग्रेजी से ज ्यादा शोभा देने र्वोाली होगी।

जब हम मातृभा�ा द्वारा क्तिश क्षा पाने लगेंगे, तब हमारे घर के लोगों के साथ हमारा दूसरा ही संबंध रहेगा। आज हम अपनी स्त्रिस्त्रयों को अपनी सच् ची जीर्वोन-सहचरी नहीं बना सकते। उन् हें हमारे कामों का बहुत कम पता होता है। हमारे माता-किपता को हमारी पढ़ाई का कुछ पता नहीं होता। यठिद हम अपनी भा�ा के जरिरए सारा ऊँचा ज्ञान लेते हों, तो हम अपने धोबी, नाई, भंगी, सबकों सहज ही क्तिशक्षा दे सकें गे। किर्वोलायत में हजामत कराते-कराते हम नाई से राजनीकित की बातें कर सकते हैं। यहाँ तो हम अपने कुटंुब में भी ऐसा नहीं कर सकते। इसका कारण यह नहीं किक हमारे कुटंुबी या नाई अज्ञानी हैं। उस अँग्रेज नाई के बराबर ज्ञानी तो ये भी हैं, इनके साथ हम महाभारत, रामायण और तीथk की बातें करते हैं, क् योंकिक जनता को इसी ठिदशा की क्तिशक्षा मिमलती है। परंतु स् कूल की क्तिशक्षा घर तक नहीं पहूँच सकती, क् योंकिक अँग्रेजी में सीखा हुआ हम अपने कुटंुकिबयों को नहीं समझा सकते।

आजकल हमारी धारा सभाओं का सारा कामकाज अँग्रेजी में होती है। बहुतेरे के्षत्रों में यही हाल हो रहा है। इससे किर्वोद्याधन कंजूस की दौलत की तरह गड़ा हुआ पड़ा रहता है। ...ऐसा कहते हैं किक भारत में पहाड़ों की चोठिटयों पर से चौमासे में पानी के जो प्रपात किगरते हैं, उनसे हम अपने अकिर्वोचार के कारण कोई लाभ नहीं उFाते। हम हमेशा लाखों रुपए ँका सोने जैसा कीमती खाद पैदा करते हैं और उसका उक्तिचत उपयोग न करने के कारण रोगों के क्तिशकार बनते हैं। इसी तरह अँग्रेजी भा�ा पढ़ने के बोझ से कुचले हुए हम लोग दीघ2दृमिN न रखने के कारण ऊपर क्तिलखे अनुसार जनता को जो कुछ मिमलना चाकिहए र्वोह नहीं दे सकते। इस र्वोाक् य में अकितशयोक्ति) नहीं है। यह तो मेरी तीव्र भार्वोना को बताने र्वोाला है। मातृभा�ा का जो अनादर हम कर रहे हैं, उसका हमें भारी प्रायणिZत् त करना पडे़गा। इससे आम जनता का बड़ा नुकसान हुआ है। इस नुकसान से उसे बचाना मैं पढे़-क्तिलखें लोगों का पहला फज2 समझता हूँ।

(29 अक् तूबर, 1917 में भड़ौंच में हुई दूसरी गुजरात क्तिशक्षा-परिर�द ्के अध् यक्ष-पद से ठिदए गए भा�ण से।)

अँग्रेजी सीखने के क्तिलए हमारा जो किर्वोचारहीन मोह है, उससे खुद मक् त होकर और समाज को मुक् त करके हम भारतीय जनता की एक बड़ी-से-बड़ी सेर्वोा कर सकते हैं। अँग्रेजी हमारी शालाओं और किर्वोद्यालयों में क्तिशक्षा का मध् यम हो गई है। र्वोह हमारे देश की रा�् ट्रभा�ा हुई जा रही है। हमारे किर्वोचार उसी में प्रगट होते हैं। ... अँग्रेजी के ज्ञान की आर्वोश् यकता के किर्वोश् र्वोास ने हमें गुलाम बना ठिदया है। उसने हमें सच् ची देश सेर्वोा करने में असमथ2 बना ठिदया है। अगर आदत ने हमें अंधा न बना ठिदया होता, तो हम यह देखे किबना न रहते किक क्तिशक्षा का माध् यम अँग्रेजी का कारण जनता से हमार संबंध टूट गया है, रा�् ट्र का उत् तम मानस उपयुक् त भा�ा के अभार्वो में अप्रकाक्तिशत रह जाता है और आधुकिनक क्तिशक्षा से हमें जो नए-नए किर्वोचार प्राप् त हुए हैं उनका लाभ सामान् य लोगों को नहीं मिमलता। किपछले 60 र्वो�k से हमारी सारी शक्ति) ज्ञानोपज2न के बजाय अपरिरक्तिचत शब् द और उनके उच् चारण सीखने में खच2 हो रही है। हमें अपने माता-किपता जो तालीम मिमलती है उसकी नींर्वो पर नया किनमा2ण करने के बजाय हमने उस तालीम को ही भुला ठिदया है इकितहास में इस बात की कोई दूसरी मिमसाल नहीं मिमलती। यह हमारे रा�् ट्र की एक अत्यंत दु:ख पूण2 घटना है। हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाज सेर्वोा यह होगी की हम अपनी प्रांतीय भा�ाओं का उपयोग शुरू करें, हिह�दी को रा�् ट्रभा�ा के रूप में उसका स् र्वोाभाकिर्वोक स् थान दें, प्रांतीय कामकाज प्रांतीय भा�ाओं में करें और रा�् ट्रीय कामकाज हिह�दी में करे। जब तक हमारे स् कूल और कॉलेज प्रांतीय भा�ाओं के माध् यम से क्तिशक्षण देना शुरू नहीं करते, तब तक हमें इस ठिदशा में लगातार कोक्तिशश करनी चाकिहए। … र्वोह ठिदन शीघ्र ही आना चाकिहए जब हमारी किर्वोधान-सभाए ँरा�् ट्रीय सर्वोालों की चचा2 प्रांतीय भा�ाओं में या जरूरत के अनुसार हिह�दी में करेंगी। अभी तक सामान् य जनता तो किर्वोधान-सभाओं में होने र्वोाली इन चचा2ओं से किबलकुल बेखबर हो रही है। स् र्वोदेशी भा�ाओं के पत्रों ने

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इस घातक भूल को सुधारने की कुछ कोक्तिशश की है। लेकिकन यह काम उनकी क्षमताओं से बड़ा क्तिसद्ध हुआ है। 'पकित्रका' अपना तीखा र्वो् यंग् य और 'बंगाली' अपना पास्थिण्डत् य तो अँग्रेजी पढे़-क्तिलखे लोगों के क्तिलए ही परोसता है। गंभीर किर्वोचार कों की इस पुरानी भूमिम में हमारे बीच में टैगोर, बोस या राय का होना आश् चय2 का किर्वो�य नहीं होना चाकिहए। दु:ख की बात हो यह है किक इन मनीकि�यों की संख् या हमारे यहाँ इतनी कम है।

(27 ठिदसंबर, 1971 में कलकत् ता में हुई पहली अ.भा. समाज-सेर्वोा परिर�द ्के अध् यक्षीय भा�ण)

यह मेरा किनणिZत मत है किक आज की अँग्रेजी क्तिशक्षा ने क्तिशणिक्षत भारतीयों को किनब2ल और शक्ति)हीन बना ठिदया है। इसने भारतीय किर्वोद्यार्थिथ�यों की शक्ति) पर भारी बोझ डाला है, और हमें नकलची बना ठिदया है। देशी भा�ाओं को अपनी जगह से हटाकर अँग्रेजी को बैFाने को प्रकिक्रया अँग्रेजों के साथ हमारे संबंध का एक सबसे दु:खद प्रकरण है। राजा राममोहन राय ज ्यादा बडे़ सुधारक हुए होते और लोकमान् य कितलक ज ्यादा बडे़ किर्वोद्वान बने होते, अगर उन् हें अँग्रेजी में सोचने और अपने किर्वोचारों को दूसरों तक मुख् यत: अँग्रेजी में पहुँचाने की कठिFनाई से आरंभ नहीं करना पड़ता। अगर र्वोे थोड़ी कम अस् र्वोाभाकिर्वोक पद्धकित में पढ़-क्तिलखकर बडे़ होते, तो अपने लोगों पर उनका असर, जो किक अद्भतु था, और भी जयादा हुआ होता ! ᢽ इसमें कोई शक नहीं किक अँग्रेजी साकिहत् य के समृद्ध भंडार का ज्ञान प्राप् त करने से इन दोनों को लाभ हुआ। लेकिकन इस भंडार तक उनकी पहुँच उनकी अपनी मातृभा�ाओं के जरिरयें होनी चाकिहए थी। कोई भी देश नकलक्तिचयों की जाकित पैदा करके रा�् ट्र नहीं बन सकता। जरा कल् पना कीजिजए किक यठिद अँग्रेजों के पास बाइबल का अपना प्रमाण भूत संस् करण न होता तो उनका क् या हाल होता ? ᣛ मेरा किर्वोश् र्वोास है किक चैतन् य, कबीर, नानक, गुरु चिस�ह, क्तिशर्वोाजी और प्रताप राजा राममोहन राय और कितलक की अपेक्षा ज ्यादा बडे़ पुरु� थे।

मैं जानता हूँ किक तुलनाए ँअच् छा नहीं है। अपने-अपने ढँग से सभी समान रूप से बडे़ हैं। लेकिकन फल की दृमिN से देखें तो जनता पर राममोहन राय या कितलक का असर उतना स् थायी और दूरगामी नहीं है जिजतना किक चैतन् य आठिद का। उन् हें जिजन बाधाओं का मुकाबला करना पड़ा उनकी दृमिN से र्वोे असाधारण कोठिट के महापुरु� थ;े और जिजस क्तिशक्षा-प्रणाली से उन् हें अपनी तालीम लेनी पड़ी उसकी बाधा यठिद उन् हें न सहनी पड़ी होता, तो उन् होंने अर्वोश् य ही ज ्यादा बड़ी सफलताए ँप्राप् त की होतीं। मैं यह मानने से इनकार करता हूँ किक यठिद राजा राममोहन राय और लोकमान् य कितलक को अँग्रेजी भा�ा का ज्ञान न होता, तो उन् हें र्वोे सब किर्वोचार सूझते ही नहीं जो उन् होंने किकए। भारत आज जिजन र्वोहमों का क्तिशकार है उनमें सबसे बड़ा र्वोहम यह है किक स् र्वोातंत्रय से संबंमिधत किर्वोचारों को हृदयसंगम करने के क्तिलए और तक2 शुद्ध चिच�तन की क्षमता का किर्वोकास के रने के क्तिलए अँग्रेजी भा�ा का ज्ञान आर्वोश् यक है। यह याद रखना जरूरी है किक किपछले पचास र्वो�k से देश के सामने क्तिशक्षा की एक ही प्रणाली रही है और किर्वोचारों की अणिभर्वो् यक्ति) के क्तिलए उसके पास जबरन लादा हुआ एक ही माध् यम रहा है। इसक्तिलए हमारे पास इस बात का किनण2य करने के क्तिलए किक मौजूदा स् कूलों और कॉंलेजों में मिमलने र्वोाली क्तिशक्षा न होती तो हमारी क् या हालत होती, जो सामग्री चाकिहए र्वोह है ही नहीं! लेकिकन यह हम जरूर जानते हैं किक भारत पचास साल पहले की अपेक्षा आज ज ्यादा गरीब है, अपनी रक्षा करने में आज ज ्यादा असमथ2 है और उसके लड़के-लड़किकयों की शीरर-संपणिu घट गई है। इसके उत् तर में कोई मुझसे यह न कहे किक इसका कारण मौजूदा शासन-प्रणाली का दो� है। कारण, क्तिशक्षा-प्रणाली इस शासन-प्रणाली का सबसे दो�युक् त अंग है।

इस क्तिशक्षा-प्रणाली का जन् म ही एक बड़ी भ्रांकित में से हुआ है। अँग्रेज शासक ईमानदारी से यह मानते थ ेकिक देशी क्तिशक्षा-प्रणाली किनकम् मी से भी ज ्यादा बुरी है। और इस क्तिशक्षा-प्रणाली का पो�ण पाप में हुआ, क् योंकिक उसका उदे्दश् य भारतीयों को शरीर, मन और आत् मा में बौना बनाने का रहा है।

रविवबाबू को उत् तर

...आज अगर लोग अँग्रेजी पढ़ते हैं, तो र्वो् यापारी बुजिद्ध से और तथाकक्तिथत राजनीकितक फायदे के क्तिलए ही पढ़ते हैं। हमारे किर्वोद्याथ� ऐसा मानने लगे हैं (और अभी की हालत देखते हुए यह किबलकुल स् र्वोाभाकिर्वोक है) किक अँग्रेजी के किबना उन् हें सरकारी नौकरी हरकिगज नहीं मिमल सकती। लड़किकयों को तो इसीक्तिलए अँग्रेजी पढ़ाई जाती है किक उन् हें अच् छा र्वोर मिमल जाएगा! मैं ऐसी कई मिमसालें जानता हूँ, जिजनमें स्त्रिस्त्रयाँ इसक्तिलए अँग्रेजी पढ़ना चाहती हैं किक अँग्रेजों के साथ उन् हें अँग्रेजी बोलना आ जय। मैंने ऐसे किकतने ही पकित देखे हैं किक जिजनकी स्त्रिस्त्रयाँ उनके साथ या उनके दोस् तों के

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साथ अँग्रेजी में न बोल सकें तो उन् हें दु:ख होता है! मैं ऐसे भी कुछ कुटंुबों को जानता हूँ, जिजनमें अँग्रेजी भा�ा को अपनी मातृभा�ा 'बना क्तिलया' जाता है! सैकड़ों नौजर्वोान ऐसा समझते हैं किक अँग्रेजी जाने किबना हिह�दुस् तान को स् र्वोराज् य मिमलना नामुमकिकन-सा है। इस बुराई ने समाज में इतना घर कर क्तिलया है, मानो क्तिशक्षा का अथ2 अँग्रेजी भा�ा के ज्ञान के क्तिसर्वोा और कुछ है ही नहीं। मेरे खयाल से तो ये सब हमारी गुलामी और किगरार्वोट की साफ किनशाकिनयाँ हैं। आज जिजस तरह देशी भा�ाओं की उपेक्षा की जाती है और उनके किर्वोद्वानों लेखकों को रोटी के भी लाले पडे़ हुए हैं, र्वोह मुझसे देखा नहीं जाता। माँ-बाप अपने बच् चों को और पकित अपनी स् त्री को अपनी भा�ा छोड़कर अँग्रेजी में पत्र क्तिलखें, तो र्वोह मुझसे कैसे बरदाश् त हो सकता है? मुझे लगता है किक ककिर्वो-सम्राट के बराबर ही मेरी भी स् र्वोतंत्र और खुली हर्वोा पर श्रद्धा है। मैं नहीं चाहता किक मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीर्वोारों से मिघरा रहे और उसके दरर्वोाजे और खिखड़किकयाँ बंद कर दी जाए।ँ मैं भी यही चाहता हूँ किक मेरे घर के आस-पास देश-किर्वोदेश की संस् कृकित की हर्वोा बहती रहे। पर मैं औंधें मुँह किगर पडँ़ू। मैं दूसरों के घरों में हस् तक्षेप करने र्वोाले र्वो् यक्ति), णिभखारी या गुलाम की हैक्तिसयत से रहने के क्तिलए तैयार नहीं। झूFे घमंड के र्वोश होकर या तथाकक्तिथत सामाजिजक प्रकित�् Fा पाने के क्तिलए मैं अपने देश की बहनों पर अँग्रेजी किर्वोद्या का नाहक बोझ डालने से इनकार करता हूँ। मैं चाहता हूँ किक हमारे देश के जर्वोान लड़के-लड़किकयों को साकिहत् य में रस हो, तो र्वोे भले ही दुकिनया की दूसरी भा�ाओं की तरह ही अँग्रेजी भी जी भर कर पढे़। किफर मैं उनसे आशा रखँूगा किक र्वोे अपने अँग्रेजी पढ़ने का लाभ डॉ. बोस, राय और खुद ककिर्वो-सम्राट की तरह हिह�दुस् तान को और दुकिनया को दें। लेकिकन मुझे यह नहीं बरदाश् त होगा किक हिह�दुस् तान का एक भी आदमी अपनी मातृभा�ा को भूल जाए, उसकी हँसी उड़ार्वोे, उससे शरमाए या उसे ऐसा लगे किक र्वोह अपने अच् छे-से-अच् छे किर्वोचार अपनी भा�ा में नहीं रख सकता। मैं संकुक्तिचत या बंद दरर्वोाजे र्वोाले धम2 में किर्वोश् र्वोास ही नहीं रखता। मेरे धम2 में ईश् र्वोर की पैदा की हुई छोटी-से-छोटी चीज के क्तिलए भी जगह है। मगर उसमें जाकित, धम2, र्वोण2 या रंग के घमंड के क्तिलए कोई स् थान नहीं है।

इस किर्वोदेशी भा�ा के माध् यम ने बच् चों के ठिदमाग को क्तिशक्तिथल कर ठिदया है, उनके स् नायुओं पर अनार्वोश् यक जोर डाला है, उन् हें रट्टू और नकलची बना ठिदया है तथा मौक्तिलक कायk और किर्वोचारों के क्तिलए सर्वो2था अयोग् य बना ठिदया है। इसकी र्वोजह से र्वोे अपनी क्तिशक्षा का सार अपने परिरर्वोार के लोगों तथा आम जनता तक पहुँचाने में असमथ2 हो गए हैं। किर्वोदेशी माध् यम ने हमारे बालकों को अपने ही घर में पूरा किर्वोदेशी बना ठिदया है। यह र्वोत2मान क्तिशक्षा-प्रणाली का सबसे बड़ा करुण पहलू है। किर्वोदेशी माध् यम ने हमारी देशी भा�ाओं की प्रगकित और किर्वोकास को रोक ठिदया है। अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत् ता हो, तो मैं आज से ही किर्वोदेशी माध् यम के जरिरए दी जाने र्वोाली हमारे लड़कों और लड़किकयों की क्तिशक्षा बंद कर दँू और सारे क्तिशक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध् यम तुरंत बदलर्वोा दँू या उन् हें बरखास् त करा दँू। मैं पाठ्य-पुस् तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करँूगा। र्वोे तो माध् यम के परिरर्वोत2न के पीछे-पीछे अपने-आप चली जाएगँी। यह एक ऐसी बुराई है जिजसका तुरंत इलाज होना चाकिहए।

हमें जो कुछ उच् च क्तिशक्षा मिमली है अथर्वोा जो भी क्तिशक्षा मिमली है र्वोह केर्वोल अँग्रेजी के ही द्वारा न मिमली होती, तो ऐसी स् र्वोयं क्तिसद्ध बात को दलीलें देकर क्तिसद्ध करने की कोई जरूरत न होती किक किकसी भी देश के बच् चों को अपनी रा�् ट्रीयता ठिटकाए रखने के क्तिलए नीची या ऊँची सारी क्तिशक्षा उनकी मातृभा�ा के जरिरए ही मिमलनी चाकिहए। यह स् र्वोयं क्तिसद्ध बात है किक जब तक किकसी देश के नौजर्वोान ऐसी भा�ा में क्तिशक्षा पाकर उसे पचा न लें जिजसे प्रजा समझ सके, तब तक र्वोे अपने देश की जनता के साथ नतो जीता-जागता संबंध पैदा कर सकते हैं और न उसे कायम रख सकते हैं। आज इस देश के हजारों नौजर्वोान एक ऐसी किर्वोदेशी भा�ा और उसके मुहार्वोरों पर अमिधकार पाने में कई साल न�् ट करने को मजबूर किकए जाते हैं, जो उनके दैकिनक जीर्वोन के क्तिलए किबलकुल बेकार है और जिजसे सीखने में उन् हें अपनी मातृभा�ा या उसके साकिहत् य की उपेक्षा करनी पड़ती है। इससे होने र्वोाली रा�् ट की अपार हाकिन का अंदाजा कौन लगा सकता है? इससे बढ़कर कोई र्वोहम कभी था ही नहीं किक अमुक भा�ा का किर्वोकास हो ही नहीं सकता, या उसके द्वारा गूढ़ अथर्वोा र्वोैज्ञाकिनक किर्वोचार समझाए ही नहीं जा सकते। भा�ा तो अपने बोलने र्वोाले के चरिरत्र और किर्वोकास का सच् चा प्रकितहिब�ब है।

किर्वोदेशी शासन अनेक दो�ों में देश के नौजर्वोानों पर डाला गया किर्वोदेशी भा�ा के माध्यम का घातक बोझ इकितहास में एक सबसे बड़ा दो� माना जाएगा। इस माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति) हर ली है, किर्वोद्यार्थिथ�यों की आयु घटा दी है, उन्हें आम जनता से दूर कर ठिदया है। और क्तिशक्षण को किबना कारण खच�ला बना ठिदया है। अगर यह प्रकिकया अब भी जारी

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रही तो जान पड़ता है र्वोह राष्ट्र की आत्मा को नष्ट कर देंगी। इसक्तिलए क्तिशणिक्षत भारतीय जिजतनी जwदी किर्वोदेशी माध्यम के भंयकर र्वोशीकरण से बाहर किनकल जाए,ँ उतना ही उनका और जनता का लाभ होगा।

44 मेरा अपना अनुभव पीछे     आगे

12 बरस की उमर तक मैंने जो भी क्तिशक्षा पाई र्वोह अपनी मातृभा�ा गुजराती में ही पाई थी। उसक समय गणिणत, इकितहास और भूगोल का मुझे थोड़ा-थोड़ा ज्ञान था। इसके बाद मैं एक हाईस् कूल में दाखिखल हुआ। इसमें भी पहले तीन साल तक तो मातृभा�ा ही क्तिशक्षा का मध् यम रही। लेकिकन स् कूल-मास् टर का काम तो किर्वोद्यार्थिंथ�यों के ठिदमाग में जबरदस् ती अँग्रेजी Fूसना था। इसक्तिलए हमारा आधे से अमिधक समय अँग्रेजी और उसके मनमाने किहज ्जों तथा उच् चारण पर काबू पाने में लगाया जाता था। ऐसी भा�ा का पढ़ना हमारे क्तिलए एक क�् टपूण2 अनुभर्वो था, जिजसका उच् चारण Fीक उसी तरह नहीं होता जैसी किक र्वोह क्तिलखी जाती है। किहज ्जों को कंFस् थ करना एक अजीब-सा अनुभर्वो था। लेकिकन यह तो मैं प्रसंगर्वोश कह गया, र्वोस् तुत: मेरी दलील से इसका कोई संबंध नहीं है। मगर पहले तो तीन साल तो तुलना में Fीक ही किनकल गए।

जिजल् लत तो चौथे साल से शुरू हुई। अलजबरा (बीजगणिणत), केमिमस् ट्री (रसायनशास् त्र), एस् ट्रानॉमी (ज ्योकित�), किहस् ट्री (इकितहास), ज ्यॉग्राफी (भूगोल) हर एक किर्वो�य मातृभा�ा के बजाय अँग्रेजी में ही पढ़ना पड़ा। कक्षा में अगर कोई किर्वोद्याथ� गुजराती, जिजसे किक र्वोह समझता था, बोलता तो उसे सजा दी जाती थी। हाँ, अँग्रेजी को, जिजसे न तो र्वोह समझता था, बोलता तो र्वोह पूरी तरह समझ सकता था और न शुद्ध बोल सकता था, अगर र्वोह बुरी तरह बोलता तो भी क्तिशक्षक को कोई आपकित नहीं हाती थी। क्तिशक्षक भला इस बात की किफक्र क् यों करे? क् योंकिक खुद उसकी ही अँग्रेजी किनद�� नहीं थी। इसके क्तिसर्वोा और हो भी क् या सकता था? क् योंकिक अँग्रेजी उसके क्तिलए भी उसी तरह किर्वोदेशी भा�ा थी, जिजस तरह किक उसके किर्वोद्यार्थिथ�यों के क्तिलए थी। इससे बड़ी गड़बड़ होती थी। हम किर्वोद्यार्थिथ�यों को अनेक बातें कंFस् थ करनी पड़ती, हालांकिक हम उन् हें पूरी तरह समझ नहीं सकते थ ेऔर कभी-कभी तो किबलकुल ही नहीं समझते थे। क्तिशक्षक के हमें ज ्यॉमेटरी (रेखागणिणत) समझाने की भरपूर कोक्तिशश करने पर मेरा क्तिसर घूमने लगता था। सच तो यह है किक युस्थिक्लड (रेखागणिणत) की पहली पुस् तक के 13 र्वोें साध् य तक हम न पहुँच गए, तब तक मेरी समझ में ज ्यॉमेटरी किबलकुल नहीं आई। और पाFकों के सामने मुझे यह मंजूर करना ही चाकिहए किक मातृभा�ा के अपने सारे पे्रम के बार्वोजूद आज भी मैं यह नहीं जानता किक ज ्या मेटरी, अलजबरा आठिद की पारिरभाकि�क बातों को गुजराती में क् या कहते हैं। हाँ, यह अब मैं जरूर देखता हूँ किक जिजतना गणिणत, रेखागणिणत, बीजगणिणत, रसायनशास् त्र और ज ्योकित� सीखने में मुझे चार साल लगे, अगर अँग्रेजी के बजाय गुजराती में उन् हें पढ़ा होता तो उतना मैंने एक ही साल में आसानी से सीख क्तिलया होता। उसे हालत में मैं आसानी और स् प�् टता के साथ इन किर्वो�यों को समझ लेता। गुजराती का मेरा शब् द ज्ञान कहीं ज ्यादा समृद्ध हो गया होता, और उस ज्ञान का मैंने और मेरे कुटंुकिबयों केबी, जो किक अँग्रेजी स् कूलों में नहीं पढे़ थ ेएक अगम् य खाई खड़ी कर दी। मेरे किपता को कुछ पता न था किक मैं क् या कर रहा हूँ। मैं चाहता तो भी अपने किपता की इस बात में ठिदचस् पी पैदा नहीं कर सकता था किक मैं क् या पढ़ रहा हूँ। क् यों किक यद्यकिप बुजिद्ध की उनमें कोई कमी न थी, मगर र्वोे अँग्रेजी नहीं जानते थे। इस प्रकार मैं अपने ही घर आदमी बन गया था। यहाँ तक किक मेरी पोशक भी अपने-आप बदलने लगी। लेकिकन मेंरा जो हाल हुआ र्वोह कोई असाधारण अनुभर्वो नहीं था, बल्किwक अमिधकांश लोगों का यहीं हाल होता है।

हाईस् कूल के प्रथम तीन र्वो�k में मेरे सामान् य ज्ञान में बहुत कम र्वोृजिद्ध हुई। यह समय तो लड़कों को हर एक चीज अँग्रेजी के जरिरयें सीखने की तैयारी का था। हाईस् कूल तो अँग्रेजी की सांस् कृकित किर्वोजय के क्तिलए थे। मेरे हाईस् कूल के तीन सौ किर्वोद्यार्थिथ�यों ने जो ज्ञान प्राप् त किकया र्वोह तो हमीं तक सीमिमत रहा, र्वोह सर्वो2-साधारण तक पहुँचाने के क्तिलए नहीं था।

एक-दो शब् द साकिहत् य के बारे में भी। अँग्रेजी गद्य और पद्य की हमें कई किकताबें पढ़नी पड़ी थी। इसमें शक नहीं किक यह बठिढ़या साकिहत् य था। लेकिकन सर्वो2-साधारण की सेर्वोा या उसके संपक2 में आने में उस ज्ञान का मेरे क्तिलए कोई उपयोग नहीं हुआ है। मैं यह कहने में असमथ2 हूँ किक मैंने अँग्रेजी गद्य और पद्य न पढ़ा होता तो मैं एक बेशक कीमती

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खजाने से र्वोंक्तिचत रह जाता। इसके बजाय सच तो यह है किक अगर र्वोे साल साल मैंने गुजराती पर प्रभुत् र्वो प्राप् त करने में लगाए होते और गणिणत, किर्वोज्ञान तथा संस् कृत आठिद किर्वो�यों को गुजराती में पढ़ा होता, तो इस तरह प्राप् त किकए हुए ज्ञानमें अपने अड़ोसी-पड़ोक्तिसयों को आसानी से किहस् सेदार बनाया होता। उस हालत में मैंने गुजराती साकिहत् य को समृद्ध किकया होता, और कौन कह सकता है किक अमल में उतारने की अपनी आदत तथा देश और मातृभा�ा के प्रकित अपने बेहद पे्रम के कारण सर्वो2-साधारण की सेर्वोा में मैं और भी अमिधक अपनी देन क् यों न दे पाता ?ᣛᣛ

यह हरकिगज समझना चाकिहए किक अँग्रेजी या उसके श्रे�् F साकिहत् य का मैं किर्वोरोधी हूँ। 'हरिरजन' अँग्रेजी-पे्रम का पया2प् त प्रमाण है। लेकिकन उसके साकिहत् य की महत् ता भारतीय रा�् ट्र के क्तिलए उससे अमिधक उपयोग नहीं, जिजतना किक इंग्लैंड का समशीतो�् ण जलर्वोायु या र्वोहाँ के संुदर दृश् य हो सकते हैं। भारत को तो अपने ही जलर्वोायु, दृश् यों और साकिहत् य में तरक् की करनी होगी, किफर चाहे र्वोे अँग्रेजी जलर्वोायु, दृश् यों और साकिहत् य से घठिटत दरज ेके ही क् यों न हों। हमें और हमारे बच् चों को तो अपनी ही किर्वोरासत बनानी चाकिहए। अगर हम दूसरों की किर्वोरासत लेंगे तो हमारी अपनी न�् ट हो जाएगी। सच तो यह है किर्वोदेशी सामग्री पर हम कभी उन् नकित नहीं कर सकतें। मैं तो चाहता हूँ किक रा�् ट्र अपनी ही भा�ा का भंडार भरे और इसके क्तिलए संसारकी अन् य भा�ाओं का भंडार भी अपनी ही देशी भा�ाओं में संक्तिचत करे। रर्वोीन् द्रनाथ की अनुपम कृकितयों का सौंदय2 जानने के क्तिलए मुझे बंगाली पढ़ने की कोई जरूरत नहीं, क् यों किक संुदर अनुर्वोादों के द्वारामैं उसे पा लेता हूँ। इसी तरह टॉल् स् टॉय की संणिक्षप् त कहाकिनयों की कदर करने के क्तिलए गुजराती लड़के-लड़़किकयों को रूसी भा�ा पढ़ने की कोई जरूरत नहीं, क् योंकिक अच् छे अनुर्वोादों के जरिरए र्वोे उन् हें पढ़ लेते हैं। अँग्रेजों को इस बात का गर्वो2 है किक संसार की सर्वो�त् तम साकिहप्तित्यक रचानाए ँप्रकाक्तिशत होने के एक सप् ताह के अंदर-अंदर सरल अँग्रेजी में उनके हाथों में आ पहुँचती हैं। ऐसी हालत में शेक् सकिपयर और मिमल् टन के सर्वो�त् तम किर्वोचारों और रचनाओं के क्तिलए मुझे अँग्रेजी पढ़ने की जरूरत क् यों हो?

यह एक तरह की अच् छी कितमर्वो् यमियता होगी किक ऐसे किर्वोद्यार्थिथ�यों का अलग ही एक र्वोग2 कर ठिदया जाए, जिजनका काम यह हो किक संसार की किर्वोणिभन् न भा�ाओं में पढ़ने लायक जो सर्वो�त् तम सामग्री हो उसकी पढ़ें और देशी भा�ाओं में उसनका अनुर्वोाद करें। हमारे प्रभुओं ने तो हमारे क्तिलए गलत ही रास् ता चुना है और आदत पड़ जाने के कारण गलती ही हमें Fीक मालूम पड़ने लगी है।

हमारी इस झूFी अभारती क्तिशक्षा से लाखों आदमिमयों का ठिदन-ठिदन जो अमिधकामिधक नुकसान हो रहा है, उसके प्रमाण मैं रोज ही पा रहा हूँ। जो गे्रज् युएट मेरे आदरणीय साथी हैं, उन् हें जब अपने आंतरिरक किर्वोचारों को र्वो् यक् त करना पड़ता है तब र्वोे खुद ही परेशान हो जाते हैं। र्वोे तो अपने ही घरों में अजनबी बन गए हैा। अपनी मातृभा�ा के शब् दों का उनका ज्ञान इतना सीमिमत है किक अँग्रेजी शब् दों और र्वोाक् यों तक सहारा क्तिलए बगैर र्वोे अपने भा�ण को समाप् त नहीं कर सकते। और न अँग्रेजी किकताबों के बगैर र्वोे रह सकते हैं। आपस में भी र्वोे अक् सर अँग्रेजी में ही क्तिलखा-पढ़ी करते है। अपने साक्तिथयों का उदाहरण मैं यह बताने के क्तिलए दे रहा हूँ किक इस बुराई ने किकतनी गहरी जड़ जमा ली है। क् योंकिक हम लोगों ने अपने को सुधारने का खुद जान-बूझकर प्रयत् न किकया है।

हमारे कॉलेजों में जो सयम की बरबादी होती है, उसके पक्ष में दलील यह दी जाती है किक कॉलेजों पढ़ने के कारण इतने किर्वोद्यार्थिथ�यों में से अगर एक जगदीश बसु भी पैदा हो सकें , तो हमें इस बरबादी की चिच�ता करने की जरूरत नहीं। अगर यह बरबादी अकिनर्वोाय2 होती तो मैं जरूर इस दलील का समथ2न करता। लेकिकन मैं आशा करता हूँ किक मैंने यह बतला ठिदया है किक यह न तो पहले अकिनर्वोाय2 है। क् योंकिक जगदीश बसु कोई र्वोत2मान क्तिशक्षा की उपज नहीं थे। र्वोे तो भयंकर कठिFनाइयों और बाधाओं के बार्वोजूद अपने परिरश्रम की बदौलत ऊँचे उFे, और उनका ज्ञान लगभग ऐसा बन गया जो सर्वो2-साधारण तक नहीं पहुँच सकता। बल्किwक मालूम ऐसा पड़ता है किक हम यह सोचने लगे हैं किक आशा नहीं कर सकता। यह ऐसी मिमथ ्या धारणा है जिजससे अमिधक बड़ी की मैं कल् पना ही नहीं कर सकता। जिजस तरह हम अपने को लाचार समझते मालूम पड़ते हैं, उस तरह एक भी जापानी अपने को नहीं समझता।

क्तिशक्षा का माध् यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाकिहए और प्रांतीय भा�ाओं को उनका न् यायसंगत स् थान मिमलना चाकिहए। यह जो दंडनीय बरबादी रोज-बरोज हो रही है उसके बजाए तो मैं अस् थायी रूप से अर्वो् यर्वोस् था हो जाना भी ज ्यादा पसंद करँूगा।

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प्रांतीय भा�ाओं का दरजा और र्वो् यार्वोहारिरक मूल् य बढ़ाने के क्तिलए मैं चाहूँगा किक अदालतों की कार2र्वोाई अपने-अपने प्रांत की भा�ा में हो। प्रांतीय धारासभाओं की कार2र्वोाई भी प्रांतीय भा�ा में या जहाँ एक से अमिधक भा�ाए ँप्रचक्तिलत हों र्वोहाँ उनमें होनी चाकिहए। धारासभाओं के सदस् यों से मैं कहना चाहता हूँ किक र्वोे चाहे तो एक महीने के अंदर-अंदर अपने प्रांतों की भा�ाए ँभलीभाँकित समझ सकते हैं। तामिमल-भा�ी के क्तिलए ऐसी कोई रुकार्वोट नहीं किक र्वोह तेलगू, मलयालम और कन् नडा का, जो किक सब तामिमल से मिमलती-जुलती ही हैं, मामूली र्वो् याकरण और कुछ सौ शब् द आसानी से न सीख सके। कें द्र में हिह�दुस् तानी का प्रमुख स् थान रहना चाकिहए।

मेरह सम्मकित में यह कोई ऐसा प्रश्न नहीं है, जिजसका किनण2य साकिहत्यज्ञों के द्वारा हो। र्वोे इस बात का किनण2य नहीं कर सकते किक किकस स्थान के लड़के- लड़किकयों की पढ़ाई किकस भा�ा में हो। क्योंकिक इस प्रश्न का किनण2य तो हर एक देश

में पहले से ही हो चुका है। न र्वोे यही किनण2य कर सकते हैं किक किकन किर्वो�यों की पढ़ाई हो। क्योंकिक यह उस देश की आर्वोश्यकताओं पर किनभ2र करता है, जिजस देश के बालकों को क्तिशक्षा देनी हो। उन्हें तो बस यही सुकिर्वोधा प्राप्त है किक

राष्ट्र की इच्छा को यथासंभर्वो रूप में अमल में लाए।ँ अत: जब हमारा देश र्वोस्तुत: स्र्वोतंत्र होगा तब क्तिशक्षा के माध्यम का प्रश्न केर्वोल एक ही तरह से हल होगा। साकिहप्तित्यक लोग पाFयक्रम बनाएगँे और किफर उसके अनुसार पाठ्य-पुस् तके तैयार करेंगे। और स्र्वोतंत्र भारत की क्तिशक्षा पाने र्वोाले लोग देश की जरूरते उसी तरी पूरी करेंगे। जिजस तरह आज

र्वोे किर्वोदेशी शासकों की जरूरतें पूरी करते है जब तक हम क्तिशणिक्षत र्वोग2 इस प्रश्न के साथ खिखलर्वोाड़ करते रहेंगे तब तक मुझे इस बात का बहुत भय है किक हम जिजस स्र्वोतंत्र और स्र्वोस्थ भारत का स्र्वोप्न देखते हैं उसका किनमा2ण नहीं कर

पयोगे। हमें जी- तोड़ प्रयत्न करके अपने बंधन से मुक्त होना चाकिहए, चाहे र्वोह क्तिशक्षणात्मक हो, आर्थिथ�क हो, सामाजिजक हो या राजनीकितक हो। हमारी तीन- चौथाई लड़ाई तो र्वोह प्रयत्न होगा जो किक इसके क्तिलए किकया जाएगा।

45 भारत की सांस्कृवित विवरासत पीछे     आगे

मेरा यह कहना नहीं है किक हम शे� दुकिनया से बचकर रहें या अपने आस-पास दीर्वोालें खड़ी कर लें। यह तो मेंरे किर्वोचारों से बड़ी दूर भटक जाना है। लेकिकन मैं यह जरूर कहता हूँ किक पहले हम अपनी संस् कृकित का सम् मान करना सीखें और उसे आत् म सात् करें। दूसरी संस् कृकितयों के सम् मान की, उनकी किर्वोशे�ताओं को समझने और स् र्वोीकार करने की बात उसके बाद ही आ सकती है, उसके पहले कभी नहीं। मेरी यह दृढ़ मान् यता है किक हमारी संस् कृकित में जैसी मूल् यर्वोान किनमिधयाँ हैं र्वोैसी किकसी दूसरी संस् कृकित में नहीं हैं। हमने उसे पकिहचाना नहीं है; हमें उसके अध् ययन का कितरस् कार करना, उसके गुणों की कम कीमत करना क्तिसखाया गया है। अपने आचरण में उसका र्वो् यर्वोहार करना तो हमने लगभग छोड़ ही ठिदया है। आचार के किबना कोरा बौजिद्धक ज्ञान उस किनज�र्वो देह की तरह है, जिजस मसाला भरकर सुरणिक्षत रखा जाता है। र्वोह शायद देखने में अच् छा लग सकता है, हिक�तु उसमें प्ररेणा देने की शक्ति) नहीं होती। मेरा धम2 मझे आदेश देता है किक मैं अपनी संस् कृकित को सीखँू, ग्रहण करँू और उसके अनुसार चलू; आत् म हत् या कर लेंगे। हिक�तु साथ ही र्वोह मुझे दूसरो की संस् कृकितयों का अनादर करने या उन् हें तुच् छ समझने से भी रोकता है।

र्वोह उन किर्वोकिर्वोध संस् कृकितयों के समन् र्वोय की पो�क है, जो इस देश में सुस्थि^र हो गई हैं, जिजन् होंने भारतीय जीर्वोन को प्रभाकिर्वोत किकया है और जो खुद भी इस भूमिम के र्वोातार्वोरण से प्रभाकिर्वोत हुई हैं। जैसा किक स् र्वोाभाकिर्वोक है, र्वोह समन् र्वोय स् र्वोदेशी ढँग का होगा, अथा2त उसमें प्रत् येक संस् कृकित को अपना उक्तिचत स् थान प्राप् त होगा। र्वोह अमरीकी ढँग का नहीं होगा, जिजसमें कोई एक प्रमुख संस् कृकित बाकी सबको पचा डालती है और जिजसका उदे्दश् य सुमेल साधना नहीं बल्किwक कृकित्रम और जबरदस् ती लादी जाने र्वोाली एकता किनमा2णकरना है।

हमारे समय की भारतीय संस्कृकित अभी किनमा2ण की अर्वोस्था में है। हम लोगों में कोई उन सारी संस्कृकितयों का एक संुदर सस्त्रिम्मश्रण रचने का प्रयत्न कर रहे है, जो आजआपस में लड़ती ठिदखाई देती हैं। ऐसी कोई भी संस्कृकित, जो सबसे बचकर रहना चाहती हो, जीकिर्वोत नहीं रह सकती। भारत में आज शुद्ध आय2 संस्कृकित जैसी कोई चीज नहीं है।

आय2 लोग भारत के ही रहने र्वोाले थे या यहाँ बाहर से आए थे और यहाँ के मूल किनर्वोाक्तिसयों ने उनका किर्वोरोध किकया था, इस सर्वोाल में मुझे ज्यादा ठिदलचस्पी नहीं है। जिजस बात में मेरी ठिदलचस्पी है र्वोह यह है किक मेरे अकितप्राचीन पूर्वो2ज

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एक- दूसरे के साथ पूरी आजादी से घूल- मिमल गए थे, और हम उनकी र्वोत2मान संतान उस मेल का ही परिरणाम हैं। अपनी जन्मभूमिम का और इस पृथ्र्वोी माता का, जो हमारा पो�ण करती है, हम कोई किहत कर रहे हैं या उस पर बोझ

रूप हैं, यह तो भकिर्वोष्य ही बताएगा।

46 नई तालीम पीछे     आगे

अन् य देशों के बारे में कुछ भी सहीं हो, कम-से-कम भारत में तो-जहाँ अस् सी फीसदी आबादी खेती करने र्वोाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने र्वोाली है-क्तिशक्षा को किनरी साकिहप्तित्यक बना देने तथा लड़कों और लड़किकयों को उत् तर-जीर्वोन में हाथ के काम के क्तिलए अयोग् य बना देना गुनाह है। मेरी तो राय है किक चँूकिक हमारा अमिधकांश समय अपनी रोजी कमाने में लगता है, इसक्तिलए हमारे बच् चों को बचपन से ही इस प्रकार के परिरश्रम का गौरर्वो क्तिसखाना चाकिहए। हमारे बालकों की पढ़ाई ऐसी नहीं होनी चाकिहए, जिजससे र्वोे मेहनत का कितरस् कार करने लगे। कोई कारण नहीं किक क् यों एक किकसान का बेटा किकसी स् कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में आजकल की तरह किनकम् मा बन जाए। यह अफसोस की बात है किक हमारी पाFशालाओं के लड़के शारीरिरक श्रम को कितरस् कार की दृमिN से चाहे न देखते हो, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं।

मेरी राय में तो इस देश मैं, जहाँ लाखों आदमी भूखों मरते हैं, बुजिद्धपूर्वो2क किकया जाने र्वोाला श्रम ही सच् ची प्राथमिमक क्तिशक्षा या प्रौढ़क्तिशक्षा है। ... अक्षर-ज्ञान हाथ की क्तिशक्षा के बाद आना चाकिहए। हाथ से काम करने की क्षमता-हस् त-कौशल ही तो र्वोह चीज है, जो मनु�् य को पशु से अलग करती है। क्तिलखना-पढ़ना जाने किबना मनु�् य का संपूण2 किर्वोकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक र्वोहम ही है। इसमें कोई शक नहीं किक अक्षर-ज्ञान से जीर्वोन का सौंदय2 बढ़ जाता है, लकिकन यह बात गलत है किक उसके किबना मनु�् य का नैकितक, शारीरिरक और आर्थिथ�क किर्वोकास हो ही नहीं सकता।

मेरा मत है किक बुजिद्ध की सच् ची क्तिशक्षा हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आठिद शरीर के अंगों के Fीक अभ् यास और क्तिशक्षण से ही हो सकती है। दूसरे शब् दों में, इंठिद्रयों के बजिद्धपूर्वो2क उपयोग से बालक की बुजिद्ध के किर्वोकास का उत् तम और शीघ्रतम माग2 मिमलता है। परंतु जब तक मल्किस्त�् क और शरीर का किर्वोकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत् मा की जागृकित न होती रहे, तब तक केर्वोल बुजिद्ध के एकांगी किर्वोकास से कुछ किर्वोशे� लाभ नहीं होगा। आध् यास्त्रित्मक क्तिशक्षा से मेरा आशय हृदय की तालीम से है। इसक्तिलए मल्किस्त�् क का Fीक और चतुमु2खी किर्वोकास तभी हो सकता है जब र्वोह बच् चे की शारीरिरक और आध् यास्त्रित्मक शक्ति)यों की तालीम के साथ-साथ होता हो। ये सब बातें एक और अकिर्वोभाज् य हैं। इसक्तिलए इस क्तिसद्धांत के अनुसार यह मान बैFना किबलकुल गलत होगा किक उनका किर्वोकास टुकडे़-टुकडे़ करे या एक-दूसरे से स् र्वोतंत्र रूप में किकया जा सकता है।

शरीर, मन और आत् मा की किर्वोकिर्वोध शक्ति)यों में Fीक-Fीक सहकार और सुमेल न होने के दु�् परिरणाम स् प�् ट हैं। र्वोे हमारे चारों ओर किर्वोद्यमान हैं; इतना ही है किक र्वोत2मान किर्वोकृत संस् कारों के कारण र्वोे हमें ठिदखाई नहीं देते।

मनु�् य न तो कोरी बुजिद्ध है, न स् थूल शरीर है और न केर्वोल हृदय या आत् मा ही है। संपूण2 मनु�् य के किनमा2ण के क्तिलए तीनों के उक्तिचत और एक रस मेल की जरूरत होती है और यही क्तिशक्षा की सच् ची र्वो् यर्वोस् था है।

क्तिशक्षा से मेरा अणिभप्राय यह है किक बालाक की या प्रौढ़ की शरीर, मन तथा आत् मा की उत् तम क्षमताओं को उदृघठिटत किकया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए। अक्षर-ज्ञानन तो क्तिशक्षा का अंकितम लक्ष् य है और न उसका आरंभ। र्वोह तो मनु�् य की क्तिशखा के कई साधनों में से केर्वोल एक साधन है। अक्षर-ज्ञान अपने-आप में क्तिशक्षा नहीं है। इसक्तिलए मैं बच् चे की क्तिशक्षा का श्रीगणेश उसे कोई उपयोगी दस् तकारी क्तिसखाकर और जिजस क्षण से र्वोह अपनी क्तिशक्षा का आरंभ करे उसी क्षण से उसे उत् पादन के योग् य बनाकर करँूगा। मेरा तम है किक इस प्रकार की क्तिशक्षा-प्रणाली में मल्किस्त�् क और आत् मा का उच् चतम किर्वोकास संभर्वो है। अलबत् ता, प्रत् येक दस् तकारी आजकल की तरह

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किनरे यांकित्रयक ढँग से न क्तिसखाकर र्वोैज्ञाकिनक तरीक पर क्तिसखानी पडे़गी, अथा2त बालक को प्रत् येक किक्रया का क् यों और कैसे बताना होगा।

क्तिशक्षा की मेरी योजना में हाथ अक्षर क्तिलखना सीखने के पहले औजार चलाना सीखेंगे। आँखें जिजस तरह दूसरी चीजों को तस् र्वोीरों के रूप में देखती और उन् हें पकिहचानना सीखती हैं, उसी तरह र्वोे अक्षरों और शब् दों को तस् र्वोीरों की तरह देखकर उन् हें पढ़ना सीखेंगी और कान चीजों के नाम और र्वोाक् यों का आाशय पकड़ना सीखेंगे। गरज यह किक सारी तालीम स् र्वोाभाकिर्वोक होगी। बालकों पर र्वोह लादी नहीं जाएगी, बल्किwक र्वोे उसमें स् र्वोत: ठिदलचस् पी लेंगे। और इसक्तिलए यह तालीम दुकिनया की दूसरी तमाम क्तिशक्षा-पद्धकितयों से जल् दी फल देने र्वोाली और सस् ती होगी।

हाथ का काम इस सारी योजना का कें द्रहिब�दु होगा। ... हाथ की तालीम का मतलब यह नहीं होगा किक किर्वोद्याथ� पाFशाला के संग्रहालय में रखने लायक र्वोस् तुए ँऐसे खिखलौने बनाए ँजिजनका कोई मूल् य नहीं। उन् हें ऐसी र्वोस्तुए ँबनाना चाकिहए, जो बाजार में बची जा सकें । कारखानों के प्रारंणिभक काल में जिजस तरह बच् चे मार के भय से काम करते थ,े उस तरह हमारे बच् चे यह काम नहीं करेंगे। र्वोे उसे इसक्तिलए करेंगे किक इससे उन् हें आनंद मिमलता है और उनकी बुजिद्ध को स् फूर्षित� मिमलती है।

मैं भारत के क्तिलए किन:शुल् क और अकिनर्वोाय2 प्राथमिमक क्तिशक्षा के क्तिसद्धांत में दृढ़तापूर्वो2क मानता हूँ। मैं यह भी मानता हूँ किक इस लक्ष् य को पाने का क्तिसफ2 यही एक रास् ता है किक हम बच् चों को कोई उपयोगी उद्योग क्तिसखाए ँऔर उसके द्वारा उनकी शारीरिरक, मानक्तिसक तथा आध् यास्त्रित्मक शक्ति)यों का किर्वोकास क्तिसद्ध करें। ऐसा किकया जाए तो हमारे गाँर्वोों के लगातार बढ़ रहे नाश की प्रकिक्रया रुकेगी और ऐसा न् यायपूण2 समाज-र्वो् यर्वो् स् था की नींर्वो पडे़गी, जिजसमें अमीरों और गरीबों के अस् र्वोाभाकिर्वोक किर्वोभेद की गंुजाइश नहीं होगी और हर एक को जीर्वोन-मजदूरी और स् र्वोतंत्रता के अमिधकारों का आश् र्वोासन ठिदया जा सकेगा।

ओटाई और कताई आठिद गाँर्वोों में चलने योग्य हाथ- उद्योगों के द्वारा प्राथमिमक क्तिशक्षण की मेरी योजना की कwपना चुपचाप चलने र्वोाली ऐसी सामाजिजक क्रांकित के रूप में की गई है, जिजसके अत्यंत दूरगामी परिरणाम होंगे। र्वोह शहरों

और गाँर्वोों मे स्र्वोस्थ और नैकितक संबंधोंकी स्थापना के क्तिलए सुदृढ़ आधार पेश करेगी और इस तरह मौजूदा सामाजिजक अरणिक्षतता और र्वोगk के पारस्परिरक संबंधों की मौजूदा कटुता की बुराइयाँ बड़ी हद तक दूर होंगी।

47 बुविनयादी भिशक्षा पीछे     आगे

इस तालीम की मंशा यह है किक गाँर्वो के बच् चों को सुधार-सँर्वोार कर उन् हें गाँर्वो का आदश2 बाचिश�दा बनाया जाए। इसकी योजना खासकर उन् हीं को ध् यान में रखकर तैयार की गई है। इस योजना की असल पे्ररणा भी गाँर्वोों से ही मिमली है। जो कांग्रेसजन स् र्वोराज् य की इमारत को किबलकुल उसकी नींर्वो या बुकिनयादी से चुनना चाहते हैं, र्वोे देश के बच् चों की उपेक्षा कर ही नहीं सकते। परदेशी हुकूमत चलाने र्वोालों ने, अनजाने ही क् यों न हो, क्तिशक्षा के के्षत्र में अपने काम की शुरुआत किबना चूके किबलकुल छोटे बच् चों से की है। हमारे यहाँ जिजसे प्राथमिमक क्तिशक्षा कहा जाता है र्वोह तो एक मजाक है; उसमें गाँर्वोों में बसने र्वोाले हिह�दुस् तान की जरूरतों और माँगों का जरा भी किर्वोचार नहीं किकया गया है; और र्वोैसे देखा जाए तो उसमें शहरों का भी कोई किर्वोचार नहीं हुआ है। बुकिनयादी तालीम हिह�दुस् तान के तमाम बच् चों को, किफर र्वोे गाँर्वोों के रहने र्वोाले हों या शहरों के, हिह�दुस् तान के सभी श्रे�् F और स् थायी तत् त् र्वोों के साथ जोड़ देती है। यह तालीम बालक के मन और शरीर दोनों का किर्वोकास करती है; बालक को अपने र्वोतन के साथ जोडे़ रखती है; उसे अपने और देश के भकिर्वो�् य का गौरर्वोपूण2 क्तिचत्र ठिदखाती है; और उस क्तिचत्र में देखे हुए भकिर्वो�् य के हिह�दुस् तान का किनमा2ण करने में बालक या बाक्तिलकाए ँअपने स् कूल जाने के ठिदन से ही हाथ बँटाने लगें, इसका इंतजाम करती है।

बुकिनयादी क्तिशक्षा का उदे्दश् य दस् तकारी के माध् यम से बालकों का शारीरिरक, बौजिद्धक और नैकितक किर्वोकास करना है। लेकिकन मैं मानता हूँ किक कोई भी पद्धकित, जो शैक्षणिणक दृमिN से सही हो और जो अच् छी तरह चलाई जाए, आर्थिथ�क

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दृमिN से भी उपयुक् त क्तिसद्ध होगी। उदाहरण के क्तिलए, हम अपने बच् चों को मिमट्टी के खिखलौने बनाना भी क्तिसखा सकते हैं, जो बाद में तोड़कर फें क ठिदए जाते हैं। इससे भी उनकी बुजिद्ध का किर्वोकास तो होगा। लेकिकन इसमें इस महत् त् र्वोपूण2 नैकितक क्तिसद्धांत की उपेक्षा होती है किक मनु�् य के श्रम और साधन-सामग्री का अपर््वो यय कदाकिप न होना चाकिहए। उनका अनुत् पादक उपयोग कभी नहीं करना चाकिहए। अपने जीर्वोन के प्रत् येक क्षण का सदुपयोग ही होना चाकिहए, इस क्तिसद्धांत के पालन का आग्रह नागरिरकता के गुण का किर्वोकास करने र्वोाली सर्वो�त् तम क्तिशक्षा है, साथ ही इससे बुकिनयादी तालीम स् र्वोार्वोलम् ब् ीी भी बनती है।

यहाँ हम बुकिनयादी तालीम के खस-खास क्तिसद्धांतों पर किर्वोचार करो :

1. पूरी क्तिशक्षा स् र्वोार्वोलंबी होनी चाकिहए। यानी, आखिखर में पँूजी छोड़कर अपना सारा खच2 उसे खुद देना चाकिहए।

2. इसमें आखिखर दरजे तक हाथ का पूरा-पूरा उपयोग किकया जाए। यानी, किर्वोद्याथ� अपने हाथों से कोई-न-कोई उद्योग-धंधा आखिखर दरज ेतक करें।

3. सारी तालीम किर्वोद्यार्थिथ�यों की प्रांतीय भा�ा द्वारा दी जानी चाकिहए।

4. इसमें सांप्रदामियक धार्मिम�क क्तिशक्षा के क्तिलए कोई जगह नहीं होगी। लेकिकन बुकिनयादी नैकितक तालीम के क्तिलए काफी गंुजाइश होगी।

5. यह तालीम, किफर उसे बच् चे लें या बडे़, औरतें लें या मद2, किर्वोद्यार्थिथ�यों के घरों में पहुँचेगी।

6. चँूकिक इस तालीम को पाने र्वोाले लाखों-करोड़ों किर्वोद्याथ� अपने-आपको सारे हिह�दुस् तान के नागरिरक समझेंगे, इसक्तिलए उन् हें एक आंतर-प्रांतीय भा�ा सीखनी होगी। सारे देश की यह एक भा�ा नागरी या उदू2 में क्तिलखी जाने र्वोाली हिह�दुस् तानी ही हो सकती है। इसक्तिलए किर्वोद्यार्थिथ�यों को दोनों क्तिलकिपयाँ अच् छी तरह सीखनी होंगी।

हमारे जैसे गरीब देश में हाथ की तालीम जारी करने से दो हेतु क्तिसद्ध होंगें। उसे हमारे बालकों की क्तिशक्षा का खच2 किनकलआएगा और र्वोे ऐसा धंधा सीख लेंगे, जिजसका अगर र्वोे चाहें तो उत्तर- जीर्वोन में अपनी जीकिर्वोका के क्तिलए सहारा ले सकते हैं। इस पद्धकित से हमारे बालकआत्म - किनभ2र अर्वोश्य हो जाएगँे। राष्ट्र को कोई चीज इतना कमजोर

नहीं बनाएगँी, जिजतना यह बात किक हम श्रम का कितरस्कार करना सीखें।

48 उच्च भिशक्षा पीछे     आगे

मैं कॉलेज की क्तिशक्षा में कायापलट करके उसे रा�् ट्रीय आर्वोश् यकताओं के अनुकूल बनाऊँगा। यंत्र किर्वोद्या के तथा अन् य इंजीकिनयरों के क्तिलए किडकिग्रयाँ होंगी। र्वोे णिभन् न-णिभन् न उद्योगों के साथ जोड़ ठिदए जाएगँे और उद्योगों को जिजन स् नातकों की जरूरत होगी उनके प्रक्तिशक्षण का खच2 र्वोे उद्योग ही देंगे। इस प्रकार टाटा र्वोालों से आशा की जाएगी किक र्वोे राज् य की देखरेख में इंजीकिनयरों को तालीम देने के क्तिलए एक कॉलेज चलाए।ँ इसी तरह मिमलों के संघ अपनी जरूरतों के स् नातकों को तालीम देने के क्तिलए अपना कॉलेज चलाएगेँ।

इसी तरह और उद्योगों के नाम क्तिलए जा सकते हैं। र्वोाणिणज ्य-र्वो् यर्वोसाय र्वोालों का अपना कॅलेज होगा। अब रह जाते हैं कला, औ�मिध और खेती। कई खानगी कला-कॉलेज आज भी स् र्वोार्वोलंबी है। इसक्तिलए राज् य ऐसे कॉलेज चलाना बंद कर देगा। डॉक् टरी के कॉलेज प्रामाणिणक अस् पतालों के साथ जोड़ ठिदए जाएगँे। चँूकिक ये धनर्वोानों में लोककिप्रय हैं, इसक्तिलए उनसे आशा रखी जाती है किक र्वोे स् र्वोेच् छा से दान देकर डॉक् टरी के कॉलेजो को चलाएगेँ। और कृकि�-कॉलेज तो अपने नाम को साथ2क करने के क्तिलए स् र्वोार्वोलंबी होने ही चाकिहए। मुझे कुछ कृकि�-स् नातकों का दु:खद अनुभर्वो है। उनका ज्ञान ऊपरी होती है। उसमें र्वो् यार्वोहारिरक अनुभर्वो की कमी होती है। परंतु यठिद र्वोे देश की जरूरतें पूरी करने

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र्वोाले और स् र्वोार्वोलंबी खेतों पर तालीम लें, तो उन् हें अपनी किडकिग्रयाँ लेने के बाद और अपने माक्तिलकों के खच2 पर तजुरबा हाक्तिसल नहीं करना पडे़गा।

राज् य के किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय खाक्तिलस परीक्षा लेने र्वोाली सं^ाए ँरहे और र्वोे अपना खच2 परीक्षा-शुल् क से ही क्तिलया करें।

किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालयों क्तिशक्षा के सारे के्षत्र की देखरेख रखेंगे और क्तिशक्षा के किर्वोणिभन् न किर्वोभागों के पाFयक्रम तैयार करके उन् हें मंजूरी देंगे। कोई खानगी स् कूल अपने-अपने किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालयों से पूर्वो2-स् र्वोीकृकित क्तिलए किबना नहीं चलाए जाने चाकिहए। किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय के स् र्वोीकृकित-पत्र प्रमाणिणत योग् यता र्वोाले और प्रामाणिणक र्वो् यक्ति)यों की किकसी भी संस् था को उदारतापूर्वो2क ठिदए जाने चाकिहए। और हमेशा यह समझकर चला जाएगा किक किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालयों का राज् य पर कोई खच2 नहीं पडे़गा।

उसे क्तिसफ2 ऐ कें द्रीय क्तिशक्षा-किर्वोभाग का खच2 ही उFाना होगा।

नए विवश् वविवद्यालय

प्रांतों में नए किर्वोश् किर्वोकिर्वोद्यालय कामय करने की लोगों पर सनक-सी सर्वोार हो गई मालूम होती है। गुजरात गुजराती के क्तिलए, महारा�् ट्र मराFी के क्तिलए, कना2टक कन् नड़ के क्तिलए, उड़ीसा उकिड़या के क्तिलए और आसाम आसामी के किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय चाहता है। मैं अर्वोश् य मानता हूँ किक अगर इन संपन् न प्रांतीय भा�ाओं और उन् हें बोलने र्वोालें लोगों की पूरी उन् नकित करनी हो, तो ये किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय होने चाकिहए।

साथ ही मुझे डर है किक इस लक्ष् य को पूरा करने में हम अनुक्तिचत जल् दीबाजी कर रहे हैं। इस के क्तिलए पहला कदम प्रांतों का भा�ार्वोार राजनीकितक बँटर्वोारा होना चाकिहए। उनका शासन अलग हो जाएगा तो स् र्वोाभाकिर्वोक तौर पर जहाँ किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय नहीं हैं र्वोहाँ र्वोे कायम हो जाएगँे।

नए किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय के क्तिलए उक्तिचत पृ�् Fभूमिम होनी चाकिहए। किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय हों उसके पहले उनका पो�ण करने र्वोाले स् कूल और कॉलेज होने चाकिहए, जहाँ अपनी-अपनी भा�ाओं के माध् यम से क्तिशक्षा दी जाए। तभी किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालयों का आर्वोश् यक र्वोातार्वोरण खड़ा हुआ माना जा सकता है। किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय चोटी पर होता है। शानदार चोटी तभी कायम रह सकती है जब बुकिनयाद अच् छी हो।

हम राजनीकितक दृमिN से तो स् र्वोतंत्र हो गए, परंतु पणिZम के सूक््ष म प्रभार्वो से मुक् त नहीं हुए हैं। मुझे उस किर्वोचारधारा के राजनीकितज्ञों से कुछ नहीं कहना है, जो यह मानते हैं किक ज्ञान पणिZम से ही आ सकता है। मैं इस किर्वोश् र्वोास से भी सहमत नहीं हूँ किक पणिZम से कोई अच् छी बात नहीं मिमल सकती। मगर मझे यह डर जरूर है किक अभी तक इस मामले में हम किकसी किनण2य पर नहीं पहुँच सके हैं। आशा है कोई यह दार्वोा नहीं करेगा किक चँूकिक हमें किर्वोदेशी प्रभुता से राजनीकितक मुक्ति) मिमल गई मालूम होती है, क्तिसफ2 इसीक्तिलए हम किर्वोदेशी भा�ा और किर्वोदेशी किर्वोचारों के प्रभार्वो से भी मुक् त हो गए हैं। क् या यह बुजिद्धमानी नहीं है, क् या देश के प्रकित हमारे कत्2 तर्वो् य की यह माँग नहीं है किक नए किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय खडे़ करनेसे पहले हम जरा सुस् ता कर अपनी नर्वो प्राप् त स् र्वोतंत्रता के प्राणर्वोायु से अपने फेफड़ों को भर लें? किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय को बहुत-सी शानदार इमारते और सोने-चाँदी के खजाने की कभी आर्वोश् यकता नहीं होती। उसे सबसे ज ्यादा जरूरत लोकमत द्वारा समझ कर ठिदए गए सहारे की रहती है। उसके पास क्तिशक्षकों का एक बड़ा भंडार होना चाकिहए। उसके संस् थापक दूरदश� होने चाकिहए।

मेरी राय में किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालयों की स् थापना के क्तिलए रुपया जुटाना लोकतंकित्रक राज् य का काम नहीं है। लोगों को उनकी जरूरत होगी तो र्वोे आर्वोश् यक पैसा खुद जुटा लेंगे। इस प्रकार स् थाकिपत किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय देश के भू�ण होंगे। जहाँ शासन किर्वोदेक्तिशयों के हाथों में होता हैं, र्वोहाँ लोगों को जो कुछ मिमलता है र्वोह सब ऊपर से आता है और इस प्रकार र्वोे अमिधकामिधक पराधीन हो जाते हैं। जहाँ उसका आधार जनता की इच् छा पर होता है और इसक्तिलए र्वो् यापक होता है, र्वोहाँ हर चीज नीचे से उFती है और इसक्तिलए ठिटकती है। र्वोह दीखने में भी अच् छी होती है और लोगों को शक्ति) देती है। ऐसी लोकतांकित्रक योजना में किर्वोद्या-प्रचार में लगाया हुआ रुपया लोगों को दस गुना लाभ पहुँचाता है,

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जैसे अच् छी जमीन में बोया हुआ बीज बठिढ़या फसल देता है। किर्वोदेशी प्रभुता के अधीन कायम किकए गए किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय उलटी ठिदशा में चले हैं। शायद दूसरा कोई परिरणाम हो भी नहीं सकता था। इसक्तिलए जब तक भारतर्वो�2 अपनी नर्वोप्राप् त स् र्वोतंत्रता को पचा न ले, किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय कायम करने के बारे में हर दृमिN से सार्वोधान रहना चाकिहए।

प्रौढ़भिशक्षा

अगर बड़ी उमर के स् त्री-पुरु�ों को तालीम देने या पढ़ाने का काम मेरे जिजम् मे हो, तो मैं अपने किर्वोद्यार्थिथ�यों को अपने देश के किर्वोस् तान और उसकी महत् ता का बोध कराकर उनकी पढ़ाई शुरू करँू। हमारे देहाकितयों के खयाल में उनका गाँर्वो ही उनका समूचा देश होता है। जब र्वोे किकसी दूसरे गाँर्वो को जाते हैं तो इस तरह बता करते हैं, मानों उनका अपन गाँर्वो ही उनका समूचा देश या र्वोतन हो। 'हिह�दुस् तान' तो उनके खयाल से भूगोल की किकताबों में बरता जाने र्वोाला एक शब् दमात्र है। हमारे गाँर्वोों में किकतना घोर अज्ञान घुसा हुआ है, इसका हमें अंदाज भी नहीं है। हमारे देहाती भाई और बहन नहीं जानते किक इस देश में जो किर्वोदेशी हुकूमत चल रही है, उसका देश पर किकतना बुरा असर हुआ है। ...र्वोे नहीं जानते किक इस हुकूमत के पंज ेसे, इसकी बला से, कैसे छूटा जाए। किफर, उन् हें इस बात का भी तो खयाल नहीं है किक किर्वोदेक्तिशयों की जो हुकूमत यहाँ कायम है, उसका एक कारण उनकी अपनी कमजोरिरयाँ और खामिमयाँ भी है; और दूसरे, र्वोे यह भी नहीं जानते किक इस परदेशी हुकूमत की बला को दूर करने की ता कत खुद उनमें है। इसक्तिलए बड़ी उमर के अपने देशर्वोाक्तिसयों की क्तिशक्षा का सबसे पहला अथ2 मैं यह करता हूँ किक उन् हें जबानी तौर पर यानी सीधी बातचीत के जरिरयें सच् ची राजनीकितक तालीम दी जाए। ... इस जबानी तालीम के साथ क्तिलखने-पढ़ने की तालीम भी चलेगी। इसके क्तिलए खास क्तिलयाकत की जरूरत है। इस क्तिसलक्तिसले में पढ़ाई के र्वोक् त को भरसक कम करने के खयाल से कई तरीके आजमाए ँजा रहे है।

जन-साधारण में फैली हुई र्वो् यापक किनरक्षरता भारत का कलंक है। र्वोह मिमटना ही चाकिहए। बेशक, साक्षरता की मुकिहम का आरंभ और अंत र्वोण2माला के ज्ञान के साथ ही नहीं हो जाना चाकिहए। र्वोह उपयोग ज्ञान के प्रचार के साथ-साथ चलनी चाकिहए। जिजखने-पढ़ने और अंकगणिणत का शु�् क ज्ञान देहाकितयों के जीर्वोन का स् थायी अंग न आज है और न कभी हो स कता है। उन् हें ऐसा ज्ञान देना चाकिहए जिजसका उन् हें रोज उपयोग करना पडे़। र्वोह उन पर थोपा नहीं जाना चाकिहए। उसकी उन् हें भूख होनी चाकिहए। आजकल उन् हें जो कुछ मिमलता है र्वोह ऐसा है, जिजसकी न तो उन् हें आर्वोश् यकता है और न कदर है। ग्रामर्वोाक्तिसयों को गाँर्वो का गणिणत, गाँर्वो का भूगोल, गाँर्वो का इकितहास और साकिहत् य का र्वोह ज्ञान क्तिसखाइये जिजसे उन् हें रोज काम में लेना पडे़, अथा2त क्तिचटFी-पत्री क्तिलखना और पढ़ना बताइए।ँ र्वोे इस ज्ञान को जुटाकर रखेंगे और आगे की मंजिजलों की तरफ बढ़ें गे। जिजन पुस् तकों से उन् हें दैकिनक उपयोग की कोई सामग्री नहीं मिमलती, र्वोे उनके क्तिलए किकसी काम की नहीं।

2ार्मिमंक भिशक्षा

...इसमें कोई शक नहीं किक सरकारी स् कूल-कॉलेजों से किनकले हुए अमिधकतर लड़के धार्मिम�क क्तिशक्षण से कोरे ही होते है। ...मैं जानता हूँ किक इस किर्वोचार र्वोाले लोग भी हैं किक सार्वो2जकिनक स् कूलों में क्तिसफ2 अपने-अपने किर्वो�यों की ही क्तिशक्षा देना चाकिहए। मैं यह भी जानता हूँ किक हिह�दुस् तान जैसे देश में, जहाँ पर संसार के अमिधकतर धमk के अनुयायी मिमलेते हैं और जहाँ एक ही धम2 के इतने भेद और उपभेद हैं, धार्मिम�क क्तिशक्षण का प्रबंध करना कठिFन होगा। लेकिकन अगर हिह�दुस् तान को आध् यास्त्रित्मकता का ठिदर्वोाला नहीं किनकालना है, तो उसे धर्मिम�क क्तिशक्षा को भी किर्वो�यों के क्तिशक्षण के बराबरन ही महत् त् र्वो देना पडे़गा। यह सच है किक धार्मिम�क पुस् तकों के ज्ञान की तुलना धम2 से नहीं की जा सकती। मगर जब हमें धम2 नहीं मिमल सकता तो हमें अपने लड़कों और लड़किकयों को उससे दूसरे नम् बर की र्वोस् तु देने में ही संतो� मानना पडे़गा। और किफर स् कूलों में ऐसी क्तिशक्षा दी जाए या नहीं, मगर सयाने लड़कों को तो जैसे और किर्वो�यों में र्वोेसे धार्मिम�क किर्वो�य में भी स् र्वोालंबन की आदत डालनी ही पडे़गी। जैसे आज उनकी र्वोाद-किर्वोर्वोाद या चरखा-समिमकितयाँ है, र्वोैसे ही र्वोे धार्मिम�क र्वोग2 भी खोलें।

मैं नहीं मानता किक सरकार मजहबी तालीम से संबंध रख सकती है या उस तालीम को किनभा सकती है। मेरा किर्वोश् र्वोास है किक मजहबी तालीम पूरी तरह से क्तिसफ2 मजहबी अंजुमनों का ही किर्वो�य होनी चाकिहए। धम2 और नीकित को मिमलाना नहीं चाकिहए। मेरे किर्वोश् र्वोास के मुताकिबक बुकिनयादी नीकित सब धमk में एक ही है। बुकिनयादी नीकित की तालीम

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देना बेशक सरकार का नाम है। धम2 से मेरा मतलब बुकिनयादी नीकित नहीं बल्किwक र्वोह है, जिजसका क्तिसक् का लगाकर अलग-अलग जमातें बलाई जाती हैं। हमने सरकारी मदद पाने र्वोाले मजहब और सरकारी मजहब के बहुत नतीजे सहे हैं। जो समाज या समूह अपने धम2 की किहफाजत के क्तिलए किकसी हद तक या पूरी तौर पर सरकारी मदद पर किनभ2र रहता है, र्वोह धम2 जैसी कोई चीज रखने का अमिधकारी नहीं है, या कह कहना ज ्यादा Fीक होगा किक उसका कोई धम2 नहीं होता।

धार्मिम�क क्तिशक्षा के पाठ्यक्रम में अपने क्तिसर्वोा दूसरे धमk के क्तिसद्धांतों का अध् ययन भी शामिमल होना चाकिहए। इसके क्तिलए किर्वोद्यार्थिथ�यों को ऐसी तालीम दी जानी चाकिहए, जिजससे र्वोे संसार के किर्वोणिभन् न महान धमk के क्तिसद्धांतों को आदर और उदारतापूण2 सहनशीलता की भार्वोना रखकर समझने और उनकी कदर करने की आदत डालें। यह काम Fीक ढँग से किकया जाए तो इससे उनकी आध् यास्त्रित्मक किन�् Fा दृढ़ होगी और स् र्वोयं अपने धम2 की अमिधक अच् छी समझ प्राप् त करने में मदद मिमलेगी। परंतु एक किनयम ऐसा है जिजसे सब महान धमk का अध् ययन करते समय हमेशा ध् यान में रखना चाकिहए; और र्वोह यह है किक अलग-अलग धमk का अध् ययन उनके माने हुए भक् तों की रचनाओं के द्वारा ही करना चाकिहए।

पाठ्य-पुस् तकें

इसमें कोई संदेह नहीं है किक आम स् कूलों में जो पुस् तकें खास तौर पर बच् चों के क्तिलए इस् तेमाल की जाती हैं, र्वोे जब हाकिनकारक नहीं होती हैं तो अमिधकांश में किनकम् मी अर्वोश् य होती हैं। इससे इनकार नहीं किकया जा सकता किक उनमें से बहुत-सी होक्तिशयारी के साथ क्तिलखी जाती हैं। जिजन लोगों और जिजन परिरस्थि^कितयों के क्तिलए र्वोे क्तिलखी जाती हैं, उनके क्तिलए र्वोे सबसे अच् छी भी हो सकती हैं। परंतु र्वोे भारतीय लड़कों और लड़किकयों के क्तिलए और भारतीय परिरस्थि^कितयों के क्तिलए नहीं क्तिलखी जाती। जब र्वोे इस तरह क्तिलखी जाती हैं तो र्वोे आम तौर पर अधकचरी नकल होती हैं और उनसे किर्वोद्यार्थिथ�यों की आर्वोश् यकताए ँपूरी नहीं होतीं।

इसक्तिलए मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ किक आर्वोश् यकता किर्वोद्यार्थिथ�यों की अपेक्षा क्तिशक्षकों के क्तिलए अमिधक है। और प्रत् येक क्तिशक्षक को, यठिद अपने किर्वोद्यार्थिथ�यों के प्रकित र्वोह पूरा न् याय करना चाहता है, उपलब् ध सामग्री से अपना दैकिनक पाF खुद तैयार करना होगा। इसे भी उसे अपनी कक्षा की किर्वोशे� आर्वोश् यकताओं के अनुकूल अनाना होगा। सच् ची क्तिशक्षा का काम क्तिशक्षा पाने र्वोाले लड़कों और लड़किकयों के उत् तम गुणों को बाहर लाना है। यह काम किर्वोद्यार्थिथ�यों के ठिदमाग में अनाप-शनाप और अनचा ही जानकारी Fंूस देने से कभी नहीं हो सकता। इस तरह की जानकारी एक जड़ बोझ बन जाती है, जो उनकी सारी मौक्तिलकता को कुचल डालती है और उन् हें किनरी मशीनें बना देती है।

अ2् यापक

अध् यापक कैसे हों इस संबंध में मैं इस पुराने किर्वोचार को मानने र्वोाला हूँ किक उन् हें अध् यापन, अध् यापन-काय2 के क्तिलए अपने अकिनर्वोाय2 पे्रम के कारण ही करना चाकिहए और इस काय2 से अपने जीर्वोन-किनर्वोा2ह के क्तिलए जिजतना आर्वोश् यक हो उतना ही लेकर संतु�् ट रहना चाकिहए। रोमन कैथक्तिलकों में यह किर्वोचार अभी तक बचा रहा है और र्वोे दुकिनया की कुछ सर्वो�त् तम सं^ाए ँचला रहे हैं। प्राचीन भारतीय ऋकि�यों ने तो और ऊँचा आदश2 स् र्वोीकार किकया था। र्वोे किर्वोद्यार्थिथ�यों को अपने परिरर्वोार में ही शामिमल कर लेते थे। लेकिकन जो क्तिशक्षा र्वोे उन ठिदनों ठिदया करते थ,े र्वोह सामान् य जनता के क्तिलए नहीं थी। उन् होंने तो मनु�् य-जाकित के सच् चे क्तिशक्षकों की एक पूरी जाकित का ही किनमा2ण कर ठिदया। सामान् य जनता को उसकी तालीम घरों में और अपने राम् परागत उद्योग-धंधों में मिमलती थी उन ठिदनों के क्तिलए र्वोह काफी अच् छी र्वो् यर्वोस् था थी। अब परिरस्थि^कितयाँ बदल गई हैं। साकिहप्तित्यक तालामी के क्तिलए आम माँग है और यह माँग जोरदार भी है। किर्वोक्तिश�् ट र्वोगk की क्तिशक्षा पर जैसा ध् यान ठिदया जाता है, सामान् य लोग भी अब अपनी क्तिशक्षा पर र्वोैसा ही ध् यान चाहते हैं। यह बात कहाँ तक संभर्वो है और मनु�् य-जाकित के क्तिलए कहाँ तक कल् याणकारी है, इस प्रशन की चचा2 यहाँ नहीं हो सकती। लोगों में ज्ञान की इच् छा पैदा हो और र्वोे उसकी माँग करें, इसमें कोई बुराई नहीं है। इगर इस इच् छा को उक्तिचत ठिदशा में मोड़ा गया तो उससे लाभ ही होगा। इसक्तिलए अब हमें जो अकिनर्वोा2य है उसे टालने के उपाय ढँूढ़ना छोड़कर इस स्थि^कित का अच् छे-से-अच् छा उपयोग करना चाकिहए। इस काम के क्तिलए हजारों क्तिशक्षकों को आर्वोश् यकता होगी और र्वोे महज कहने से नहीं मिमल जाएगँे। और न र्वोे अपना जीर्वोन-किनर्वोा2ह भीख माँग कर करेंगे।

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हमें उन् हें एक किनणिZत र्वोेतन देन की पूरी र्वो् यर्वोस् था करनी होगी। हमें क्तिशक्षकों की मानो एक पूरी से ना ही लगेगी। उनके काय2 के महत् त् र्वो और मूल् य के अनुसार उन् हें पैसा ठिदया जाए यह तो अशक् य है। रा�् ट्र अपनी आर्थिथ�क क्षमता के अनुसारही उन् हें यथाशक्ति) देगा। अलबत् ता, यह आशा रखी जा सकती है किक ज ्यों-त् यों लोग दूसरे धंधों के मुकाबलें में इस काय2 के महत् त् र्वो को समझेंगें, त् यों-त् यों र्वोे उन् हें ज ्यादा पैसा देने को भी तैयार होंगे। लेकिकन ऐसे अनेक पुरु�ों और स्त्रिस्त्रयों को आगे आना चाकिहए, जो आर्थिथ�क लाभ की परर्वोाह न करके शुद्ध देश-सेर्वोा के भास से अध् यापन का धंधा अपनाए।ँ यठिद ऐसा हो तो रा�् ट्र क्तिशक्षक के धंधे को छोटा नहीं समझेगा, बल्किwक इनत् यागी स्त्रिस्त्रयों और पुरु�ों को अपना पे्रम और आदर प्रदान करेगा। और इस तरह किर्वोचार करने पर हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं किक जिजस तरह स् र्वोराज् य हमें मुख् यत: उनके ही प्रयत् नों से संभर्वो होगी। उन् हें सफलता तक पहुँचाने के क्तिलए माग2 की कठिFनाइयों से र्वोीरतापूर्वो2क जूझना चाकिहए और धीरजर खकर आगे बढ़ते जाना चाकिहए।

स् वावलंबी भिशक्षा

यह सुझार्वो अक्सर ठिदया गया है... किक यठिद क्तिशक्षा अकिनर्वोाय2 करनी हो या क्तिशक्षा- प्राप्तिप्त की इच्छा रखने र्वोाले सबलड़के- लड़किकयों के क्तिलए उसे सलभ बनाना हो, तो हमारे स्कूल और कॉलेज पूरे नहीं तो करीब- करीब स्र्वोार्वोलंबी हो

जाने चाकिहए। दान, राजकीय सहायता अथर्वोा किर्वोद्यार्थिथ�यों से ली जाने र्वोाली फीस के द्वार भी उन्हें स्र्वोार्वोलंबी बनाया जा सकता है, लेकिकन यहाँ रै्वोसा स्र्वोार्वोलंबन इष्ट नहीं है। किर्वोद्यार्थिथ�यों को खुद कुछ ऐसा काम करते रहना चाकिहए,

जिजससे आर्थिथ�क प्राप्तिप्त हो और इस तरह स्कूल तथा कॉलेज स्र्वोार्वोलंबी बनें। औद्योकिगक तालीम को अकिनर्वोाय2 बनाकर ही ऐसा किकया जा सकता है। किर्वोद्यार्थिथ�यों को साकिहप्तित्यक तालीम के साथ- साथ औद्योकिगक तालीम भी मिमलना चाकिहयें, इस आर्वोश्यकता के क्तिसर्वोा और आजकल इस बात का महत्त्र्वो अमिधकामिधक स्र्वोीकार किकया जा रहा है- हमारे देश में

तो औद्योकिगक तालीम की आर्वोश्यकता क्तिशक्षा को स्र्वोार्वोलंबी बनाने के क्तिलए भी है। लेकिकन यह तभी हो सकता है जब हमारे किर्वोद्याथ� श्रम का गौरर्वो अनुभर्वो करना सीखें और हाथ- उद्योग के अज्ञान को समाज में अप्रकितष्Fा का क्तिचह्र

समझने का रिरर्वोाज पडे़। अमेरिरका में, जो किक दुकिनया का सबसे धनी देश है और इसक्तिलए जहाँ क्तिशक्षा को स्र्वोार्वोलंबी बनाने की आर्वोश्यकता कम-से- कम है, किर्वोद्यार्थिथ� प्रया: अपनी पढ़ाई का पूरा अथर्वोा आंक्तिशक खच2 खुद कोई उद्योग करके क्तिलकालते हैं। ... अगर अमेरिरका अपने स्कूल और कॉलेज इस तरह चलाता है किक किर्वोद्यार्थिथ� अपनी पढ़ाई का

खच2 खुद किनकाल क्तिलया करें, ताह हमारे स्कूलों और कॉलेजों में तो इस बात की आर्वोश्यकता और अमिधक मानी जानी चाकिहए। हम गरीब किर्वोद्यार्थिथ�यों को फीस की माफी आठिद की सुकिर्वोधा दें, उससे क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा

किक हम उनके क्तिलए ऐसा कोई काम दें, जिजसे करके र्वोे अपना खच2 खुद किनकाल लें? भारतीय युर्वोकों के मन में यह र्वो हम भरकर किक अपनी जीकिर्वोका कमाने अथर्वोा पढ़ाई का खच2 किनकालने के क्तिलए हाथ- पाँर्वो की मेहनत काना भद्रोक्तिचत नहीं है, हम उनका अपार अकिहत करते हैं। यह अकिहत नैकितक भी; तथा भौकितक की अपेक्षा नैकितक ज्यादा है। फीस आठिद की माफी धम2बुजिद्ध रखने र्वोाले किर्वोद्याथ� के मन पर आजीर्वोन बोझ की तरह पड़ी रहती है, और ऐसा होना भी

चाकिहए। अपने उत्तर- जीर्वोन में कोई इस बात का स्मरण कराना पसंद नहीं करता किक उसे अपनी क्तिशक्षा के क्तिलए दान का आधार लेना पड़ा था। लेकिकन यठिद उसने अपनी क्तिशक्षा के क्तिलए परिरश्रम पूर्वो2क उद्योग किकया हो और इस तरह

अपनी पढ़ाईका खच2 किनकालने के साथ- साथ अपनी बुजिद्ध, शरीर और आत्मा का किर्वोकास भी क्तिसद्ध किकया हो, तो ऐसा कौर है जो अपने उन ठिदनों को गर्वो2 से याद न करेगा ?ᣛ

49 भिशक्षा का आश्रमी आदश* पीछे     आगे

क्तिशक्षा के बारे में मेरी अपनी कुछ मान् यताए ँहैं। इन् हें मेरे सहकारिरयों ने पूरा-पूरा स् र्वोीकार तो नहीं किकया, है किफर भी यहाँ देता हूँ:

1. लड़को और लड़किकयों को एक साथ क्तिशक्षा देनी चाकिहए। यह बाल् यार्वोस् था आF र्वो�2 तक मानी जाए।

2. उनका समय मुख् यत: शारीरिरक काम में बीतना चाकिहए और यह काम भी क्तिशक्षक की देखरेख में होना चाकिहए। शारीरिरक काम को क्तिशक्षा का अंग माना जाए।

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3. हर लड़के और लड़की की रुक्तिच को पहचानकर उसे काम सौंपना चाकिहए।

4. हर एक काम लेते समय उसके कारण की जानकारी करानी चाकिहए।

5. लड़का या लड़की समझने लगे, तभी से उसे साधरण ज्ञान देना चाकिहए। उसका यह ज्ञान अक्षर-ज्ञार से पहले शुरू होना चाकिहए।

6. अक्षर-ज्ञार को संुदर लेखन-कला का अंग समझाकर पहले बच् चे को भूमिमकित की आकृकितयाँ खींचना क्तिसखाया जाए; और उसकी अँगुक्तिलयों पर उसका का बू हो जाए, तब उसे र्वोण2माला क्तिलखना क्तिसखाया जाए। यानी उसे शुरू से ही शुद्ध अक्षर क्तिलखाया जाए।

7. क्तिलखने से पहले बच् चा पढ़ना सीखें। यानी अक्षरों को क्तिचत्र समझकर उन् हें पहचानना सीखे और किफर क्तिचत्र खींचे।

8. इस तरह से जो बच् चा क्तिशक्षक के मुँह से ज्ञान जाएगा, र्वोह आF र्वो�2 के भीतर अपनी शक्ति) के अनुसार काफी ज्ञान पा लेगा।

9. बच् चों को जबरन कुछ न क्तिसखाया जाए।

10. र्वोे जो सींखें उसमें उन् हें रस आना ही चाकिहए।

11. बच् चों को क्तिशक्षा खेल जैसी लगनी चाकिहए। खेल-कूद भी क्तिशक्षा का अंग है।

12. बच् चों की सारी क्तिशक्षा मातृभा�ा द्वारा होनी चाकिहए।

13. बच् चों को हिह�दी-उदू2 का ज्ञान रा�् ट्रभा�ा के तौर पर ठिदया जाए। उसका आरंभ अक्षर-ज्ञान से पहले होनी चाकिहए।

14. धार्मिम�क क्तिशक्षा जरूरी मानी जाए। र्वोह पुस् तक द्वारा नहीं बल्किwक क्तिशक्षक के आचरण और उसके मुँह से मिमलनी चाकिहए।

15. नौ से सोलह र्वो�2 का दूसरा काल है।

16. दूसरे काल में भी अंत तक लड़के-लड़किकयों की क्तिशक्षा साथ-साथ हो तो अच् छा है।

17. दूसरे काल में हिह�दू बालक को संस् कृत का और मुसलमान बालक को अरबी का ज्ञान मिमलना चाकिहए।

18. इस काल में भी शारीरिरक काम तो चालू ही रहेगा। पढ़ाई-क्तिलखाई का समय जरूरत के अनुसार बढ़ाया जाना चाकिहए।

19. इस काल में माता-किपता का धंधा यठिद किनणिZत रूप से मालूम हो, तो बच् चे को उसी धंधे का ज्ञान मिमलना चाकिहए; और उसे इस तरह तैयार किकया जाए किक र्वोह अपने बाप-दादा के धंधे से जीकिर्वोत चलाना पसंद करें। यह किनयम लड़की पर लागू नहीं होता।

20. सोलह र्वो�2 तक लड़के-लड़किकयों को दुकिनया के इकितहास और भूगोल का तथा र्वोनस् पकित-शास् त्र, खगोल-किर्वोद्या, गणिणत, भूमिमकित और बीजगणिणत का साधारण ज्ञान हो जाना चाकिहए।

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21. सोलह र्वो�2 के लड़के-लड़की को सीना-किपरोना और रसोई बनाना आ जाना चाकिहए।

22. सोलह से पचीस र्वो�2 के समय को मैं तीसरा काल मानता हूँ। इस काल में प्रत् येक युर्वोक और युर्वोती को उसकी इच् छा और स्थि^कित के अनुसार क्तिशक्षा मिमले।

23. नौ र्वो�2 के बाद आरंभ होने र्वोाली क्तिशक्षा स् र्वोार्वोलम् ब् ीी होनी चाकिहए। यानी किर्वोद्याथ� पढ़ते हुए ऐसे उद्योगों में लगे रहें, जिजनकी आमदनी से शाला का खच2 चले।

24. शाला में आमदनी तो पहले से ही होने लकगनी चाकिहए। हिक�तु शुरू के र्वो�k में खच2 पूरा होने लायक आमदनी नहीं होगी।

25. क्तिशक्षकों को बड़ी-बड़ी तनखाहें नहीं मिमल सकतीं, हिक�तु र्वोे जीकिर्वोका चलाने लायक तो होनी ही चाकिहए। क्तिशक्षकों में सेर्वोा-भार्वोना होनी चाकिहए। प्राथमिमक क्तिशक्षा के क्तिलए कैसे भी क्तिशक्षक से काम चलाने का रिरर्वोाज किनन् दनीय है। सभी क्तिशक्षक चरिरत्रर्वोान होने चाकिहए।

26. क्तिशक्षा के क्तिलए बड़ी और खच�ली इमारतों की जरूरत नहीं है।

27. अँग्रेजी का अभ् यास भा�ा के रूप में ही हो सकता है और उसे पाठ्यक्रम में जगह मिमलनी चाकिहए। जैसे हिह�दी रा�् ट्रभा�ा है, र्वोैसे ही अँग्रेजी का उपयोग दूसरे रा�् ट्रों के साथ के र्वो् यर्वोहार और र्वो् यापार के क्तिलए है।

स्त्रिस्त्रयों की किर्वोशे� क्तिशक्षा कैसी हो और कहाँ से शुरू हो, इसके किर्वो�य में मैं खुद किनश् चय नहीं कर सका हूँ। लेकिकन यह मेरा दृढ़ मत है किक जिजतनी सुकिर्वोधा पुरु� को मिमलती है उतनी ही स् त्री को भी मिमलनी चाकिहए और जहाँ किर्वोशे� सुकिर्वोधा की जरूरत हो र्वोहाँ किर्वोशे� सुकिर्वोधा भी मिमलनी चाकिहए।

प्रौढ़ आयु र्वोाले किनरक्षर स् त्री-पुरु�ों के क्तिलए राकित्र र्वोगk की जरूरत है ही। हिक�तु मैं ऐसा नहीं मानता किक उन् हें अक्षर-ज्ञान होना ही चाकिहए। उनके क्तिलए भा�णों आठिद के जरिरए साधरण ज्ञान मिमलने की सुकिर्वोधा होनी चाकिहए। और जिजन् हें पढ़ना-क्तिलखना सीखने की इच् छा हो, उनके क्तिलए उसकी पूरी सुकिर्वोधा होनी चाकिहए।

आश्रम में हमने आज तक जिजतने प्रयोग किकए हैं, उनसे हमें इस एक बात का किनश् चय हो गया है किक क्तिशक्षा में उद्योग को और खासकर कताई को बड़ा स् थान मिमलना चाकिहए। क्तिशक्षा ज ्यादातर स् र्वोार्वोलंबी देहाती जीर्वोन को ताकत पहुँचाने र्वोाली और उस जीर्वोन के साथ संबंध रखने र्वोाली होनी चाकिहए

सच् ची क्तिशक्षा तो स् कूल छोड़ने के बाद शुरू होती है। जिजसने उसका महत् त् र्वो समझा है र्वोह सदा ही किर्वोद्याथ� है। अपना कत्2 तर्वो् य-पालन करते हुए उसे अपना ज्ञान रोज बढ़ाना चाकिहए। जो सब काम समझकर करता है उसका ज्ञान रोज बढ़ना ही चाकिहए।

क्तिशक्षा की प्रगकित में यह चीज रुकार्वोट डालती है। क्तिशक्षक के किबना क्तिशक्षा ली ही नहीं जा सकती, यह र्वोहम समाज की बुजिद्ध को रोक रहा है। मनु�् य का सच् चा क्तिशक्षक र्वोह खुद ही है। आजकल तो अपने-आप क्तिशक्षा प्राप् त करने के साधन खूब बढ़ गए है। बहुत-सी बातों का ज्ञान लगन से हर एक को मिमल सकता है और जहाँ क्तिशक्षक की ही जरूरत होती है र्वोहाँ र्वोह खुद क्तिशक्षक ढँूढ़ लेता है। अनुभर्वो बडे़-से-बड़ा स् कूल है। कई धंधे ऐसे है जो स् कूल में नहीं सीखे जा सकते, बल्किwक उन धंधों की दुकानों पर या कारखानों में ही सीखे जा सकते हैं। उनका स् कूल में पाया हुआ ज्ञान अक् सर तो ते का-सा होता है। इसक्तिलए बड़ी उमर र्वोालों के क्तिलए स् कूल के बजाय इच् छा की, लगन की और आत् म -किर्वोश् र्वोास की जरूरत है।

बच् चों की क्तिशक्षा माँ-बाप का धम2 है। ऐसा सोचें तो हमें बेशुमार पाFशालाओं की अपेक्षा सच् ची क्तिशक्षा का र्वोायुमंडल पैदा करने की ज ्यादा जरूरत है। र्वोह पैदा हुआ। किफर तो जहाँ पाFशाला चाकिहए र्वोहाँ र्वोह जरूर खड़ी हो जाएगी।

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आश्रम की क्तिशक्षा इस दृमिN से होती है और इस दृमिN से सोचने पर हमें सफलता भी एक हद तक अच्छी मिमली है। आश्रम का हर किर्वोभाग एक स्कूल है।

50 राष्टभाषा और धिलविप पीछे     आगे

अगर हमें एक रा�् ट्र होने का अपना दार्वोा क्तिसद्ध करना है, तो हमारी अनेक बातें एक-सी होनी चाकिहए। णिभन् न-णिभन् न धम2 और संप्रदायों को एक सूत्र में बाँधने र्वोाली हमारी एक सामान् य संस् कृकित है। हमारी तु्रठिटयाँ और बाधाए ँभी एक-सी हैं। मैं यह बताने की कोक्तिशश कर रहा हूँ किक हमारी पोशक के क्तिलए एक ही तरह का कपड़ा न केर्वोल र्वोांछनीय है, बल्किwक आर्वोश् यक भी है। हमें एक सामान् य भा�ा की भी जरूरत है-देशी भा�ाओं की जगह पर नहीं परंतु उनके क्तिसर्वोा। इस बात में साधारण सहमकित है किक यह माध् यम हिह�दुस् तानी ही होना चाकिहए, जो हिह�दी और उदू2 के मल से बने और जिजसमें न तो संस् कृत की और न फारसी या अरबी की ही भरमार हो। हमारे रास् ते की सबसे बड़ी रुकार्वोट हमारी देशी भा�ाओं की कई क्तिलकिपयाँ है। अगर एक सामान् य क्तिलकिप अपनाना संभर्वो हो, तो एक सामान् य भा�ा का हमारा जो स् र्वोप् न है-अभी तो र्वोह स् र्वोप् न ही हे-उसे पूरा करने के माग2 की एक बड़ी बाधा दूर हो जाएगी।

णिभन् न-णिभन् न क्तिलकिपयों का होना कई तरह से बाधक है। र्वोह ज्ञान की प्राप्तिप्त में एक कारगर रुकार्वोट है। आय2 भा�ाओं में इतनी समानता है किक अगर णिभन् न-णिभन्न क्तिलकिपयाँ सीखने में बहुत-सा समय बरबाद न करना पडे़, तो हम सब किकसी बड़ी कठिFनाई के किबना कई भा�ाए ँजान लें। उदाहरण के क्तिलए, जो लोग संस् कृत का थोड़ा भी ज्ञान रखते हैं, उनमें से अमिधकांश को रर्वोीद्रनाथ टागोर की अकिद्वतीय कृकितयों को समझने में कोई कठिFनाई न हो, अगर र्वोे सब देर्वोनागरी क्तिलकिप में छपें। परंतु बंगाल क्तिलकिप मानों गैर-बंगाक्तिलयों के क्तिलए 'दूर रहो' की सूचना है। इसी तरह यठिद बंगाली लोग देर्वोनागरी क्तिलकिप जानते हों, तो र्वोे तुलसीदास की रचनाओं की अद्भतु संुदरता और आध् यास्त्रित्मकता का तथा अन् य अनेक हिह�दुस् तानी लेखकों का आनान् द अनायास लूट सकते हैं। ... समस् त भारत के क्तिलए एक सामान् य क्तिलकिप एक दूर का आदश2 है। परंतु जो भारतीय संस् कृत से उत् पन् न भा�ाए ँऔर दणिक्षण की भा�ाए ँबोलते हैं, उन सबके क्तिलए एक सामान् य क्तिलकिप एक र्वो् यार्वोहारिरक आदश2 है, अगर हम क्तिसफ2 अपनी-अपनी प्रांतीयता को छोड़ दें। उदाहरण के क्तिलए, किकसी गुजराती का गुजराती क्तिलकिप से क्तिचपटे रहना अच् छी बात नहीं है। प्रांत-पे्रम र्वोहाँ अच् छा है जहाँ र्वोह अखिखल भारतीय देश-पे्रम की बड़ी धारा को पु�् ट करता है। इसी प्रकार अखिखल भारतीय पे्रम भी उसी हद तक अच् छा है, जहाँ तक र्वोह किर्वोश् र्वोपे्रम के और भी बडे़ लक्ष् य की पूर्षित� करता है। परंतु जो प्रांत पे्रम यह कहता है किक 'भारत कुछ नहीं, गुजरात ही सर्वो2स् र्वो है', र्वोह बुरी चीज है। ... मैं मानता हूँ किक इस बात का कोई प्रत् यक्ष प्रमाण देने की जरूरत नहीं किक देर्वोनागरी ही सर्वो2-सामान् य क्तिलकिप होनी चाकिहए, क् योंकिक उसके पक्ष में किनणा2यक बात यह है किक उसे भारत के अमिधकांश भाग के लोग जानते हैं। ...जो र्वोृणिu इतनी र्वोज2नशील और संकीण2 हो किक हर बोली कोक्तिचरस् थायी बनाना और किर्वोकक्तिसत करना चाहती हो, र्वोह रा�् ट्र-किर्वोरोधी और किर्वोश् र्वो-किर्वोरोधी है। मेरी किर्वोनम्र सम् मकित में तमाम अकिर्वोकक्तिसत और अक्तिलखिखत बोक्तिलयों का बक्तिलदान करके उन् हें हिह�दुस् तानी की बड़ी धारा में मिमला देना चाकिहए। र्वोह आत् मोत् क�2 के क्तिलए की गई कुरबानी होगी, आत् म हत् या नहीं। अगर हमें सुसंस् कृत भारत के क्तिलए एक सामान् य भा�ा बनानी हो, तो हमें भा�ाओं और क्तिलकिपयों की संख् या बढ़ाने र्वोाली या देश की शक्ति)यों को क्तिछन् न-णिभन् न करने र्वोाली किकसी भी किक्रया का बढ़ना रोकना होगा। हमें एक सामान् य भा�ा की र्वोृजिद्ध करनी होगी। ... अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रांतीय क्तिलकिप के साथ-साथ मैं सब प्रांतों में देर्वोनागरी क्तिलकिप और उदू2 क्तिलकिप का सीखना अकिनर्वोाय2 कर दँू और किर्वोणिभन् न देशी भा�ाओं की मुख् य-मुख् य पुस् तकों को उनके शब् दश: हिह�दुस् तानी अनुर्वोाद के साथ देर्वोनगरी में छपर्वोा दँू।

हमें रा�् ट्रभा�ा का भी किर्वोचार करना चाकिहए। यठिद अँग्रेजी रा�् ट्रभा�ा बनने र्वोाली हो, तो उसे हमारे स् कूलों में अकिनर्वोाय2 मिमलना चाकिहए। तो अब हम पहले यह सोचें किक क् या अँग्रेजी हमारी रा�् ट्रभा�ा हो सकती है?

कुछ स् र्वोदेशाणिभमानी किर्वोद्वान ऐसा कहते हैं किक अँग्रेजी रा�् ट्रभा�ा हो सकती है या नहीं, यह प्रश् न ही अज्ञान का द्योतक है। उनकी राय में अँग्रेजी तो रा�् ट्रभा�ा बन ही चुकी है।

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हमारे पढे़-क्तिलखें लोगों की दशा को देखते हुए ऐसा लगता है किक अँग्रेजी के किबना हमारा कारोबार बंद हो जाएगा। ऐसा होने पर भी जरा गहरे जाकर देखेंगे, ता पला चलेगा किक अँग्रेजी रा�् ट्रभा�ा न तो हो सकती है, और न होनी चाकिहए।

तब किफर हम यह देखें किक रा�् ट्रभा�ा के क् या लक्षण होने चाकिहए :

1. र्वोह भा�ा सरकारी नौकरों के क्तिलए आसान होनी चाकिहए।

2. उस भा�ा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिम�क, आर्थिथ�क और राजनीकितक कामकाज हो सकना चाकिहए।

3. उस भा�ा को भारत के ज ्यादातर लोग बोलते हों।

4. र्वोह भा�ा रा�् ट्र के क्तिलए आसान हो।

5. उस भा�ा का किर्वोचार करते समय क्षणिणक या कुछ समय तक रहने र्वोाली स्थि^कित पर जोर न ठिदया जाए।

अँग्रेजी भा�ा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है।

पहला लक्षण मुझे अंत में रखना चाकिहए था। परंतु मैंने उसे पहले इसक्तिलए रखा है किक र्वोह लक्षण अँग्रेजी भा�ा में ठिदखाई पड़ सकता है। ज ्यादा सोचने पर हमें देखेंगे किक आज भी राज् य के नौकरों के क्तिलए र्वोह भा�ा आसान नहीं है। यहाँ के शासन का ढाँचा इस तरह सोचा गया है किक उसमें अँग्रेज कम होंगे, यहाँ तक किक अंत में र्वोाइसरॉय और दूसरे अँगुक्तिलयों पर किगनने लायक अँग्रेज ही उसमें रहेंगे। अमिधकतर कम2चारी आज भी भारतीय हैं और र्वोे ठिदन-ठिदन बढ़ते ही जाएगँे। यह तो सभी मानेंगे किक इस र्वोग2 के क्तिलए भारत की किकसी भी भा�ा से अँग्रेजी ज ्यादा कठिFन है।

दूसरा लक्षण किर्वोचारते समय हमें देखते हैं किक जब तक आम लोग अँग्रेजी बोलने र्वोाले न हो जाए, तब तक हमार धार्मिम�क र्वो् यर्वोहार अँग्रेजी में नहीं हो सकता। इस हद तक अँग्रेजी भा�ा का समाज में फैल जाना असंभर्वो मालुम होता है।

तीसरी लक्षण अँग्रेजी में नही हो सकता, क् योंकिक र्वोह भारत के अमिधकतर लोगों की भा�ा नहीं है।

चौथा लक्षण भी अँग्रेजी में नहीं है, क् योंकिक सारे रा�् ट्र के क्तिलए र्वोह इतनी आसान नहीं है।

पाँच र्वोें लक्षण पर किर्वोचार करते समय हम देखते हैं किक अँग्रेजी भा�ा की आज की सत् ता क्षणिणक है। सदा बनी रहने र्वोाली स्थि^कित तो यह है किक भारत में जनता के रा�् ट्रीय काम में अँग्रेजी भा�ा की जरूरत थोड़ी ही रहेगी। अँग्रेजी साम्राज् य के कामकाज में उसकी जरूरत रहेंगी। यह दूसरी बात है किक र्वोह साम्राज् य के राजनीकितक कामकाज (किडप् लोमेसी) की भा�ा होगी। उस काम के क्तिलए अँग्रेजी का जरूरत रहेगी। हमें अँग्रेजी भा�ा से कुछ भी र्वोैर नहीं है। हमारा आग्रह तो इतना ही है किक उसे हद से बाहर न जाने ठिदया जाए। साम्राज् य की भा�ा तो अँग्रेजी ही होगी और इसक्तिलए हम अपने मालर्वोीयजी, शास् त्रीजी, बेनज� आठिद को यह भा�ा सीखने के क्तिलए मजबूर करेंगे और यह किर्वोश् र्वोास रखें किक र्वोे लोग भारत की कीर्षित� किर्वोदेशों में फैलाएगँे। परंतु रा�् ट्र की भा�ा अँग्रेजी नहीं हो सकती। अँग्रेजी को रा�् ट्रभा�ा बनाना 'एस् पेरेंटो' दाखिखल करने जैसी बात है। यह कल् पना ही हमारी कमजोरी को प्रकट करती है किक अँग्रेजी रा�् ट्रभा�ा हो सकती है। 'एस् पेरेंटो' के क्तिलए प्रयत् न करना हमारी अज्ञानता का और किनब2लता का सूचक होगा।

तो किफर कौन-सी भा�ा इन पाँच लक्षणों र्वोाली है? यह माने किबना काम नहीं चल सकता किक हिह�दी भा�ा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं।

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ये पाँच लक्षण रखने में हिह�दी की होड़ करने र्वोाली और कोई भा�ा नहीं है। हिह�दी के बाद दूसरा दजा2 बंगाल का है। किफर भी बंगाली लोग बंगाल के बाहर हिह�दी का ही उपयोग करते हैं। हिह�दी बोलने र्वोाले जहाँ जाते हैं र्वोहाँ हिह�दी का ही उपयोग करते हैं और इससे किकसी को अचंभा नहीं होता। हिह�दी के धम�पदेशक और उदू2 के मौलर्वोी सारे भारत में अपने भा�ण हिह�दी में ही देते हैं और अपढ़ जनता उन् हें समझ लेती है। जहाँ अपढ़ गुजराती भी उत् तर में जाकर थोड़ी-बहुत हिह�दी का उपयोग कर लेता है, र्वोहाँ उत् तर का 'भैया' बंबई के सेF की नौकरी करते हुए भी गुजराती बोलने से इनकार करता है और सेF 'भैया' के साथ टूटी-फूटी हिह�दी बोल लेता है। मैंने देखा है किक FेF द्राकिर्वोड़ प्रांत में भी हिह�दी की आर्वोाज सुनाई देती है। यह कहना Fीक नहीं किक मद्रास में तो अँग्रेजी से ही काम चलता है। र्वोहाँ भी मैंने अपना सारा काम हिह�दी से चलाया है। सैकड़ों मद्रासी मुसाकिफरों को मैंने दूसरे लोगों के साथ हिह�दी में बोतले सुना है। इसके क्तिसर्वोा, मद्रास के मुसलमान भाई तो अच् छी तरह हिह�दी बोलते हैं और उनकी संख् या सारे प्रांतों में कुछ कम नहीं है।

इस तरह हिह�दी भा�ा पहले से ही रा�् ट्रभा�ा बन चुकी है। हमने र्वो�k पहले उसका रा�् ट्रभा�ा के रूप में उपयोग किकया है। उदू2 भी हिह�दी की इस शक्ति) से ही पैदा हूई है।

मुसलमान बादशाह भारत में फारसी-अरबी को रा�् ट्रभा�ा नहीं बना सके। उन् होंने हिह�दी के र्वो् याकरण को मानकर उदू2 क्तिलकिप काम में ली और फारसी शब् दों का ज ्यादा उपयोग किकया। परंतु आम लोगों के साथ अपना र्वो् यर्वोहार र्वोे किर्वोदेशी भा�ा के द्वारा नहीं चला सके। यह हालत अँग्रेज अमिधकारिरयों से क्तिछपी हुई नहीं है। जिजन् हें लड़ाकू र्वोगk का अनुभर्वो है, र्वोे जानते हैं किक सैकिनकों के क्तिलए चीजों के नाम हिह�दी या उदू2 में रखने पड़ते हैं।

इस तरह हम देखते हैं किक हिह�दी ही रा�् ट्रभा�ा हो सकती हैं। किफर भी मद्रास के पढे़-क्तिलखों के क्तिलए यह सर्वोाल कठिFन है। लेकिकन दणिक्षणी, बंगाली, चिस�धी और गुजराती लोगों के क्तिलए तो र्वोह बड़ा आसान है। कुछ महीनों मे र्वोे हिह�दी पर अच् छा काबू करके रा�् ट्रीय कामकाज उसमें चला सकते हैं। तामिमल भाइयों के बारे में यह उतना आसान हीं। तामिमल आठिद द्राकिर्वोड़ी किहस् सों की अपनी भा�ाए ँहैं और उनकी बनार्वोट और उनका र्वो् याकरण संस् कृत से अलग है। शब् दों की एकता के क्तिसर्वोा और कोई एकता संस् कृत भा�ाओं और द्राकिर्वोड़ भा�ाओं में नहीं पाई जाती।

परंतु यह कठिFनाई क्तिसफ2 आज के पढे़-क्तिलखें लोगों के क्तिलए ही है। उनके स् र्वोदेशाणिभमान पर भरोसा करने और किर्वोशे� प्रयत् न करके हिह�दी सीख लेने की आशा रखने का हमें अमिधकार है। भकिर्वो�् य में यठिद हिह�दी को उसका रा�् ट्रभा�ा का पद मिमले, तो हर मद्रासी स् कूल में हिह�दी पढ़ाई जाएगी और मद्रास तथा दूसरे प्रांतों के बीच किर्वोशे� परिरचय होने की संभार्वोना बढ़ जाएगी। अँग्रेजी भा�ा द्राकिर्वोड़ जनता में नहीं घुस सकी। पर हिह�दी को घुसने में देर नहीं लगेगी। तेलगू जाकित तो आज भी यह प्रयत् न कर रही है।

(20 अक् तूबर, 1917 को भड़ौच में हुई दूसरी गुजरात क्तिशक्षा-परिर�द के अध् यक्ष-पद से ठिदए गए भा�ण से।)

जिजतने साल हम अँगे्रजी सीखने में बरबाद करते हैं, उतने महीने भी अगर हम हिह�दुस्तानी सीखने की तकलीफ नउFाए,ँ तो सचमुच कहना होगा किक जन- साधारण के प्रकित अपने पे्रम की जो डींगें हम हाँका करते हैं र्वोे किनरी डींगें हीहैं।

51 प्रांतीय भाषाए ँ पीछे     आगे

हमने अपनी मातृभा�ाओं के मुकाबले अँग्रेजी से ज ्यादा मुहब् बत रखी, जिजसका नतीजा यह हुआ किक पढे़-क्तिलखे और राजनीकितक दृमिN से जागे हुए ऊँची तबके के लोगों के साथ आम लोगों का रिरश् ता किबलकुल टूट गया और उन दोनों के बीच एक गहरी खाई बन गई। यही र्वोजह है किक हिह�दुस् तान की भा�ाए ँगरीब बन गई हैं, और उन् हें पूरा पो�ण नहीं मिमला। अपनी मातृभा�ा में दुबkध और गहरे ताणिuर्वो किर्वोचारों के प्रकट करने की अपनी र्वो् यथ2 चे�् टा में हम गोते खाते हैं। हमारे पास किर्वोज्ञान के किनश् चय पारिरभाकि�क शब् द नहीं है। इस सबका नतीजा खतरनाक हुआ है।

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हमारी आम जनता आधुकिनक मानस से यानी नए जमाने के किर्वोचारों से किबलकुल अछुती रही है। हिह�दुस् तान की महान भा�ाओं की जो अर्वोगणना हुई है और उसकी र्वोजह से हिह�दुस् तान को जो बेहद नुकसान पहुँचा है, उसका कोई अंदाज या माप आज हम किनकाल नहीं सकते, क् योंकिक हम इस घटना के बहुत नजदीक हैं। मगर इतनी बात तो आसानी से समझी जा सकती है किक अगर आज तक हुए नुकसान का इलाज नहीं किकया गया, यानी जो हाकिन हो चुकी है उसकी भरपाई करने की कोक्तिशश हमने न की, तो हमारी आम जनता को मानक्तिसकों मुक्ति) नहीं मिमलेगी। र्वोह रूठिढ़यों औार र्वोहमों से मिघरी रहेगी। नजीता यह होगा किक आम जनता स् र्वोराज् य के किनमा2ण में कोई Fोस मदद नहीं पहुँचा सकेगी। अहिह�सा की बुकिनयाद पर रचे गए स् र्वोराज् य की चचा2 में यह बात शामिमल है किक हमारा हर एक आदमी आजादी की हमारी लड़ाई खुीद स् र्वोतंत्र रूप सं सीधा हाथ बँटायें। लेकिकन अगर हमारी आम जनता लड़ाई के हर पहलू और उसकी हर सीढ़ी से परिरक्तिचत न हो और उसके रहस् य को भलीभाँकित न समझती हो, तो स् र्वोराज् य की रचना र्वोह अपना किहस् सा किकस तरह अदा करेगी ? ᣛ और जब तक सर्वो2-साधारण की अपनी बोली में लड़ाई के हर पहलू र्वो कदम को अच् छी तरह समझाया नहीं जाता, तब तक उनसे यह उम् मीद कैसे की जाए किक र्वोे उसमें हाथ बँटाएगँे?

मेरा मातृभा�ा में किकतनी ही खामिमयाँ क् यों न हों, मैं उससे उसी तरह क्तिचपटा रहूँगा जिजस तरह अपनी माँ की छाती से। र्वोहीं मुझे जीर्वोनदाई दूध से सकती है। में अँग्रेजी को भी उसकी जगह प् यार करता हूँ। लेकिकन अगर अँग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिजसकी र्वोह हकदान रहीं है, तो मैं उससे सख् त नफरत करँूगा। यह बात मानी हुई है किक अँग्रेजी आज सारी दुकिनया की भा�ा बन गई है। इसक्तिलए मैं उसे दूसरी जबान के तौर पर जगह दँूगा-लेकिकन किर्वोश् र्वोकिर्वोद्यालय के पाठ्यक्रम में,स् कूलों में नहीं। कुछ लोगों के सीखने की चीज हो सकती है, लोखों-करोड़ो की नहीं। आज जब हमारे पास प्राइमरी क्तिशक्षा को भी मुल् क में लाजिजमी बनाने के जरिरए नहीं है, तो हम अँग्रेजी क्तिसखाने के जरिरए कहाँ से जुटा सकते हैं? रूस ने किबना अँग्रेजी के किर्वोज्ञान में इतनी उन् नकित की है। आज अपनी मानक्तिसक गुलामी की र्वोजह से ही हम यह मानने लगे हैं किक अँग्रेजी के किबना हमारा काम चल नहीं सकता। मैं इस चीज को नहीं मानता।

अगर सरकारों और उनके दफ्तर सार्वोधानी नहीं लेंगे, तो मुमकिकन है किक अँग्रेजी भा�ा हिह�दुस् तानी की जगह को हड़प लें। इससे हिह�दुसतान के उन करोड़ो लोगों को बेहद नुकसान होगा, जो कभी भी अँग्रेजी समझ नहीं सकें गे। मेरे खयाल में प्रांतीय सरकारों के क्तिलए यह बहुत आसान बात होनी चाकिहए किक र्वोे अपने यहाँ ऐसे कम2चारी रखें, जो सारा काम प्रांतीय भा�ाओं में और अंतर-प्रांतीय भा�ा में कर सकें । मेरी राय में अंतर-प्रांतीय भा�ा क्तिसफ2 नागरी या उदू2 क्तिलकिप में क्तिलखी जाने र्वोाली हिह�दुस् तानी ही हो सकती है।

यह जरूरी फेरफार करने में एक ठिदन भी खोना देश को भारी सांस् कृकितक नुकसान पहुँचना है। सबसे पहली और जरूरी चीज यह है किक हम अपनी उन प्रांतीय भा�ाओं का संशोधन करें, जो हिह�दुस् तान को र्वोरदान की तरह मिमली हुई हैं। यह कहना ठिदमागी आलस के क्तिसर्वोा और कुछ नहीं है किक हमारी अदालतों, हमारे स् कूलों और यहाँ तक किक हमारे दफ्तरों में भी यह भा�ा-संबंधी फेरफार करने के क्तिलए कुछ समय, शायद कुछ बरस चाकिहए। हाँ, जबतक प्रांतोंका भा�ा के आधार पर किफर से बँटर्वोारा नहीं होता,तब तक बंबई और मद्रास जैसे प्रांतों में,जहाँ, बहुत-सी भा�ाए ँबोली जाती हैं,थोड़ी मुल्किश्कल जरूर होगी। प्रांतीय सरकारों ऐसा कोई तरीका खोज सकती हैं, जिजससे उन प्रांतों के लोग र्वोहाँ अपनापन अनुभर्वो कर सकें । जब तक हिह�दुस् तानी संघ इस सार्वोाल को हल न करे लें किक अंतर-प्रांतीय भा�ा नागरी या उदू2 क्तिलकिप में क्तिलखी जाने र्वोाली हिह�दुस् तानी हो, या क्तिसफ2 नागरी क्तिलकिप में क्तिलखी जाने र्वोाली हिह�दी, तब तक प्रांतीय सरकारें Fहरी न रहें। इसकी र्वोजह से उन् हें जरूरी सुधार करने में देर न लगानी चाकिहए। भा�ा के बारे में यह किबलकुल गैर-जरूरी किर्वोर्वोाद खड़ा हो गया है, जिजसकी र्वोजह से हिह�दुस् तान में अँग्रेजी भा�ा घुस सकती है। और अगर ऐसा हुआ तो इस देश के क्तिलए र्वोह ऐ ऐसे कलंक की बात होगी,जिजसे धोना हमेशा के क्तिलए असंभर्वो होगा। अगर सारे साकारी दफ्तरों में प्रांतीय भा�ा इस् तेमाल करने का कदम इसी र्वोक् त उFाया जाए, तो अंतर-प्रांतीय भा�ा का उपयोग तो उसके बाद तुरंत ही होने लगेगा। प्रांतों को कें द्र से संबंध रखना ही पडे़गा। और अगर कें द्रीय सरकार ने शीघ्र ही यह महसूस करने की समझदारी किक किक उन मुटFीभर हिह�दुस्ताकिनयों के क्तिलए हिह�दुस् तान की संस् कृकित को नुकसान नहीं पहुँचाना चाकिहए, जो इतने आलसी हैं किक जिजस भा�ा को किकसी भी पाट� या र्वोग2 का ठिदल दुखाए बगैर सारे हिह�दुस् तान में आसानी से अपनाया जा सकता है उसे भी नहीं सीख सकते, तो ऐसी हालत में प्रांतीय सरकारें कें द्रीय सरकार से अँग्रेजी में अपना र्वो् यर्वोहार रखने का सहास नहीं कर सकें गी। मेरा मतलब यह है किक जिजस

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तरह हमारी आजादी को जबरदस् ती छीनने र्वोाले अँग्रेजों की क्तिसयासी हुकूमत को हमने सफलतापूर्वो2क इस देश से किनकल ठिदया, उसी तरह हमारी संस् कृकित को दबाने र्वोाली अँग्रेजी भा�ा को भी हमें यहाँ से किनकाल बाहर करना चाकिहए। हाँ, र्वो् यापार और राजनीकित की अंतर-रा�् ट्रीय भा�ा के नाते समृद्ध अँग्रेजी का अपना स् र्वोाभाकिर्वोक स् थान हमेशा कायम रहेगा।

संस् कृत का स् र्थान

मेरी राय में धार्मिम�क बातों में संस्कृत का उपयोग करना छोड़ा नहीं जा सकता। अनुर्वोाद किकतना ही शुद्ध क्यों न हो, हिक�तु र्वोह मूल मंत्रों का स्थान नहीं लें सकता। मूल मंत्रों में अपनी एक किर्वोशे�ता है, जो अनुर्वोाद में नहीं आ सकती। इसके क्तिसर्वोा यठिद हम इन मंत्रों को, जिजनका पाF शताखिब्दयों तक संस्कृत में ही होता रहा है, अब अपनी देशी भा�ाओं

में दुहराने लगें, तो इससे उनकी गंभीरता में कमी आएगी। लेकिकन साथ ही मेरा स्पष्ट मत हैं किक मंत्र का पाF और किर्वोमिध का अनुष्Fान करने र्वोाले मंत्र का अथ2 और किर्वोमिध का तात्पय2 अच्छी तरह समझाया जाना चाकिहए। हिह�दू बालक

की क्तिशक्षा सस्कृत साकिहत्य का अध्ययन यथेष्ट मात्रा में न चलता रहा तो हिह�दू धम2 का नाश हो जाएगा। मौजूदाक्तिशक्षा- पद्धकित की कमिमयों के कारण ही संस्कृत सीखना कठिFन मालूम होता है; असल में र्वोह कठिFन नहीं है। लेकिकन

कठिFन हो तो भी धम2 का आाचरण और ज्यादा कठिFन है। इसक्तिलए जो धम2 का आचरण करना चाहता है, उसे अपने माग2 की तमाम सीठिढ़यों को किफर र्वोे किकतनी भी कठिFन क्यों न ठिदखाई दें, आसा नही समझाना चाकिहए।

52 दभिक्षण में हिहंदी* पीछे     आगे

मुझे पक् का किर्वोश् र्वोास है किक किकसी ठिदन द्रकिर्वोड़ भाई-बहन गंभीर भार्वो से हिह�दी का अभ् यास करने लग जाएगँे। आज अँग्रेजी पर प्रभुत् र्वो प्राप् त करने के क्तिलए र्वोे जिजतनी मेहनत करते हैं, उसनका आFर्वोां किहस् सा भी हिह�दी सीखने में करें, तो बाकी हिह�दुस् ता के जो दरर्वोाजो आज उनके क्तिलए बंद हैं र्वोे खुल जाए ँऔर र्वोे इस तरह हमारे साथ एक हो जाए ँजैसे पहले कभी न थे। मैं जानता हूँ किक इस पर कुछ लोग यह कहेंगे किक यह दलील तो दोनों ओर लागू होती है। द्रकिर्वोड़ लोगों की संख् या कम है; इसक्तिलए रा�् ट्र की शक्ति) के मिमतर्वो् यय की दृमिN से यह जरूरी है किक हिह�दुस् तान के बाकी सब लोगों के द्रकिर्वोड़ भारत के साथ बातचीत करने के क्तिलए ताक्तिलम, तेलगू, कन् न और मलयालम क्तिसखाने के बदले द्रकिर्वोड़ भारतर्वोालों को शे� हिह�दुस् तान की आम भा�ा सीख लेनी चाकिहए। यही कारण है किक मद्रास प्रदेश में हिह�दी-प्रचार का काय2 तीव्रता से किकया जा रहा है।

कोई भी द्रकिर्वोड़ यह न सोचे किक हिह�दी सीखना जरा भी मुल्किश्कल है। अगर रोज के मनोरंजन के समय में से किनयमपूर्वो2क थोड़ा समय किनकाला जाए, तो साधारण आदमी एक साल में हिह�दी सीख सकता है। मैं तो यह भी सुझाने की किहम् मत करता हूँ किक अब बड़ी-बड़ी म् युकिनक्तिसपैक्तिलठिटयाँ अपने मदरसों में हिह�दी की पढ़ाई को र्वोैकस्थिwपक बना दें। मैं अपने अनुभर्वो से यह कह सकता हूँ किक द्रकिर्वोड़ बालक अद्भतु सरला से हिह�दी सीख लेते हैं। शायद कुछ ही लोग यह जानते होंगे किक दणिक्षण अफ्रीका में रहने र्वोाले लगभग सभी तालीम-तेलगू-भा�ी लोग हिह�दी को समझते हैं, और उसमें बातचीकर सकते हैं। इसक्तिलए मैं यह आशा करता हूँ किक उदार मारर्वोाकिड़यों न मुफ्त हिह�दी सीखने की जो सहूक्तिलयत पैदा कर दी है, मद्रास के नौजर्वोान उसकी कदर करेंगे-यानी र्वोे इस सहू क्तिलयत से लाभ उFाएगँे।

हिह�दी का ज्ञान

दणिक्षण में हुए हिह�दी-प्रचार के ये आंकडे़ दणिक्षण भारत हिह�दी प्रचार सभा, मद्रास की रिरपोट2 से क्तिलए गए हैं और 1918-1955 के काल में र्वोहाँ हिह�दी का जो प्रचार हुआ उसका प्रमाण बतलाते हैं।

(आंकडे़ लाख के माने जाए)ँ

आबादी पढे़-क्तिलखों की संख् या हिह�दी पढे़-क्तिलखों की संख् या

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आंध्र 203.2 30.4 8.02

तामिमलनाडु 277.7 51.8 8.98

केरल 140.1 72.8 14.22

कना2टक 228.4 48.7 9.87

तेलंगाना 80.0 13.3 1.36

मद्रास शहर 14.2 4.3 1.75

*अँगे्रजी का ज्ञान

नीचे ठिदए जा रहे आंकडे़, जो किक 1951 की जन-गणना पर आधारिरत हैं, राजभा�ा कमीशन की रिरपोट2 के पृ.468 से क्तिलए गए हैं।

(आंकडे़ हजार के माने जाए)ँ

 

राज् य आबादी पढे़ - क्तिलखों की संख् या

अँग्रेजी पढे़ - क्तिलखों की संख् या ( मैठिट्रक या कोई समकक्ष परीक्षा )

पढे़ - क्तिलखों में अँग्रेजी पढे़ - क्तिलखों का शतमान

कुल आबादी में अँग्रेजी पढे़ - क्तिलखों का शतमान

1 2 3 4 5 6बंबई 35956 8829 458 5.19 1.27पंजाब 12641 2039 325 15.93 2.27पणिZम बंगाल 24810 6088 597 9.81 2.41अजमेर 693 139 18 13.11 2.63दणिक्षण भारत मद्रास , मैसूर , त्रार्वोन - कोर - कोचीन और कुग2

75600 17234 876 5.08 1.15

मद्रास ( आंध्र के किर्वोभाजन के बाद )

35735 7800 400 5.13 1.12

आंध्र 20508 3108 165 5.32 0.81मैसूर ( बेलारी तालुके के साथ )

9849 1956 136 6.94 1.38

हिह�दुस् तान की दूसरी कोई भा�ा न सीखने के बारे में बंगाल का अपना जो पूर्वोा2ग्रह है और द्रकिर्वोड़ लोगों को हिह�दुस् तानी सीखने में जो कठिFनाई मालूम होती है, उसकी र्वोजह से हिह�दुस् तानी न जानने के कारण शे� हिह�दुस् तानी से अलग पड़ जाने र्वोाले दो प्रांत हैं-बंगाल और मद्रास। अगर कोई साधारण बंगाली हिह�दुस् तानी सीखने में रोज ती घंटे खच2 करे, तो सचमुच ही दो महीनों में र्वोह उसे सीख लेगा; और इस रफ्तार से सीखने में द्रकिर्वोड़ को छह महीने लगेंगे। कोई बंगाली या द्रकिर्वोड़ इतने समय में अँग्रेजी सीख लेने की आशा नहींकर सकता। हिह�दुस् तानी जानने र्वोालों के

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मुकाबले अंगेजी जानने र्वोाले हिह�दुस् ताकिनयों की सख् या कम है। अँग्रेजी जानने से इन थोडे़ से लोगों के साथ ही किर्वोचार-किर्वोकिनमय के द्वार खुलते हैं। इसके किर्वोपरिरत हिह�दुस् तान का कामचलाऊ ज्ञान अपने देश के बहुत ही ज ्यादा भाई-बहनों के साथ बातचीत करने की शक्ति) प्रदान करता है। ...मैं द्रकिर्वोड़ भाइयों की कठिFनाई को समझता हूँ; लेकिकन मातृभूमिम के प्रकित उनके पे्रम और उद्यम मे सामने कोई चीज कठिFन नहीं है।

अँग्रेजी अंतर-रा�् ट्रीय र्वो् यापर की भा�ा है, कूटनीकित की भा�ा है, उसमें अनेक बठिढ़या साकिहप्तित्यक रत् न भरे हैं और उसके द्वारा हमें पाश् चात् य किर्वोचार और संस् कृकित का परिरचय होता है। इसक्तिलए हममें से कुछ लोगों के क्तिलए अँग्रेजी जानना जरूरी है। र्वोे रा�् ट्रीय र्वो् यापार और अंतर-रा�् ट्रीय कू टनीकित के किर्वोभाग चला सकते हैं और राट्र को पणिZम का उत् तम साकिहत् य, किर्वोचार और किर्वोज्ञान दे सकते हैं। यह अँग्रेजी का उक्तिचत उपयोग होगा। आजकल तो अँग्रेजी ने हमारे हृदयों के किप्रय-से-किप्रय स् थान पर जबरन अमिधकार कर क्तिलया है और हमारी मातृभा�ाओं को र्वोहाँ से चिस�हासन-च् युतकर ठिदया है। अँग्रेजों के साथ हमारे बराबरी के संबंध न होने के कारण र्वोह इस अस् र्वोाभाकिर्वोक स् थान पर बैF गई है। अँग्रेजी के ज्ञान के किबना ही भारतीय मल्किस्त�् क का उच् च-से उच् च किर्वोकास संभर्वो होना चाकिहए। हमारे लड़कों और लड़किकयों को यह सोचने का प्रोत् साहन देना किक अँग्रेजी जाने किबना उत् तम समाज में प्रर्वोेश करना असंभर्वो है, भारत के पुरु�-समाज के और खास तौर पर नारी-समाज के प्रकित हिह�सा करना है। यह किर्वोचार इतना अपमानजनक है किक इसे सहन नहीं किकया जा सकता। अँग्रेजी के मोह से छुटकारा पाना स् र्वोराज् य के क्तिलए एक जरूरी शत2 है।

अगर हम बनार्वोटी र्वोातार्वोरण में न रहते होते, तो दणिक्षणर्वोासी लोगों को न तो हिह�दी सीखने में कोई क�् ट मालूम होता,और न उसकी र्वो् यथ2ता का अनुभर्वो ही होताह हिह�दु-भा�ी लोगों को दणिक्षण की भा�ा सीखने की जिजतनी जरूरत है, उसकी अपेक्षा दणिक्षण र्वोालों को हिह�दी सीखने की हिह�दी सीखने की आर्वोश् यकता अर्वोश् य ही अमिधक है। सारे हिह�दुस् तान में हिह�दी बोलने और समझने र्वोालों की संख् या दणिक्षण की भा�ाए ँबोलने र्वोालों से दुगुनी है। प्रांतीय भा�ा या भा�ाओं के बदले में नहीं, बल्किwक उनके अलार्वोा एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने के क्तिलए एक सर्वो2-सामान् यभा�ा की आर्वोश् यकता है। ऐसी भा�ा तो हिह�दी-हिह�दुस् तानी ही हो सकती है।

कुछ लोग, जो अपने मन से सर्वो2-साधारण का खयाल ही भुला देते हैं, अँग्रेजी को हिह�दी की बराबरी से चलने र्वोाली हीं नहीं,बल्किwक एकमात्र शक् य रा�् ट·रभा�ा मानते हैं। परदेशी जुए की मोकिहनी न होती, तो इस बात की कोई कल् पना भी न करता। दणिक्षण-भारत की सर्वो2-साधारण जनता के क्तिलए, जिजसे राट्रीय काय2 में ज ्यादा-से-ज ्यादा हाथ बँटाना होगा, कौन-सी भा�ा सीखना आसान है-जिजस भा�ा में अपनी भा�ाओं के बहुतेरे शब् द एक से हैं और जो उन् हें एकदम लगभग सारे उत् तरी हिह�दुस् तान के संपक2 में लाती है र्वोह हिह�दी, या मुटFीभर लोगों द्वारा बोली जाने र्वोाली सब तरह से किर्वोदेशी अँग्रेजी ?ᣛ

इस पसंद का सच् चा आधार हमारी स् र्वोराज् य-किर्वो�यक कल् पना पर किनभ2र है। अगर स् र्वोराज् य अँग्रेजी बोलने र्वोाले भारतीयों का और उन् हीं के क्तिलए होने र्वोाला हो, तो किनस्संदेह अँग्रेजी ही रा�् ट्रभा�ा होगी। लेकिकन अगर स् र्वोराज् य करोड़ों भूखों मरने र्वोालों का, करोड़ों किनरक्षरों का, किनरक्षर बहनों काऔर दक्तिलतों र्वो अन् त् यजों का हो और इन सबके क्तिलए हो, तो हिह�दी ही एकमात्र राट्रभा�ा हो सकती है।

यद्यकिप मैं इन दणिक्षण की भा�ाओं को संस् कृत की पुकित्रयाँ मानता हूँ, तो भी ये हिह�दी, उकिड़या, बंगला, आसामी, पंजाबी, चिस�धी, मराFी और गुजराती से णिभन् न हैं। इनका र्वो् याकरण हिह�दी से किबल् क् ीुल णिभन् न है। इनकों संस् कृत की पुकित्रयाँ कहने से मेरा अणिभप्राय इतना ही है किक इन सब में संस् कृत शब् द काफी हैं, और जब संकट आ पड़ता है तब ये संस् कृत-माता को पुकारती हैं और नए शब् दों के रूप में उसका दूध पीती हैं। प्राचीन काल में भले ये स् र्वोतंत्र भा�ाए ँरही हों, पर अब तो ये संस् कृत से शब् द लेकर अपना गौरर्वो बढ़ा रही हैं। इसके अकितरिरक् त और भी तो कई कारण इनको संस् कृत की पुकित्रयाँ कहने के है, पर उन् हें इस समय जाने दीजिजए।

मैं हमेशा से यह मानता हूँ किक हम किकसी भी हालत में प्रांतीय भा�ाओं को नुकसान पहुँचाना या मिमटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो क्तिसफ2 यह है किक किर्वोणिभन् न प्रांतों के पारस् परिरक संबंध के क्तिलए हम हिह�दी भा�ा सीखें। ऐसा कहने से हिह�दी के प्रकित हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिह�दी को हम रा�् ट्रभा�ा मानते हैं। र्वोह रा�् ट्रीय हाने के लायक

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है। र्वोही भा�ा राट्रीय बन सकती हैं,जिजसे अमिधक संख् या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो। और इसका कोई ध् यान देने लायक किर्वोरोध आज तक सुनने में नहीं आया है।

यठिद हिह�दी अँग्रेजी का स् थान ले, तो कम-से-कम मुझे तो अच् छा ही लगेगा। लेकिकन अँग्रेजी भा�ा के महत् त् र्वो को हम अच् छी तरह जानते है। आधुकिनक ज्ञान की प्राप्तिप्त,आधुकिनक साकिहत् य के अध् ययन, सारे जगत के परिरचय, अथ2प्राप्तिप्त तथा राज् यामिधकारिरयों के साथ संपक2 रखने और ऐसे ही अन् य कायk के क्तिलए हमें अँग्रेजी के ज्ञान की आर्वोश् यकता है। इच् छा न रहते हुए भी हमको अँग्रेजी पढ़नी होगी। यही हो भी रहा है। अँग्रेजी अंतर-रा�् ट्री भा�ा है।

लेकिकन अँग्रेजी रा�् ट्रभा�ा कभी नहीं बन सकती। आज उसका सामाज् य-सा जरूर ठिदखाई देता है। इसके प्रभुत् र्वो से बचने के क्तिलए काफी प्रयत् न करते हुए भी हमारे रा�् ट्रीय कायk में अँग्रेजी नचे बहुत बड़ा स् थान ले रखा है। लेकिकन इससे हमें इस भ्रम में कभी न पड़ना चाकिहए किक अँग्रेजी रा�् ट्रभा�ा बन रही है।

इसकी परीक्षा प्रत् येक प्रांत में हम आसानी से कर सकते हैं। बंगाल अथर्वोा दणिक्षण-भारत के ही ले लीजिजए,ँ जहाँ अँग्रेजी का प्रभार्वो सबसे अमिधक है। यठिद र्वोहाँ जनता के मारफत हम कुछ भी काम करना चाहते हैं, तो र्वोह आज हिह�दी द्वारा भले ही न कर सकें , पर अँग्रेजी द्वारा तो कर ही नहीं सकते। हिह�दी के दो-चार शब् दों से हम अपना भार्वो कुछ तो प्रगटकर ही देंगे। पर अँग्रेजी से तो इतना भी नहीं कर सकते।

हाँ, यह अर्वोश् य माना जा सकता है किक अब त क हमारे यहाँ एक भी भा�ा रा�् ट्रभा�ा नहीं बन पाई है। अँग्रेजी राजभा�ा है। ऐसा होना स् र्वोाभाकिर्वोक भी है। अँग्रेजी का इससे आगे बढ़ना मैं असंभर्वो समझता हूँ, चाहे किकतना भी प्रयत् न क् यों नकिकया जाए। अगर हिह�दुस् तान को हमें सचमुच एक रा�् ट्र बनाना है, तो चाहे कोई माने या न माने, रा�् ट्रभा�ा तो हिह�दी ही बन सकती है; क् योंकिक जो स् थान हिह�दी को प्राप् त है, र्वोह किकसी दूसरी भा�ा को कभी नहीं मिमल सकता। हिह�दू-मुसलमान दोनों को मिमलाकर करीब बाईस करोड़ मनु�् यों की भा�ा थोडे़-बहुत फेरफार से हिह�दी-हिह�दुस् तान ही है।

इसक्तिलए उक्तिचत और संभर्वो तो यही है किक प्रत् येक प्रांत में उस प्रांत की भा�ा का, सारे देश के पारस् परिरक र्वो् यर्वोहार के क्तिलए हिह�दी का और अंतर-रा�् ट्रीय उपयोग के क्तिलए अँग्रेजी का र्वो् यर्वोहार हो। हिह�दी बोलने र्वोालों की संख् या करोड़ों की रहेगी,हिक�तु अँग्रेजी बोलने र्वोालों की संख् या कुछ लाख से आगे कभी नहीं बढ़ सकेगी। इसका प्रयत् न भी करना जनता के साथ अन् याय करना होगा।

(इंदौर में सन् 1935 में हुए हिह�दी-साकिहत् य-सम् मेलन के 24 र्वोें अमिधर्वोेशन में अध् यक्ष-पद से ठिदए गए गांधीजी के मूल हिह�दी भा�ण से।)

हिह�दुस्तानी हमारी राष्ट्रभा�ा है या होगी, ऐसी घो�णा यठिद हमने सच्चाई के साथ की हैं, तो किफर हिह�दुस्तानी की पढ़ाई अकिनर्वोाय2 करने में कोई बुराई नहीं है। इंग्लैंड के स्कूलों में लैठिटन सीखना अकिनर्वोाय2 था और शायद अब भी। उसके अध्

ययन से अँग्रेजी के अध्ययन में कोई बाधा नहीं पड़ी। उलटे, इस सुसंस्कृत भा�ाके ज्ञानसे अँग्रेजी की समृजिद्ध हुईहै।' मातृभासा खतरे में है' ऐसा जो शोर मचाया जाता है, र्वोह या तो अज्ञानर्वोश मचाया जाता है या उसमें पाखंड है।

और जो लोग ईमानदारी से ऐसा सोचते है, उनकी देशभक्त पर- यह देखकर किक रे्वो बच्चों द्वारा हिह�दुस्तानी सीखने के क्तिलए रोज एक घंटा ठिदया जाना भी पसंद करते- हमें तरस आता है। अगर हमें अखिखल भारतीय राट्रीयता प्राप्त करनी

है, तो हमें इस प्रांतीयता की दीर्वोार को तोड़ना ही होगा। सर्वोाल यह है किक हिह�दुस्तान एक देश और राष्ट्र है या अनेक देशों और राष्ट्रों का समूह है ?ᣛ

53 विवद्यार्थिर्थंयों के धिलए अनुशासन के विनयम पीछे     आगे

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1. किर्वोद्यार्थिथ�यों को दलबंदी राजनीकित में कभी शामिमल नहीं होना चाकिहए। किर्वोद्याथ� किर्वोद्या के खोजी और ज्ञान की शोध करने र्वोाले है, राजनीकित के खिखलाड़ी नहीं।

2. उन् हें राजनीकितक हड़तालें न करनी चाकिहए। किर्वोद्याथ� र्वोीरों की पूजा चाहे करें, उन् हें करनी चाकिहए; लेकिकन जब उनके र्वोीर जेलों में जाए, या मर जाए,ँ या यों ककिहए किक उन् हें फाँसी पर लटकाया जाए, तब उनके प्रकित अपनी भक्ति) प्रकट करने के क्तिलए उनको उन र्वोीरों के उत् त् म गुणों का अनुकरण करना चाकिहए, हड़ताल नहीं। ऐसे मौकों पर किर्वोद्यार्थिथ�यों का शोक असह्म हो जाए और हर एक किर्वोद्याथ� की र्वोेसी भार्वोना बन जाए, तो अपनी संस् था के अमिधकारी की सम् मकित से स् कूल और कॉलेज बंद राखे जाए।ँ संस् था के अमिधकारी किर्वोद्यार्थिथ�यों की बान न सुनें, तो उन् हें छूट है किक र्वोे उक्तिचत रीकित से, सभ् यतापूर्वो2क, अपनी-अपनी संस् थाओं से बाहर किनकल आए ँऔर तब र्वोापस न जाए ँजब त क संस् था के र्वो् यर्वोस् था पक पछताकर उन् हें र्वोापस न बुलाए।ँ किकसी भी हालत में और किकसी भी किर्वोचार से उन् हें अपने से णिभन् न मत रखने र्वोालो किर्वोद्याथ�यों या स् कूल-कॉलेज के अमिधकारिरयों के साथ जबरदस् ती न करनी चाकिहए। उन् हें यह किर्वोश् र्वोास हाना चाकिहए किक अगर र्वोे अपनी मया2दा के अनुरूप र्वो् यर्वोहार करेंगे और मिमलकर रहेंगे तो जीत उन् हीं की होगी।

3. सब किर्वोद्यार्थिथ�यों को सेर्वोा के खाकितरशास् त्रीय तरीके से कातना चाकिहए। कताई के अपने साधनों और दूसरे औजारों को उन् हें हमेशा साद्य-सुथरा, सुर्वो् यर्वोस्थि^त और अच् छी हालत में रखना चाकिहए। संभर्वो हो तो र्वोे अपने हक्तिथयारों, औजारों या साधनों को खुद ही बनाना सीख लें। अलबत् ता, उनका काता हुआ सूत सबसे बठिढ़या होगा। कताई-संबंधी सारे साकिहत् य का और उसमें क्तिछपे आर्थिथ�क, सामाजिजक, नैकितक और राजनीकितक सब रहस् यों का उन् हें अध् ययन करना चाकिहए।

4. अपने पहनने-ओढ़ने के क्तिलए र्वोे हमेशा खादी का ही उपयोग करे, और गाँर्वोों में बनी चीजों के बदलें परदेश की या यंत्रों की बनी र्वोैसी चीजों को कभी न बरतें।

5. र्वोंदेमातरम् गाने या रा�् ट्रीय झंडा फहराने के मामलें में र्वोे दूसरों पर जबरदस् ती न करें। रा�् ट्रीय झंडे के किबल् ले र्वोे खुद अपने बदन पर चाहे लगाए,ँ लेकिकन दूसरों को उसके क्तिलए मजबूर न करें।

6. कितरंगे झंडे के संदेश को अपने जीर्वोन में उतारकर ठिदल में सांप्रदामियकता या अस् पृश् यता को घुसने न दें। दूसरे धमk र्वोाले किर्वोद्यार्थिथ�यों और हरिरजनों को अपने भाई समझकर उनके साथ सच् ची दोस् ती कायम करें।

7. अपने दु:खी-दद� पड़ोक्तिसयों की सहायता के क्तिलए र्वोे तुरंत दौड़ जाए;ँ आस-पास के गाँर्वोों में सफाई का और भंगी का काम करें और बड़ी उमरर्वोालें स् त्री-पुरु�ों का बच् चों को पढ़ार्वोें।

8. आज हिह�दुस् तान का जो दोहरा स् र्वोरूप तय हुआ है, उसके अनुसार उसकी दोनों शैक्तिलयों और दोनों क्तिलकिपयों के साथ र्वोे रा�् ट्रभा�ा हिह�दुस् तानी सीख लें, ताकिक जब हिह�दी या उदू2 बोली जया अथर्वोा नागरी या उदू2 क्तिलकिप क्तिलखी जाए, तब उन् हें र्वोह नई न मालूम हो।

9. किर्वोद्याथ� जो भी कुद नया सीखें, उस सबकों अपनी मातृभा�ा में क्तिलख लें; और जब र्वोे हर हफ्ते आस-पास के गाँर्वोों में दौरा करने किनकलें,तो उसे अपने साथ लें जाए ँऔर लोगों त क पहुँचाए।ँ

10. र्वोे लुक-क्तिछपकर कुछ न करे; जो करें खुल् लम-खुल् ला करें। अपने हर काम में उनका र्वो् यर्वोहार किबलकुल शुद्ध हो। अपने जीर्वोन को संयमी और क्तिलम2ल बनाए।ँ किकसी चीज से न डरें और किनभ2र रहक अपने कमजोर साक्तिथयों की रक्षा करने में मुस् तैद रहें; और दंगों के अर्वोसर पर अपनी जान की परर्वोाह न करके अहिह�सक रीकित से उन् हें मिमटाने को तैयार रहें। और जब स् र्वोराज् य की आखिखर लड़ाई क्तिछड़ जाए, तब अपनी क्तिशक्षण-सं^ाए ँछोड़कर लड़ाई में कूद पड़ें और जरूरत पड़ने पर देश की आजादी के क्तिलए अपनी जान कुरबान कर दें।

11. अपने साथ पढ़ने र्वोालें किर्वोद्यार्थिथ�नी बहनों के प्रकित र्वोे अपना र्वो् यर्वोहार किबलकुल शुद्ध और सभ् यतापूण2 रखें।

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ऊपर किर्वोद्यार्थिथ�यों के क्तिलए काय2क्रम सुझाया है, उस पर अमल करने के क्तिलए उन् हें समय किनकालना होगा। मैं जानता हूँ किक र्वोे अपना बहुत-सा-समय यों ही बरबाद कर देते हैं। अपने समय में सख् त काट-कसर करके र्वोे मेरे द्वारा सुझाए गए काम के क्तिलए कई घंटों का समय किनकाल सकते है। लेकिकन किकसी भी किर्वोद्याथ� पर मैं बेजा बोझ लादना नहीं चाहता। इसक्तिलए देश से पे्रम रखने र्वोालें किर्वोद्यार्थिथ�यों को मेरी यह सलाह है किक र्वोे अपने अभ् यास के समय में से एक साल का समय इस काम के क्तिलए अलग क्तिलकाल लें, मैं यह नहीं कहता किक एक ही बार में र्वोे सारा साल दे दें। मेरी सलाह यह है किक र्वोे अपने समूचे अभ् यास-काल में इस साल को बाँटलें और थोड़ा-थोड़ा करके पूरा करें। उन् हें यह जानकर आश् चय2 होगा किक इस तरह किबताया हुआ साल र्वो् यथ2 नहीं गया। इस समय में की गई मेहनत के जरिरए र्वोे देश की आजादी की लड़ाई में अपना Fोस किहस् सा अदा करेंगे, और साथ ही अपनी मानक्तिसक, नैकितक और शक्ति)याँ भी बहुत-कुछ बढ़ा लेंगे।

पणिZम की भद्दी नकल और शुद्ध तथा परिर�् कृत अँग्रेजी बोलने र्वो क्तिसखने की योग् यता से स् र्वोतंत्रता देर्वोी के मंठिदर की रचना में एक भी ईट नहीं जुडे़गी। किर्वोद्याथ�-जगत को आज जो क्तिशक्षा मिमल रही है, र्वोह भूखे-नंगे भारत के क्तिलए बेहद महँगी है। उसे बहुत ही थोडे़ लोग प्राप् त करने की आशा रख सकते है। इसक्तिलए किर्वोद्यार्थिथ�यों से यह आशा रखी जाती है किक र्वोे रा�् ट्र के क्तिलए अपना जीर्वोन तक न् यौछार्वोर करके अपने को उस क्तिशक्षा के याग् य बनाएगँे। किर्वोद्यार्थिथ�यों को समाज की रक्षा करने र्वोालें सुधार-काय2 में अगुआ बनना ही चाकिहए। र्वोे रा�् ट्र में जो कुछ अच् छा है उसकी रक्षा करें और समाज में बेशुमार बुराइयाँ घुस गई है उनसे किनभ2यतापूर्वो2क समाज को मुक् त करें।

किर्वोद्यार्थिथ�यों को देश के करोड़ो मूक लोगों पर असर डालना होगा। उन् हे किकसी प्रांत, नगर, र्वोग2 या जाकित की दृमिN से नहीं, बल्किwक एक महाद्वीप और करोड़ों मनु�् यों की दृमिN से सोचना सीखना चाकिहए। इन करोड़ों लोगों से अछूत शराबी,गंुडे और र्वोेश् यायें भी शामिमल हैं, हमारे बीच जिजनके अल्किस्तत् र्वो के क्तिलए हम सभी जिजम् मेदार हैं। प्रचीन काल में किर्वोद्याथ� ब्रह्मचारी अथा2त ईश् र्वोर के साथ और उससे डरकर चलने र्वोाले कहलाते थे। राजा और बडे़-बूढे़ लोग उनकी इज् जत करते थे। रा�् ट्र खुशी-खुशी उनका खच2 बरबाद करता था और बदले में र्वोे रा�् ट्र को सौ गुनी बलर्वोान आत् माए,ँ सौ गुने बलर्वोान मल्किस्त�् क और सौ गुनी बस्थिw� भुजाए ँदेते थे। आधुकिनक संसार में किगरे हुए रा�् ट्रों के किर्वोद्याथ� उन रा�् ट्रों के आशादीप समझे जाते हैं और जीर्वोन के हर के्षत्र में र्वोे सुधारों के त् यागी नेता बन गए हैं। भारत में भी ऐसे किर्वोद्यार्थिथ�यों के उदाहरण मौजूद हैं। परंतु र्वोे इने-किगने हैं। मेरा कहना इतना ही ही है किक किर्वोद्याथ�-सम् मेलनों को इस प्रकार के संगठिFत कायk की किहमायत करनी चाकिहए, जो ब्रह्मचारिरयों की प्रकित�् Fा के योग् य हों।

किर्वोद्यार्थिथ�यों को अपनी सारी छुठिट्टयाँ ग्रामसेर्वोा में लगानी चाकिहए। इसके क्तिलए उन् हें मामूली रास् तें पर घूमने जाने के बजाय उन गाँर्वोों में जाना चाकिहए, जो उनकी संस् थाओं के पास हों। र्वोहाँ जाकर उन् हें गाँर्वो के लोगों की हालत का अध् ययन करना चाकिहए और उनसे दोस् ती करनी चाकिहए। इन आदत से र्वोे देहात र्वोालों के संपक2 में आएगेँ। और जब किर्वोद्याथ� सचमुच उनमें जाकर रहेंगे तब पहलें के कभी-कभी के संपक2 के कारण गाँर्वो र्वोाले उन् हें अपना किहतै�ी समझकर उनका स् र्वोागत करेंगे, न किक अजनबी मानकर उन पर संदेह करेंगे। लंबी छुठिटटयों में किर्वोद्याथ� देहात में Fहरें, प्रौढ़ क्तिशक्षा के र्वोग2 चलाए,ँ ग्रामर्वोाक्तिसयों को सफाई के किनयम क्तिसखाए ँऔर मामूली बीमारिरयों के बीमारों की दर्वोा-दारू और देखभाल करें। र्वोे उनमें चरखा भी जारी करें और उन् हें अपने हर फालतू समय का उपयोग करना क्तिसखाए।ँ यह काम कर सकने के क्तिलए किर्वोद्यार्थिथ�यों और क्तिशक्षकों को छुठिटटयों में उपयोग करने के बारे में अपने किर्वोचार बदलने होंगे। अक् सर किर्वोचारहीन क्तिशक्षक छुठिटटयों में घर करने के क्तिलए किर्वोद्यार्थिथ�यों को पढा़ई का काम दे देते हैं। मेरा राय में यह आदत हर तरह से बुरी है। छुठिटटयों का समय ही तो ऐसा होता है, जब किर्वोद्यार्थिथ�यों का मन पढ़ाई के राजमरा2 के कामकाज से मक् त रहना चाकिहए। मैंने जिजस ग्रामसेर्वोा का जिजक्र किकया है, र्वोह मनोरंजन का और बोझ न मालूम होने र्वोाली क्तिशक्षा का उत् तम रूप है। स् प�् ट ही यह सेर्वोा पढा़ई पूरी करने के बाद केर्वोल ग्रामसेर्वोा के काम में लग जाने की सबसे अच् छी तैयारी है।

अपनी योग् यताओं को रुपया-आना-पाई में भुनाने के बजाय देश की सेर्वोा में अर्षिप�त करो। यठिद तुम डॉक् टर हो तो देश में इतनी बीमारी है किक उसे दूर करने में तुम् हारी सारी डॉक् टरी किर्वोद्या काम आ सकती है। यठिद तुम र्वोकील हो तो देश में लड़ाई-झगड़ों की कमी नहीं है। उन् हें बढ़ाने के बजाय तुम लोगों में आपसी समझौता कराओं और इस तरह किर्वोनाशक मुकदमेंबाजी को दूर करके लोगों की सेर्वोा करो। यठिद तुम इंजीकिनयर हो तो अपने देशर्वोाक्तिसयों की आर्वोश् यकताओं के अनुरूप आदश2 घरों का किनमा2ण करो। ये घर उनके साधनों की सीमा के अंदर होने चाकिहए और किफर भी

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शुद्ध हर्वोा और प्रकाश से भरपूर तथा स् र्वोास् थ ्यप्रद होने चाकिहए। तुमने जो भी सीखा है उसमें ऐसा कुछ नहीं है, जिजसका देश की सेर्वोा काम में सदुपयोग न हो सके।

विवद्यार्थ^ और राजनीवित

किर्वोद्यार्थिथ�यों को अपनी राय रखने और उसे प्रगट करने की पूरी आजादी होनी चाकिहए। उन् हें जो भी राजनीकितक दल अच् छा लगता हो, उसके साथ र्वोे खुले तोर पर सहानुभूकित रख सकते हैं। लेकिकन मेरी राय में जब तक र्वोे अध् ययन कर रहे है, तब तक उन् हें काय2 की स् र्वोतंत्रता नहीं दी जा सकती। कोई किर्वोद्याथ� अपना अध् ययन भी करता रहे और साथ ही सकिक्रय राजनीकितक काय2कता2 भी हो यह शक् य नहीं है।

किर्वोद्यार्थिथ�यों का दलगत राजनीकित में पड़ने से काम नहीं चल सकता। जैसे र्वोे सब प्रकार की पुस् तकें पढ़ते हैं, र्वोैसे सब दलों की बात सुन सकते हैं। परंतु उनका काम यह है किक सबकी सच् चाई को हजम करें और बाकी को फें क दें। यही एकमात्र उक्तिचत रर्वोैया है जिजसे र्वोे अपना सकते हैं।

सत्ता की राजनीकित किर्वोद्याथ�- संसार के क्तिलए अपरिरक्तिचत होनी चाकिहए। र्वोे ज्यों ही इस तरह से काम में पड़ेंगे, त्यों ही किर्वोद्याथ� के पद से च्युत हो जाएगेँ और इसक्तिलए देश के संकट- काल में उसकी सेर्वोा करने में असफल होंगे।

54 भारतीय स्त्रिस्त्रयों का पुनरुत्थाकन पीछे     आगे

जिजस रूठिढ़ और कानून के बनाने में स् त्री का कोई हाथ नहीं था और जिजसके क्तिलए क्तिसफ2 पुरु� ही जिजम् मेदार है, उस कानून और रूठिढ़ के जुल् मों ने स् त्री को लगातार कुचला है। अहिह�सा की नींर्वो पर रचे गए जीर्वोन की योजना में जिजतना और जैसा अमिधकार पुरु� को अपने भकिर्वो�् य की रचना का है, उतना और र्वोैसा ही अमिधकार स् त्री भी अपना भकिर्वो�् य तय करने का है। लेकिकन अहिह�सक समाज की र्वो् यर्वोस् था में जो अमिधकार मिमलते हैं, र्वोे किकसी-न-किकसी कत्2 तर्वो् य या धम2 के पालन से प्राप् त होते हैं। इसक्तिलए यह भी मानना चाकिहए किक सामाजिजक आचार-र्वो् यर्वोहार के किनयम स् त्री और पुरु� दोनों आपस में मिमलकर और राजी-खुशी से तय करें। इन किनयमों का पालन करने के क्तिलए बाहर की किकसी सत् ता या हुकूमत की जबरदस् ती काम न देगी। स्त्रिस्त्रयों के साथ अपने र्वो् यर्वोहार और बरतार्वो में पुरु�ों ने इस सत् य को पूरी तरह पहचाना नहीं है। स् त्री को अपना मिमत्र या साथी मानने के बदले पुरु� ने अपनेको उसका स् र्वोामी माना है। कांग्रेस र्वोालों का यह खास हक है किक र्वोे हिह�दुस् तान की स्त्रिस्त्रयों को उनकी इस किगरी हुई हालत से हाथ पकड़कर ऊपर उFार्वोें। पुराने जमाने का गुलाम नहीं जानता था किक उसे आजाद होना है, या किक र्वोह आजाद हो सकता है। औरतों की हालत भी आज कुछ ऐसी ही है। जब उस गुलाम को आजादी मिमली तो कुछ समय तक उसे ऐसा मालूम हुआ, मानों उसका सहारा ही जाता रहा। औरतों को यह क्तिसखाया गया है किक र्वोे अपने को पुरु�ों की दासी समझें। इसक्तिलए कांग्रेस र्वोालों का यह फज2 है किक र्वोे स्त्रिस्त्रयों को उनकी मौक्तिलक स्थि^कित का पूरा बोध करार्वोें और उन् हें इस तरह की तालीम दें, जिजससे र्वोे जीर्वोन में पुरु�ों के साथ बराबरी के दरजे से हाथ बँटाने लायक बनें।

एक बार मन का किनश् चय हो जाने के बाद इस क्रांकित का काम आसान है। इसक्तिलए कांग्रेस र्वोाले इसकी शुरुआत अपने घर से करें। र्वोे अपनी पस्त्रित्नयों को मन बहलाने की गुकिड़या या भोग-किर्वोलास का साधन मानने के बदले उनको सेर्वोा के समान काय2 में अपना सम् मान् य साथी समझें। इसके क्तिलए जिजस स्त्रिस्त्रयों को स् कूल या कॉलेज की क्तिशक्षा नहीं मिमली है, र्वोे अपने पकितयों से जिजतना बन पडे़ सीखें। जो बात पस्त्रित्नयों के क्तिलए कहीं गई है, र्वोही जरूरी परिरर्वोत2न के साथ माताओं और बेठिटयों के क्तिलए भी समझनी चाकिहए।

यह कहने की जरूरत नहीं किक हिह�दुस् तान की क्तिसत्रयों की लाचारी का यह एकतरफा क्तिचत्र ही मैंने यहाँ ठिदया है। मैं भलीभाँकित जानता हूँ किक गाँर्वोों में औरतें अपने मदk के साथ बराबरी से टक् कर लेती हैं; कुछ मामलों में र्वोे उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं और उन हूकूमत भी चलती हैं। लेकिकन हमें बाहर से देखने र्वोाला कोई भी तटस् थ आदमी यह कहेगा किक

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हमारे समूचे समाज में कानून और रूठिढ़ को रूसे औरतों को जो दरजा मिमला हैं, उसमें कई खामिमयाँ हैं और उन् हें जड़मूल से सुधारने की जरूरत है।

कानून की रचना ज ्यादातर पुरु�ों के द्वारा हुई है। और इस काम को करने में, जिजसे करने का जिजम् मा मनु�् य ने अपने ऊपर खुद ही उFा क्तिलया है, उसने हमेशा न् याय और किर्वोरे्वोक का पालन नहीं किकया है। स्त्रिस्त्रयों में नए जीर्वोन का संचार करने के हमारे प्रयत् न का अमिधकांश भाग उन दू�णों को दूर करने में खच2 होना चाकिहए, जिजनका हमारे शास् त्रों के जन् मजात और अकिनर्वोाय2 लक्षण कहकर र्वोण2न किकया है। इस काम को कौन करेगा और कैसे करेगा? मेरी नम्र राय में इस प्रयत् न की क्तिसजिद्ध के क्तिलए हमें सीता, दमयन् ती और द्रौपदी जैसी पकिर्वोत्र और दृढ़ता तथा संयम आठिद से युक् तम स्त्रिस्त्रयाँ प्रकट करनी होंगी। यठिद हम अपने बीच में ऐसी स्त्रिस्त्रयाँ प्रकट कर सकें , तो इन आधुकिनक देकिर्वोयां को र्वोही मान् यता मिमलेगी जो अभी तक हमारे शास् त्रों को प्राप् त है। उस हालत में हमारी स् मृकितयों में स् त्री-जाकित के संबंध में यहाँ-र्वोहाँ जो असम् मान-सूचक उक्ति)याँ मिमलती हैं उन पर हम लस्थि¢त होंगे। ऐसी क्रांकितयाँ हिह�दू धम2 में प्राचीन काल में हो चुकी है और भकिर्वो�् य में भी होंगी और र्वोे हमारे धम2 को ज ्यादा स् थायी बनाएगँी।

स् त्री पुरु� की साक्तिथन है, जिजसकी बौजिद्धक क्षमताए ँपुरु� की बौजिद्धक क्षमताओं से किकसी तरह कम नहीं हैं। पुरु� की प्रर्वोृणिuयों में,उन प्रर्वोृणिuयों के प्रत् येक अंग और उपांग में भाग लेने का उसे अमिधकार है; और आजादी तथा स् र्वोाधीनता का उसे उतना ही अमिधकार है जिजतना पुरु� को है। जिजस तरह मनु�् य अपनी प्रर्वोृणिu के के्षत्र में सर्वो�च् च स् थान का अमिधकारी माना गया है, उसी तरह स् त्री भी अपनी प्रर्वोृणिu के के्षत्र में मानी जानी चाकिहए। स्त्रिस्त्रयों पढ़ना-क्तिलखना सीखें और उसके परिरणामस् र्वोरूप यह स्थि^कित आए,ँ ऐसा नहीं होना चाकिहए। यह तो हमारी सामाजिजक र्वो् यर्वोस् था की सहज अर्वोस् था ही होनी चाकिहए। महज एक दूकि�त रूठिढ़ और रिरर्वोाज के कारण किबलकुल ही मूख2 और नालायक पुरु� भी स्त्रिस्त्रयों से बडे़ माने जाते हैं, य द्यकिप र्वोे इस बड़प् पन के पान नहीं होते और न र्वोह उन् हें मिमलना चाकिहए। हमारे कई आंदोलनों की प्रगकित हमारे स् त्री-समाज की किपछड़ी हुई हालत के कारण बीच में ही रुक जाती है। इसी तरह हमारे किकए हुए काम का जैसा और जिजतना फल आना चाकिहए, र्वोैसा और उतना नहीं आता। हमारी दशा उस कंजूस र्वो् यापारी के जैसी है, जो अपने र्वो् यापार में पया2प् त पँूजी नहीं लगाता और इसक्तिलए नुकसान उFाता है।

पुरुष की समानता

स्त्रिस्त्रयों के अमिधकारों के सर्वोाल पर मैं किकसी तरह का समझौता स् र्वोीकार नहीं कर सकता। मेरी राय में उन पर ऐसा कोई कानूनी प्रकितबंध नहीं लगाया जाना चाकिहए, जो पुरु�ों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन् याओं में किकसी तरह का भेद नहीं होना चाकिहए। उनके साथ पूरी समानता का र्वो् यर्वोहार होना चाकिहए।

पुरु� और स् त्री की समानता का यह अथ2 नहीं किक र्वोे समान धंधें भी करें। स् त्री के शास् त्र धारण करने या क्तिशकार करने के खिखलाफ कोई कानूनी बाधा न होनी चाकिहए। लेकिकन जो काम पुरु� के करने के हैं, उनसे र्वोह स् र्वोाभार्वोत: किर्वोरत होगी। प्रकृणिu ने स् त्री और पुरु� को एक-दूसरे के पूरक के रूप में क्तिसरजा है। जिजस तर उनके आका में भेद है, उसी तरह उनके काय2 भी मया2ठिदत हैं।

विववाह-संस् कार

यठिद हम स् त्री-पुरु� के संबंधों के सर्वोाल को स् र्वोास् थ और शुद्ध मन से देखें और अपने को भार्वोी पीठिढ़यों के कल् याण का ट्रस् टी मानें, तो आज इस के्षत्र में जो दु:ख नजर आते हैं, उनमें से अमिधकांश दु:ख टाले जा सकते हैं।

किर्वोर्वोाह जीर्वोन की एक स् र्वोाभाकिर्वोक घटना है और उसे किकसी भी तरह दूकि�त या कुस्थित्सत मानना गलत है। ... आदश2 यह है किक किर्वोर्वोाह को एक पकिर्वोत्र संस् कार समझा जाए और तदनुसार किर्वोर्वोाकिहत अर्वोस् था में संयम का पालन किकया जाए।

परदा-प्रर्था

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पकिर्वोत्रता स्त्रिस्त्रयों को बाहरी मया2दाओं में जकड़कर रखने से उत् पन् न होने र्वोाली चीज नहीं है। उसकी रक्षा उन् हें परदे की दीर्वोाल से घेरकर नहीं की जा सकती। उसकी उत् पणिu और उसका किर्वोकास भीतर से होना चाकिहए। और उसकी कसौटी यह है किक र्वोह पकिर्वोत्रता किकसी भी प्रलोभन से किडगे नहीं। इस कसौटी पर र्वोह खरी क्तिसद्ध हो तभी उसका कोई मूल् य माना जा सकता है।

और स्त्रिस्त्रयों की पकिर्वोत्रता के किर्वो�य में पुरु� मानक्तिसक अस् र्वोस् थता की सूचक इतनी चिच�ता क् यों ठिदखाते हैं? क् या पुरु�ों की पकिर्वोत्रता के किर्वो�य में स्त्रिस्त्रयों को कुछ कहने का अमिधकार है? पुरु�ों के शील की पकिर्वोत्रता के किर्वो�य में हम स्त्रिस्त्रयों को तो कोई चिच�ता करते हुए नहीं सुनते। स्त्रिस्त्रयों के शील की पकिर्वोत्रता के किनयमन का अमिधकार अपने हाथों में लेने की इच् छा पुरु�ों को क् यों करनी चाकिहए? पकिर्वोत्रता कोई ऐसी चीज नहीं है, जो ऊपर से लादी जा सके। र्वोह तो भीतर से किर्वोकक्तिसत होने र्वोाली और इसक्तिलए र्वोैयक्ति)क प्रयत् न से क्तिसद्ध होने र्वोाली चीज है।

दहेज की प्रर्था

यह प्रथा न�् ट होनी चाकिहए। किर्वोर्वोाह लड़के-लड़की के माता-किपताओं द्वारा पैसे ले-देकर किकया हुआ सौदा नहीं होना चाकिहए। इस प्रथा का जाकितप्रथा से गहरा संबंध है। जब तक चुनार्वो का के्षत्र अमुक जाकित के इने-किगने लड़कों या लड़किकयों तक ही मया2ठिदत रहेगा तब तक यह प्रथा भी रहेगी, भले इसके खिखलाफ जो भी कहा जाए। यठिद इस बुराई का उच् छेद करना हो तो लड़किकयों को या लड़कों को या उनके माता-किपताओं को जाकित के बंधन तोड़ने पड़ेंगे। इस सबका मतलब है चरिरत्र की ऐसी क्तिशक्षा, जो देश के युर्वोकों और युर्वोकितयों के मानस में आमूल परिरर्वोत2न कर दे।

कोई भी ऐसा युर्वोक, जो दहेज को किर्वोर्वोाह की शत2 बनाता है, अपनी क्तिशक्षा को कलंकिकत करता है, अपने देश को कलंकिकत करता है और नारी-जाकित का अपमान करता है। देश में आजकल बहुतेरे युर्वोक-आंदोलन चल रहे है। मैं चाहता हूँ किक ये आंदोलन इस किकस् म के सर्वोालों को अपने हाथ में लें। ऐसे संघटनों को किकसी Fोस सुधार-काय2 का प्रकितकिनमिध होना चाकिहए और यह सुधर-काय2 उन् हें अपने अंदर से ही शुरू करना चाकिहए। लेकिकन देखा गया है किक इस तरह के सुधार-काय2 के प्रकितकिनमिध होने के बजाय र्वोे अक् सर आत् म-प्रशंसा करने र्वोाली समिमकितयों का रूप ले लेते हैं। ... दहेज की इस नीचे किगराने र्वोाली प्रथा के खिखलाफ बलर्वोान लोकमत पैदा करना चाकिहए; और जो युर्वोक इस पाप के सोने से अपने हाथ गंदे करते हैं, उनका समाज से बकिह�् कार किकया जाना चाकिहए। लकिड़ कयों के माता-किपताओं को अँग्रेजी किडकिग्रयों का मोह छोड़ देना चाकिहए, और अपनी कन् याओं के क्तिलए सच् चे और स् त्री-जाकित के प्रकित सम् मान की भार्वोना रखने र्वोाले सुयोग् य र्वोरों की खोज में अपनी जाकित के भी तंग दायरे के बाहर जाने में संकोच नहीं करना चाकिहए।

विव2वाओं का पुनर्विववंाह

जिजस स् त्री ने अपने पकित के पे्रम का अनुभर्वो किकया हो, उसके द्वारा स् र्वोेच् छा से और समझ-बूझकर स् र्वोीकार किकया गया र्वोैधर्वो् य जीर्वोन को सौंदय2 और गौरर्वो प्रदान करता है, घर को पकिर्वोत्र बनाता है और धम2 को ऊपर उFाता है। लेकिकन धम2 या रिरर्वोाज के द्वारा ऊपर से लादा हुआ र्वोैधर्वो् य एक असह्य बोझ है; र्वोह गुप् त पापाचार के द्वारा घर को अपकिर्वोत्र करता है और धम2 को किगराता है।

यठिद हम पाकिर्वोत्र्य की और हिह�दू धम2 की रक्षा करना चाहते हैं, तो इस जबरदस् ती लादे जाने र्वोाले र्वोैधर्वो् य के किर्वो� से हमें मुक् त होना ही होगा। इस सुधार की शुरुआत उन लोगों को करनी चाकिहए, जिजनके यहाँ बाल-किर्वोधर्वोाए ँहों। उन् हें साहसपूर्वो2क इन बाल-किर्वोधर्वोाओं का योग् य लड़कों से किर्वोर्वोाह करा देना चाकिहए। बाल-किर्वोधर्वोाओं के इस किर्वोर्वोाह को मैं पुनर्षिर्वो�र्वोाह का नाम नहीं देना चाहता, क् योंकिक मैं मानता हूँ किक उनका किर्वोर्वोाह तो कभी हुआ ही नहीं था।

तलाक

किर्वोर्वोाह किर्वोर्वोाह-सूत्र से बंधे हुए दोनों साक्तिथयों को एक-दूसरे के साथ शरीर-संबंध का अमिधकार देता है। लेकिकन इस अमिधकार की एक मया2दा है। इस अमिधकार का उपभोग तभी हो जब दोनों साथी इस संबंध की इच् छा रखतें हों। एक

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साथी दूसरे से उसकी अकिनच् छा होते हुए भी इस संबंध की माँग करे, ऐसा अमिधकार किर्वोर्वोाह नहीं देता। जब इनमें से कोई भी एक साथी नैकितक अथर्वोा अन् य किकसी कारण से दूसरे की ऐसी इच् छा का पालन करने में असमथ2 हो तब क् या करना चाकिहए, यह एक अलग सर्वोाल है। र्वो् यक्ति)गत तौर पर यठिद तलाक ही इस सर्वोाल का एक मात्र उपाय हों, ता अपनी नैकितक प्रकिग कित को रोकने के बजाय मैं इस उपाय को ही स् र्वोीकार कर लँूगा-बशत̧ किक मेरे संयम का कारण नैकितक ही हो।

मैं किर्वोर्वोाकिहत अर्वोस् था को भी जीर्वोन के दूसरो किहस् सों की तरह साधना की ही अर्वोस् था मानता हूँ। जीर्वोन कत्2 तर्वो् य-पालन है, एक लगातार चलने र्वोाली परीक्षा है। किर्वोर्वोाकिहत जीर्वोन का लक्ष् य दोनों साक्तिथयों का पारस् परिरक कल् याण साधना है यहाँ इस जीर्वोन के बाद भी। यह संस् था मानर्वो- जाकित के किहत के क्तिलए है। दो में से कोई एक साथी किर्वोर्वोाह के अनुशासन को तोडे़, तो दूसरे को किर्वोर्वोाह-संबंध भंग करने का अमिधकार हो जाता है। यहाँ किर्वोर्वोाह-संबंध का भंग नैकितक है, शारीरिरक नहीं; लेकिकन इसमें तलाक की बात नहीं है। स् त्री या पुरु� अपने साथी से अलग हो जाएगा, लेकिकन उसी उदे्दश् य की क्तिसद्धी के क्तिलए जिजसके क्तिलए र्वोे किर्वोर्वोाह-सूत्र में बंधे थे। हिह�दू धम2 स् त्री-पुरु� दोनों को एक-दूसरे का समकक्ष मानता है; कोई किकसी से नतो कम है, न ज ्याद। बेशक, न जाने कब से स् त्री को छोटा और पुरु� को बड़ा मानने र्वोाला एक णिभन् न रिरर्वोाज चल पड़ा है। लेकिकन ऐसी तो और किकतनी ही बुराइयाँ समाज में घुस आई हैं। जो भी हो, मैं यह जरूर जानता हूँ किक हिह�दू धम2 र्वो् यक्ति) को इस बात की पूरी आजादी देता है किक र्वोह आत् म-साक्षत् कार के क्तिलए जो कुछ करना आर्वोश् यक हो सो करे, क् योंकिक र्वोही मानर्वो-जन् म का सच् चा उदे्दश् य है।

स्त्रिस्त्रयों के शील की रक्षा

मैंने हमेशा यह माना है किक किकसी स् त्री की इच् छा के खिखलाफ उसका शील भंग नहीं किकया जा सकता। इस अत् याचार की क्तिशकार र्वोह तब होती है जब उसके मन पर डर छा जाता है या जब उसे अपने नैकितक बल की प्रतीकित नहीं होती। अगर र्वोह आक्रमणकारी के शारीरिरक बल का मुकाबला नहीं कर सकती, तो उसकी पकिर्वोत्रता उसे, आक्रमणकारी उसके शील का भंग कर सके पहले ही, मरने का इच् छाबल अर्वोश् य दे सकती है। सीता का उदाहरण लीजिजए। शारीरिरक दृमिN से रार्वोण की तुलना में र्वोे कुछ भी नहीं थी, हिक�तु उनकी पकिर्वोत्रता रार्वोण के अपार राक्षसी बल से भी ज ्यादा शक्ति)शाली क्तिसद्ध हुई। रार्वोण ने उन् हें अनेक तरह के प्रलोभन देकर जीतना चाहा, लेकिकन उन् हें र्वोासना-पूर्षित� के क्तिलए छूने की किहम् मत र्वोह नहीं कर सका। दूसरी ओर, यठिद स् त्री अपने शारीरिरक बल पर या हक्तिथयार पर भरोसा करे, तो अपनी शक्ति) के चुक जाने पर र्वोह किनश् चय ही हार जाएगी।

किकसी स् त्री पर जब आक्रमण हो उस समय उसे हिह�सा और अहिह�सा का किर्वोचार करने की जरूरत नहीं। उसका पहला कत्2 तर्वो् य आत् म रक्षा करना है। अपने शील की रक्षा के क्तिलए उसे जो भी उपाय सूझे उसका उपयोग करने की उसे पूरी आजादी है। भगर्वोान ने उसे दाँत और नाखून तो ठिदए ही हैं। उसे अपनी पूरी ताकत के साथ उसका उपयोग करना चाकिहए और यठिद जरूरत पड़ जाए तो प्रयत् न करते हुए मन जाना चाकिहए। जिजस पुरु� या स् त्री ने मरने मरने का सारा डर छोड़ ठिदया है, र्वोह नकेल अपनी ही रक्षा कर सकेगी, बल्किwक अपने प्राणों का बक्तिलदान करके दूसरों की रक्षा भी कर सकेगी।

वेश ्यावृधिd

र्वोेश्यार्वोृणिu दुकिनया में हमेशा रही है यह सही है। लेकिकन आज की तरह र्वोह कभी शहरी जीर्वोन का अणिभन्न अंग भी रही होगी, इसमें मुझे शंका है। जो भी हो, एक समय ऐसा जरूर आना चाकिहए और आएगा जब किक मानर्वो- जाकित इस

अणिभशाप के खिखलाफ उF खड़ी होगी; और जिजस तरह उसने दूसरे अनेक बुरे रिरर्वोाजों को, भले र्वोे किकतने भी पुराने रहे हों, मिमटा ठिदया है, उसी तरह र्वोेश्यार्वोृणिu को भी र्वोह भूतकाल की चीज बना देगी।

55 स्त्रिस्त्रयों की भिशक्षा पीछे     आगे

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मैंने समय-समय पर यह बताया है किक स् त्री में किर्वोद्या का अभार्वो इस बात का कारण नहीं होना चाकिहए किक पुरु� से मनु�् य-समाज के स् र्वोाभाकिर्वोक अमिधकार छीन ले या उसे र्वोे अमिधकार न दें। हिक�तु इन स् र्वोाभाकिर्वोक अमिधकारों को काम में लाने के क्तिलए, उनकी शोभा बढ़ाने के क्तिलए और उनका प्रचार करने के क्तिलए स्त्रिस्त्रयों में किर्वोद्या की जरूरत अर्वोश् य है। साथ ही, किर्वोद्या के किबना लाखों को शुद्ध आत् मज्ञान भी नहीं मिमल सकता।

स् त्री और पुरु� समान दरजे के हैं, परंतु एक नही; उनकी अनोखी जोड़ी है। र्वोे एक-दूसरे की कमी पूरी करने र्वोाले हैं और दोनों एक-दूसरे का सहारा हैं। यहाँ तक किक एक के किबना दूर रह नहीं सकता। हिक�तु यह क्तिसद्धांत ऊपर की स्थि^कित में से ही किनकल आता है किक पुरु� या स् त्री कोई एक अपनी जगह से किगर जाए तो दोनों का नाश हो जाता है। इसक्तिलए स् त्री-क्तिशक्षा की योजना बनाने र्वोालों को यह बात हमेशा याद रखनी चाकिहए। दंपती के बाहरी कमों में पुरु� सर्वो�परिर है। बाहरी कामों का किर्वोशे� ज्ञान उसके क्तिलए जरूरी है। भीतरी कामों में स् त्री की प्रधानता है। इसक्तिलए गृह-र्वो् यर्वोस् थ , बच् चों की देखभाल, उनकी क्तिशक्षा र्वोगैरा के बारे में स् त्री को किर्वोशे� ज्ञान होना चाकिहए। यहाँ किकसी को कोई भी ज्ञान प्राप् त करने से रोकने की कल् पना नहीं है। हिक�तु क्तिशक्षा का क्रम इन किर्वोचारों को ध् यान में रखकर न बनाया गया हो, तो स् त्री-पुरु� दोनों को अपने-अपने के्षत्र में पूण2ता प्राप् त करने का मौका नहीं मिमलता।

मुझे ऐसा लगा है किक हमारी मामूली पढ़ाई में स् त्री या पुरु� किकसी के क्तिलए भी अँग्रेजी जरूरी नहीं है। कमाई के खाकितर या राजनीकितक कामों के क्तिलए ही पुरु�ों को अँग्रेजी भा�ा जानने की जरूरत हो सकती है। मैं नहीं मानता किक स्त्रिस्त्रयों को नौकरी ढँूढ़ने या र्वो् यापार करने की झंझट में पड़ना चाकिहए। इसक्तिलए अँग्रेजी भा�ा थोड़ी ही स्त्रिस्त्रयाँ सीखेंगी। और जिजन् हें सीखना होगा र्वोे पुरु�ों के क्तिलए खोली हुई शालाओं में ही सीख सकेगी। स्त्रिस्त्रयों के क्तिलए खोली हुई शाला में अँग्रेजी जारी करना हमारी गुलामी की उमर बढ़ाने का कारण बन जाएगा। यह र्वोाक् य मैंने बहुतों के मुँह से सुना है और बहुत जगह सुना है किक अँग्रेजी भा�ा में भरा हुआ खजाना पुरु�ों की तरह स्त्रिस्त्रयों को भी मिमलना चाकिहए। मैं नम्रता के साथ कहूँगा किक इसमें कही-न-कहीं भूल है। यह तो कोई नहीं कहता किक पुरु�ों को अँग्रेजी का खजाना ठिदया जाए और स्त्रिस्त्रयों को न ठिदया जाए।

जिजस साकिहत् य का शौक है र्वोह अगर सारी दुकिनया का साकिहत् य समझना चाहे, तो उसे रोककर रखने र्वोाला इस दुकिनया में कोई पैदा नहीं हुआ है। परंतु जहाँ आम लोगों को जरूरतें समझकर क्तिशक्षा का क्रम तैयार किकया गया हो, परंतु ऊपर बताए हुए साकिहत् य-पे्रमिमयों के क्तिलए योजना तैयार नहीं की जा सकती। स् त्री या पुरु� को अँग्रेजी भा�ा सीखने में अपना समय नहीं लगाना चाकिहए। यह बात मैं उनका आनंद कम करने के क्तिलए नहीं कहता, बल्किwक इसक्तिलए कहता हूँ किक जो आनंद अँग्रेजी क्तिशक्षा पाने र्वोाले बडे़ क�् ट से लेते हैं र्वोह हमें आसानी से मिमले। पृथ ्र्वोी अमूल् य रत् नों से भरी है। सारे साकिहत् य-रत् न अँग्रेजी भा�ा में ही नहीं है। दूसरी भा�ाए ँभी रत् नों से भरी हैं। मुझे ये सारे रत् न आम जनता के क्तिलए चाकिहए। ऐसा करने के क्तिलए एक ही उपाय है और र्वोह यह किक हममें से कुछ ऐसी शक्ति)र्वोालें लोग ये भा�ाए ँसीखें और उनके रत् न हमें अपनी भा�ा में दें।

मैं स्त्रिस्त्रयों की समुक्तिचत क्तिशक्षा का किहमायती हूँ, लेकिकन मैं यह भी मानता हूँ किक स् त्री दुक्तिलया की प्रगकित में अपना योग पुरु� की नकल करके या उसकी प्रकितस् पधा2 करके नहीं दे सकती। र्वोह चाहे तो प्रकितस् पधा2 कर सकती है। लेकिकन पुरु� की नकल करके र्वोह उस ऊँचाई तक नहीं उF सकती, जिजस ऊँचाई तक उFना उसके क्तिलए संभर्वो है। उसे पुरु� की पूरक बनना चाकिहए।

स हभिशक्षा

मैं अभी त क किनश् चयपूर्वो2क यह नहीं कह सकता किक सहक्तिशक्षा सफल होगी या नहीं होगी। पणिZम मे र्वोह सफल हुई हो ऐसा नहीं लगता। र्वो�k पहले मैंने खुद उसका प्रयोग किकया था और र्वोह भी इस हद तक किक लड़के और लड़किकयाँ उसी बरामदे में सोते थे। उनके बीच में कोई आड़ नहीं होती थी; अलबत् ता, मैं और श्रीमकित गांधी भी उनके साथ उसी बरामदे में सोते थे। मुझे कहना चाकिहए किक इस प्रयोग के परिरणाम अच् छे नहीं आए।

...सहक्तिशक्षा अभी प्रयोग की ही अर्वोस् था में है और उसके परिरणाम के बारे में पक्ष अथर्वोा किर्वोपक्ष में किनश् चयपूर्वो2क हम कुछ नहीं कह सकते। मेरा खयाल है किक इस ठिदशा में हमें आरंभ परिरर्वोार से करना चाकिहए। परिरर्वोार में लड़के-

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लड़किकयों को साथ-साथ स् र्वोाभाकिर्वोक तौर पर और आजादी के र्वोातार्वोरण में बढ़ने देना चाकिहए। स हक्तिशक्षा इस तरह अपने-आप आएगी।

मेरे बच्चे अगर बुरे भी हैं तो भी मैं उन्हें खतरे में पड़ने दँूगा। एक ठिदन हमें एक- प्रर्वोृणिu एक- प्रर्वोृणिu को छोड़ना होगा। हमें हिह�दुस्तान के क्तिलए पणिZम की मिमसालें नहीं ढँूढ़नी चाकिहए। टे्रहिन�ग स्कूलों में अगर क्तिसखाने र्वोाले क्तिशक्षक लायकऔर

पकिर्वोत्र हों, नई तालीम की भार्वोना से भरे हों, तो कोई खतरा नहीं। दुभा2ग्य से कुछ घटनाएँ ऐसी हो भी जाएँ तो कोई परर्वोाह नहीं। रे्वो तो हर जगह होंगी। मैं यह बात साहसपूर्वो2क कहता तो हँू, लेकिकन में इसके खतरों से बेखबर नहीं हूँ।

56 संतवित-विनयमन पीछे     आगे

संतकित के जन् म की आर्वोश् यकता के बारे में दो मत हो ही नहीं सकते। परंतु इसका एकमात्र उपाय है आत् म-संयम या ब्रह्मचय2, जो किक युगों से हमें प्राप् त है। यह रामबाण और सर्वो�परिर उपाय है, और जो इसका सेर्वोन करते हैं उन् हें लाभ-ही-लाभ होता है। डॉक् टर लोगों का मानर्वो-जाकित पर बड़ा उपकार होगा, यठिद र्वोे संतकित-किनयमन के क्तिलए कृकित्रम साधनों की तजर्वोीज करने के बजाय आत् म-संयम के साधन किनमा2ण करें।

कृकित्रम साधनों की सलाह देना मानों बुराई का हौसला बढ़ाना है। उससे पुरु� और स् त्री दोनों उच् छंृखल हो जाते है। और इन कृकित्रम साधनों को जो प्रकित�् Fा दी जा रही हैं, उससे उस संयम के ह्रास की गकित बढे़ किबना न रहेगी, जो किक लोकमत के कारण हम पर रहता है। कृकित्रम साधनों के अर्वोलंबन का कुफल होगा नपुंसकता और क्षीणर्वोीय2ता। यह दर्वोा रोग से भी ज ्यादा बदतर साकिबत हुए किबना न रहेगी।

अपने कम2 के फल को भोगने से दुम दबाना दो� है, अनीकितपूण2 है। जो शख् स जरूरत से ज ्यादा खा लेता है, उसके क्तिलए यही अच् छा है किक उसके पेट में दद2 हो और उसे लाँघन करना पडे़। जबान को काबू में रखकर अनाप-शनाप खा लेना और किफर बलर्वोध2क या दूसरी दर्वोाइयाँ खकर उसके नतीजे से बचना बुरा है। पशु की तरह किर्वो�य-भोग में गक2 रहकर अपने इस कृत् य के फल से बचना और भी बुरा है। प्रकृकित बड़ी कFोर शासक है। र्वोह अपने कानून-भंग का पूरा बदला किबना आगा-पीछा देखे चुकाती है। लेकिकन नैकितक संयम के द्वारा ही हमें नैकितक फल मिमल सकता है। संयम के दूसरे तमाम साधन अपने हेतु के ही किर्वोनाशक क्तिसद्ध होंगे।

किर्वो�य-भोग करते हुए भी कृकित्रम उपायों के द्वारा प्रजोत् पकित रोकने की प्रथा पुरानी है। मगर पूर्वो2काल में र्वोह गुप् तरूप से चलती थी। आधुकिनक सभ् यता के इस जमाने में उसे ऊँचा स् थान मिमल गया है, और कृकित्रम उपायों की रचना भी र्वो् यर्वोस्थि^त तरीके से की गई है। इस प्रथा को परमाथ2 का जामा पहनाया गया है। इन उपायों के किहमायती कहते हैं किक भोगेच् छा स् र्वोाभाकिर्वोक र्वोस् तु है, शायद उसे ईश् र्वोर का र्वोरदान भी कहा जा सकता है। उसे किनकाल फें कना अशक् य है। उस पर संयम का अंकुश रखना कठिFन है। और अगर संयम के क्तिसर्वोा दूसरा कोई उपाय न ढँूढ़ा जाए, तो असंख् य स्त्रिस्त्रयों के क्तिलए प्रजोत् पणिu बोझ रूप हो जाएगी; और भोग से उत् पन् न होने र्वोाली प्रजा इतनी बढ़ जाएगी किक मनु�् य-जाकित के क्तिलए पूरी खुराक ही नहीं मिमल सकेगी। इन दो आपणिuयों को रोकने के क्तिलए कृकित्रम उपायों की योजना करना मनु�् य का धम2 हो जाता है।

मुझ पर इस दलील का असर नहीं हुआ है। क् योंकिक इन उपायों के द्वारा मनु�् य अनेक दूसरी मुसीबतें मोल लेता है। मगर सबसे बड़ा नुकसान तो यह है किक कृकित्रम उपायों के प्रचार से संयम-धम2 का लोप हो जाने का भय पैदा होगा। इस रत् न को बेचकर चाहे जैसा तात् काक्तिलक लाभ मिमले, तो भी यह सौदा करने योग् य नहीं है। ... कठिFनाई आत् म-र्वोंचन से पैदा होती है। इसमें त् याग का आरंभ किर्वोचार-शुजिद्ध से नहीं होती, केर्वोल बाह्याचार की रोकने के किन�् फल प्रयत् न से होता है। किर्वोचार की दृढ़ता के साथ आचार का संयम शुरू हो, तो सफलता मिमले किबना रह ही नहीं सकती। स् त्री-पुरु� की जोड़ी किर्वो�य-सेर्वोन के क्तिलए ह रकिगज नहीं बनी है।

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मुझे मालूम है किक गुप् त पाप से पाFशाला के लड़के-लड़किकयों का कैसा भयंकर किर्वोनाश किकया है। किर्वोज्ञान के नाम पर कृकित्रम साधनों के प्रचक्तिलत होने और समाज के प्रक्तिसद्ध नेताओं की उस पर मुहर लग जाने के समस् या और बढ़ गई है; और जो सुधारक सा माजिजक जीर्वोन की शुजिद्ध का काम करते हैं, उनका काय2 आज असंभर्वो-सा हो गया है। मैं पाFकों को यह सूचना देते हूए कोई किर्वोश् र्वोासघात नहीं कर रहा हूँ किक ऐसी कँुर्वोारी लड़किकयाँ है, जिजन पर आसानी से किकसी भी बात का प्रभार्वो पड़ सकता है और जो स् कूल-कॉलेजों में पढ़ती हैं, परंतु जो बड़ी उत् सुकता से संतकित-किनग्रह के साकिहत् य और पकित्रकाओं का अध् ययन करती है और जिजनके पास उसके साधन भी मौजूद हैं। इन साधनों के प्रयोग को किर्वोर्वोाकिहत स्त्रिस्त्रयों तक सीमिमत रखना असंभर्वो है। जब किर्वोर्वोाह के उदे्दश् य और उच् च् तम उपयोग की कल् पना ही पाशकिर्वोक किर्वोकार की तृप्तिप्त हो और यह किर्वोचार तक न किकया जाए किक इस प्रकार की तृप्तिप्त का कुदरती नतीजा क् या होगा, तब किर्वोर्वोाह की सारी पकिर्वोत्रता न�् ट हो जाती है।

मुझे इसमें जरा भी शक नहीं किक जो किर्वोद्वान पुरु� और स्त्रिस्त्रयाँ मिमशनरी उत् साह के साथ कृकित्रम साधनों के पक्ष में आंदोलन कर रहे हैं, र्वोे देश युर्वोकों की अपार हाकिन कर रहे हैं। उनका यह किर्वोश् र्वोास झूFा है किक ऐसा करके र्वोे उन गरीब स्त्रिस्त्रयों का संकट से बचा लेंगे, जिजन् हें अपनी इच् छा के किर्वोरुद्ध मजबूरन बच् चे पैदा करने पड़ते हैं। जिजन् हें बच् चों की संख् या मया2ठिदत करने की जरूरत है, उनके पास तो इनकी आसानी से पहुँच नहीं होगी। हमारी गरीब औरतों के पास न तो र्वोह ज्ञान होता है और न र्वोह तालीम होती है, जो पणिZम की स्त्रिस्त्रयों के पास होती हे। अर्वोश् य ही यह आंदोलन मध् यम श्रेणी की स्त्रिस्त्रयों की तरफ से नहीं किकया जा रहा है, क् योंकिक उन् हें इस ज्ञान की उतनी जरूरत नहीं है जिजतनी किनध2न र्वोगk की स्त्रिस्त्रयों को है।

परंतु सबसे बड़ी हाकिन, जो यह आंदोलन कर रहा है, यह है किक पुराना आदश2 छोड़कर यह उसके स् थान पर एक ऐसा आदश2 स् थाकिपत कर रहा है, जिजस पर अमल हुआ तो मानर्वो-जाकित का नैकितक और शारीरिरक किर्वोनाश किनणिZत है। र्वोीय2 के र्वो् यथ2 र्वो् यय को प्राचीन साकिहत् य में जो इतना भयंकर कृत् य माना गया है, र्वोह कोई अज्ञानजन् य अंधकिर्वोश् र्वोास नहीं था। कोई किकसान अगर अपने पास का बठिढ़या-से-बठिढ़या बीज पथरीली जमीन में बोए या कोई खेत का माक्तिलक बठिढ़या जमीन र्वोालें अपने खेत में ऐसी परिरस्थि^कितयों में अच् छा बीज डाले जिजनमें उसका उगना असंभर्वो हो, तो उसके क्तिलए क् या कहा जाएगा ? ᣛ भगर्वोान ने पुरु� को ऊँची-से-ऊँची शक्ति) र्वोाला बीज प्रदान किकया है और स् त्री को ऐसा खेत ठिदया है जिजसके बराबर उपजाऊ धरती इस दुकिनया में और कहीं नहीं है। अर्वोश् य ही पुरु� की यह भंयकर मूख2ता है किक र्वोह अपनी इस सबसे कीमती संपणिu को र्वो् यथ2 जाने देता है। उसे अपने अत्यंत मूल् यर्वोान जर्वोाहरात और माकितयों से भी अमिधक सार्वोधानी के साथ इसकी रक्षा करनी चाकिहए। इसी तरह र्वोह स् त्री भी अक्षम् य मूख2ता करती है, जो अपने जीर्वोोत् पादन के्षत्र में बीज को न�् ट होने देने के इरादे से ही ग्रहण करती है। र्वोे दोनों ईश् र्वोर-प्रदत् त प्रकितभा के दुरुपयोग के अपराधी माने जाएगँे और जो चीज उन् हें दी गई है र्वोह उनसे छीन ली जाएगी। काम की पे्ररणा एक संुदर और उदात् त र्वोस् तु है। उसमें लस्थि¢त होने की कोई बात नहीं है। परंतु र्वोह संतानोत् पणिu के क्तिलए ही बनाई गई है। उसका और कोई उपयोग करना ईश् र्वोर और मानर्वोता दोनों के प्रकित पाप है। संतकित-किनग्रह के कृकित्रम साधन पहले भी थ ेऔर आगे भी रहेंगे। परंतु पहले उन् हें काम में लेना पाप समझा जाता था। पाप को पुण् य कहकर उसका गौरर्वो बढ़ाना हमारी पीढ़ी के ही भाग् य में बदा है। मेरे खयाल से कृकित्रम साधनों के किहमायती भारत के युर्वोकों की सबसे बड़ी सेर्वोा यह कर रहे हैं किक उनके ठिदमागों में र्वोे गलत किर्वोचारधारा भर रहे हैं। भारत के युर्वोा स् त्री-पुरु�ों को, जिजनके हाथ में देश का भाग् य है, इस झूFे देर्वोता से सार्वोधान रहना चाकिहए, ईश् र्वोर ने उन् हें जो खजाना ठिदया है उसकी रक्षा करनी चाकिहए और इच् छा हो तो उसका उसी काम में उपयोग करना चाकिहए जिजसके क्तिलए र्वोह बनाया गया है।

मैं यह नहीं मानता किक स् त्री काम-किर्वोकार की उतनी ही क्तिशकार बनती है जिजतना पुरु�। पुरु� के बकिनस् बत स् त्री के क्तिलए आत् म-संयम पालना ज ्यादा आसान होता है। मैं मानता हूँ किक इस देश में स् त्री को दी जाने लायक सही क्तिशक्षा र्वोह होगी किक उसे अपने पकित को भी 'नहीं' कहने की कला क्तिसखाई जाए; उसे यह क्तिसखाया जाए किक पकित के हाथों में केर्वोल किर्वो�य-भोग का साधन या गुकिड़या बनकर रहना उसका कत्2 तर्वो् य किबलकुल नहीं है। यठिद स् त्री के कत्2 तर्वो् य हैं तो उसके अमिधकार भी है।

पहली बात है उसे मानक्तिसक गुलामी से मुक् त करना उसे अपने शरीर को पकिर्वोत्र मानने की क्तिशक्षा देना और रा�् ट्र तथा मानर्वो-जाकित की सेर्वोा की प्रकित�् Fा और गौरर्वो क्तिसखाना। यह मान लेना अनुक्तिचत होगा किक भारत की स्त्रिस्त्रयाँ इस

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गुलामी से कभी छूट नहीं सकतीं और इसक्तिलए प्रजोत् पणिu को रोकने तथा अपनी बची-खुची तंदुरुस् ती की रखा करने के क्तिलए उन् हें कृकित्रम साधनों का उपयोग क्तिसखाने के क्तिसर्वोा दुसरा कोई रास् ता नहीं है।

जिजन बहनों का पुण् य-प्रकोप ऐसी स्त्रिस्त्रयों के क�् टों को देखकर, जिजन् हें इच् छा या अकिनच् छा से बच् चे पैदा करने पड़ते हैं-जाग्रत हुआ है, र्वोे उतार्वोली न बनें। कृकित्रम साधनों के पक्ष में किकया जाने र्वोाला प्रचार भी र्वोांक्तिछत हेतु को एक ठिदन में क्तिसद्ध नहीं कर देगा। हर पद्धकित के क्तिलए लोगों को क्तिशक्षा देना जरूरी होगा। मेरा कहना इतना ही है किक यह क्तिशक्षा सही रास् ते ले जाने र्वोाली होनी चाकिहए।

बन् 2् यीकरण

लोगों पर बध् यीकरण (र्वोह किक्रया जिजससे पुरु� के र्वोीय2 में किनकिहत प्रजनन-शक्ति) का नाश कर ठिदया जाता है) का कनून लादने को मैं अमानुकि�क मानता हूँ। परंतु जो र्वो् यक्ति) पुराने रोगों के मरीज हों, र्वोे यठिद स् र्वोीकार कर लें तो उनका बध् यीकरण र्वोांछनीय होगा। बन् ध् यीकण एक प्रकार का कृकित्रम साधन है। य द्यकिप मैं स्त्रिस्त्रयों के संबंध में कृकित्रम साधनों के उपयोग के खिखलाफ हूँ, किफर भी मैं पुरु� के संबंध में स् र्वोेच् छा से किकए जाने र्वोाले बन् ध् यीकरण के खिखलाफ नहीं हूँ, क् योंकिक पुरु� आक्रमक है।

अधि2क जनसंख् या का हौवा

यठिद यह कहा जाए किक जनसंख् या की अकितर्वोृजिद्ध के कारण कृकित्रम साधनों द्वारा संतकित-किनयमन की रा�् ट्र के क्तिलए आर्वोश् यकता है, तो मुझे इस बात में पूरा शक है। यह बात अब तक साकिबत ही नहीं की गई है। मेरी राय में तो यठिद जमीन-संबंधी कानूनों में समुक्तिचत सुधार कर ठिदया जाए, खेती की दशा सुधारी जाए और एक सहायक धंधे की तजर्वोीज कर दी जाए, तो हमारा यह देश अपनी जनसंख् या से दूने लोगों का भरण-पो�ण कर सकता है।

हमारा यह छोटा-सा पृथ ्र्वोी-मंडल कुछ समय का बना हुआ खिखलौना नहीं है। अनकिगनत युगों से यह ऐसा ही चला आ रहा है। जनसंख् या की र्वोृजिद्ध के भार से उसने कभी क�् ट का अनुभर्वो नहीं किकया। तब कुछ लोगों के मन में एकाएक इस सत् य का उदय नहीं से हो गया किक यठिद संतकित-किनयमन के कृकित्रम साधनों से जनसंख् या की र्वोृजिद्ध को रोका न गया, ता अन् न न मिमलने से पृथ ्र्वोी-मंडल का नाश हो जाएगा ?ᣛ

बढ़ती हुई जनसंख् या का हौर्वोा कोई नई चीज नहीं है। अक् सर र्वोह हमारे सामने खड़ा किकया गया है। जनसंख् या की र्वोृजिद्ध कोई टालने लायक संकट नहीं है; न होना चाकिहए। उसे कृकित्रम उपायों से रोकना एक महान संकट है, किफर चाहे हम उसे जानते हों, या न जानते हों। अगर कृकित्रम उपायों का उपयोग आम तौर पर होने लगें, तो र्वोह समूचे रा�् ट्र को पतन की ओर ले जाएगा। खुशी इस बात की है किक इसकी कोई संभार्वोना नहीं है। एक ओर हम किर्वो�य-भोग से पैदा होने र्वोाली अनचाही संतकित का पाप अपने क्तिसर ओढ़ते हैं, और दूसरी ओर ईश् र्वोर उस पाप को मिमटाने के क्तिलए हमें अनाज की तंगी, महामारी और लड़ाई के जरिरए सजा करता है। अगर इस कितहरे शाप से बचना हो, तो संयम-रूपी कारगर उपाय के जरिरए अनचाही संतकित को रोकना चाकिहए। देखने र्वोालों को आज भी यह ठिदखाई पड़ता है किक कृकित्रम उपायों के कैसे बुरे नतीजे होते हैं। नीकित की चचा2 में पडे़ किबना मैं यही कहा चाहता हूँ किक कुत् ते-किबल् ली की तरह होने र्वोाली इस संतान-र्वोृजिद्ध को जरूर रोकना चाकिहए। लेकिकन इस बात का खयाल रखना होगा किक ऐसा करने से उसका ज ्यादा बुरा नतीजा न किनकले। इस बढ़ती हुई प्रजोत् पणिu को ऐसे उपायों से रोकना चाकिहए जिजनसे जनता ऊपर उFें ; यानी इसके क्तिलए जनता को उसके जीर्वोन से संबंध रखने र्वोाली तालीम मिमलनी चाकिहए, जिजससे एक शाप के मिमटते ही दूसरे सब शाप अपने-आप मिमट जाए।ँ यह सोचकर किक रास् ता पहाड़ी है और उसमें चढ़ाइयाँ हैं, हमें उससे दूर नही भागना चाकिहए। मनु�् य की प्रगकित का माग2 कठिFनाइयों से भरा पड़ा हैं। उनसे डरना क् या ? उनका तो स् र्वोागत करना चाकिहए।

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अनुक्रम 57 काम-विवज्ञान की भिशक्षा पीछे     आगे

काम-किर्वोज्ञान की क्तिशक्षा का हमारी क्तिशक्षा-प्रणाली में क् या स् थान है, अथर्वोा उसका कोई स् थान है भी नहीं? काम-किर्वोज्ञान दो प्रकार का होता है। एक र्वोह जो काम-किर्वोकार को काबू में रखने या जीतने के काम आता है और दूसरा र्वोह जो उसे उत् तेजन और पो�ण देने के काम आत है। पहले प्रकार के काम-किर्वोज्ञान की क्तिशक्षा बाल-क्तिशक्षा का उतना ही आर्वोश् यक अंग है, जिजतनी दूसरे प्रकार की क्तिशक्षा हाकिनकारक और खतरनाक है और इसक्तिलए दूर रहने के योग् य है। सभी बडे़ धमk न काम को मनु�् य का घोर शत्रु माना है, और र्वोह Fीक ही माना है। क्रोध या दे्व� का स् थान दूसरा ही रखा गया है। गीता के अनुसार क्रोध काम की संतान है। बेशक, गीता ने काम शब् द का प्रयोग इच् छा मात्र के र्वो् यापक अथ2 में किकया है। परंतु जिजस सं कुक्तिचत अथ2 में र्वोह यहाँ इस् तेमाल किकया गया है उसमें भी यह बात लागू होती है।

परंतु किफर भी इस प्रश् न का उत् तर देना रह ही जाता है। किक छोटी उमर के किर्वोद्यार्थिथ�यों को जननेंठिद्रय के काय2 और उपयोग के बारे में ज्ञान देना र्वोांछनीय है या नहीं। मेरे खयाल से एक हद तक इस प्रकार का ज्ञान देना जरूरी है। आज तो र्वोे जैसे-तैसे इधर-उधर से यह ज्ञान प्राप् त कर लेते हैं। नतीजा यह होता है किक पथभ्र�् ट होकर र्वोे कुछ बुरी आदतें सीख लेते हैं। हम काम-किर्वोकार पर उसकी ओर से आँखें बंद कर लेने से Fीक तरह किनयंत्रण प्राप् त नहीं कर सकते। इसक्तिलए मेरा यह दृढ़ मत है किक नौजर्वोान लड़के-लड़किकयों को उनकी जननेंठिद्रयों का महत् त् र्वो और उक्तिचत उपयोग क्तिसखाया जाए। और अपने ढँग से मैंने उन अल् पायु बालक-बाक्तिलकाओं को, जिजनकी तालीम की जिजम् मेदारी मुझ पर थी, यह ज्ञान देने की कोक्तिशश की है।

जिजस काम-किर्वोज्ञान की क्तिशक्षा के पक्ष में मैं हूँ, उसका लक्ष् य यही होना चाकिहए किक इस किर्वोकार पर किर्वोजय प्राप् त की जाए और उसका सदुपयोग हो। ऐसी क्तिशक्षा का स् र्वोाभार्वोत: यह उपयोग होना चाकिहए किक र्वोह बच् चों के ठिदनों में इंसान और हैर्वोान के बीच का फक2 अच् छी तरह बैFा दे और उन् हें यह अच् छी तरह समझा दे हृदय और मल्किस्त�् क दोनों की शक्ति)यों से किर्वोभूकि�त होना मनु�् य का किर्वोशे� अमिधकार है; र्वोह जिजतना किर्वोचारशील प्राणी है उतनी ही भार्वोना शील भी है जैसे किक मनु�् य शब् द के धात् र्वोथ2 से प्रगट होता है और इसक्तिलए ज्ञान हीन प्राकृकितक इच् छाओं पर बुजिद्ध का प्रभुत् र्वो छोड़ देना मानर्वो को ईश् र्वोर से प्राप् त हुई संपणिu को छोड़ देना है। बुजिद्ध मनु�् य में भार्वोना को जाग्रत करती है और उसे रास् ता ठिदखाती है। पशु में आत् मा सु�ुप् त रहती है। हृदय को जाग्रत करने का अथ2 है सोई हुई आत् मा का जाग्रत करना, बुजिद्ध को जाग्रत करना और बुराई-भालाई का किर्वोरे्वोक पैदा करना।

यह सच् चा काम-किर्वोज्ञान कौन क्तिसखाए ? ᣛ स् प�् ट है किक र्वोहीं क्तिसखाए जिजसने अपने किर्वोकारों पर प्रभुत् र्वो पा क्तिलया है। ज ्योकित� और अन् य किर्वोज्ञान क्तिसखाने के क्तिलए हम ऐसे क्तिशक्षक रखते हैं, जिजन् होंने इन किर्वो�यों की तालीम पाई है और जो अपनी कला में प्रार्वोीण हैं। इसी तरह हमें काम-किर्वोज्ञान अथा2त् काम-किर्वोकार को काबू में रखने का किर्वोज्ञान क्तिसखाने के क्तिलए ऐसे ही लोगों को क्तिशक्षक बनाना चाकिहए, जिजन् होंने इसका अध् ययन किकया है और अपनी इंठिद्रयों पर प्रभुत् र्वो प्राप् त कर क्तिलया है। ऊँचे दज¸ का भा�ण भी, यठिद उसके पीछे हृदय की सच् चाई और अनुभर्वो नहीं है, किनस्त्रिष्क्रय और किनज�र्वो होगा और र्वोह मनु�् यों के हृदयों में घुसकर उन् हें जगा नहीं सकेगा, जब किक आत् मा-दश2न और सच् चे अनुभर्वो से किनकालने र्वोाली र्वोाणी सदा सफल होती है।

आज तो हमारे सारे र्वोातार्वोरण का- हमारे पढ़ने, हमारे सोचने और हमारे सामाजिजक व्यर्वोहारका- सामान्य हेतु कामेच् छा की पूर्षित� करना हाता है। इस जाल को तोड़कर किनकलना आसान काम नहीं है। परंतु यह हमारे उच्चतम प्रयत्न के

योग्य काय2 है। यठिद व्यार्वोहारिरक अनुभर्वो र्वोाले मुटFीभर क्तिशक्षक भी ऐसे हों, जो आत्मा- संयम के आदश2 को मनुष्य का सर्वो�च्च कत्त2व्य मानते हों और अपने काय2 में सच्चे और अमिमट किर्वोश्र्वोास से अनुप्राणिणत हों, तो उसके परिरश्रम

से... बालकों का माग2 प्रकाशमान हो जाएगा, र्वोे भोले भाले लोगों को आत्म- पतन के कीचड़ में फँसने से बचा लेंगे, और जो लोग पहले ही फँस चुके हैं उनका उद्धार कर देंगे।

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58 बालक पीछे     आगे

जिजस प्रकार बच् चों को माता-किपता की सूरत-शकल किर्वोरासत में मिमलती है, उसी प्रकार उनके गुण-दो� भी उन् हें किर्वोरासत में मिमलते है। अर्वोश् य ही आस-पास के र्वोातार्वोरण के कारण इसमें अनेक प्रकार की घट-बढ़ होती है, पर मूल पँूजी तो र्वोहीं होती है जो बाप-दादा आठिद से मिमलती है। मैंने देखा किक कुछ बालक अपने को ऐसे दो�ों की किर्वोरासत से बचा लेते हैं। यह आत् मा का मूल स् र्वोाभार्वो है, उसकी बक्तिलहारी है।

माँ-बाप अपने बालकों को जो सच् ची संपणिu समान रूप से दे सकते हैं, र्वोह है उनका अपना चरिरत्र और क्तिशक्षा की सुकिर्वोधाए।ँ ... माता-किपता को अपने लड़कों और लड़किकयों को स् र्वोार्वोलंबी बनाने की, शरीर-श्रम के द्वारा किनद�� जीकिर्वोका कमाने लायक बनाने की कोक्तिशश करनी चाकिहए।

मैं पूरी तरह यह मानता हूँ किक बालक जन्म से बुरा नहीं होता। यठिद माता- किपता बालक के जन्म के पहले और जन्म के पश्चात् जिजस समय र्वोह बड़ा हो रहा हो सदाचार का पालन करें, तो यह जानी- मानी बात है किक बालक स्र्वोाभार्वोत:

सत्य और पे्रम के किनयमों का ही पालन करेगा। ... और मेरा किर्वोश्र्वोास कीजिजए किक सैकड़ों- या कहूँ किक हजारों- बालकों के अनुभर्वो पर से मैं यह जानता हूँ किक बालकों में हमारी और आपकी अपेक्षा धमा2चार का ज्यादा सूक्ष्म ज्ञान होता है। यठिद हम अना अहंकार छोड़कर कुछ नम्र बन जाएँ, तो जीर्वोन बडे़-से- बड़ पाF हम बुजुगk और किर्वोद्वानों से नहीं

बल्किwक जिजन्हें अज्ञानी माना जाता है उन बालकों से सीख सकते हैं। ज्ञान बालकों के मँुह से प्रगट होता है, भगर्वोान ईसा के इस र्वोचन में जो सत्य है उससे ज्यादा उदात्ता या ऊँचा दूसरा सत्य उन्होंने शायद ही कहा हो। मैं इस र्वोचन

को स्र्वोीकार करता हूँ। मैंने खुद ही देखा है किक यठिद हम बच्चों के पास नम्र होकर जाए,ँ तो हम उनके ज्ञान पा सकते हैं। मैंने तो यह एक पाF सीखा हे किक मनुष्य के क्तिलए जो असंभर्वो है, भगर्वोान के क्तिलए र्वोह बच्चे का खेल है; और यठिद

हमारा उस किर्वोधाता में, जो अपनी सृमिN के कु्षद्रतम जीर्वो के भी भाग्य पर दृमिN रखता है, किर्वोश्र्वोास हो, तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है किक सब बातें संभर्वो हैं। और इसी आशा के आधार पर मैं अपना जीर्वोन यापन कर रहा हूँ और

उसकी इच्छा का पालन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। यठिद हमें इस दुकिनया में सच्ची शांकित प्राप्त करना है और यठिद हमें युद्ध के खिखलाफ सचमुच युद्ध चलाना है, तो हमें अपने काय2 का आरंभ बालकों से करना होगा। और यठिद बालक

अपनी स्र्वोाभाकिर्वोक पकिर्वोत्रता कायम रखते हुए बडे़ होते हैं, तो हमें अपने उदे्दश्य के क्तिलए संघ�2 नहीं करना पडे़गा, किनरथ2क और किनष्फल क्तिसद्ध होने र्वोाले प्रस्तार्वो पास नहीं करने पड़ेंगे। तब हम प्रेम की ठिदशा में, शांकित से ज्यादा शांकित

की ठिदशा में अनायास बढ़ते चले जाएगेँ और अंत में हम देखेंगे किक इस छोर से उस छोर तक सारी दुकिनया उस शांकित और पे्रम से प्लाकिर्वोत हो गई है, जिजसके क्तिलए जाने- अनजाने र्वोह तरस रही है।

59 सांप्रदामियक एकता पीछे     आगे

कौमी या सांप्रदामियक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं। लेकिकन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं किक एकता का मतलब क्तिसफ2 राजनीकित एकता नहीं है। राजनीकितक एकता तो जोर-जबरदस् ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच् चे मानी तो हैं र्वोह ठिदल् ली दोस् ती, जो किकसी के तोडे़ न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के क्तिलए सबसे पहली जरूरत इस बात की है किक कांग्रेसजन, किफर र्वोे किकसी भी धम2 के मानने र्वोालें हो, अपने को हिह�दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी यहूदी र्वोगैरा सभी कौमों के नुमाइंदा समझें। हिह�दुस् तान के करोड़ों बाचिश�दों में से हर एक के साथ र्वोे अपने पन का-आत् मीयता का-अनुभर्वो करें; यानी र्वोे उनके सुख-दु:ख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत् मीयता क्तिसद्ध करने के क्तिलए हर एक कांग्रेसी को चाकिहए किक र्वोह अपने धम2 से णिभन् न धम2 का पालन करने र्वोालें लोगों के साथ किनजी दोस् ती कामय करे, और अपने धम2 के क्तिलए उसके मन में जैसा पे्रम हो, Fीक र्वोैसा ही पे्रम र्वोह दूसरे धम2 से भी करें।

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हिह�दू, मुसलमान, ईसाई, क्तिसक् ख, पारसी आठिद को अपने मतभेद हिह�सा का आश्रय लेकर और लड़ाई-झगड़ा करके नहीं किनपटाने चाकिहए। ...हिह�दू और मुसलमान मुँह से तो कहते हैं किक धम2 में जबरदस् ती को कोई स् थान नहीं है। लेकिकन यठिद हिह�दू गाय को बचाने के क्तिलए मुसलमान की हत् या करें, तो यह जबरदस् ती के क्तिसर्वोा और क् या है? यह तो मुसलमान को बलात् हिह�दू बनाने जैसी ही बात है। और इसी तरह यठिद मुसलमान जो-जबरदस् ती से हिह�दुओं को मसजिजदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोक्तिशश करते हैं, तो यह भी जबरदस् ती के क्तिसर्वोा और क् या है? धम2 तो इस बात में है किक आस-पास चाहे जिजतना शोरगुल होता रहे, किफर भी हम अपनी प्राथ2ना में तल् लीन रहें। यठिद हम एक-दूसरे को अपनी धार्मिम�क इच् छाओं का सम् मान करने के क्तिलए बाध् य करने की बेकार कोक्तिशश करते रहे, तो भार्वोी पीठिढ़याँ हमें धम2 के तत् त् र्वो से बेखबर जंगली ही समझेंगी।

यठिद अपने अंतर का आदेश मानकर कोई आय2समाजी प्रचारक अपने धम2 का और मुसलमान प्रचारक अपने धम2 का उपदेश करता है, और उससे हिह�दू-मुस्थिस्लम-एकता खतरे में पड़ जाती है, तो कहना चाकिहए किक यह एकता किबलकुल ही ऊपरी है। ऐसी प्रचार-प्रर्वोृणिuयों से हमें किर्वोचक्तिलत क् यों होना चाकिहए ? ᣛ अलबत् ता, ये पर्वोृणिuयाँ सच् चाई से पे्ररिरत होनी चाकिहए। यठिद मलकाना जाकित के लोग हिह�दू धम2 में र्वोाकिपस आना चाहते हैं, तो उन् हें इसका पूरा अमिधकार है; र्वोे जब भी आना चाहें आ सकते हैं। लेकिकन इस क्तिसलक्तिसले में ऐसे किकसी प्रचार की अनुमकित नहीं दी जा सकती, जिजसमें दूसरे धमk को गाक्तिलयाँ दी जाती हो, कारण, दूसरे धमk की हिन�दा में परमत-सकिह�् णुता का क्तिसद्धांत भंग होता है। ऐसे प्रचार से किनपटने का सबसे अच् छा उपाय यह है किक उसकी सार्वो2जकिनक रीकित से हिन�दा की जाए। हर एक आंदोलन सामाजिजक प्रकित�् Fा का जामा पहनकर आगे आने की कोक्तिशश करता है। यठिद लोग उसके इस नकली आर्वोरण को फाड़ दें, तो प्रकित�् Fा के अभार्वो में र्वोह मर जाता है।

अब हिह�दू-मुसलमानों के झगड़ों के दो स् थायी कारणों का क् या इलाज हो सकता है, इसकी जाँच करें।

पहले गोर्वोध को लीजिजए। गोरक्षा को मैं हिह�दू धम2 का प्रधान अंग मानता हूँ। प्रधान इसक्तिलए किक उच् च र्वोगk और आम जनता दोनों के क्तिलए यह समान है। किफर भी इस बारें में हम जो मुसलमानों पर ही रो� करते हैं, यह बात किकसी भी तरह मेरी समझ में नही आती। अँग्रेजों के क्तिलए रोज किकतनी ही गाए ँकटती हैं। परंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही किहलाते होंगे। केर्वोल जब कोई मुसलमान गाय की हत् या करता है, तभी हम क्रोध के मारे लाल-पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जिजतने झगडे़ हुए हैं, उनमें से प्रत् येक में किनरा पागलपन भरा शक्ति)क्षय हुआ है। इसके एक भी गाय नहीं बची। उलटे, मसलमान ज ्यादा जिजद्दी बने हैं और इस कारण ज ्यादा गाए ँकटने लगी है।

गोरक्षा का प्रारंभ तो हमी को करना है। हिह�दुस् तान में ढोरों की जो दुद2शा है र्वोैसी दुकिनया के किकसी भी दूसरे किहस् से में नहीं। हिह�दू गाड़ीर्वोानों को थककर चूर हुए बैलों को लोंहे की तेज आर र्वोाली लकड़ी से किनद2यता के साथ हाँकते देखकर मैं कई बार रोया हूँ। हमारे अधभूखे रहने र्वोाले जानर्वोर हमारी जीती-जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिह�दू गाय को बेचते हैं इसक्तिलए गायों की गद2न कसाई की छुरी का क्तिशकार होती है।

ऐसी हालत में एकमात्र सच् चा और शोभास् पद उपाय यही है किक मसलमानों के ठिदल हम जीत लें और गाय का बचार्वो करना उनकी शराफत पर छोड़ दें। गोरक्षा-मंडलों को ढोंरों को खिखलाने-किपलाने, उन पर होने र्वोाली किनद2यता को रोकने, गोचर-भूमिम के ठिदन-ठिदन होने र्वोाले लोप को रोकने, पशुओं की नसल सुधारने, गरीब ग् र्वोालों से उन् हें खरीद लेने और मौजूदा हिप�जरापोलों को दूध की आदश2 स् र्वोार्वोलंबी डेरिरयाँ बनाने की तरफ ध् यान देना चाकिहए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक को भी करने में हिह�दू चूकें गे, तो र्वोे ईश् र्वोर और मनु�् य दोनों के सामने अपराधी Fहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने र्वोाले गोर्वोध को र्वोे रोक न सकें , तो इसमें उनके मत् थ ेपाप नहीं चढ़ता। लेकिकन जब र्वोे गाय को बचाने के क्तिलए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं, तब र्वोे जरूर भारी पाप करते हैं।

मसजिजदों के सामने बाज ेबजने के सर्वोाल पर-अब तो मंठिदरों के भीतर होने र्वोाली आरती का भी किर्वोरोध किकया जा है-मैंने गंभीरता पूर्वो2क सोचा है। जिजस तरह हिह�दू गोर्वोध से दु:ख होते हैं, उसी तरह मुसलमानों को मसजिजदों के सामने बाजा बजने पर बुरा लगता है। लेकिकन जिजस तरह हिह�दू मुसलमानों को गोर्वोध न करने के क्तिलए बाध् य नहीं कर सकते, उसी तरह मुसलमान भी हिह�दुओं का डरा-धमकाकर बाज या आरती बंद करने के क्तिलए बाध् य नहीं कर सकते। उन् हें हिह�दुओं की सठिदच् छा का किर्वोश् र्वोास करना चाकिहए। हिह�दू के नाते मैं हिह�दुओं को यह सलाह जरूर दँूगा किक र्वोे सौदेबाजी

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की भार्वोना रखे किबना अपने मुसलमान पड़ोक्तिसयों के भार्वोों को समझें और जहाँ संभर्वो हो र्वोहाँ उनका खयाल रखें। मैंने सुना है। किक कई जगह हिह�दू लोग जान-बुझकर और मुसलमानों का जी दुखाने के इरादे से ही आरती Fीक उस समय करते हैं जब किक मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह एक हृदय हीन और शत्रुतापूण2 काय2 हे। मिमत्रता में मिमत्र के भार्वोों का पूरा-पूरा खयाल रखा ही जाना चाकिहए। इसमें तो कुछ सोच-किर्वोचार की भी बात नहीं है। लेकिकन मुसलमानों को हिह�दुओं से डरा-धमकाकर बाजा बंद करर्वोाने की आशा नहीं रखनी चाकिहए। धमकिकयों अथर्वोा र्वोास् तकिर्वोक हिह�सा के आगे झुक जाना अपने आत् म-सम् मान और धार्मिम�क किर्वोश् र्वोासों का हनन है। लेकिकन जो आदमी मौके हमेशा यथासंभर्वो कम करने की और संभर्वो हो तो टालने की भी पूरी कोक्तिशश करेगा।

मुझे इस बात का पूरा किनश् चय है किक यठिद नेता न लड़ना चाहें, ता आम जनता को लड़ना पसंद न हीं है। इसक्तिलए यठिद नेता लोग इस बात पर राजी हो जाए ँकिक दूसरे सभ् य देशों की तरह हमेशा देश में भी आपसी लड़ाई-झगड़ों का सार्वो2जकिनक जीर्वोन से पूरा उच् छेद कर ठिदया जाना चाकिहए और र्वोे जंगलीपन और अधार्मिम�कता के क्तिचह्र माने जाने चाकिहए, तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं किक आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।

जब किब्रठिटश शासन नहीं था और अँग्रेज लोग यहाँ ठिदखाई नहीं पड़ते थ,े तब क् या हिह�दू, मुसलमान और क्तिसक् ख हमेशा एक-दूसरे से लड़ते ही रहते थ?े हिह�दू इकितहासकारों और मुसलमान इकितहासकारों ने उदाहरण देकर य ह क्तिसद्ध किकया है किक उस समय में हम बहुत हद तक किहल-मिमलकर और शांकितपूर्वो2क ही रहते थे। और गाँर्वोों में तो हिह�दू-मुसलमान आज भी नहीं लड़ते। उन ठिदनों र्वोे किबलकुल ही नहीं लड़ते थे। ... यह लड़ाई-झगड़ा पुराना नहीं है। ... मैं तो किहम् मत के साथ यह कहता हूँ किक र्वोह किब्रठिटश शासकों के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है; और जब गे्रट किब्रटेन और भारत के बीच आज जो दुभा2ग् यपूण2, कृकित्रम और अस् र्वोाभाकिर्वोक संबंध है र्वोह बदलकर सही और स् र्वोाभाकिर्वोक बन जाएगा, जब उसका रूप एक ऐसी स् र्वोेच् छापूण2 साझेदारी का हो जाएगा, जो किकसी भी समय दोनों में से किकसी भी पक्ष की इच् छा पर तोड़ी जा सके, उस समय आप देखेंगे किक हिह�दू, मुसलमान, क्तिसक् ख, ईसाई, अछूत, एगं् लो-इंकिडयन और यूरोकिपयन सब किहल-मिमलकर एक हो गए हैं।

मुझे इस बात में रंचमात्र भी संदेह नहीं है किक सांप्रदामियक मतभेद का कुहासा आजादी के सूय2 का उदय होते

60 वण*श्रम 2म* पीछे     आगे

मैं ऐसा मानता हूँ किक हर एक आदमी दुकिनया में कुछ स् र्वोाभाकिर्वोक प्रर्वोृणिuयाँ लेर जन् म लेता है। इसी तरह हर एक आदमी की कुछ किनणिZत सीमाए ँहोती हैं, जिजन् हें जीतना उसके क्तिलए शक् य नहीं होता। इन सीमाओं के ही अध् ययन और अर्वोलोकन से र्वोण2 का किनयम किन�् पन् न हुआ है। र्वोह अमुक प्रर्वोृणिuयों र्वोाले अमुक लोगों के क्तिलए अलग-अलग काय2के्षत्रों की स् थापना करता है। ऐसा करके उसने समाज में से अनुक्तिचत प्रकितस् पधा2 को टाला है। र्वोण2 का किनयम आदमिमयों की अपनी स् र्वोाभाकिर्वोक सीमाए ँतो मानता है, लेकिकन र्वोह उनमें ऊँचे और नीचे का भेद नहीं मानता। एक ओर तो र्वोह ऐसी र्वो् यर्वोस् था करता है किक हर एक को उसके परिरश्रम का फल अर्वोश् य मिमल जाए,ँ और दूसरी ओर र्वोह उसे अपने पड़ोक्तिसयों पर भार रूप बनने से रोकता है। यह ऊँचा किनयम आज नीचे किगर गया है और किनदां का पात्र बन गया है। लेकिकन मेरा किर्वोश् र्वोास है किक आदश2 समाज-र्वो् यर्वोस् था का किर्वोकास तभी किकया जा सकेगा, जब इस किनयम के रहस् यों को पूरी तरह समझा जाएगा और काया2प्तिन्र्वोत किकया जाएगा।

र्वोणा2श्रम धम2 बताता है किक दुकिनया में मनु�् य का सच् चा लक्ष् य क् या है। उसका जन् म इसक्तिलए नहीं हुआ है किक र्वोह रोज-रोज ज ्यादा पैसा इकटFा करने के रास् ते खोजे और जीकिर्वोका के नए-नए साधनों की खोज करे। उसका जन् म तो इसक्तिलए हुआ है किक र्वोह अपनी शक्ति) का प्रत् येक अणु अपने किनमा2ता को जानने में लगाए।ँ इसक्तिलए र्वोणा2मश्र-धम2 कहता है। किक अपने शरीर के किनर्वोा2ह के क्तिलए मनु�् य अपने पूर्वो2जों का ही धंधा करें। बस, र्वोणा2श्रम धम2 का आशय इतना ही है।

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र्वोण2-र्वो् यर्वोस् था में समाज की चौमुखी रचना ही मुझे तो असली, कुदरती और जरूरी चीज दीखती है। बेशुमार जाकितयों और उपजाकितयों से कभी-कभी कुछ आसान हुई होगी, लेकिकन इसमें शक नहीं किक ज ्यादातर तो जाकितयों से अड़चन ही पैदा होती है। ऐसी उपजाकितयाँ जिजतनी एक हो जाए ँउतना ही उसमें समाज का भला है।

आज तो ब्राह्मणों, क्षकित्रयों, र्वोैश् यों और शूद्रों के केर्वोल नाम ही रह गए हैं। र्वोण2 का मैं जो अथ2 करता हूँ उसकी दृमिN से देखें, तो र्वोणk का पूरा संकर हो गया है और ऐसी हालत में मैं तो यह चाहता हूँ किक सब हिह�दू अपने को स् र्वोेच् छापूर्वो2क शूद्र कहने लगे। ब्राह्मण-धम2 की सच् चाई को उजागर करने और सच् चे र्वोण2-धम2 को पुन: जीकिर्वोत करने का यही एक रास् ता है।

जातपांत

जातपांत क बारे में मैंने बहुत बार कहा है किक आज के अथ2 में मैं जात-पांत को नहीं मानता। यह समाज का 'फालतू अंग' है और तरक् की के रास् ते में रुकार्वोट जैसा है। इसी तरह आदमी आदमी के बीच-ऊँच-नीच का भेद भी मैं नहीं मानता। हम सब पूरी तरह बराबर हैं। लेकिकन बराबरी आत् मा की है, शरीर की नहीं। इसक्तिलए यह मानक्तिसक अर्वोस् था की बात है। बराबरी का किर्वोचार करने की और उसे जोर देकर जाकिहर करने की जरूरत पड़ती है, क् योंकिक दुकिनया में ऊँच-नीच के भारी भेद ठिदखाई देते है। इस बाहर से दीखने र्वोाले ऊँच-नीचपन में से हमें बराबरी पैदा करनी है। कोई भी मनु�् य अपने को दूसे से ऊँचा मानता हैं, तो र्वोह ईश् र्वोर और मनु�् य दोनों के सामने पाप करता है। इस तरह जातपांत जिजस हद तक दरजे का फक2 जाकिहर करती है उस हद तक र्वोह बुरी चीज हैं।

लेकिकन र्वोण2 को मैं अर्वोश् य मानता हूँ। र्वोण2 की रचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी के धंधों की बुकिनयादी पर हुई है। मनु�् य के चार धंधे सार्वो2कित्रक हैं किर्वोद्यादान करना, दुखी को बचाना, खेती तथा र्वो् यापार और शरीर की मेहनत से सेर्वोा। इन् हीं को चलाने के क्तिलए चार र्वोण2 बनाए गए हैं। ये धंधे सारी मानर्वो-जाजिज के क्तिलए समान हैं, पर हिह�दू धम2 ने उन् हें जीर्वोन-धम2 करार देकर उनका उपयोग समाज के संबंधों और आचार-र्वो् यर्वोहार के क्तिलए किकया है। गुरुत् र्वोाक�2ण के कानून को हम जानें या न जानें, उसका असर तो हम सभी पर होता है। लेकिकन र्वोैज्ञाकिनकों ने उसके भीतर से ऐसी बातें किनकाली हैं, जो दुकिनया को चौंकाने र्वोाली हैं। इसी तरह हिह�दू धम2 ने र्वोण2-धम2 की तलाश करके और उसका प्रयोग करके दुकिनया को चौंकाया है। जब हिह�दू अज्ञान के क्तिशकार हो गए, तब र्वोण2 के अनुक्तिचत उपयोग के कारण अनकिगनत जाकितयाँ बनीं और रोटी-बेटी र्वो् यर्वोहार के अनार्वोश् यक और हाकिनकारक बंधन पैदा हो गए। र्वोण2-धम2 का इन पाबंठिदयों के साथ कोई नाता नहीं है। अलग-अलग र्वोण2 के लोग आपस में रोटी-बेटी र्वो् यर्वोहार रख सकते हैं। चरिरत्र और तंदुरुस् ती के खाकितर ये बंधन जरूरी हो सकते हैं। लेकिकन जो ब्राह्मण शूद्र की लड़की से या शूद्र ब्राह्मण की लड़की से ब् याह करता है र्वोह र्वोण2-धम2 को नहीं मिमटाता।

अस् पृश् यता की बुराई से खीझकर जाकित-र्वो् यर्वोस् था का ही नाश करना उतना ही गलत होगा, जिजतना किक शरीर में कोई कुरूप र्वोृजिद्ध हो जाए तो शरीर का या फसल में ज ्यादा घास-पास उगा हुआ ठिदखे तो फसल का ही नाश कर डालना है। इसक्तिलए अस् पृश् यता का नाश तो जरूर करना है। संपूण2 जाकित-र्वो् यर्वोस् था को बचाना हो तो समाज में बढ़ी हुई इस हाकिनकारक बुराई को दूर करना ही होगा। अस् पृश् यता जाकित-र्वो् यर्वोस् था की उपज नहीं है, बल्किwक उस ऊँच-नीच-भेद की भार्वोना का परिरणाम है, जो हिह�दू धम2 में घुस गई है और उसे भीतर-ही-भीतर कुतर रही है। इसक्तिलए अस् पृश् यता के खिखला। हमारा आक्रमण इस ऊँच-नीच की भार्वोना के खिखलाफ ही है। ज ्यों ही अस् पृश् यता न�् ट होगी जाकित-र्वो् यर्वोस् था स् र्वोयं शुद्ध हो जाएगी; यानी मेरे सपने के अनुसार र्वोह चार र्वोणk र्वोाली सच् ची र्वोण2-र्वो् यर्वोस् था का रूप ले लेगी। ये चारों र्वोण2 एक-दूसरे के पूरक और सहायक होंगे, उनमें से कोई किकसी से छोटा-बड़ा नहीं होगा; प्रत् येक र्वोण2 हिह�दू धम2 के शरीर के पो�ण के क्तिलए समान रूप से आर्वोश् यक होगा।

आर्थिथ�क दृमिN से जाकितप्रथा का किकसी समय बहुत मूल् य था। उसके फलस् र्वोरूप नई पीठिढ़यों को उनके परिरर्वोारों में चले आए परंपरागत कला-कौशल की क्तिशक्षा सहज ही मिमल जाती थी और स् पधा2 का के्षत्र सीमिमत बनता था। गरीबी और कंगाली से होने र्वोाली तकलीफ को दूर करने का र्वोह एक उत् तम इलाज थी। और पणिZम में प्रचक्तिलत र्वो् यापारिरयों के संघों की संस् था के सारे लाभ उसमें भी मिमलते थे। यद्यकिप यह कहा जा सकता है किक र्वोह साहस और आकिर्वो�् कार की र्वोृणिu को बढ़ार्वोा नहीं देती थी, लेकिकन हम जानते हैं किक र्वोह उनके आडे़ भी नहीं आती थी।

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इकितहास की दृमिN से जाकितप्रथा को भारतीय समाज की प्रयोग-शाला में किकया गया मनु�् य का ऐसा प्रयोग कहा जा सकताहै, जिजसका उदे्दश् य समाज के किर्वोकिर्वोध र्वोगk का पारस् परिरक अनुकूलन और संयोजन करना था। यठिद हम उसे सफल बना सकें तो दुकिनया में आजकल लोभ के कारण जो कू्रर प्रकितस् पधा2 और सामाजिजक किर्वोघटन होता ठिदखाई देता है, उसके उत् तम इलाज के रूप में उसे दुकिनया को भेंट में ठिदया जा सकता है।

अंतर-जातीय विववाह और खान-पान

र्वोणा2श्रम में अंतर- जातीय किर्वोर्वोाहों या खान- पान का किन�ेध नहीं है, लेकिकन इसमें कोई जोर- जबरदस्ती भी नहीं हो सकती। व्यक्ति) को इस बात का किनश्चय करने की पूरी छूट मिमलनी चाकिहए किक र्वोह कहाँ शादी करेगा और कहाँ

खाएगा।

61 अस्ृ्पश्यता का अभिभशाप पीछे     आगे

आजकल हिह�दू धम2 में जो अस् पृश् यमा देखने में आती है, र्वोह उसका एक अमिमट कलंक है। मैं यह मानने से इनकार करता हूँ किक र्वोह हमारे समाज में स् मरणातीत काल से चली आई है। मेरा खयाल है किक अस् पृश् यता की यह घृणिणत भार्वोना हम लोगों में तब आई होगी जब हम अपने पतन की चरम सीमा पर रहे होंगे। और तब से यह बुराई हमारे साथ लग गई और आज भी लगी हुई है। मैं मानता हूँकिक यह एक भयंकर अणिभशाप है। और यह अणिभशाप जब तक हमारे साथ रहेगा तब तक मुझे लगता है किक इस पार्वोन भूमिम में हमें जब जो भी तकलीफ सहना पडे़ र्वोह हमारे इस अपराध का, जिजसे हम आज भी कर रहे हैं, उक्तिचत दंड होगी।

मेरी राय में हिह�दू धम2 में ठिदखाई पड़ने र्वोाला अस् पृश् यता का र्वोत2मान रूप ईश् र्वोर और मनु�् य के खिखलाफ किकया गया भयंकर अपराध है और इसक्तिलए र्वोह एक ऐसा किर्वो� है जो धीरे-धीरे हिह�दू धम2 के प्राण को ही किन:शे� किकए दे रहा है। मेरी राय में शास् त्रों में, यठिद हम सब शास् त्रों में एक तरह की किहतकारी अस् पृश् यता का किर्वोधान जरूर है, लेकिकन उस तरह की अस् पृश् यता तो सब धमk मे पाई जाती है। र्वोह अस् पृश् यता तो स् र्वोच् छता के किनयम का ही एक अंग है। र्वोह तो सदा रहेगी। लेकिकन भारत में हम एक प्रांत में, यहाँ तक किक हर एक जिजले में, अलग-अलग किकतने ही रूप हैं। उसने अस् पृश् यों और स् पृश् यों, दोनों को नीचे किगराया है। उसने लगभग चार करोड़ मनु�् यों का किर्वोकास रोक रखा है। उन् हें जीर्वोन की सामान् य सुकिर्वोधाए ँभी नहीं दी जाती। इसक्तिलए इस बुराई को जिजतनी जल् दी किनम2ल कर ठिदया जाए, उतना ही हिह�दू धम2, भारत और शायद समग्र मानर्वो-जाकित के क्तिलए र्वोह कल् याणकारी क्तिसद्ध होगा।

यठिद हम भारत की आबादी के पाँच र्वोे किहस् से को स् थायी गुलामी की हालत में रखना चाहते हैं और जान-बूझकर रा�् ट्रीय संस् कृकित के फलों से र्वोंक्तिचत रखना चाहते है, तो स् र्वोराज् य एक अथ2हीन शब् द मात्र होगा। आत् म शुजिद्ध के इस महान आंदोलन में हम भगर्वोान की मदद की आकांक्षा रखते हैं, लेकिकन उसकी प्रजा के सबसे ज ्यादा सुपात्र अंश को हम मानर्वोता के अमिधकारों से र्वोंक्तिचत रखते हैं। यठिद हम स् र्वोयं मानर्वोीय दया से शून् य हैं, तो उसके चिस�हासन के किनकट दूसरों की किन�् Fुरता से मुक्ति) पाने की याचना हम नहीं कर सकते।

इस बात से कभी किकसी ने इनकार नहीं किकया है किक अस् पृश् यता एक पुरानी प्रथा है। लेकिकन यठिद र्वोह एक अकिन�् ट र्वोस् तु है, तो उसकी प्राचीनता के आधार पर उसका बचार्वो नहीं किकया जा सकता। यठिद अस् पृश् य लोग आयk के समाज के बाहर हैं, तो इसमें उस समाज की ही हाकिन है। और यठिद यह कहा जाए किक आयk ने अपनी प्रगकित-यात्रा में किकसी मंजिजल पर किकसी र्वोग2-किर्वोशे� को दंड के तौर पर समाज से बकिह�् कृत कर ठिदया था, तो उनके पूर्वो2जों को किकसी भी कारण से दस्थिण्डत किकया गया हो, परंतु र्वोह दंड उस र्वोग2 की संतान को देते रहने का कोई कारण नहीं हो सकता। अस् पृश् य लोग भी आपस में अस् पृश् यता का जो पालन करते हैं, उससे इतनी ही क्तिसद्ध होता है किक किकसी अकिन�् ट र्वोस् तु को सीमिमत नहीं रखा जा सकता और उसका घातक प्रभार्वो सर्वो2त्र फैल जाता है। अस् पृश् यों में भी अस् पृश् यता का होना इस बात के क्तिलए एक अकितरिरक् त कारण है किक सुसंस् कृत हिह�दू समाज को इस अणिभशाप से जल् दी-से-जल् दी मुक् त हो जाना चाकिहए। यठिद अस् पृश् यों को अस् पृश् य इसक्तिलए माना जाता है किक र्वोे जानर्वोारों को मानते हैं और

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माँस, रक् त, हकिडडयां और मैला आठिद छूते हैं, तब तो हर एक नस2 और डॉक् टर को भी अस् पृश् य माना जाना चाकिहए; और इसी तरह मुसलमानों, ईसाइयों और तथाकक्तिथत ऊँचे र्वोगk के उन हिह�दुओं को भी अस् पृश् य माना जाना चाकिहए, जो आहार अथर्वोा बक्तिल के क्तिलए जानर्वोरों की हत् या करते हैं। कसाई खाने, शराबकी दुकानें, र्वोेश् यालय आठिद बस् ती से अलग होते हैं या होने चाकिहए, इसक्तिलए अस् पृश् यों को भी समाज से दूर और अलग रखा जाना चाकिहए-यह दलील अस् पृश् यों के खिखलाफ लोगों के मन में चले आ रहे उत् कट पूर्वोा2ग्रह को ही बताती है। कसाई खाने और ताड़ी-शराब की दुकानें आठिद जरूर बस् ती से दूरतथा अलग होते हैं और होने चाकिहए। लेकिकन कसाइयों और ताड़ी अथर्वोा शराब के किर्वोके्रताओं को शे� समाज से अलग नहीं रखा जाता।

हम आंतरिरक प्रलोभनों तथा मोह में क्तिलप् त हैं और अत् यंत अस् पृश् य और पापपूण2 किर्वोचारों के प्रर्वोाह हमारे मन में चलते हैं और उसे कलुकि�त करते हैं। हमें समझना चाकिहए किक हमारी कसौटी हो रही है। ऐसी स्थि^कित में हम अणिभमान के आरे्वोश में अपने उन भाइयों के स् पश2 के प्रभार्वोके बारे में, जिजन् हें हम अक् सर अज्ञानर्वोश और ज ्यादातर तो दुरणिभमान के कारण अपने से नीचा समझते हैं, अत् युक्ति) न करें। भगर्वोान के दरबार में हमारी अच् छाई-बुराई का किनण2य इस बात से नहीं किकया जाएगा किक हम क् या खाते-पीते रहे हैं या हमें किकस-किकसने छुआ है; उसका किनण2य तो इस आधार पर किकया जाएगा किक हमने किकन-किकन की सेर्वोा की है और किकस तरह की है। यठिद हमने एक भी दीन-दुखी आदमी की सेर्वोा की होगी, तो हमें भगर्वोान की कृपादृमिN प्राप् त होगी। ... अमुक र्वोस् तुए ँन खाने की बात का उपयोग हम कपट-जाल, पाखंड और उससे भी अमिधक पापपूण2 कायk को क्तिछपाने के क्तिलए नहींकर सकते। इस आशंका से किक कहीं उनका स् पश2 हमारी आध् यास्त्रित्मक उन् नकित में बाधक न हो, हम किकसी पकितत अथर्वोा गंदी रहन-सहन र्वोाले भाई-बहन की सेर्वोा से इनकार नहीं कर सकते।

भंगी

जिजस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है। र्वोहाँ कोई बड़ा दो� पैF गया है, ऐसा मुझे तो बरसों से लगता रहा है। इस जरूरी और तंदुरुस् ती बढ़ाने र्वोाले काम को सबसे नीच काम पहले-पहल किकसने माना, इसका इकितहास हमारे पास नहीं है। जिजसने भी माना उसने हम पर उपकार तो नहीं ही किकया। हम सब भंगी है, र्वोह यह भार्वोना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाकिहए; और उसका सबसे आसान तरीका यह है किक जो समझ गए हैं र्वोे जात-मेहनत का आरंभ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर ज्ञानपूर्वो2क यह करेगा,र्वोह उसी क्षण से धम2 को किनराले ढँग से और सही तरीके से समझने लगेगा।

आरंभ में अस्पृश्यता स्र्वोच्छता के किनयमों में से एक थी और भारत के बाहर दुकिनया के कई किहस्सों में आज भी उसका यही रूप है। र्वोह किनयम यह है किक चीज गंदी हो गई हो या आदमी किकसी कारण गंदा हो गया हो तो उसे छूना नहीं

चाकिहए, लेकिकन ज्यों ही उसका गंदापन दूर हो जाए या कर ठिदया जाए त्यों ही उसे छू सकते हैं। इसक्तिलए भंगी काम करने र्वोाले व्यक्ति)- किफर चाहे र्वोह भंगी हो जिजसे किक उस काम का पैसा मिमलता है या माँ हो जिजसे अपने इस काम का कोई पैसा नहीं मिमलता तब तक गंदे और अस्पृश्य माने जाएगँे, जब तक र्वोे नहा- धोकर इस गंदगी को दूर नहीं कर देते। इसक्तिलए भंगी हमेशा के क्तिलए अस्पृश्य न माना जाए, बल्किwक उसे हम अपना भाई मानें। र्वोह समाज की एक ऐसी सेर्वोा करता है, जिजसमें उसका शरीर गंदा हो जाता है; हमें चाकिहए किक हम उसे इस गंदगी को साफ करने का का मौका दें, बल्किwक उस काय2 में उसकी सहायता करें और किफर उसे समाज के किकसी भी सदस्य की तरह स्र्वोीकार करें।

62 भारत में 2ार्मिमंक सविहष्णुयता पीछे     आगे

हिहंदू 2म*

मैं जिजतने धमk को जानता हूँ उन सब में हिह�दू धम2 सबसे अमिधक सकिह�् णु है। इसमें कट्टरता का जो अभार्वो है र्वोह मुझे बहुत पसंद आता है, क् यों किक इससे उसके अनुयायों को आत् माणिभर्वो् यक्ति) के क्तिलए अमिधक-से-अमिधक अर्वोसर मिमलता है। हिह�दू धम2 एकांगी धम2 नहीं होने के कारण उसके अनुयायी न क्तिसफ2 अन् य सब धमk पर आदर कर सकते

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है, परंतु दूसरे धमk में जो कुछ अच् छाई हो उसकी प्रशंसा भी कर सकते हैं और उसे हजम भी कर सकते हैं। अहिह�सा सब धमk में समान है। परंतु हिह�दू धम2 में र्वोह सर्वो�च् च रूप में प्रगट हुई हैं। और उसका प्रयोग भी हुआ है। (मैं जैन धम2 या बौद्ध धम2 को हिह�दू धम2 से अलग नहीं मानता।) हिह�दू धम2 न केर्वोल मनु�् य मात्र की बल्किwक प्राणीमात्र किक एकता में किर्वोश् र्वोास रखता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धम2 के किर्वोकास में अद्भतु सहायता की है। यह प्राणीमात्र की एकता में और इसक्तिलए पकिर्वोत्रता में किर्वोश् र्वोास रखने का र्वो् यार्वोहारिरक प्रयोग हैं। पुनज2न् म की महान धारणा इस किर्वोश् र्वोास का सीधा परिरणाम है। अंत में र्वोणा2श्रम धम2 का आकिर्वो �् कार सत् य की किनरंतर शोध का भर्वो् य परिरणाम है।

बौद्ध 2म*

मेरा दृढ़ मत है किक बौद्ध धम2 या बुद्ध की क्तिशक्षा का पूरा परिरणत किर्वोकास भारत में ही हुआ; इससे णिभन् न कुछ हो भी नहीं सकता था, क् योंकिक गौतम स् र्वोयं एक श्रे�् F हिह�दू ही तो थे। र्वोे हिह�दू धम2 में जो कुछ उत् तम है उससे ओतप्रोत थ ेऔर उन् होंने अपना जीर्वोन ककितपय ऐसी क्तिशक्षाओं की शोध और प्रसार के क्तिलए ठिदया, जो र्वोेदों में क्तिछपी पड़ी थीं और जिजन् हें समय की कोई ने ढक ठिदया था। ...बुद्ध ने हिह�दू धम2 का कभी त् याग नहीं किकया; उन् होंने तो उसके आधार का किर्वोस् तार किकया। उन् होंने उसे नया जीर्वोन और नया अथ2 ठिदया।

बेशक, उन् होंने इस धारणा को अस् र्वोीकार कर ठिदया था किक ईश् र्वोर नामधारी कोई प्राणी दे्व�र्वोश काम करता है, अपने कमk पर पश् चात् ताप कर सकता हैं, पार्थिथ�र्वो राजाओं की तरह र्वोह भी प्रलोभनों और रिरर्वोाजों में फँस सकता है और उसका कृपापात्र बना जा सकता है। उनकी सारी आत् मा ने इस किर्वोश् र्वोास के किर्वोरुद्ध प्रबल किर्वोद्रोह किकया था किक ईश् र्वोर नामधारी प्राणी को अपने ही पैदा किकए हुए जीकिर्वोत प्राणिणयों का जाता खून अच् छा लगता है और इससे र्वोह प्रसन् न होता है। इसक्तिलए बुद्ध ने ईश् र्वोर को किफर से उसके उक्तिचत स् थान पर किबFा ठिदया और जिजस अ नमिधकारी ने उस चिस�हासन को हस् तगत कर क्तिलया था उसे पदभ्र�् ट कर ठिदया। उन् होंने जोर देकर पुन: इस बात की घो�णा की किक इस किर्वोश् र्वो का नैकितक शासन शाश् र्वोत है और अपरिरर्वोत2नीय है। उन् होंने किन:संकोच यह कहा किक किनयम ही ईश् र्वोर हैं।

ईसाई 2म*

मैं यह नहीं मान सकता किक केर्वोल ईसा में ही देर्वोांश था। उनमें उतना ही ठिदर्वो् यांश था जिजतना कृ�् ण, राम, मुहम् मद या जरथुस् त्र में था। इसी तरह जैसे मैं र्वोेदों या कुरान के प्रत् येक शब् द को ईश् र्वोर-पे्ररिरत नहीं मानता, र्वोेसे ही बाइबल के प्रत् येक शब् द को भी ईश् र्वोर-पे्ररिरत नहीं मानता। बेशक, इन पुस् तकों की समस् त र्वोाणी ईश् र्वोर-पे्ररिरत नहीं मिमलती। मेरे क्तिलए बाइबल उतनी ही आदरणीय धम2-पुस् तक है, जिजतनी गीता और कुरान है।

यह मेरी पक् की राय है किक आज का यूरोप न तो ईश् र्वोर की भार्वोना का प्रकितकिनमिध है, न ईसाई धम2 की भार्वोना का, बल्किwक शैतान की भार्वोना का प्रतीक है। और शैतान की सफलता तब सब से अमिधक होता है, जब र्वोह अपनी जबान पर खुदा का नाम लेकर सामने आता है। यूरोप आज नाममात्र को ही ईसाई है। र्वोह सचमुच धन की पूजा कर रहा है। 'ऊँट के क्तिलए सुई की नो में होकर किनकलना आसान है, मगर किकसी धनर्वोान का स् र्वोग2 में जाना मुल्किश्कल है।' ईसा मसीह ने यह बात Fीक ही कहीं थी। उनसे तथाकक्तिथक अनुयायी अपनी नैकितक प्रगकित को अपनी धन-दौलत से ही नापते हैं।

इस् लाम

अर्वोश् य ही मैं इस् लाम को उसी अथ2 में शांकित का धम2 मानता हूँ, जिजस अ थ2 में ईसाई, बौद्ध और हिह�दू धम2 शांकित के धम2 हैं। बेशक, मात्र का फक2 है, परंतु इन सब धमk का उदे्दश् य शांकित ही है।

भारत की रा�् ट्रीय संस् कृकित के क्तिलए इस् लाम की किर्वोशे� देन तो यह है किक र्वोह एक ईश् र्वोर में शुद्ध किर्वोश् र्वोास रखता है और जो लोग उसके दायरे के भीतर हैं उनके क्तिलए र्वो् यर्वोहार में र्वोह मानर्वो-भ्रातृत् र्वो के सत् य को लागू करता है। इन् हें मैं इस् लाम की दो किर्वोशे� देनें मानता हूँ, क् योंकिक हिह�दू धम2 में भ्रातृभार्वो बहुत अमिधक दश2किनक बन गया हैं। इसी तरह

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दश2किनक हिह�दू धम2 में ईश् र्वोर किक र्वो् यार्वोहारिरक हिह�दू धम2 इस मामले में इतना कट्टर और दृढ़ आग्रह नहीं रखता जिजतना इस् लाम रखता है।

मैं ऐसी आशा नहीं करता हूँ किक मेरे सपनों के आदश2 भारत में केर्वोल एक ही धम2 रहेगा, यानी र्वोह संपूण2त: हिह�दू या ईसाई या मुसलमान बन जाएगा। मैं तो यह चाहता हूँ किक र्वोह पूण2त: उदार और सकिह�् णु बने और उसके सब धम2 साथ-साथ चलते रहें है।

मूर्वितंपूजा

हम सब मूर्षित�पूजक हैं। अपने आध् यास्त्रित्मक किर्वोकास के क्तिलए और ईश् र्वोर में अपने किर्वोश् र्वोास को दृढ़ करने के क्तिलए हमें मंठिदरों, मस्थिस्जदों, किगरजाघरों आठिद की जरूरत महसूस होती है। अपने मन में ईश् र्वोर के प्रकित भक्ति)भार्वो पे्ररिरत करने के क्तिलए लोगों को पत् थर या धातु की मूर्षित�याँ चाकिहए, कुछ को र्वोेदी चाकिहए, तो कुद को किकताब या तस् र्वोीर चाकिहए।

मंठिदर, मसजिजद या किगरजाघर... ईश् र्वोर के इन किर्वोणिभन् न किनर्वोास-स् थानों में मैं कोई फक2 नहीं करता। मनु�् य की श्रद्धा ने उनका किनमा2ण किकया है और उसने उन् हें जो माना है र्वोही र्वोे हैं। र्वोे मनु�् य की किकसी तरह 'अदृश् य शक्ति)' तक पहुँचने की आकांक्षा के परिरणाम हैं।

मेरे खयाल से मूर्षित�-पूजक और मूर्षित�-भंजक शब् दों का जो सच् चा अथ2 है उस अथ2 में मैं दोनों ही हूँ। मैं मूर्षित�पूजा की भार्वोना की कद्र करता हूँ। इसका मानर्वो-जाकित के उत् थान में अत्यंत महत् त् र्वोपूण2 भाग रहता है। और मैं चाहूँगा किक मुझ में हमारे देश को पकिर्वोत्र करने र्वोाले हजारों पार्वोन देर्वोालयों की रखा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करने का सामथ्2 य हो। ... मैं मूर्षित�-भंजक इस अथ2 में हूँ किक कट्टरता के रूप में मूर्षित�-पूजा मूर्षित�-पूजा का जो सूक््ष म रूप प्रचक्तिलत है उसे मैं तोड़ता हूँ। ऐसी कट्टरता रखने र्वोाले को अपने ही ढँग के क्तिसर्वोा और किकसी भी रूप में ईश् र्वोर की पूजा करने में कोई अच् छाई नजर नहीं आती। मूर्षित�पूजा का यह रूप अमिधक सूक््ष म होने के कारण पूजा के उस Fोस और स् थल रूप से अमिधक घातक है, जिजसमें ईश् र्वोर को पत् थर के एक छोटे-से टुकडे़ के साथ या साने की मूर्षित� के साथ एक समझ क्तिलया जाता है।

जब हम किकसी पुस्तक को पकिर्वोत्र समझकर उसका आदर करते है, तो हम मूर्षित� की पूजा ही करते हैं। पकिर्वोत्रता या पूजा के भार्वो से मंठिदरों या मसजिजदों में जाने का भी र्वोही अथ2 है। लेकिकन इस सब बातों में मुझे कोई हाकिन नहीं

ठिदखाई देती। उलटे, मनुष्य की बुजिद्ध सीमिमत है, इसक्तिलए र्वोह और कुद कर ही नहीं सकता। ऐसी हालत में र्वोृक्षपूजा में कोई मौक्तिलक बुराई या हाकिन ठिदखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भार्वोना और काव्यमय सौंदय2 ही ठिदखाई देता है। र्वोह समस्त र्वोनस्पकित- जगत के क्तिलए सच्चे पूजाभार्वो का प्रतीक है। र्वोनस्पकित- जगत तो संुदर रूपों और

आकृकितयों का अनंत भंडार है; उनक द्वारा र्वोह मानों असंख्य जिजह्वाओं से ईश्र्वोर की महानता और गौरर्वो की घो�णा करता है। र्वोनस्पकित के किबना इस पृथ्र्वोी पर जीर्वोधारी एक क्षण के क्तिलए भी नहीं रह सकते। इसक्तिलए ऐसे देश में, जहाँ खास तौर पर पेड़ों की कमी है, र्वोृक्षपूजा का एक गहरा आर्थिथ�क महत्त्र्वो जो जाता है।

63 2म*-परिरवत*न पीछे     आगे

मेरी हिह�दू धम2र्वोृणिu मुझे सखाती है किक थोड़ी या बहुत अंशों में सभ धम2 सच् चे हैं। सबकी उत् पणिu एक ही ईश् र्वोर से हुई है, परंतु सब धम2 अपूण2 हैं; क् योंकिक र्वोे अपूण2 मानर्वो-माध् यम के द्वारा हम तक पहुँचे हैं। सच् चा शुजिद्ध का आंदोलन यह होना चाकिहए किक हम सब अपने अपने धम2 में रहकर पूण2ता प्राप् त करने का प्रयत् न करें। इस प्रकार की योजना में एकमात्र चरिरत्र ही मनु�् य की कसौटी होगा। अगर एक बड़ें से किनकलकर दूसरे मे चले जाने से कोई नैकितक उत् थान न होता हो तो जाने से क् या लाभ? शुजिद्ध या तबलीग का फक्तिलताथ2 ईश् र्वोर की सेर्वोा ही होना चाकिहए। इसक्तिलए मैं ईश् र्वोर की सेर्वोा के खाकितर यठिद किकसी का धम2 बदलने की कोक्तिशश करँू तो उसका क् या अथ2 होगा, जब

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मेरे ही धम2 को मानने र्वोाले रोज अपने कमk से ईश् र्वोर का इनकार करते हैं? दुकिनयार्वोी बातों के बकिनस् बत धम2 के मामलों में यह कहार्वोत अमिधक लागू होती है किक 'र्वोैद्यजी, पहले अपना इलाज कीजिजए।'

मैं धम2-परिरर्वोत2न की आधुकिनक पद्धकित के खिखलाफ हूँ। दणिक्षण अफ्रीका में और भारत में लोगों का धम2-परिरर्वोत2न जिजस तरह किकया जाता है, उसके अनेक र्वो�k के अनुभर्वो से मुझे इस बात का किनश् चय हो गया है किक उससे नए ईसाइयों की नैकितक भार्वोना में कोई सुधार नहीं होता; र्वोे यूरोपीय सभ् यता की ऊपरी बातों की नकल करने लगते हैं, हिक�तु ईसा की मूल क्तिशक्षा से अछूते ही रहते हैं। मैं समान् यत: जो परिरणाम आता है उसी की बात कर रहा हूँ, इस किनयम के कुछ उत् तम अपर्वोाद तो होते ही हैं। दूसरी ओर ईसाई मिमशनरिरयों के प्रयत् न से भारत को अप्रत् यक्ष प्रकार का लाभ बहुत हुआ है। उसने हिह�दुओं और मुसलमानों को अपने-अपने धम2 की शोध करने के क्तिलए उत् साकिहत किकया है। उसने हमें अपने घर को साफ सुथरा और र्वो् यर्वोस्थि^त बनाने के क्तिलए मजबूर किकयाहै। ईसाई मिमशनरिरयों द्वारा चलाई जाने र्वोाली क्तिशक्षा-संस् थाओं तथा अस् पतालों आठिद को भी मैं अप्रत् यक्ष लाभों में किगनता हूँ, क् योंकिक उनकी स् थापना क्तिशक्षा-प्रचार या स् र्वोास् थ ्य-संर्वोध2न के क्तिलए नहीं, बल्किwक धम2-परिरर्वोत2न की उनकी मुख् य प्रर्वोृणिu के सहायक साधन के रूप में ही हुई है।

मेरी राय में मानर्वो-दया के कायk की आड़ में धम2-परिरर्वोत2न करना कम-से-कम अकिहतकार तो है ही। अर्वोश् य ही यहाँ के लोग इसे नाराजी की दृमिN से देखते हैं। आखिखर तो धम2 एक गहरा र्वो् यक्ति)गत मामला है, उसका संबंध हृदय से है। कोई ईसाई डॉक् टर मुझे किकसी बीमारी से अच् छा कर दे तो में अपना धम2 क् यों बदल लँू, या जिजस समय मैं उसक असर में रहूँ तब र्वोह डॉक् टर मुझसे इस तरह के परिरर्वोत2न की आशा क् यों रखें या ऐसा सुझार्वो क् यों दें? क् या डॉक् टरी सेर्वोा अपने-आप में ही एक पारिरतोकि�क और संतो� नहीं है? या जब मैं किकसी ईसाई क्तिशक्षा-संस् थान में क्तिशक्षा लेता होऊँ तब मुझ पर ईसाई क्तिशक्षा क् यों थोपी जाए? मेरी राय में ये बातें ऊपर उFाने र्वोाली नहीं हैं, और अगर भीतर-ही-भीतर शत्रुता पैदा नहीं करतीं तो भी संदेह अर्वोश् य उत् पन् न करती हैं। धम2-परिरर्वोत2न के तरीके ऐसे होने चाकिहए, जिजन पर सीजर की पत् नी की तरह किकसी को कोई शक नहो सके। धम2 की क्तिशक्षा लौकिकक किर्वो�यों की तरह नहीं दी जाती। र्वोह हृदय की भा�ा में दी जाती है। अगर किकसी आदमी में जीता-जागता धम2 है तो र्वोह उसकी सुगंध गुलाब के फूल की तरह अपने-आप फैलती है। सुगंध ठिदखाई नहीं देती, इसक्तिलए फूल की पंखुकिड़यों के रंग की प्रत् यक्ष संुदरता से उसकी सुगंध का प्रभार्वो अमिधक र्वो् यापक होता है।

मैं धम2-परिरर्वोत2न के किर्वोरुद्ध नहीं हूँ, परंतु मैं उसके आधुकिनक उपायों के किर्वोरुद्ध हूँ। आजकल और बातों की तरह धम2-परिरर्वोत2न ने भी एक र्वो् यापार का रूप ले क्तिलया है। मुझे ईसाई धम2-प्रचार कों की एक रिरपोट2 पढ़ी हुई याद है, जिजसमें बताया गया था किक प्रत् येक र्वो् यक्ति) का धम2 बदलने में किकतना खच2 हुआ, और किफर 'अगली फसल' के क्तिलए बजट पेश किकया गया था।

हाँ, मेरी यह राय जरूर है किक भारत के महान धम2 उसके क्तिलए सब तरह से काफी हैं। ईसाई और यहूदी धम2 के अलार्वोा हिह�दू धम2 और उसकी शाखाए,ँ इस् लाम और पारसी धम2 सब सजीर्वो धम2 हैं। दुकिनया में कोई भी एक धम2 पूण2 नहीं है। सभी धम2 उनके मानने र्वोालों के क्तिलए समान रूप से किप्रय हैं। इसक्तिलए जरूरत संसार के महान मधk के अनुयामिययों में सजीर्वो और मिमत्रतापूण2 संपक2 स् थाकिपत करने की है, न किक हर संप्रदाय द्वार दूसरे धमk की अपेक्षा अपने धम2 की श्रे�् Fता जताने की र्वो् यथ2 कोक्तिशश करके आपस में संघ�2 पैदा करने की। ऐसी मिमत्रतापूण2 संबंध के द्वार हमारे क्तिलए अपने-अपने धमk की कमिमयाँ और बुराइयाँ दूर करना संभर्वो होगा।

मैंने ऊपर जो कुछ कहा है उससे यह किन�् क�2 किनकलता हे किक जिजस पह्रकार का धम2-परिरर्वोत2न मेरी दृमिN में है उसी हिह�दुस् तान में जरूरत नहीं है। आज की सबसे बड़ी आर्वोश् यकता यह है किक आत् म शुजिद्ध, आत् म-साक्षात् कार के अथ2 में धम2-परिरर्वोत2न किकया जाए। परंतु धम2-परिरर्वोत2न करने र्वोालों का यह हेतु कभी नहीं होता। जो भारत का धम2-परिरर्वोत2न करना चाहते हैं, उनसे क् या यह नहीं कहा जा सकता किक 'र्वोैद्यजी, आप अपना ही इलाज कीजिजए?

कोई ईसाई किकसी हिह�दू को ईसाई धम2 में लाने की या कोई हिह�दू किकसी ईसाई को हिह�दू धम2 में लाने की इच्छा क्यों रखे? र्वोह हिह�दू यठिद सज्जन है या भगर्वोद-् भक्त है, तो उक्त ईसाई को इसी बात से संतो� क्यों नहीं हो जाना चाकिहए। यठिद

मनुष्य का नैकितक आचार कैसा है इस बात की परर्वोाह न की जाए, तो किफर पूजा की पद्धकित-किर्वोशे�- र्वोह पूजा

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किगरजाघर, मसजिजद या मंठिदर में कहीं भी क्यों नकी जाए- एक किनरथ2क कम2कांड ही होगी। इतना ही नहीं, र्वोह व्यक्ति) या समाज की उन्नकित में बाधरूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धकित के पालन का अथर्वोा अमुक धार्मिम�क

क्तिसद्धांत के उच्चारण का आग्रह हिह�सापूण2 लड़ाई- झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। ये लड़ाई- झगडे़ आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिरसमाप्तिप्त मूल धम2 में यानी ईश्र्वोर में हो घोर अश्रद्धा के रूप में

होती है।

64 शासन-संबं2ी समस्याए ँ पीछे     आगे

मुझे डर है किक अगले कई र्वो�k तक दबी हूई और किगरी हुई जनता को दु:ख और गरीबी के कीचड़ से उFाने के क्तिलए आर्वोश् यक कानून-कायदे बनाने का काय2 करते रहना होगा। इस कीचड़ में उसे एक हद तक तो पँूजीपकितयों, जमींदरों और तथा कक्तिथत उच् च र्वोगk ने और बाद में किब्रठिटश शासकों ने फंसाया है; अलबत् ता, किब्रठिटश शासकों ने अपना यह काम बहुत र्वोैज्ञाकिनक रीकित से किकया है। अगर हमें इस जनता का उसकी इस दुरर्वोस् था से उद्धार करना है, तो अपना घर सुर्वो् यर्वोस्थि^त करने की दृमिN से भारत की रा�् ट्रीय सरकार का यह कत्2 तर्वो् य होगा किक र्वोह लगातार उसको ही तरजीह देती रहे और जिजन बोझों के भार से उसकी कमद टूटी जा रही है उनसे उसे मुक् त भी कर दे। और यठिद जमीदारों को, अमीरों को और उन लोगों को जो आज किर्वोशे�ामिधकार भोग रहे हैं-र्वोे यूरोपीय हों या भारतीय-ऐसा मालूम हो किक उनके साथ किन�् पक्षता का र्वो् यर्वोहार नहीं हो रहा है, तो मैं उनसे सहानुभूकित रखँूगा। लेकिकन मैं उनकी कोई सहायता नहीं कर सकँूगा । क् योंकिक मैं तो इस प्रयत् न में उनकी मदद चाहूँगा और सच तो यह है किक उनकी मदद मे किबना इस जनता का उद्धार करना संभर्वो ही नहीं होगा।

इसक्तिलए धन या अमिधकारों के रूप में जिजनके पास कोई संपणिu है उनके तथा जिजनके पास ऐसी कोई संपणिu नहीं है उन गरीबों के बीच संघ�2 तो अर्वोश् य होगा; और यठिद इस संघ�2 का भय रखा जाता हो और सब र्वोग2 मिमलकर करोड़ो बेजुबान लोगों के क्तिसरपर किपस् तौल तानकर ऐसा कहना चाहते हों किक तुम लोगों को तुम् हारी अपनी सरकार तब तक नहीं मिमलेगी, जब तक किक तुम इस बात का आश् र्वोासन नहीं देते किक हमारी संपणिu और हमारे अमिधकारों को कोई आँच नहीं आएगी, तब तो मुझे लगता है किक रा�् ट्रीय सरकार का किनमा2ण है।

गवन*र

...इसके बार्वोजूद किक लोगों की कितजोरी की कौड़ी-कौड़ी को बचाना मुझे बहुत पसंद है, पैसे की बचत के क्तिलए प्रांतीय गर्वोन2रों की संस् था को एकदम उड़ा देना सही अथ2शास् त्र नहीं होगा। गर्वोन2रों को दखल देने का बहुत अमिधकार देना Fीक नहीं है। र्वोैसे ही उनकी क्तिसफ2 शोभा के क्तिलए पुतला बना देना भी Fीक नहीं होगा। मंकित्रयों के काम को दुरुस् त करने का अमिधकार उन् हें होना चाकिहए। सब की खटपट से अलग होने के कारण भी र्वोे सूबे का कारबार Fीक तरह से देख सकें गे और मंकित्रयों को गलकितयों से बचा सकें गे। गर्वोन2र लोग अपने-अपने सूबों की नीकित के रक्षक होने चाकिहए।

मंत्रीगण

अगर कांग्रेस को लोकसेर्वोा की ही संस् था रहना है, तो मंत्री 'साहब लोगों' की तरह नहीं रह सकते और न सरकारी साधनों का उपयोग किनजी कामों के क्तिलए ही कर सकते हैं।

भाई-भतीजावाद

पद ग्रहण से यठिद पद का सदुपयोग किकया जाए जो कांग्रेस की प्रकित�् Fा बढे़गी और यठिद उसका दुरुपयोग होगा तो र्वोह अपनी पुरानी प्रकित�् Fा भी खो देगी। यठिद दूसरे परिरणाम से बचना हो तो मंकित्रयों और किर्वोधान-सभा के सदस् यों को अपने र्वोैयक्ति)क और सार्वो2जकिनक आचरण की जाँच करते रहना होगा। उन् हें, जैसा अँग्रेजी लोकोक्ति) में कहा जाता हैं, सीजर को पत् नी की तरह अपने प्रत् येक र्वो् यर्वोहार में संदेह से परे होना चाकिहए। र्वोे अपने पद का उपयोग

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अपने या अपने रिरश् तेदारों अथर्वोा मिमत्रों के लाभ के क्तिलए नहीं कर सकते। अगर रिरश् तेदारों या मिमत्रों की किनयुक्ति) किकसी पद पर होती हें, तो उसका कारण यही होना चाकिहए किक उप पद के तमाम उम् मीदर्वोारों में र्वोे सबसे ज ्यादा योग् य हैं और बाजार में उनका मूल् य उस सरकारी पद से उन् हें जो कुछ मिमलेगा उससे कहीं ज ्यादा है। मंकित्रयों और कांग्रेस के ठिटकटपर चुने गए किर्वोधान-सभा के सदस् यों को अपने कत्2 तर्वो् य के पालन में किनभ2र होना चाकिहए। उन् हें हमेशा ही अपना स् थान या पद खोने के क्तिलए तैयार रहना चाकिहए। किर्वोधान-सभाओं की सदस् यता या उसके आधार पर मिमलने र्वोाले पद का एकमात्र मूल् य यही है किक र्वोह संबंधी र्वो् यक्ति)यों को कांग्रेस की प्रकित�् Fा और ताकत बढ़ाने की योग् यता प्रदान करता है; इससे अमिधक मूल् य उसका नहीं है। और चँूकिक ये दोनों चीजें पूरी तरह र्वोैयक्ति)क और सार्वो2जकिनक नीकितमत् ता पर किनभ2र हैं, इक्तिसलए संबंमिधत र्वो् यक्ति)यों की प्रत् येक नैकितक तु्रठिट से कांग्रेस को हाकिन होगी।

कर-विन2ा*रण

मंकित्र-मंडल धारासभा के सदस् यों के मातहत रहकर काम करता है। उनकी इजाजत के किबना र्वोह कुछ कर नहीं सकता। और हर एक मेंबर अपने र्वोोटरों के यानी लोकमत के अधीन है। चुनांचे उसके हर एक काम गहराई के साथ सोचने के बाद ही उसका किर्वोरोध करना मुनाक्तिसब होगा। आम लोगों की एक खराब आदत पर भी इस क्तिसलक्तिसलें में गौर किकया जाना चाकिहए। टैक् स चुकाने र्वोाले को टैक् स के नाम से नफरत होती है। किफर भी जहाँ अच् छा इंतजाम है र्वोहाँ अक् सर यह ठिदखाया जा सकता है किक टैक् स देने र्वोाला खुद टैक् स या कर के रूप में जो कुछ देता है, उसका पूरा-पूरा मुआर्वोजा उसे मिमल जाता है। शहरों में पानी पर र्वोसूल किकया जाने र्वोाला टैक् स इसी ढँग का है। शहर में जिजस दर से मुझे पानी मिमलता है, उस दर में मैं अपनी जरूरत का पानी खुद पैदा नहीं कर सकता। मतलब यह है किक पानी मुझे सस् ता पड़ता है। उसकी यह दर मुझे अपनी यानी र्वोोटरों की इच् छा के मुताकिबक तय करनी पड़ती है। कितस पर भी जब पानी का टैक् स जमा करने की नौबत आती है, तब आम श हरिरयों में उसके खिखलाफ एक नफरत-सी पैदा हो जाती है। र्वोही हाल दूसरे टैक् सों का भी है। यह सच है किक सभी तरह के टैक् सों का ऐसा सीधा किहसाब नहीं किकया जा सकता। जैसे-जैसे समाज का और उसकी सेर्वोा का दायरा बढ़ता जाता है, र्वोैसे-र्वोैसे यह बताना मुल्किश्कल हो जाता है किक टैक् स चुकाने र्वोाले को उसका सीधा मुआर्वोजा किकस तरह मिमलता है। लेकिकन इतना जरूर कहा जा सकता है किक समाज पर जो एक खास का या टैक् स बैFाया जाता है, उसका समाज को पूरा-पूरा मुआर्वोजा मिमलता ही है। अगर ऐसा न होता हो तो जरूर ही यह कहा जा सकता है किक र्वोह समाज लोकमत की बुकिनयादी पर नहीं चल रहा है।

अपरा2 और उसका दंड

अहिह�सा की नीकित पर चलने र्वोाले आजाद भारत में अपराध तो होते रहेंगे, लेकिकन उन् हें करने र्वोालों के साथ अपरामिधयों जैसा र्वो् यर्वोहार नहीं किकया जाएगा। उन् हें दंड नहीं ठिदया जाएगा। दूसरी र्वो् यामिधयों की तरह अपराध भी एक बीमारी है और प्रचक्तिलत समाज-र्वो् यर्वोस् था की उपज है। इसक्तिलए सारे अपराधों का, जिजनमें हत् या भी शामिमल है, बीमारिरयों की तरह इलाज किकया जाएगा। भारत इस मंजिजल तक कभी पहुँचेगा किक नहीं, यह एक अलग सर्वोाल है।

आजाद हिह�दुस् तान में कैठिदयों के जेल कैसे हों? बहुत समय से मेरी र्वोह राय रही है किक सारे अपरामिधयों के साथ बीमारों-जैसा बरतार्वो किकया जाए और जेल उनके अस् पताल हों, जहाँ इस र्वोग2 के बीमार इलाज के क्तिलए भरती किकए जाए।ँ कोई आदमी अपराध इसक्तिलए नहीं करता किक ऐसा करने में उसे मजा आता है। अपराध उसके रोगी ठिदमाग की किनशानी है। जेल में ऐसी किकसी खास बीमारी के कारणों का पता लगाकर उन् हें दूर करना चाकिहए। जब अपरामिधयों के जेल उनके अस् पताल बन जाएगँे, तब उनके क्तिलए आलीशान इमारतों की जरूरत नहीं होगी। कोई भी देश यह नहीं कर सकता। तब हिह�दुस् तान जैसा गरीब देश तो अपरामिधयों के क्तिलए बड़ी-बड़ी इमारतें कहाँ से बनार्वोे ? ᣛ लेकिकन जेल के कम2चारिरयों की दृमिN अस् पताल के डॉक् टरों और नसk-जैसी होनी चाकिहए। कैठिदयों को महसूस होना चाकिहए किक जेल के अफसर उनके दोस् त हैं। अफसर र्वोहाँ इसक्तिलए हैं किक र्वोे अपरामिधयों को किफर से ठिदमागी तंदुरुस् ती हाक्तिसल करने में मदद करें। उनका काम अपरामिधयों को किकसी तरह सताने का नहीं है। लोककिप्रय सरकारों को इसके क्तिलए जरूरी हुक् म किनकालने होंगे। लेकिकन इस बीच जेल के कम2चारी अपने बंदोबस् त को इंसाकिनयत भरा बनाने के क्तिलए बहुत कुछ कर सकते हैं।

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कैठिदयों का कया फज2 है? पहले कैदी रह चुकने के नाते मैं अपने साथी कैठिदयों को सलाह दँूगा किक र्वोे जेल में आदश2 कैठिदयों-जैसा बरतार्वो करें। उन् हें जेल मे अनुशासन को तोड़ने से बचना चाकिहए। जो भी काम उन् हें सौंपा जाए, उसमें उन् हे अपना ठिदल और आत् मा, दोनों लगा देने चाकिहए। मिमसाल के क्तिलए, कैदी अपना खाना खुद पकाते हैं। उन् हें चार्वोल, दाल या दूसरे मिमलने र्वोाले अनाज को साफ करना चाकिहए, ताकिक उसमें कंकड़ रेत, भूसी या कीडे़ न रह जाए।ँ कैठिदयों को अपनी सारी क्तिशकायतें जेल के अमिधकारिरयों के सामने उक्तिचत ढँग से रखनी चाकिहए। उन् हें अपने छोटे से समाज में ऐसा काम करना चाकिहए किक जेल छोड़ते समय र्वोे जैसा आए थ ेउससे ज ्याद अच् छे आदमी बनकर जाए।ँ

वयस् क मताधि2कार

मैं र्वोयस् क मतामिधकार का किहमायती हूँ। ... र्वोयस् क मतामिधकार अनेक कारणों से जरूरी है। और उसके पक्ष में जो किनणा2यक कारण ठिदए जा सकते हैं, उनमें से एक यह है किक र्वोह मुझे न क्तिसफ2 मुसलमानों की बल्किwक तथा कक्तिथक अस् पृश् यों, ईसाइयों और सभी र्वोगk के मेहनत-मजदूरी करके रोजी कमाने र्वोालों की उक्तिचत आकांक्षाओं को संतु�् ट करने का सामथ्2 य देता है। मैं इस किर्वोचा को बरदाश् त ही नहीं कर सकती किक ऐसी किकसी आदमी को, जो चरिरत्रर्वोान है हिक�तु जिजसके पास धन या अक्षर-ज्ञान नहीं है, मतामिधकार न ठिदया जाए; या किक कोई आदमी, जो ईमानदारी के साथ शरीर-श्रम करके रोजी कमाता है, महज गरीब होने के अपराध के कारण मतामिधकार से र्वोंक्तिचत रहे।

मृत् यु-कर

किकसी आदमी के पास अत् यमिधक धन का होना और देशों की अपेक्षा हमारे देश मे ज ्यादा हिन�दनीय माना जाना चाकिहए। मैं तो कहूँगा किक र्वोह भारतीय मानर्वो-समाज के खिखलाफ किकया जाने र्वोाला गुनाह है। इसक्तिलए एक किनयत राक्तिश के ऊपर जिजतना धन हो उस पर किकतना कर लगाया जाए, इसकी उच् च् तम सीमा आ ही नहीं सकती। मझे मालूम हुआ है किक इंग्लैंड में किनयम राक्तिश के ऊपर होने र्वोाली कमाई का 70 प्रकितशत तक कर के रूप में र्वोसूल करते हैं। कोई कारण नहीं किक भारत इससे भी ज ्यादा क् यों न र्वोसूल करे। मृत् यु-कर क् योनहीं लगाया जाना चाकिहए ? ᣛअमीरों के जिजन लड़कों को र्वोयस् क हो जाने पर भी बाप-दादों के धन की किर्वोरासत मिमलती है, उनकी इस प्राप्तिप्त से सचमुच तो हाकिन ही होती है। इस तरह देखें तो रा�् ट्र को दोहरा नुकसान होता है। क् योंकिक र्वोह किर्वोरासत न् याय से तो रा�् ट्र की मिमलनी चाकिहए। रा�् ट्र को दूसरा नुकसान यह होता है किक किर्वोरासत पाने र्वोाले उत् तरामिधकारी की सारी शक्ति)याँ खिखलती नहीं, प्रकाश में नहीं आतीं। र्वोे धन-संपणिu के बोझ के नीचे कुचल जाती है।

कानून द्वारा सु2ार

लोग ऐसा सोचते मालूम होते हैं किक किकसी बुराई के खिखलाफ कानून बना ठिदया जाए, तो र्वोह अपने-आप किनम2ल हो जाती है। उस संबंध में और अमिधक कुछ करने की आर्वोश् यकता नहीं रहती। लेकिकन इससे ज ्यादा बड़ी कोई आत् म-र्वोंचन नहीं हो सकती। कानून तो अज्ञान में फंसे हुए या बुरी र्वोृणिu र्वोाले अल् पसंख् यक लोगों को ध् यान में रखकर यानी उसने उनकी बुराई छुड़र्वोाले के उदे्दश् य से बनाया जाता है और उसी स्थि^कित में र्वोह कारगर भी होता है। बुजिद्धमान और संघठिटत लोकमत अथर्वोा धम2 की आड़ लेकर दुराग्रही बहुसंख् यक लोग जिजस कानून का किर्वोरोध करते हैं र्वोह कभी सफल नहीं हो सकता।

पहली चीज तो यह है किक हमारे प्रयत् न में जबरदस् ती या असत् य का लेश भी नहीं होना चाकिहए। मेरी नम्र राय में आज तक जबरदस् ती के द्वारा कोई भी महत् त् र्वोपूण2 सुधार नहीं कराया जा सका है। कारण यह है किक जबरदस् ती के द्वारा ऊपरी सफलता होती ठिदखाई दे यह तो संभर्वो है, हिक�तु उससे दूसरी अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं, जो मूल बुराई से भी ज ्यादा हाकिनकारक क्तिसद्ध होती हैं।

जूरी द्वारा न् याय-विवचार की पद्धवित

जूरी द्वारा न् याय-किर्वोचार की पद्धकित से अक् सर न् याय की हाकिन होती है। सारी दुकिनया का इस किर्वो�य में यही अनुभर्वो है। लेकिकन उसकी इस कमी के बार्वोजूद लोगों ने सब जगह उसे खुशी के साथ स् र्वोीकार किकया है। क् योंकिक एक तो

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लोगों में उससे स् र्वोातंत्रय की भार्वोना का किर्वोकास होता है, जो एक महत् त् र्वोपूण2 लाभ है; और दूसरे इस समुक्तिचत भार्वोना की तृप्तिप्त होती है किक किर्वोचार अपने ही जैसे यानी समकक्ष लोगों द्वारा किकया जा रहा है।

मैं इस बात को नहीं मानता किक न् यायाधीशों की अपेक्षा जूरी द्वारा न् याय-किर्वोचार की पद्धकित में ज ्यादा लाभ है। हमें… अँग्रेजों की हर एक नीकित का अंधानुकरण नहीं करना चाकिहए। जहाँ संपूण2 किन�् पक्षता, समुक्तिचत् त् ता, गर्वोाही की छान-बीन करने और मनु�् य-स् र्वोभार्वो को पहचानने की योग् यता अपेणिक्षत है, र्वोहाँ प्रक्तिशणिक्षत न् यायाधीशों की जगह ऐसी तालीम से शून् य और संयोगर्वोश एकत्र किकए गए लोगों को नहीं किबFाया जा सकता। हमारा उदे्दश् य यह होना चाकिहए किक नीचे से लगाकर ऊपर तक हमारे न् याय-किर्वोभाग में ऐसे लोग हों जिजनकी न् यायकिन�् Fा किकसी भी कारण से किर्वोचक्तिलत न हो, जो सर्वो2था किन�् पक्ष हों और योग् य हों।

न् यायालय

यठिद हमारे मन पर र्वोकीलों का और न् यायालयों का मोह न छाया होता और यठिद हमें लुभाकर अदालतों के दलदल में ले जाने र्वोाले तथा हमारी नीच र्वोृणिuयों की उत् साकिहत करने र्वोाले दलाल न होते, तो हमारा जीर्वोन आज जैसा है उसकी अपेक्षा ज ्यादा सुखी होता। जो लोग अदालतों में ज ्यादा आते-जाते हैं उनकी यानी उनमें से अच् छे आदमिमयों की गर्वोाही लीजिजए, तो र्वोह इस बात की पुमिN करेंगे किक अदालतों का र्वोायुमंडल किबलकुल सड़ा हुआ होता है। दोनों पक्षों की ओर से सौगंध खाकर झूF बोलने र्वोाले गर्वोाह खडे़ किकए जाते हैं, जो धन या मिमत्रता के खाकितर अपनी आत् मा को बेच डालते हैं।

अब अगर आप कानून या र्वोकालत के पेशे को धार्मिम�क बनाना चाहते है, तो आपके क्तिलए सबसे पहले यह आर्वोश् यक है किक आप अपने इस पेशे को धन बटोरने का नहीं, बल्किwक देश-सेर्वोा का एक साधन माकिनए। सभी देशों में ऐसे बहुत ही योग् य र्वोकीलों के उदाहरण मिमलेंगे, जिजन् होंने बहुत बडे़ स् र्वोाथ2त् याग का जीर्वोन किबताया, अपनी कानूनी ज्ञान को देश-सेर्वोा में लगाया, यद्यकिप इससे उनके किहस् से में गरीबी-ही-गरीबी पड़ी। ... रस्त्रिस्कन ने कहा है, क् यों कोई र्वोकील दो-दो सौ रुपए अपना मेहनताना लेगा, जब किक एक बढ़ाई को उतने पैसे भी नहीं मिमलते ? ᣛ र्वोकीलों की फीस हर जगह उनके काम के किहसाब से बहुत ज ्यादा होती है। दणिक्षण अफ्रीका में, इग्लैंड में, बल्किwक सभी कहीं मैंने देखा है किक चाहे जान-बूझकर या अनजाने र्वोकीलों को अपने मुर्वोस्थिक्कलों के खाकितर झूF बोलना पड़ता है। एक प्रक्तिसद्ध अँग्रेज र्वोकील ने तो यहाँ तक क्तिलखा है किक अपने मुर्वोस्थिक्कलों को अपराधी जानकर भी उसका बचार्वो करना र्वोकील का धम2 है, कत्2 तर्वो् य है। मेरा मत दूसरा है। र्वोकील का काम तो यह है किक र्वोह हमेशा जजों के आगे सच् ची बातें रख दें, सच की तह तक पहुँचने में उनकी मदद करे। अपराधी को किनद�� साकिबत करना उसका काम कभी नहीं है।

सांप्रदामियक प्रवितविनधि2त् व

आजाद भारत सांप्रदामियक प्रकितकिनमिधत् र्वो की प्रणाली को प्रश्रय नहीं दे सकता। हिक�तु यह भी सही है किक यठिद अल् पसंख् यक लोगों पर जबरदस् ती नहीं करना है, तो उसे सभी संप्रदायों को पूरा संतो� देना चाकिहए।

सैविनक खच*

हमारे नेता किपछली दो पीठिढ़यों से किब्रठिटश शासन के अंतग2त होने र्वोाले भारी फौजी खच2 की जोरदार हिन�दा करते आए हैं। लेकिकन अब जब किक हम राजनीकितक गुलामी से आजाद हो गए हैं, हमार सैकिनक खच2 बढ़ गया है और मालूम होता है किक अभी और बढे़गा। आश् चय2 यह है किक हमें इसका गर्वो2 है। इस बात के खिखलाफ हमारी किर्वोधान-सभाओं में एक भी आर्वोाज नहीं उFाई जाती। लेकिकन इस पागलपन और पणिZम की ऊपरी चमक-दमक के किनरथ2क अनुकराण के बार्वोजूद मुझ में और अन् य अनेकों में यह आशा बाकी है किक भारत किर्वोनाश के इस तांडर्वो से सुरणिक्षत बाहर किनकल जाएगा और उस नैकितक ऊँचाई को प्राप् त करेगा, जो सन् 1915 से लगातार 32 र्वो�2 तक अहिह�सा की तालीम-यह तालीम किकतनी भी अधूरी क् यों न रही हो-लेने के बाद उसे प्राप् त करनी ही चाकिहए।

जलसेना

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जलसेना के बारे में मैं नहीं जानता। लेकिकन यह मैं जरूर जानता हँू किक भार्वोी भारत की स्थलसेना में आज की तरह दूसरे देशो से उनकी स्र्वोतंत्रता छीनने के क्तिलए और भारत की गुलामी के पाश में बांधे रखने के क्तिलए किकराए के सैकिनक

नहीं होंगे। उसकी संख्या बहुत- कुछ घटा दी जाएगी और उसकी रचना देश सेर्वोा के क्तिलए स्र्वोच्छापूर्वो2क भरती हुए सैकिनकों के आधार पर होगी, जिजनका उपयोग देश में ही पुक्तिलस- व्यर्वोस्था के क्तिलए किकया जाएगा।

65 प्रांतों का पुनग*ठन पीछे     आगे

कांग्रेस ने 20 साल से यह तय कर क्तिलया था किक देश में जिजतनी बड़ी-बड़ी भा�ाए ँहैं उतने प्रांत होने चाकिहए। कांग्रेस ने यह भी कहा था किक हुकूमत हमारे हाथ में आते ही ऐसे प्रांत बनाए जाएगँे। र्वोैसे तो आज भी 9 या 10 प्रांत बने हुए हैं और र्वोे एक कें द्र के अधीन हैं। इसी तरह से अगर नए प्रांत बनें और ठिदल् ली को मातहत रहें, तब तो कोई हज2 की बात नहीं। लेकिकन र्वोे सब अलग-अलग होकर आजाद हो जाए ँऔर एक कें द्र के अधीन न रहें, तो किफर र्वोह एक किनकम् मी बात हो जाती है। अलग-अलग प्रांत बनने के बाद र्वोे यह न समझ लें किक बंबई का महारा�् ट्र का कना2टक से कोई संबंध नहीं और कना2टक का आंध्र से कोई संबंध नहीं। तब तो हमारा काम किबगड़ जाता है। इसक्तिलए सब आपस में एक-दूसरे को भाई-भाई समझें। इसके अलार्वोा, भा�ार्वोार प्रांत बन जाते है, तो प्रांतीय भा�ाओं की भी तरक् की होती है। र्वोहाँ के लोगों को हिह�दुस् तानी में तालीम देना र्वोाकिहयात बात है और अँग्रेजी में देना तो और भी र्वोाकिहयात है।

अब सीमाबंदी-कमीशनों की बात तो हमें भूल जानी चाकिहए। लोग आपस में मिमल-जुलकर नक् शे बना लें और उन् हें पंकिडत जर्वोाहलाल जी के सामने रख दें। र्वोे हुकूमत की तरफ से उन पर दस् तक दे देंगे। र्वोास् तर्वो में इसी का नाम तो आजादी है। अगर आज कें द्रीय सरकार को सीमाए ँतय करने के क्तिलए कहें, तब तो काम बहुत कठिFन हो जाएगा।

मुझे यह कबूल है किक जो उक्तिचत है उसे अब करना चाकिहए। बगैर कारण के रुकना Fीक नहीं। इससे नुकसान भी हो सकता है। पाप के साथ हमारा कोई सरोकार नहीं हो सकता।

किफर भी भा�ार्वोार सूबों के किर्वोभाग में देर होती है उसका कारण है। उसका कारण आज का किबगड़ा हुआ र्वोायुमंडल है। आज हर एक आदमी अपना ही देखता है। मुल् क की ओर जाने र्वोाले, उसका भला सोचने र्वोाले लोग हैं जरूर, लेकिकन उनकी सुने कौन? अपनी ओर खीचने र्वोाले लोग शोर मचाते हैं, इसक्तिलए उनकी बात सब सुनते हैं। दुकिनया ऐसी ही है न ?ᣛ

आज भा�ार्वोार सूबों का किर्वोभाग करने में झगडे़ का डर रहता है। उकिड़सा भा�ा को ही लीजिजए। उड़ीसा अलग सूबा बन गया है, किफर भी कुछ-न-कुछ खीचतानी रही ही है। एक ओर आंध्र, दूसरी ओर किबहार और तीसी ओर बंगाल है। कांग्रेस ने तो भ�ार्वोार किर्वोभाग सन् 1920 में किकया। बाकानून किर्वोभाग तो उकिड़सा बोलने र्वोाले सूबे का ही हुआ है। मद्रास के चार किर्वोभाग कैसे हों? बंबई के कैसे हो? आपस में मिमलकर सब सूबे आर्वोें और अपनी और बना लें, तो बाकानून किर्वोभाग आज हो बन सकते है। आज हुकूमत क् या यह बोझ उFा सकती है? कांग्रेस की जो ताकत 1920 में थी र्वोह क् या आज हैB? आज क् या उसकी चलती है ?ᣛ

आज तो दूसरे हकदार भील पैदा हो गए हैं। ऐसे मौके पर हिह�दुस् तान बेहाल-सा लगता है। आज तो संप (मेल) के बदले मौत है। जब कौमी झगडे़ बंद होंगे तक हम समझ सकें गे किक सब Fीक हुआ है। ऐसी हालत में भा�ार्वोार किर्वोभाग लोग आपस में मिमलक कर लें, तो कानून आसान होगा अन् यथा शायद नहीं।

ऐसा लगता है किक अगर यूकिनयन के सारे सूबों को हर ठिदशा में एक-सी तरक् की करनी हो, तो हर सूबे की नौकरिरयाँ, पूरे हिह�दुस् तान की तरक् की के खयाल से ज ्यादातर र्वोहाँ के रहने र्वोालों को ही दी जानी चाकिहए। अगर हिह�दुस् तान को दुकिनया के सामने स् र्वोाणिभमान से क्तिसर ऊँचा रखना है, तो किकसी सूबे और किकसी जाकित या तबके को किपछड़ा हुआ नहीं रखा जा सकता। लेकिकन अपने उन हक्तिथयारों के बल पर हिह�दुस् तान ऐसा नहीं कर सकता, जिजनसे दुकिनया ऊब चुकी

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है। उसे अपने हर नागरिरक के जीर्वोन में और हाल में ही मेरे द्वारा बताए गए समाजर्वोाद में प्रकट होने र्वोाली अपनी कुदरती तहजीर्वो या संस् कृकित के द्वारा ही चमकना चाकिहए। इसका यह मतलब है किक अपनी योजनाओं या उसूलों को जनकिप्रय बनाने के क्तिलए किकसी भी तरह की ताकत या दबार्वो को काम में न क्तिलया जाए। जो चीज सचमुच जनकिप्रय हैं उसे सबसे मनर्वोाने के क्तिलए जनता की राय के क्तिसर्वोा दूसरी किकसी ताकत की शायद ही जरूरत हो। इसक्तिलए किबहार, उड़ीसा और आसाम में कुछ लोगों द्वारा की जाने र्वोाली हिह�सा के जो बुरे दृश् य देखे गए, र्वोे कभी नहीं ठिदखाई देने चाकिहए थे। अगर कोई आदमी किनयम के खिखलाफ काम करता है या दूसरे सूबों के लोग किकसी सूबे में आकर र्वोहाँ के लोगो के हम मारते हैं, तो उन् हें सजा देने और र्वो् यर्वोस् था कायम रखने के क्तिलए जनकिप्रय सरकारें सूबों में राज् य कर रही है। सूबों की सरकारों का यह फज2 है किक र्वोे दूसरे सूबों से अपने यहाँ आने र्वोाले सब लोगों की पूरी-पूरी किहफाजत करें। 'जिजस चीज को तुम अपनी समझते हो, उसका ऐसा इस् तेमाल करो किक दूसरे को नुकसान न पहुँचे' यह समानता का जाना-पहचाना उसूल है। यह नैकितक बरतार्वो भी संुदर किनयम है। आज की हालत में यह किकतना उक्तिचत मालूम होता है।

'रोम में रोमनों की तरह रहो, यह कहार्वोत जहाँ तक रोमन बुराईयों से दूर रहती है र्वोहाँ तक समझदारी से भरी फायदा पहुँचाने र्वोाली कहार्वोत है। एक दूसरे के साथ घुल-मिमलकर तरक् की करने के काम में यह ध् यान रखना चाकिहए किक बुराईयों को छोड़ ठिदया जाए और अच् छाइयों को पचा क्तिलया जाए। बंगाल में एक गुजराती के नाते मुझे बंगाल की सारी अच् छाइयों को तुरंत पचा लेना चाकिहए और उसकी बुराई को कभी छूना भी नहीं चाकिहए। मुझें हमेशा बंगाल की सेर्वोा करनी चाकिहए; अपने फायदे के क्तिलए उसे चूसना नहीं चाकिहए। दूसरों से किबलकुल अलग रहने र्वोाली हमारी प्रांतीयता जिज�दगी को बरबाद करने र्वोाली चीज है। मेरी कल् पना के सूबे की हद सी प्रांतीयता की हदों तक फैली हुई होगी, ताकिक अंत में उसकी हद सारे किर्वोश् र्वो की हदों तक फैली जाए। र्वोना2 र्वोह खतम हो जाएगा।

मेरी राए में एक हिह�दुस् तानी का नागरिरक है और देश के हर किहस् से में उसे बराबर का हक हाक्तिसल है। इस क्तिलए एक बंगाली को किबहार में एक किबहारी के नाते सभी हक हाक्तिसल है। मगर मैं इस बार पर जोर देना चाहता हूँ किक उस बंगाली को किबहारिरयों के साथ पूरी तरह घुल-मिमल जाना चाकिहए। उसे अपना मतलब साधने के क्तिलए किबहारिरयों का उपयोग करने का गुनाह नहीं करना चाकिहए, या किबहारिरयों के बीच अपने-आपको अजनबी समझना या उसने अजनबी-जैसा बरतार्वो नहीं करना चाकिहए। ... सारे हक उन फजk से किनकलते है, जिजन् हें हम पहले से पूरी तरह अदा कर चुकते हैं। एक बात पर मैं जरूर जोर दँूगा किक अगर आपको किकसी तरह आगे बढ़ना है, तो हिह�दुस् तान के दोनों उपकिनर्वोेशों में जोर-जबरदस् ती से अपने हक आजमाने की बात को पूरी तरह छोड़ देना होगा। इस तरह न तो बंगाली और न किबहारी तलर्वोार के जोर से अपने हक आजमा सकते और न तलर्वोार के जारे से सीमा-कमीशन के फैसले को बदला जा सकता। लोकशाही र्वोाले आजाद हिह�दुस् तान में सबसे पहले आपको यही सबक सीखना होगा। ... आजादी का यह मतलब कभी नहीं होता किक आपकी अपनी मज� से चाहे जो करने की छुट्टी मिमल गई। आजादी का मतलब यह है किक आप किबना किकसी बाहरी दबार्वो के अपने ऊपर काबू रखें और अनुशासन पालें; और जारी-खुशी से उन कानूनों पर अमल करें जिजन् हें पूरे हिह�दुस् तान ने अपने चुने हुए नुमाइंदों के जरिरए बनाया है। प्रजातंत्र या लोकशाही में एकमात्र ताकत लोकमत की होती है। खुले या क्तिछपे तौर पर जोर-जबरदस् ती का इस् तेमाल करने से सत् याग्रह, क्तिसकिर्वोल नाफरमानी और उपर्वोासों का कोई सं बंध नहीं है। मगर लोकशाही में इनके इस् तेमाल पर भी काबू रखने की जरूरत है। जब सरकारें जम रही हों ओर सांप्रदामियक दंगों का रोग एक सूबे से देसरे सूबे में फैल रहा हो, तब तो इनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

द्राविवविड़स् तान?

इसके बाद गांधी जी ने द्राकिर्वोकिड़स् तान के आंदोलन का जिजक्र किकया। यह दणिक्षण हिह�दुस् तान का र्वोह किहस् सा है, जहाँ के लोग तेलगू, तामिमल, मलयालम और कन् नड़ चार द्राकिर्वोड़ी भा�ाये बोलते हैं। उन् होंने कहा, हिह�दुस् तान का इन चार भा�ाओं को बोलने र्वोाला किहस् सा बाकी के हिह�दुस् तान से अलग क् यों किकया जाए? क् या ज ्यादातर संस् कृत से किनकलने के कारण ही ये भा�ाए ँउन् नत नहीं हुई हैं? मैंने इन चारों सूबों का दौरा किकया है। मुझे उनमें और दूसरे सूबों में कोई फक2 नहीं मालूम हुआ। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था किक हिर्वो�ध्याचल के दणिक्षण में रहने र्वोाले अनाय2 और उसके उत् तर में रहने र्वोाले आय2 हैं। पुराने जमाने में हम कोई भी रहे हों, आज तो हम इतने घुल-मिमल गए हैं किक हिह�दुस् तान के दो भाग हो जाने पर भी हम कश् मीर से कन् याकुमारी तक एक ही रा�् ट्र हैं। देश के और ज ्यादा टुकडे़

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करना मूख2ता होगी। अगर मौजूदा बँटर्वोारे के बाद भी हम देश के छोटे-छोटे टुकडे़ करते रहे, तो अनकिगनत स् र्वोतंत्र सार्वो2भौम राज् य बन जाएगँे, जो हिह�दुस् तान और दुकिनया के क्तिलए बेकार साकिबत होंगे। दुकिनया को हम अपने बारे में यह कहने का मौका न दें किक हिह�दुस् तानी क्तिसफ2 गुलामी में ही एक क्तिसयासी हुकूमत के मातहम रह सकते थ,े लेकिकन आजाद होकर र्वोे जंगक्तिलयों की तरह जिजतने चाहें उतने किगरोहों में बँट जाएगँे और हर किगरोह अपने अलग रास् ते जाएगा। या, क् या हिह�दुस् तानी ऐसे किनरंकूश राज् य के गुलाम बनकर रहेंगे, जिजसके पास उन् हें गुलामी में जकड़ने लायक बड़ी भारी फौज होगी ?ᣛ

मैं सब हिह�दुस्ताकिनयों और खासकर दणिक्षण के लोगों से अपील करता हूँ किक र्वोे अँगे्रजी भा�ा की गुलामी को छोड़ दें, जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार और राजनीकित के क्तिलए ही अच्छी भा�ा है। र्वोह हिह�दुस्तान के करोड़ों लोगों की भा�ा कभी नहीं बन सकती। अँग्रेजों का एक या डेढ़ सदी का राज्य भी हिह�दुस्तानी जन- समुद्र के कुछ लाख से ज्यादा लोगों को

अँग्रेजी बोलने र्वोाले नहीं बना सका। अगर आप जन- गणन के आंकडे़ देखें तो आपको पता चलेगा किक कई लाख आदमी हिह�दी और उदू2 की मिमलार्वोट र्वोाली और नागरी या उदू2 क्तिलकिप में क्तिलखी जाने र्वोाली हिह�दुस्तानी बोलते हैं। संस्कृत

के शब्दों से लदी हुई हिह�दी या फारसी के शब्दों से भरी हुई उदू2 बहुत कम लोग बोलते हैं। मुझसे दणिक्षण के लोगों ने पूछा है किक क्या हम अपने सूबे की क्तिलकिप में हिह�दुस्तानी सीख सकते हैं? मुझे तो कोई एतराज नहीं हे। सच पूछा जाए

तो हिह�दुस्तानी प्रचार- सभा ने दणिक्षण के लड़कों को उनके सूबे की क्तिलकिप में हिह�दुस्तानी सीखने की इजाजत दे दी है। बाद में रे्वो नागरी और उदू2 क्तिलकिप सीखते हैं, ताकिक र्वोे आसानी से उत्तर हिह�दुस्तान के साकिहत्य की जानकारी हाक्तिसल कर सकें । देश- पे्रम का इतना तो उनसे तकाजा है ही। आज दणिक्षण के लोगों के संकुक्तिचत प्रांतीय के क्तिशकार होने का भारी खतरा है। अगर सभी संकुक्तिचत बन जाएगँे, तो हमारा प्यार हिह�दुस्तान कहाँ रह जाएगा? मैं खुले तौर पर यह मंजूर करता हूँ किक अगर दणिक्षण के लोगों के क्तिलए हिह�दुस्तानी का न सीखना गलत चीज है, जैसा किक सचमुच है, तो उत्तर के लोगों के क्तिलए दणिक्षण की उत्तम साकिहत्यर्वोाली चार भा�ाओं में से एक या अमिधक भा�ाएँ न सीखना भी उतना ही गलत है। मैंने दणिक्षण के सदस्यों से अपील की है किक रे्वो हिह�दुस्ताकिनयों की सभा में अँगे्रजी भा�ा की कभी माँग न करने

की प्रकितज्ञा कर लें। तभी र्वोे जwदी हिह�दुस्तानी सीख सकें गे। हमें याद रखना चाकिहए किक आजाद हिह�दुस्तान तभी एक बनकर काम कर सकेगा, जब र्वोह नैकितक शासन को मानेगा। गुलामी के खिखलाफ लड़ने र्वोाली संस्था के नाते कांग्रेस अपनी नैकितक ताकत से ही आज तक संगठिFत रह सकी है। लेकिकन जब उसने राजनीकितक आजादी करीब- करीब ले

ली है, तब क्या उसका संगFन खतम हो जाएगा- पह किबखर जाएगी।

66 अल्पसंख्यको की समस्याए ँ पीछे     आगे

अगर हिह�दू लोग किर्वोकिर्वोध जाकितयों के बीच एकता चाहते हैं, तो उनमें अल् पसंख् यक जाकितयों का किर्वोश् र्वोास करने की किहम् मत होनी चाकिहए। किकसी भी दूसरी बुकिनयाद पर आधारिरत मेल सच् चा मेल नहीं होगा। करोड़ों सामान् य जन न तो किर्वोधान-सभा के सदस् य होना चाहते हैं और न म् युकिनक्तिसपल कौक्तिसलर बनना चाहते हैं। और यठिद हम सत् याग्रह का सही उपयोग करना सी, गए है, तो हमें जानना चाकिहए किक उसका उपयोग किकसी भी अन् यायी शासक के खिखलाफ-र्वोह हिह�दू, मुसलमान या अन् य किकसी भी कौम का हो-किकया जा सकता है और किकया जाना चाकिहए। इसी तरह न् यायी शासक या प्रकितकिनमिध हमेशा और समान रूप से अच् छा होता है, किफर र्वोह हिह�दू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदामियक भार्वोना छोड़नी चाकिहए। इसक्तिलए इस प्रयत् न में बहुसंख् यक समाज को पहल करके अल् पसंख् यक जाकितयों में अपनी ईमानदारी के किर्वो�य में किर्वोश् र्वोास पैदा करना चाकिहए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जब किक ज ्यादा बलर्वोान पक्ष दूसरे पक्ष के जर्वोाब की राह देखे किबना सहीं ठिदशा में बढ़ना शुरू कर दे।

जहाँ तक सरकारी महकमों में नौकरिरयों का सर्वोाल है, मेरी राय है किक यठिद हम सांप्रदामियक भार्वोना को यहाँ भी दाखिखल करेंगे,तो यह चीज सुशासन के क्तिलए घातक क्तिसद्ध होगी। शासन सुचाररु रूप से चलें, इसके क्तिलए यह जरूरी है किक र्वोह सबसे योग् य आदमिमयों के हाथ में रहे। उसमें किकसी तरह का पक्षपात तो होना ही नहीं चाकिहए। अगर हमें पाँच इंजीकिनयरों की जरूरत हो तो ऐसा नहीं होना चाकिहए किक हम एक जाकित से एक-एक लें; हमें तो पाँच सबसे सुयोग् य इंजीकिनयर चुन लेने चाकिहए, भले र्वोे सब मुसलमान हो, या पारसी हों। सबसे किनचले दरजे की जगहें, यठिद जरूरी मालूम हों तो, परीक्षा के जरिरए भरी जाए ँऔर यह परीक्षा किकसी ऐसी समिमकित की किनगरानी में हो जिजसमें

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किर्वोकिर्वोध जाकितयों के लोग हों। लेकिकन नौकरिरयों का यह बँटर्वोारा किर्वोकिर्वोध जाकितयों की संख् या के अनुपात में नही होना चाकिहए। रा�् ट्रीय सरकार बनेगी तब क्तिशक्षा में किपछड़ी हुई जाकितयों की क्तिशक्षा के मामले में जरूर दूसरों की अपेक्षा किर्वोशे� सुकिर्वोधाए ँपाने का अमिधकार होगा। ऐसी र्वो् यर्वोस् था करना कठिFन नहीं होगा। लेकिकन जो लोग देश के शासन-तंत्र में बडे़-बडे़ पदों को पाने की आकांक्षा रखते हैं, उन् हें उसके क्तिलए जरूरी परीक्षा अर्वोश् य पास करनी चाकिहए।

स् र्वोतंत्र भारत सांप्रदामियक प्रकितक्तिलकिनत् र्वो की प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं दे सकता। लेकिकन यठिद अल् पसंख् यकों पर जोर-जबरदस् ती नहीं करना है, तो उसे सब जाकितयों को पूरा संतो� देना पडे़गा।

हिह�दुस् तान उन सब लोगों का है, जो यहाँ पैदा हुए है और पले हैं और दूसरे किकसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसक्तिलए र्वोह जिजतना हिह�दुओं का है उतना ही पारक्तिसयों, बेनी इजरायलों, हिह�दुस् तानी ईसाईयों, मुसलमानों और दीगर गैर-हिह�दुओं का भी है। आजाद हिह�दुस् तान में राज् य हिह�दुओं का नहीं,बल्किwक हिह�दुस् ताकिनयों का होगा; और उसका आधार किकसी धार्मिम�क पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्किwक किबना किकसी धार्मिम�क भेदभार्वो के समूचे रा�् ट्र के प्रकितकिनमिधयों पर होगा। मैं एक ऐसे मिमश्र बहुमत की कल् पना कर सकता हूँ, जो हिह�दुओं को अल् पमत बना दे। स् र्वोतंत्र हिह�दुस् तान में लोग अपनी सेर्वोा और योग् य के आधार पर ही चुने जाएगँे। धम2 का किनजी किर्वो�य है, जिजसका राजनीकित में कोई स् थान नहीं होना चाकिहए। किर्वोदेश हुकूमत की र्वोजह से देश में जो अस् र्वोाभाकिर्वोक परिरस्थि^कित पाई जा ती है, उसी की बदौलत हमारे यहाँ धम2 के अनुसार इतने बनार्वोटी किफरके बन गए हैं। जब इस देश से किर्वोदेशी हुकूमत उF जाएगी, तो हम इन झूFे नारों और आदशk से क्तिचपके रहने की अपनी इस बेर्वोकूफी पर खुद ही हँसेंगे।

अपने धम2 पर मेरा अटूट किर्वोश् र्वोास है। मैं उसके क्तिलए अपने अप्राण दे सकता हूँ। लेकिकन र्वोह मेरा किनजी मामला है। राज् य को उससे कुछ लेना-देना नहीं है। राज् य हमारे लौकिकक कल् याण की-स् र्वोास् थ ्य, आर्वोागमन, किर्वोदेशों से संबंध, करेंसी (मुद्रा) आठिद की देखभाल करेगा, लेकिकन हमारे या तुम् हारे धम2 की नहीं। धम2 हर एक का किनजी मामला है।

एग् लों-इंविडयन समाज और विवदेशी लोग

सब किर्वोदेक्तिशयों को यहाँ रहने और बसने की पूरी आजादी है, बशत̧ किक र्वोे अपने को इस देश की जनता से अणिभन् न समझें। जो किर्वोदेशी यहाँ अपने अमिधकारों के क्तिलए संरक्षण चाहते हो, उन् हें भारत आश्रय नहीं दे सकता। अमिधकारों के क्तिलए संरक्षण माँगने का अथ2 यह होगा किक र्वोे यहाँ ऊँचे दरजे के आदमिमयों की तरह रहना चाहते हैं। लेकिकन उन् हें ऐसा नहीं करने ठिदया जा सकता, क् योंकिक उससे संघ�2 पैदा होगा।

अगर एक यूरोकिपयन ऐसा कर सकता है, तो एगं् लो-इंकिडयन और र्वोे देसरे लोग तो और भी ऐसा कर सकते हैं,जिजन् होने यूरोकिपयन आचार-र्वो् यर्वोहार और रीकित-रिरर्वोाज महज इसक्तिलए अपनाए हैं किक किर्वोदेशी सरकार से अच् छे र्वो् यर्वोहार की माँग करने र्वोाले यूरोकिपयनों में उनकी किगनती हो सके। अगर ऐसा लोग यह उम् मीद रखें किक अब तक जो खास सहूक्तिलयतें उन् हें मिमलती रही हैं र्वोैसी आगे भी मिमलती रहें, तो उन् हें परेशानी ही होगी। उन् हें तो इस बात के क्तिलए अपने को धन् य समझना चाकिहए किक जिजन खास सहूक्तिलयतों को भोगने का उन् हें किकसी भी तक2 सम् मत कानून से कोई हक नहीं था, और जो उनकी इज् जत को बटटा लगाने र्वोाली थी, उनका बोझ उनके क्तिसर से उतर जाएगा।

एगं्लो- इंकिडयन के राजनीकितक अमिधकारों को कोई खतरा नहीं है। उसे अपनी सामाजिजक स्थि^कित की चिच�ता है, जो किक किफलहाल अल्किस्तत्र्वो में ही नहीं है। उसे एकओर तो इस बात पर बहुत गुस्सा आता है किक उसकी माँ या उसके किपता

भारतीय थे और दूसरी ओर युरोकिपयन लोग उसे अपने समाज में स्र्वोीकार नहीं करते। इस तरह उसकी स्थि^कित कुएँ और खाई के बीच खडे़ रहने जैसी है। मुझे उससे अक्सर मिमलने का मौका आता है। यूराकिपयन की तरह रहने ओर

यूरोकिपयन ठिदखने की कोक्तिशश में उसे अपने साधनों सीमा से ज्यादा खच�ला जीर्वोन किबताना पड़ाता है और उसका नतीजा यह है किक र्वोह नैकितक और आर्थिथ�क दृमिN से किबलकुल कमजोर हो गया है। मैंने उसे समझाया है किक उसे चुनार्वो

करे लेना चाकिहए और अपना भाग्य भारत की किर्वोशाल जनता के साथ जोड़ देना चाकिहए। अगर इन लोगों में इस अत् यंत सीधी और स्र्वोाभाकिर्वोक स्थि^कित को समझने और स्र्वोीकार करने का साहस और दूरदर्थिश�ता होगी, तो र्वोे न क्तिसफ2

अपना उद्धार कर सकें गे। बेजुबान एगं्लो- इंकिडयन के सामने सबसे बड़ा सर्वोाल अपनी सामाजिजक स्थि^कित का किनण2य

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करने का है। ज्यों ही र्वोह अपने को भारतीय समझने और मानने लगेगा और एक भारतीय की ही तरह रहने लगेगा, त् यों ही र्वोह महसूस करेगा किक र्वोह सुरणिक्षत है।

67 भारतीय गवन*र पीछे     आगे

1. हिह�दुस् तानी गर्वोन2र को चाकिहए किक र्वोह खुद पूरे संयम का पालन करे और अपने आस-पास संयम का र्वोातार्वोरण खड़ा करे। इस के किबना शराबबंदी के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

2. उसे अपने में और अपने आस-पास हाथ-कताई और हाथ-बुनाई का र्वोातार्वोरण पैदा करना चाकिहए, जो हिह�दुस् तान के करोड़ों गंूगों के साथ उसकी एकता को प्रकट किनशानी हो,'मेहनत करके रोटी कमाने'की जरूरत का और संगठिFत हिह�सा के खिखलाफ-जिजस पर आज का समाज ठिटका हुआ मालूम होता है संगठिFत अहिह�सा का जीत-जागता प्रतीक हो।

3. अगर गर्वोन2र को अच् छी तरह काम करना है, तो उसे लोगों की किनगाहों से बचे हुए,किफर भी सबकी पहुँच के लायक, छोटे से मकान में रहना चाकिहए। किब्रठिटश गर्वोन2र स् र्वोभार्वो से ही किब्रठिटश ताकत को ठिदखाता था। उसके क्तिलए और उसके लोगों के क्तिलए सुरणिक्षत महल बनाया गया था-ऐसा महल जिजसमें र्वोह और उसके साम्राज् य को ठिटकाए रखने र्वोाले उसके सेर्वोक रह सकें । हिह�दुस् तानी गर्वोन2न राजा-नर्वोाबों और दुकिनया के राजदूतों का स् र्वोागत करने के क्तिलए थोड़ी शान-शौकत र्वोाली इमारतें रख सकते हैं। गर्वोन2र के मेहमान बनने र्वोाले लोगों को उसके र्वो् यक्ति)त् र्वो और आस-पास के र्वोातार्वोरण से'ईर्वोन अण् टु ठिदस लास् ट'(सर्वो�दया) सब के साथ समान बरतार्वो-की सच् ची क्तिशक्षा मिमलनी चाकिहए। उसके क्तिलए देशी या किर्वोदेशी महंगे फन�चर की जरूरत नहीं।'सादा जीर्वोन और ऊँचे किर्वोचार'उसका आदश2 होना चाकिहए। यह आदश2 क्तिसफ2 उसके दरर्वोाजे की ही शोभा न बढ़ाए, बल्किwक उसके रोज के जीर्वोन में भी ठिदखाई दे।

4. उसके क्तिलए न तो किकसी रूप में छुआछूत हो सकती है ओर न जाकित, धम2 या रंग का भेद। हिह�दुस् तान का नागरिरक होने के नाते उसे सारी दुकिनया का नागरिरक होना चाकिहए। हम पढ़ते हैं किक खलीफा उमर इसी तरह सादगी से रहते थ,े हालाँकिक उनके कदमों पर लाखों-करोंड़ों की दौलत लोटती रहती थी। उसी तरह पुराने जमाने में राजा जनक रहते थे। इसी सादगी से ईटन के मुख् यामिधकारी, जैसा किक मैंने उन् हें देखा था, अपने भर्वोन में किब्रठिटश द्वीपों के लॉड2 और नर्वोाबों के लड़कों के बीच रहा करते थे। तब क् या करोड़ों भूखो के देश हिह�दुस् तान के गर्वोन2र इतनी सादगी से नहीं रहेंगे ?ᣛ

5. र्वो ह जिजस प्रांत का गर्वोन2र होगा, उसकी भा�ा और हिह�दुस् तानी बोलेगा, जो हिह�दुस् तान की रा�् ट्रभा�ा है और नागरी या उदू2 क्तिलकिप में क्तिलखी जाती है। र्वोह न तो संस् कृत शब् दों से भरी हुई हिह�दी है ओर न फारसी शब् दों से लदी हुई उदू2। हिह�दुस् तानी दरअसल र्वोह भा�ा है, जिजसे हिर्वो�ध्याचल के उत् तर में करोड़ों लोग बोलते हैं।

हिह�दुस्तानी गर्वोन2र में जो- जो गुण होने चाकिहए, उनकी यह पूरी सूची नहीं है। यह तो क्तिसफ2 मिमसाल के तौर पर दी गईहै।

68 समाचार-पत्र पीछे     आगे

समाचार-पत्र सेर्वोाभार्वो से ही चलाने चाकिहए। समाचार-पत्र एक जबरदस् त शक्ति) है; हिक�तु जिजस प्रकार किनरंकुश पानी का प्रर्वोाह गाँर्वो-के-गाँर्वो डुबों देता है और फसल को न�् ट कर देता है, उसी प्रकार किनरंकुश कलम का प्रर्वोाह भी नाश की सृमिN करता है। यठिद ऐसा अंकुश बाहर से भी अमिधक किर्वो�ैली क्तिसद्ध होता है। अंकुश अंदर का ही लाभदायक हो सकता। यठिद यह किर्वोचारधारा सच हो, तो दुकिनया के किकतने समाचार-पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते है? लेकिकन

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किनकम् मों को बंद कौन करे? किकसे किनकम् मा समझे ? ᣛ उपयोगी और किनकम् मे दोनों-भलाई और बुराई की तरह-साथ-साथ ही चलते रहेंगे। उनमें से मनु�् य को अपना चुनार्वो करना होगा।

आधुकिनक पत्रकार-कला में गहराई का अभार्वो, किर्वो�य का कोई एक ही पक्ष पेश करना, तथ् योंके र्वोण2न में भूले और अक् सर बेईमानी आठिद जो दो� आ गए हैं,र्वोे उन ईमानदार र्वो् यक्ति)यों को लगातार गुमराह करते हैं, जो शुद्ध न् याय होते देखना चाहते हैं।

मेरे सामने किर्वोकिर्वोध पत्रों के ऐसे उद्धारण हैं, जिजनमें बहुत-सी अपाणिuजनक बातें हैं। उनमें सांप्रदामियक भार्वोनाओं को उभाड़ने की कोक्तिशश है, हकीकतों को अत् यंत गलत ढँग से पेश किकया गया है और हत् या की हद तक राजनीकितक हिह�सा को उत् तेजना दी गई है। सरकार चाहे तो ऐसे लेखों के खिखलाफ मुकदमें चला सकती है या उन् हें रोकने के क्तिलए दमनकारी कानून पास कर सकते है। लेकिकन इस उपायों से अभी�् ट लक्ष् य की क्तिसजिद्ध या तो होती नहीं या बहुत अस् थायी तौर पर होती है। और उन लखकों का मानस-परिरर्वोत2नो इनसे कभी नहीं होता। कारण, जब उन् हें अपनी बात के प्रचार के क्तिलए समाचार-पत्रों का सबके क्तिलए खुला हुआ स् थान नहीं मिमलता, तो र्वोे अक् सर गुप् त प्रचार का आश्रय लेते हैं।

इस बुराई का सच् चा इलाज तो ऐसे स् र्वोस् थ लोकमत का किनमा2ण है, जो इस किकस् म के जहरीले पत्रों को आश्रय देने से इनकार कर दे। हमारा पत्रकारों का अपना संघ है। इस संघ को अपना एक ऐसा किर्वोभाग क् यों नहीं खोलना चाकिहए, जो सब पत्रों को ध् यान से पढे़, आपणिuजनक लेखों को ढँूढ़ किनकाले और उन् हें उन पत्रों के संपादकों की नजर में लाए ? ᣛ इस किर्वोभाग का काय2 अपराधी पत्रों से संपक2 स् थाकिपत करने तक और जहाँ अभी�् ट सुधार इस संपक2 से क्तिसद्ध न किकया जा सके, र्वोहाँ उन आपणिuजन लेखों की सार्वो2जकिनक आलोचना करने तक सीमिमत रहे। समाचार-पत्रों की स् र्वोतंत्रता ऐसा कीमती अमिधकार है, जिजसे कोई भी देश छोड़ना नहीं चाहेगा। लेकिकन इस अमिधकार के दुरुपयोग को रोकने के क्तिलए मामूली प्रकार की कानूनी रोक के क्तिसर्वोा कोई दूसरी कानूनी रोक न हो, तो मैंने जैसी आंतरिरक रोक सुझाई है र्वोैसी आंतरिरक रोक असंभर्वो नहीं होनी चाकिहए। और र्वोह लगाई जाए तब उसका किर्वोरोध नहीं होना चाकिहए।

मैं अर्वोश् य ही यह मानता हूँ किक अनी कित से भरे हुए किर्वोज्ञापनों की मदद से समाचार-पत्रों को चलाना उक्तिचत नहीं है। में यह भी मानता हूँ किक किर्वोज्ञापन यठिद लेने ही हों तो उन पर समाचार-पत्रों के माक्तिलकों और संपादकों की तरफ से बड़ी सख् त चौकीदारी होना आर्वोश् यक है और केर्वोल शुद्ध और पकिर्वोत्र किर्वोज्ञापन ही क्तिलए जाने चाकिहए। ... आज अच् छे प्रकितमि�ता किगने जाने र्वोाले समाचार-पत्रों और माक्तिसकों पर भी यह दुकि�त किर्वोज्ञापनों का अकिन�् ट हार्वोी हो रहा है। यह अकिन�् ट तो सामाचा-पत्रों के माक्तिलकों और संपादकों की किर्वोरे्वोक-बुजिद्ध को शुद्ध करके ही दूर किकया जा सकता है। मेरे जैसे नौक्तिसखुर्वोे संपादक के प्रभार्वो से यह शुजिद्ध नहीं हो सकती। लेकिकन जब उनकी किर्वोरे्वोक-बुजिद्ध इस बढ़ने र्वोाला और रा�् ट्र के प्रकित जाग्रत होगी, अथर्वोा जब रा�् ट्र की शुजिद्ध प्रकितकिनमिधत् र्वो करने र्वोाला और रा�् ट्र की नैकितकता पर सदा ध् यान रखने र्वोाला राज् यतंत्र उस किर्वोरे्वोक-बुजिद्ध को जाग्रत करेगा तभी हो सकेगी।

मेरा आग्रह है किक किर्वोज्ञापनों में सत्य का यथेष्ट ध्यान रखा जाना चाकिहए। हमारे लोगों की एकआदत यह है किक र्वोे पुस् तक या अखबर में छपे हुए शब्दों को शास्त्र- र्वोचनों की तरह सत्य मान लेते हैं। इसक्तिलए किर्वोज्ञापनों की सामग्री तैयार करने में अत्यंत सार्वोधानी बरतने की जरूरत है। झूFी बातें बहुत खतरनाक होती है।

69 शान्तिन्त सेना पीछे     आगे

कुछ समय पहले मैंने ऐसे स् र्वोयंसेर्वोकों की एक सेना बनाने की तजर्वोीज रखी थी, जो दंगो-खासकर सांप्रदामियक दंगों को शांत करने में अपने प्राणों तक की बाजी लगा दें। किर्वोचार यह था किक र्वोह सेना पुक्तिलस का ही नहीं बल्किwक फौज तक का स् थान ले लगी। यह बात बड़ी महत् त् र्वोाकांक्षा र्वोाली मालूम पड़ती है। शायद यह असंभर्वो भी साकिबत हो।

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किफर भी, अगर कांग्रेस को अपनी अहिह�सात् मक लड़ाई में कामयाबी हाक्तिसल करनी हो, तो उस परिरस्थि^कितयों का शांकितपूर्वो2क मुकाबला करने की अपनी शक्ति) बढ़ानी ही चाकिहए।

इसक्तिलए हमें देखना चाकिहए किक जिजस शांकितसेना की हमने कल् पना की है, उसके सदस् यों की क् या योग् यताए ँहोनी चाकिहए :

1. शांकितसेना का सदस् य पुरु� हो या स् त्री, अहिह�सा में उसका जीकिर्वोत किर्वोश् र्वोास होना चाकिहए। यह तभी संभर्वो है जब किक ईश् र्वोर में उसका जीकिर्वोत किर्वोश् र्वोास हो। अहिह�सक र्वो् यक्ति) तो ईश् र्वोर की कृपा और शक्ति) के बगैर कुछ कर ही नहीं सकता। इसके किबना उसमें क्रोध, भय और बदले की भार्वोना न रखते हुए मरने का साहस नहीं आएगा। ऐसा साहस तो इस श्रद्धा से आता है किक सबके हृदयों में ईश् र्वोर का किनर्वोास है, और ईश् र्वोर की उपस्थि^कित में किकसी भी भय की जरूरत नहीं। ईश् र्वोर की सर्वो2-र्वो् यापकता के ज्ञान का यह भी अथ2 है किक जिजन् हें किर्वोरोधी या गंुडे कहा जा सकता हो उनके प्राणों तक का हम खयाल रखें। यह इरादत दस् तन् दाजी उस समय मनु�् य के क्रोध को शांत करने का एक तरीका है, जब किक उसके अंदर का पशुभार्वो उस पर हार्वोी हो जाए।

2. शांकित के इस दूत में दुकिनया के सभी खास-खास धमk के प्रकित समान श्रद्धा होना जरूरी है। इस प्रकार अगर र्वोह हिह�दू हो तो र्वोह हिह�दूस् तान में प्रचक्तिलत अन् य धमk का आदर करेगा। इसक्तिलए देश में माने जाने र्वोाली किर्वोणिभन् न धमk के सामान् य क्तिसद्धांतों का उसे ज्ञान होना चाकिहए।

3. आम तौर पर शांकित का यह काम केर्वोल स् थानीय लोगों द्वारा अपनी बल्किस्तयों में हो सकता है।

4. यह काम अकेले या समूहों में हो सकता है। इसक्तिलए किकसी को संगी-साक्तिथयों के क्तिलए इंतजार करने की जरूरत नहीं है। किफर भी र्वोह स् र्वोभार्वोत: अपनी बस् ती में से कुछ साक्तिथयों को ढँूढ़कर स् थानीय सेना का किनमा2ण करेगा।

5. शांकित का यह दूत र्वो् यक्ति)गत सेर्वोा द्वारा अपनी बस् ती या किकसी चुने हुए के्षत्र में लोगों के साथ ऐसा संबंध स् थाकिपत करेगा, जिजससे जब उसे भद्दी स्थि^कितयों में काम करना पडे़ तो उपद्रकिर्वोयों के क्तिलए र्वोह किबलकुल ऐसा अजनबी न हो, जिजस पर र्वोे शक करें या जो उन् हें नागर्वोार मालूम पडे़।

6. यह कहने की तो जरूरत ही नहीं किक शांकित के क्तिलए काम करने र्वोाले का चरिरत्र ऐसा होना चाकिहए, जिजस पर कोई अँगुली न उFा सके और र्वोह अपनी किन�् पक्षता के क्तिलए मशहूर हो।

7. आम तौर पर दंगों से पहले तूफान आने की चेतार्वोनी मिमल जाया करती है। अगर ऐसे आसार ठिदखाई दें तो शांकितसेना आग भड़क उFाने तक इंतजार न करके तभी से परिरस्थि^कित को संभालने का काम शुरू कर देगी जब से किक उसकी संभार्वोना ठिदखाई दे।

8. अगर यह आंदोलन बढे़ तो कुछ पूरे समय काम करने र्वोाले काय2कता2ओं का इसके क्तिलए रहना अच् छा होगा। लेकिकन यह किबलकुल जरूरी नहीं किक ऐसा हो ही। खयाल यह है किक जिजतने भी अच् छे स् त्री-पुरु� मिमल सकें उतने रखे जाए।ँ लेकिकन र्वोे तभी मिमल सकते हैं जब किक स् र्वोयंसेर्वोक ऐसे लोगों में से प्राप् त हों, जो जीर्वोन के किर्वोकिर्वोध कायk में लगे हुए हो, पर उनके पास इतना अर्वोकाश हो किक अपने इलाकों में रहने र्वोालें लोगों के साथ र्वोे मिमत्रता के संबंध पैदा कर सकें । तथा उन सब योग् यताओं को रखते हों, जो किक शांकितसेना के सदस् य में होनी चाकिहए।

9. इस सेना के सदस् यों की एक खास पोशाक होनी चाकिहए, जिजससे कालांतर में उन् हें किबना किकसी कठिFनाई के पहचाना जा सके।

ये क्तिसफ2 आम सूचनाए ँहैं। उनके आधार पर हर एक कें द्र अपना किर्वोधान बना सकता है।

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बडे़-बडे़ दलों को चलाने के क्तिलए सजा नहीं, तो सजा का डर होना चाकिहए और जरूरत मालूम होने पर सजा दी भी जानी चाकिहए। ऐसे हिह�सक दल में आदमी के चाल-चलन को नहीं देखा जाता। उसके कद और डीलडौल को ही देखा जाता है। अहिह�सक दल में इससे Fीक उलटा होता है। उसमें शरीर की जगह गौण होती है, शरीर ही सब कुछ होता है, यानी चरिरत्र सब-कुछ होता है। ऐसा चरिरत्रर्वोान र्वो् यक्ति) को पहचानना कुल्किश्कल है। इसक्तिलए बडे़-बडे़ शांकितदल स् थाकिपत नहीं किकए जा सकते। र्वोे छोटे ही होंगे। जगह-जगह होंगे, हर गाँर्वो या हर मुहल् ले में होंगे। मतलब यह किक जो जाने-पहचाने लोग हैं, उन् हीं की टुककिड़याँ बनेगी। र्वोे मिमलकर अपना एक मुखिखया चुन लेंगे। सबका दरजा बराबर होगा। जहाँ एक से ज ्यादा आदमी एक ही तरह का काम करते हैं र्वोहाँ उनमें एकाध ऐसा होना चाकिहए, जिजसकी आज्ञा के अनुसार सब कोई चल सके। ऐसा न हो तो मेलजोल के साथ, सहयोग से काम, नहीं हो सकता। दो या दो से ज ्यादा लोग अपनी-अपनी मरजी से काम करें, तो मुमकिकन है किक उनके काम की ठिदशा एक-दूसरे से उलटी हो। इसक्तिलए जहाँ दो या दो से ज ्यादा दल हों, र्वोहाँ र्वोे किहलमिमल कर काम करें तभी काम चल सकता है और उसमें कामयाबी हो सकती है। इस तरह के शांकितदल जगह-जगह हों, तो र्वोे अराम से और आसानी से दंगा-फसाद को रोक सकते हैं। ऐसे दलों को अखाड़ों में दी जाने र्वोाली सभी तरह की तालीम देना जरूरी नहीं। उनमें दी जाने र्वोाली कुछ तालीम लेना जरूरी हो सकता है।

सब शांकितदलों के क्तिलए एक चीज आम यानी सामान् य होनी चाकिहए। शांकितदल के हर एक सदस् य का ईश् र्वोर में अटल किर्वोश् र्वोास होना चाकिहए। उसमें यह श्रद्धा होनी चाकिहए किक ईश् र्वोर ही सच् चा साथी है और र्वोही सबका सरजनहार है, कता2 है। इसके किबना जो शांकित सेनाए ँबनेंगी र्वोे मेरे खचाल में बेजान होंगी। ईश् र्वोर को आप किकसी भी नाम से पुकारें, मगर उसकी शक्ति) का उपयोग तो आपको करना ही है। ऐसा आदमी किकसी को मारेगा नहीं, बल्किwक खुद मरकर मृत् यु पर किर्वोजय पाएगा और जी जाएगा।

जिजस आदमी के क्तिलए यह कानून एक जीती-जागती चीज बन जाएगा, उसको समय के अनुसार बुजिद्ध भी अपने-आप सूझती रहेगी। किफर भी अपने तजरबे से मैं यहाँ कुछ किनयम देता हूँ :

1. सेर्वोक अपने साथ कोई ऐसी हक्तिथयार न रखे।

2. र्वोह अपने बदन पर कोई ऐसी किनशानी रखे, जिजससे फौरन पता चले किक र्वोह शांकितदल का सदस् य है।

3. सेर्वोक के पास घायलों र्वोगैरा की सार-संभाल के क्तिलए तुरंत काम देने र्वोाली चीजें रहनी चाकिहए। जैसे, पट्टी, कैची, छोटा चाकू, सूई र्वोगैरा।

4. सेर्वोक को ऐसी तालीम मिमलनी चाकिहए, जिजससे र्वोह घायलों को आसानी से उFाकर ले जा सके।

5. जलती आग को बुझाने की, किबना जले या किबना झुलसे आग र्वोाली जगहों में जाने की, ऊपर चढ़ने की और उतरने की कला सेर्वोक में होनी चाकिहए।

6. अपने मुहल् ले के सब लोगों से उसकी अच् छी जान-पहचान होनी चाकिहए। यह खुद ही अपने-आप में एक सेर्वोा है।

7. उसे मन-ही-मन रामनाम का बराबर जप करते रहना चाकिहए और इसमें मानने र्वोाले दूसरों को भी ऐसा करने के क्तिलए समझाना चाकिहए।

कुछ लोग आलस् य की र्वोजह से या झूFी आदत की र्वोजह से यह मान बैFते हैं किक ईश् र्वोर तो है ही और र्वोह किबना माँगे मदद करता है, किफर उसका नाम रटने से क् या फायदा? हम ईश् र्वोर की हस् ती को कबूल करें या न करें, उससे उसकी हस् ती में कोई कमी-बेशी नहीं होती यह सच है। किफर भी उस हस् ती का उपयोग तो अभ् यासी ही कर पाता है। जब हर भौकितक शास् त्र के क्तिलए यह बात सौ फीसदी सच है, तो किफर अध् यात् मक के क्तिलए तो यह उससे भी ज ्यादा सच होनी चाकिहए। किफर भी हम देखते हैं किक इस मामले में हम तोते की तरह राम-नाम रटते हैं और फल की आशा रखते हैं। सेर्वोक में इस सच् चाई को अपने जीर्वोन में क्तिसद्ध करने की ताकत होनी चाकिहए।

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गंुडों की समस् या

गंुडों को दो� देना गलत है। र्वोे तब तक कोई शरारत नहीं कर सकता, जब त क किक हम उनके क्तिलए अनुकूल र्वोातार्वोरण नहीं पैदा कर दें। सन् 1921 में बंबई में किब्रठिटश युर्वोराज के आगमन-ठिदन पर जो कुछ हुआ, र्वोह सब मैंने खुद देखा था। उसका बीज हमने जो बोया था, गंुडों ने तो उसकी फसल काटी। उनके पीछे बल हमारा ही था। ... हमें प्रकितमि�त र्वोग2 को दो�ारोपण से बचाने की आदत छोड़ देना चाकिहए। ... बकिनयों और ब्राह्मणों को, यठिद अहिह�सा से नहीं तो हिह�सा से सही, अपने रक्षा करना सीख लेना चाकिहए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उन् हें अपनी स्त्रिस्त्रयों और अपनी धन-संपणिu को गंुडों के हर्वोाले करना पडे़गा। गंुडों की असल में-उन् हें हिह�दू कहा जाता हो या मुसलमान-एक अलग जाकित है।

कायरता का इलाज शारीरिरक तालीम में नहीं, बल्किwक जो भी खतरे आए ँउनकी मुकाबला बहादुरी के साथ करने में है। जब तक मध् यम र्वोग2 के हिह�दू, जो खुद डरपोक होते हैं, ज ्यादा लाड़-प् यार के द्वारा अपने जर्वोान लड़कों-बच् चों को नाजुक बनाना और इस तरह अपना डरपोकपन उनमे भरना जारी रखते हैं, तब तक उनमें खतरे को टालने और किकसी भी तरह के खतरे से बचने की जो र्वोृणिu पाई जाती है र्वोह भी जारी रहेगी। इसक्तिलए उन् हें अपने लड़को को अकेला छोड़ने का साहस करना चाकिहए; उन् हें खतरे में पड़ने देना चाकिहए और ऐसा करते हुए यठिद र्वोे मर जाते हैं तो मर जाने देना चाकिहए। शरीर से कमजोर किकसी बौन आदमी में भी शेर का ठिदल हो सकता है। और बहुत हटटे-कटटे जुलू भी अँग्रेज लड़कों सामने कांपने लग जाते हैं। हर एक गाँर्वो को अपनी बस् ती में से शेर ठिदल र्वो् यक्ति) ढँूढ किनकालना चाकिहए।

जिजन लोगों को गुंडा माना जाता है उनसे हमें जान- पहचान करनी चाकिहए। शांकित का साधक अपने आस- पास समाज के किकसी अंग को ऐसे रहने नहीं देगा। सबके साथ मीFा संबंध बांधेगा, सबकी सेर्वोा करेगा। गुंडे लोग आकाश से तो

नहीं उतरते। भूत की तरह जमीन के पेट में से भी नहीं किनकलते। उनकी उत्पणिu समाज की कुव्यर्वोस्था से ही होती है। इसक्तिलए समाज उसके क्तिलए जिजम्मेदार है। गुंडों को समाज का बीमार या एक प्रकार का दूकि�त अंग समझना चाकिहए।

ऐसा मानकर उस बीमारी के कारण ढँूढ़ने चाकिहए। कारण हाथ लगने पर बाद में इलाज किकया जा सकता है। अब तक तो इस ठिदशा में प्रयत्न तक नहीं किकया गया। ' जागे तभी सबेरा' इस सुभाकि�त के अनुसार यह प्रयत्न अब शुरू कर देना चाकिहए। इस बारे में अब कोक्तिशश हो गई है। सब अपनी- अपनी जगह कोक्तिशश करें। ऐसी कोक्तिशश की

सफलता में ही इस सर्वोाल का जर्वोाब समाया हुआ है।

70 भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस पीछे     आगे

इंकिडयन नेशनल कांग्रेस देश की सबसे पुरानी रा�् ट्रीय राजनीकितक संस् था है। उसने कई अहिह�सक लड़ाइयों के बाद आजादी हाक्तिसल की है। उसे मरने नहीं ठिदया जा सकता। उसका खात् मा क्तिसफ2 तभी हो सकता है जब रा�् ट्र का खात् मा हो। एक जीकिर्वोक संस् था या तो प्राणी की तरह लगातार बढ़ती रहती है या मर जाती है। कांग्रेस ने राजनीकितक आजादी तो हाक्तिसल कर ली है, मगर उसे अभी आर्थिथ�क आजादी, सामाजिजक आजादी और नैकितक आजादी हाक्तिसल करनी है। ये आजाठिदयाँ चँूकिक रचनात् मक हैं और भड़कीली नहीं हैं, इसक्तिलए इन् हें हाक्तिसल करना राजनीकितक आजादी से ज ्यादा मुल्किश्कल है। जीर्वोन के सारे पहलुओं को अपने में समा लेने र्वोाला रचनात् मक काम करोड़ों जनता के सारे अंगों की शक्ति) को जगाता है।

कांग्रेस को उसी आजादी का प्रारंणिभक और जरूरी किहस् सा मिमल गया है। लेकिकन उसकी सबसे कठिFन मंजिजल आना अभी बाकी है। प्रजातंत्रीय र्वो् यर्वोस् था कायम करने के अपने मुल्किश्कल मकसद तक पहुँचने में उसने अकिनर्वोाय2 रूप से दलबंदी करने र्वोाले गंदे पानी के गड़हों-जैसे मंडल खडे़ किकए हैं, जिजनमें घूंसखोरी और बेईमानी फैली और ऐसी सं^ाए ँपैदा हुई हैं जो नाम की ही लोककिप्रय और प्रजातंकित्रय हैं। इन सब बुराइयों के जंगल से बाहर कैसे किनकला जाए?

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कांग्रेस को सबसे पहले अपने मेंबरों के उस खास रजिजस् टर को अलग हटा देना चाकिहए, जिजसमें मेंबरों की तादाद तभी कभी भी एक करोड़ से आगे नहीं बढ़ी और तब भी जिजन् हें आसानी से शनाख् त नहीं किकया जा सकता था। उसके पास ऐसे करोड़ों का एक अज्ञात रजिजस् टर इतना बड़ा होना चाकिहए किक देश मतदाताओं की सूची में जिजतने पुरु�ों और स्त्रिस्त्रयों के नाम हैं र्वोे सब उसमें आ जाए।ँ कांग्रेस का काम यह देखना होना चाकिहए किक कोई बनार्वोटी नाम उसमें शामिमल न हो जाए और कोई जाएज नाम छूट जाए। उसके अपने रजिजस् टर में उन सेर्वोकों के नाम रहेंगे, जो समय-समय पर खुद को ठिदया हुआ काम करते रहेंगे।

देश के दुभा2ग् य से ऐसे काय2कता2 किफलहाल खास तौर पर शहरर्वोालों में से ही क्तिलए जार्वोेंगे, जिजनमें से ज ्यादातर को देहातों के क्तिलए और देहातों में काम करने की जरूरत होगी। मगर इस श्रेणी में ज ्यादा और ज ्यादा तादाद में देहाती लोग ही भरती किकए जाने चाकिहए।

इन सेर्वोकों से यह अपेक्षा रखी जाएगी किक र्वोे अपने-अपने हलकों में कानून के मुताकिबक रजिजस् टर में दज2 किकए गए मतदाताओं के बीच काम करके उन पर प्रभार्वो डालेंगे और उनकी सेर्वोा करेंगे। कई र्वो् यक्ति) और पार्टिट�याँ इन मतदाताओं को अपने पक्ष में करना चाहेंगी। जो सबसे अच् छे होंगे उन् हीं की जीत होगी। इसके क्तिसर्वोा और कोई दूसरा रास् ता नहीं है, जिजससे कांग्रेस देश में तेजी से किगरती हुई अपनी पहले की अनुपम स्थि^कित को किफर से हाक्तिसल कर सके। अभी तक कांग्रेस बेजाने देश की सेकिर्वोका थी। र्वोह खुदाई खिखदमतगार थी-भगर्वोान की सेकिर्वोका है-न तो इससे ज ्यादा है, न कम। अगर र्वोह सत् ता हड़पने के र्वो् यथ2 के झगड़ों में पड़ती है, तो एक ठिदन र्वोह देखेगी किक र्वोह कहीं नहीं है। भगर्वोान को धन् यर्वोाद है किक अब र्वोह जनसेर्वोा के के्षत्र की एकमात्र स् र्वोामिमनी नहीं रही।

मैंने क्तिसफ2 दूर का दृश् य आपके सामने रखा है। अगर मुझे र्वोक् त मिमला और मेरा स् र्वोास् थ ्य Fीक रहा, तो मैं इन कालमों में यह चचा2 करने की उम् मीद करता हूँ किक अपने माक्तिलकों-सारे बाक्तिलग पुरु�ों और स्त्रिस्त्रयों की-नजरों में अपने को ऊँचा उFाने के क्तिलए देशसेर्वोक क् या कर सकते हैं।

गां2ीजी का आखिखरी वसीयतनामा

(कांग्रेस के नए किर्वोधान का नीचे ठिदया जा रहा मसकिर्वोदा गांधीजी ने 29 जनर्वोरी, 1948 को अपनी मृत् यु के एक ही ठिदन पहले बनाया था। यह उनका अंकितम लेख था। इसक्तिलए इसे उनका आखिखरी र्वोसीयतनामा कहा जा सकता हैं)

देश का बँटर्वोारा होते हुए भी, भारतीय रा�् ट्रीय कांग्रेस द्वारा मुहैया किकए गए साधनों के जरिरए हिह�दुस् तान को आजादी मिमल जाने के कारण मौजूदा स् र्वोरूप र्वोाली कांग्रेस का काम अब खतम हुआ-यानी प्रचार के र्वोाहन और धारासभा की प्रर्वोृणिu चलाने तंत्र के नाते उसकी उपयोकिगता अब समाप् त हो गई है। शहरों और कस् बों से णिभन् न उसके सात लाख गाँर्वोों की दृमिN से हिह�दुस् तान की सामाजिजक, नैकितक और आर्थिथ�क आजादी हाक्तिसल करना अभी बाकी है। लोकशाही के मकसद की तरफ हिह�दुस् तान की प्रगकित के दरमिमयान फौजी सत् त पर मुल् की सत् ता को प्रधानता देने की लड़ाई अकिनर्वोाय2 है। कांग्रेस की हमें राजनीकितक पार्टिट�यों और सांप्रदामियक संस् थाओं के साथ की गंदी होड़ से बचाना चाकिहए। इन और ऐसे ही दूसरे कारणों से अखिखल भारत कांग्रेस कमेटी नीचे ठिदए हुए किनयमों के मुताकिबक अपनी मौजूदा संस् था को तोड़ने और लोक-सेर्वोा-संघ के रूप में प्रकट होने का किनश् चय करे। जरूरत के मुताकिबक इन किनयमों में फेरफार करने का इस संघ को अमिधकार रहेगा।

गाँर्वो र्वोाले या गाँर्वो र्वोालों के जैसी मनोर्वोृणिu र्वोाले पाँच र्वोयस् क पुरु�ों या स्त्रिस्त्रयों की बनी हुई हर एक पंचायत एक इकाई बनेगी।

पास-पास की ऐसी हर दो पंचायतों की, उन् हीं में से चुने हुए एक नेता की रहनुमाई में, एक काम करने र्वोाली पाट� बनेगी।

जब ऐसी 100 पंचायतें बन जाए,ँ तब पहले दरज ेके पचास नेता अपने में से दूसरे दरजे का एक नेता चुनें और इस तरह पहले दरजे का नेता दूसरे दरज ेके नेता के मातहत काम करे। दो सौ पंचायतों के ऐसे जोडे़ कायम करना तब

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तक जारी रखा जाए,ँ जब किक र्वोे पूरे हिह�दुस् तान को न ढक लें। और बाद में कायम की गई पंचायतों को हर एक समूह पहले की रिरह दूसरे दरज ेका नेता चुनता जाए। दूसरे दरजें के नेता सारे हिह�दुस् तान के क्तिलए सस्त्रिम्मक्तिलत रीजिज से काम करें और अपने-अपने प्रदेशों में अलग-अलग काम करें, और र्वोह मुखिखया चुनने र्वोाले चाहें तब तक सब समुहों को र्वो् यर्वोस्थि^त करके उनकी रहनुमाई करें।

(प्रांतों या जिजलों की अंकितम रचना अभी तय न होने से सेर्वोकों के इन समूह को प्रांतीय या जिजला समिमकितयों में बाँटने की कोक्तिशश नहीं की गई है। और, किकसी भी र्वोक् त बनाए हुए समूहों को सारे हिह�दुस् तान में काम करने का अमिधकार रहेगा। यह याद रखा जाए किक सेर्वोकों के इस समुदाय को अमिधकार या सत् ता अपने उन स् र्वोामिमयों से यानी सारे हिह�दुस् तान की प्रजा से मिमलती है, जिजसकी उन् होंने अपनी इच् छा से और होक्तिशयारी से सेर्वोा की है।)

1. हर एक सेर्वोक अपने हाथ-काते सूत की या चरखा-संघ द्वारा प्रमाणिणत खादी हमेशा पहनने र्वोाला और नशीली चीजों से दूर रहने र्वोाला होना चाकिहए। अगर र्वोह हिह�दू है तो उसे अपने में से और अपने परिरर्वोार में से हर किकस् म की छूआ छूत दूर करनी चाकिहए और जाकितयों के बीच एकता के, सब धमk के प्रकित समभार्वो के और जाकित, धम2 या स् त्री-पुरु� के किकसी भेदभार्वो के किबना सबके क्तिलए समान अर्वोसर और समान दरज ेके आदश2 में किर्वोश् र्वोास रखले र्वोाला होना चाकिहए।

2. अपने काय2के्षत्र में उसे एक गाँर्वो र्वोालें के किनजी संसग2 में रहना चाकिहए।

3. गाँर्वो र्वोालों में से र्वोह काय2कता2 चुनेगा और उन् हें तालीम देगा। इन सबका र्वोह रजिजस् टर रखेगा।

4. र्वोह अपने रोजाना के काम का रेकाड2 रखेगा।

5. र्वोह गाँर्वोों की इस तरह संगठिFत करेगा किक र्वोे अपनी खेती और गृह-उद्योगों द्वारा स् र्वोयंपूण2 और स् र्वोार्वोलंबी बनें।

6. गाँर्वो र्वोालों को र्वोह सफाई और तंदुरुस् ती की तालीम देगा और उनकी बीमारी र्वो रोगो को रोकने के क्तिलए सारे उपाय काम में लाएगा।

7. हिह�दुस् तानी तालीमी संघ की नीकित के मुताकिबक नई तालीम के आधार पर र्वोह गाँर्वो र्वोालों पैदा होने से करने तक की सारी क्तिशक्षा का प्रबंध करेगा।

8. जिजनके नाम मतदाताओं की सरकारी यादी में ने आ पाए हों, उनके नाम र्वोह उसमें दज2 करयेगा।

9. जिजन् होंने मत देने के अमिधकार के क्तिलए जरूरी योग् यता हाक्तिसल न की हो, उन् हें र्वोह योग् यता हाक्तिसल करने के क्तिलए प्रोत् साहन देगा।

10. ऊपर बताए हुए और समय-समय पर बढ़ाए हुए उदे्दश् यों को पूरा करने के क्तिलए, योग् य कत्2 तर्वो् य-पालन करने की दृमिN से, संघ के द्वारा तैयार किकए गए किनयमों के अनुसार र्वोह स् र्वोयं तालीम लेगा और योग् य बनेगा।

संघ नीचे की स् र्वोाधीन संस् थाओं को मान् यता देना :

1. अखिखल भारत चरखा-संघ

2. अखिखल भारत ग्रामोद्योग संघ

3. हिह�दुस् तानी तालीम संघ

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4. हरिरजन-सेर्वोक-संघ

5. गोसेर्वोा-संघ

संघ अपना मकसद पूरा करने के क्तिलए गाँर्वो र्वोालों से और दूसरों से चंदा लगा गरीब। लोगों का पैसा इकटFा करने पर खास जोर ठिदया जाएगा।

71 भारत पाविकस्तान और कश्मीर पीछे     आगे

हमारे देश की बदकिकस् मती से हिह�दुस् तान और पाकिकस् तान नाम के जो दो टुकडे़ हुए, उसमें धम2 को ही कारण बनाया गया है। उसके पीछे आर्थिथ�क और दूसरे कारण भले रहे हों, मगर उनकी र्वोजह से यह बँटर्वोारा नहीं हुआ होता। आज हर्वोा में जो जहर फैला हुआ है, र्वोह भी उन् हीं सांप्रदामियक कारणों से पैदा हुआ है। धम2 के नाम पर लूट-मार होती है, अधम2 होता है। ऐसा न हुआ होता तो अच् छा होता, ऐसा कहना अच् छा तो लगता है। मगर इससे हकीकत को बदला नहीं जा सकता।

यह सर्वोाल कई बार पूछा गया है किक दोनों के बीच लडा़ई होने पर क् या पाकिकस् तान के हिह�दू हिह�दुस् तान के हिह�दुओं के साथ और हिह�दुस् तान के मुसलमान पाकिकस् तान के मुसलमानों के साथ लड़ेंगे? मैं मानता हूँ किक ऊपर बतलाई हुई हालत में र्वोे जरूर लड़ेंगे। मुसलमानों की र्वोफादारी के र्वोचनों पर भरोसा करने में जिजतना खतरा है, उसके बजाय भरोसा न करने में ज ्यादा खतरा है। भरोसा करने में भूल हो और खतरे का सामना करना पड़ें, तो बहादुरों के क्तिलए यह मामूली बात होगी।

मौजू ढँग पर इस सर्वोाल को दूसरी तरह से यों रखा जा सकता है किक क् या सत् य और न् याय के खाकितर हिह�दू हिह�दू के खिखलाफ और मुसलमान मुसलमान के खिखलाफ लड़ेंगा ? ᣛ इसका जर्वोाब एक उलट-सर्वोाल पूछकर यह ठिदया जा सकता है किक क् यों इकितहास में ऐसे उदाहण नहीं मिमलते ?ᣛ

इस सर्वोाल को हल करने में सबसे बड़ी उलझन यह है किक सत् य की दोनों ही राज् यों में उपेक्षा की गई है। मानो सत् य की कोई कीमत ही न हो। ऐसी किर्वो�म स्थि^कित में भी हम उम् मीद करें किक सत् य पर श्रद्धा रखने र्वोाले कुछ लोग हमारे देश में जरूर हैं।

धम2 के नाम पर पाकिकस् तान कायम हुआ। इसक्तिलए उसको सब तरफ से पाक और साफ रहना चाकिहए। गलकितयों दोनों तरफ काफी हुईं। मगर क् या अब भी हम गलकितयाँ करते ही रहें? अगर हम दोनों लड़ेंगे तो दोनों तीसरी ताकत के हाथ में चले जाएगँे। इससे बुरी बात और क् या होगी?

अगर (हिह�दुस् तान और पाकिकस् तान के बीच) लड़ाई क्तिछड़ जाए, तो पाकिकस् तान के हिह�दू र्वोहाँ पाँचर्वोी कतार र्वोाले नहीं बन सकते। कोई भी इसे बरदाश् त नही करेगा। अगर र्वोे पाकिकस् तान के प्रकित र्वोफादार नहीं हैं, तो उनको पाकिकस् तान छोड़ देना चाकिहए। इसी तरह जो मुसलमान पाकिकस् तान के प्रकित र्वोफादार हैं, उन् हें हिह�दुस् तानी संघ में नहीं रहना चाकिहए। सरकार का फज2 है किक र्वोह हिह�दुओं और क्तिसक् खों के क्तिलए इंसाफ हाक्तिसल करे। जनता सरकार से अपना मनचाहा करा सकती है। ... मुसलमान लोग यह कहते सुने जाते हैं किक 'हँस के क्तिलया पाकिकस् तान, लड़ के लेंगे हिह�दुस् तान'। ... कुछ मुसलमान सारे हिह�दुस् तान को मुसलमान बनाने की बात सोच रहे हैं। यह काम लड़ाई के जरिरए कभी नहीं हो सकेगा। पाकिकस् तान हिह�दू धम2 को कभी बरबाद नहीं कर सकेगा। क्तिसफ2 हिह�दू ही अपने-अपको और अपने धम2 को बरबाद कर सकते हैं। इसी तरह अगर पाकिकस् तान बरबाद हुआ, तो र्वोह पाकिकस् तान के मुसलमानों द्वारी ही बरबाद होगा, हिह�दुस् तान के हिह�दुओं द्वारा नहीं।

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दोनों राज् यों के क्तिलए Fीक-Fीक समझौता करने का आम रास् ता यह है किक दोनों राज् य साफ ठिदल से अपना पूरा-पूरा दो� स् र्वोीकार करें और समझौता कर लें। अगर दोनों में कोई समझौता न हो सके, तो र्वोे सामान् य तरीके से पंच-फैसले का सहारा लें। इससे दूसरा कोई जगंली रास् जा लड़ाई का है। ... लेकिकन आपसी समझौता या पंच-फैसले के अभार्वो मे लड़ाई के क्तिसर्वोा कोई चारा नहीं रह जाएगा। उस बीच... जिजन मुसलमानों ने अपनी इच् छा से पाकिकस् तान जाने का चुनार्वो नहीं किकया है, उन् हें उनके पड़ोसी सुरक्षा या सलामती के पक् के किर्वोश् र्वोास के साथ अपने घरों को लौट आने के क्तिलए कहेंगे। यह काम फौज की मदद से नहीं किकया जा सकता। यह तो लोगों के समझदार बनने से ही हो सकता है।

हिह�दुस् तान से हर एक मुसलमान को भगाने और पाकिकस् तान से हर एक हिह�दू और क्तिसक् ख को भगाने का नतीजा यह होगा किक दोनों उपकिनर्वोेशों में यह आत् म घाती नीकित बरती गई, तो उससे पाकिकस् तान और हिह�दुस् तान दोनों में इस् लाम और हिह�दू धम2 का नाश हो जाएगा। भलाई क्तिसफ2 भलाई से ही पैदा होती है। प् यार से प् यार पैदा होता है। जहाँ तक बदला लेने की बात है, इंसान का यही शोभा देता है किक र्वोह बुराई करने र्वोाले को भगर्वोान के हाथ में छोड़ दें।

हिह�दुस् तान का, हिह�दू धम2 का, क्तिसक् ख धम2 का और इस् लाम का बेबस बनकर नाश होते देखने के बकिनस् बत मृत् यु मेरे क्तिलए संुदर रिरहाई होगी। अगर पाकिकस् तान में दुकिनया के सब धमk के लोगों को समान हक न मिमले, उनकी जान और माल सुरणिक्षत न रहे और यूकिनयन भी पाकिकस् तान की नकल करे, तो दोनों का नाश किनणिZत है। उस हालत में इस् लाम का तो हिह�दुस् तान और पाकिकस् तान में ही नाश होगा-बाकिक दुकिनया में नहीं; मगर हिह�दू धम2 और क्तिसक् ख धम2 तो हिह�दुस् तान के बाहर हैं ही नहीं।

बहुमत र्वोाले लोग अगर अल् पमतर्वोालों को इस डर से मार डालें या यूकिनयन से किनकाल दें किक र्वोे सब दगाबाज साकिबत होंगे, तो यह बहुमत र्वोालों की बुजठिदली होगी। अल् पमत के हकोंका सार्वोधानी से खयाल रखना ही बहुमत र्वोालों को शोभा देता है। जो बहुमत र्वोालें अल् पमत र्वोालों की परर्वोाह नहीं करते र्वोे हँसी के पात्र बनते है। पक् का आत् म-किर्वोश् र्वोास और अपने नामधारी या सच् चे किर्वोरोधी में बहादूरी भरा किर्वोश् र्वोास ही बहुमत र्वोालों का सच् चा बचार्वो है।

जो यह महसूस करते हैं किक पाकिकस् तान से उन् हें किनकाल ठिदया गया है, उन् हें यह जानना चाकिहए किक र्वोे सारे हिह�दुस् तान के नागरिरक हैं, न किक क्तिसफ2 पंजाब, सरहदी सूबे या चिस�ध के। शम2 यह है किक र्वोे जहाँ कहीं जाए र्वोहाँ के रहने र्वोालों में दूध में शक् कर की तरह घुल-मिमल जाए।ँ उन् हें मेहनती बनना और अपने र्वो् यर्वोहार में ईमानदार रहना चाकिहए। उन् हें यह महसूस करना चाकिहए किक र्वोे हिह�दुस् तान की सेर्वोा करने और उसे यश को बढ़ाने के क्तिलए पैदा हुए हैं, न किक उसके नाम पर काक्तिलख पोतने या उसे दुकिनया की आँखों में किगराने के क्तिलए। उन् हें अपना समय जुआ खेलने, शराब पीने या आपसी लड़ाई-झगडे़ में बरबाद नहीं करचा चाकिहए। गलती करना चाकिहए। गलती करना इंसान का स् र्वोाभार्वो है। लेकिकन इंसान को गलकितयों से सबक सीखने और दुबारा गलती न करने की ताकत भी दी गई है। अगर शरणाथ� मेरी सलाह मानेंगे, तो र्वोह जहाँ कहीं भी जाएगँे र्वोहाँ फायदेमंद साकिबत होंगे और हर सूबे के लोग खुले ठिदल से उनका स् र्वोागत करेंगे।

अगर पाकिकस् तान पूरी तरह मुस्थिस्लम राज् य हो जाए और हिह�दुस् तानी संघ पूरी तरह हिह�दू और क्तिसक् ख राज् य बन जाए और दोनों तरफ अल् पमत र्वोालों को कोई हक न ठिदए जाए,ँ तो दोनों राज् य बरबाद हो जाएगँे।

क् या कायदे आजम ने यह नहीं कहा है किक पाकिकस् तान मजहबी राज् य नहीं है और उसमें धम2 को कानून का रूप नहीं ठिदया जाएगा? लेकिकन बदकिकस् मती से यह किबलकुल सच है किक इस दार्वोे को हमेशा अमल मे सच साकिबत नहीं किकया जाता। क् या हिह�दुस् तानी संघ मजहबी राज् य बनेगा और क् या हिह�दू धम2 के उसूल गैर-हिह�दुओं पर लादे जाएगँे?... ऐसा हुआ तो हिह�दुस् तानी संघ आशा और उजले भकिर्वो�् य का देश नहीं रह जाएगा। तब र्वोह ऐसा देश नहीं रह जाएगा, जिजसकी तरफ सारी एक्तिशयाई और अफ्रीकी जाकितयाँ ही नहीं, बल्किwक सारी दुकिनया आशाभरी नजर से देखतती है। दुकिनया यूकिनयन या पाकिकस् तान के रूप में हिह�दुस् तान से ओछेपन और धार्मिम�क पागलपन की उम् मीद नहीं करती। र्वोह हिह�दुस् तान से बड़प् पन, भलाई और उदारता की आशा करती है, जिजससे सारी दुकिनया सबक ले सके और आज के फैले हुए अंधेरे में प्रकाश पा सके।

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काश् मीर

न तो काश् मीर के महाराजा साहब और न हैदराबाद के किनजाम को अपनी प्रजा की सम् मकित के बगैर किकसी भी उपकिनर्वोेश में शामिमल होने का अमिधकार है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, यह बात कश् मीर के मामले में साफ कर दी गई थी। अगर अकेले महाराजा संघ में शामिमल होना चाहते, तो मैं उनके ऐसे काम का कभी समथ2न नहीं कर सकता था। संघ-सरकार काश् मीर को थोडे़ समय के क्तिलए संघ में शामिमल करने पर क्तिसफ2 इसक्तिलए राजी हुई किक महाराजा और काश् मीर र्वो जम् मू की जनता की नुमाइन् दगी करने र्वोाले शेख अब् दुल् ला दोनों यह बात चाहते थे। शेख अब् दुल् ला इसक्तिलए सामने आए किक र्वोे काश् मीर और जम् मू के क्तिसफ2 मुसलमानों के ही नहीं, बल्किwक सारी जनता के नुमाइंदे होने का दार्वोा करते हैं।

मैंने यह कानाफंूसी सुनी है किक कश्मीर को दो किहस्सों में बाँटा जा सकता है। इनमें से जम्मू हिह�दुओं के किहस्से आएगा और काश्मीर मुसलमानों के किहस्से। मैं ऐसी बँटी हुई र्वोफादारी की और हिह�दुस्तान की रिरयासतों के कई किहस्सों में बँटने

की कwपना नहीं कर सकता। इसक्तिलए मुझे उम्मीद है किक सारा हिह�दुस्तान मसझदारी से काम लेगा और कम-से- कम उन लाखों हिह�दुस्ताकिनयों के क्तिलए, जो लाचार शरणाथ� बनने के क्तिलए बाध्य हुए हैं, तुरंत ही इस गंदी हालत को टाला

जाएगा।

72 भारत में विवदेशी बस्त्रिस्तयां पीछे     आगे

गोआ

आजाद हिह�दुस् तान में गोआ हिह�दुस् तान से किबलकुल अलग रहकर अपनी मनमानी नहीं कर सकेगा। गोआ र्वोाले आजाद हिह�दुस् तान की नागरिरकता के हकों का दर्वोा कर सकें गे और र्वोे उन हकों को पा भी सकें गे। और इसके क्तिलए उन् हें न तो एक गोली चलानी होगी और न एक कतारा खून बहाना होगा।

सचमुच ही फ्रांसीसी और किफरंगी सल् तनत में ऐसा कोई खास फक2 नहीं है, जिजसकी र्वोजह से एक को Fुकराया जाए और दूसरी को अपनाया जाए। सल् तनतों के हाथ हमेशा खून से तर रहे हैं। सारी दुकिनया आज इन सल् तनतों के बोझ से दबी कराह रही है। अच् छी हो किक ये साम्राज् यर्वोादी ताकतें जल् दी ही अशोक महान की तहर अपनी साम्राज् यर्वोाद को छोड़ दें। ... पुत2गाली सरकार के इंफरमेशन ब् यूरो के मुख् य अफसर का यह क्तिलखना किक पुत2गाल गोआ के हिह�दुस् ताकिनयों की मातृभूमिम है, एक हँसी लाने र्वोाली चीज है। जिजस हद तक हिह�दुस् तान मेरी मातृभूमिम है, उसी हद में नही है, मगर समूचे भौगोक्तिलक हिह�दुस् तान के अंदर तो र्वोह है ही। किफर, गोआ के हिह�दुस् ताक्तिलयों और पुत2गाक्तिलयों के बीच बहुत थोड़ी समानता है-अगर कुछ हो।

फ्रांसीसी बस्त्रिस्तयाँ

उन्हीं के सामने जब उनके करोड़ों देशर्वोाक्तिसयों किब्रठिटश हुकूमत से आजाद हो रहे हैं, तब इन छोटे- छोटे किर्वोदेशी बल्किस्तयों के किनर्वोाक्तिसयों के क्तिलए गुलामी में रहना संभर्वो नहीं है। ... मैं उम्मीद करता हूँ किक... महान फ्रांसीसी राष्ट्र

भारत के या दूसरी जगहों के काले या भूरे लोगों को दबाकर रखने की नीकित का हमी कभी नहीं होगा।

73 भारत और विवश्वशांवित पीछे     आगे

दुकिनया के सुकिर्वोचारशील लोग आज ऐसे पूण2 स् र्वोतंत्र को नहीं चाहते जो एक-दूसरे से लड़ते हों, बल्किwक एक-दूसरे के प्रकित मिमत्रभार्वो रखने र्वोाले अन् योन् याणिश्रत राज् यों के संघ को चाहते हैं। भले ही इस उदे्दश् य की क्तिसजिद्ध का ठिदन बहुत

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दूर हो। मैं अपने देश के क्तिलए कोई भारी दार्वोा नहीं करना चा हता। लेकिकन यठिद हम पूण2 स् र्वोतंत्रता के बजाय अन् योन् याणिश्रत राज् यों के किर्वोश् र्वोसंघ की तैयारी जाकिहर करें, तो इसमें हम न तो कोई बहुत भारी बात ही कहते हैं और न र्वोह असंभर्वो ही है।

मेरी आकांक्षा का लक्ष् य स् र्वोतंत्रता से ज ्यादा ऊँचा है। भारत की मुक्ति) के द्वारा मैं पणिZम के भी�ण शो�ण से दुकिनया के कई किनब2ल देशों का उद्धार करना चाहता हूँ। भारत के अपनी सच् ची स्थि^कित को प्राप् त करने का अकिनर्वोा2य परिरणाम यह होगा किक हर एक देश र्वोैसा ही कर सकेगा और करेगा।

मेरा दृढ़ किर्वोश् र्वोास है किक भारत अपनी स् र्वोतंत्रता अहिह�सक उपायों से प्राप् त करे, तो किफर र्वोह बड़ी स् थलसेना, उतनी ही बड़ी जल सेना और उससे भी बड़ी र्वोायु सेना रखने की इच् छा नहीं करेगा। यठिद आजादी की अपनी लड़ाई में अहिह�सक किर्वोजय प्राप् त करने के क्तिलए उसकी आत् म-चेतना को जिजतनी ऊँचाई तक उFना चाकिहए उतनी ऊँचाई तक र्वोह उF सकी, तो दुकिनया के माने हुए मूल् यों में परिरर्वोत2न हो जाएगा और लड़ाइयों के साज-सामान का अमिधकांश किनरथ2क क्तिसद्ध हो जाएगा। ऐसा भारत भले महज एक सपना हो, बच् चों की जैसी कल् पना हो। लेकिकन मेरी राय में अहिह�सा के द्वारा भारत के स् र्वोतंत्र होने का फक्तिलताथ2 तो बेशक यही होना चाकिहए। ऐसी स् र्वोतंत्रता, र्वोह जब भी आयगी जब... किब्रटेन के साथ सज ्जनोक्तिचत समझौते के जरिरए आएगी। लेकिकन तब जिजस किब्रटेन से हमारा समझौता होगा र्वोह दुकिनया में सर्वो2शे्र�् F स् थान लेने के क्तिलए तरह-तरह की कोक्तिशश करने र्वोाला आज का साम्राज् यर्वोादी और घमण् डी किब्रटेन नहीं होगा, बल्किwक मानर्वो-जाजिज की सुख-शांकित के क्तिलए नम्रतापूर्वो2क प्रयत् न करने र्वोाला किब्रटेन होगा।

तब भारत को किब्रटेन के लूट-मार के युद्धों में किब्रटेन के साथ आज की तरह लाचार होकर नहीं मिघसटना होगा। तब उसकी आर्वोाज दुकिनया के सारे हिह�सक बलों को किनयंत्रण में रखने की कोक्तिशश करने र्वोाले एक शक्ति)शाली देश की आर्वोाज होगी।

मैं अत् यंत नम्रतापूर्वो2क यह सुझाने का साहस करता हूँ किक यठिद भारत ने अपना लक्ष् य सत् य और अहिह�सा की राहा से प्राप् त करने में सफलता पायी, तो उसकी यह सफलता जिजस किर्वोश् र्वोशांकित के क्तिलए दुकिनया के तमाम रा�् ट्र तड़प रहे हैं उसे नजदीक लाने में एक मूल् यर्वोान कदम क्तिसद्ध होगी; और तब यह भी कहा जा सकेगा किक ये रा�् ट्र उसे स् र्वोेच् छा पूर्वो2क जो सहायता पहुँचा रहे हैं, उस सहायता का उसने थोड़ा-बहुत मूल् य अर्वोश् य चुकाठिदया है।

जब भारत स् र्वोार्वोलंबी और स् र्वोाश्रयी बन जाएगा और इस तरह नतो खुद किकसी की संपणिu का लोभ करेगा और न अपनी संपणिu का शो�ण होने देगा, तब र्वोह पणिZम या पूर्वो2 के किकसी भी देश के क्तिलए-उसकी शक् त किकतनी भी प्रबल क् यों न हो-लालच का किर्वो�य नहीं रह जाएगा और तब र्वोह खच�लें शस् त्रास् त्रों का बोझ उFाए किबना ही अपने को सुरणिक्षत अनुभर्वो करेगा। उसकी यह भीतरी स् र्वोाश्रयी अथ2-र्वो् यर्वोस् था बाहरी आक्रमण के खिखलाफ सुदृढ़तम ढाल होगी।

यठिद मैं अपने देश के क्तिलए आजादी की माँग करता हूँ, तो आप किर्वोश् र्वोास कीजिजए किक मैं यह आजादी इसक्तिलए नहीं चाहता किक मेरा बड़ा देश, जिजसकी आबादी संपूण2 मानर्वो-जाकित का पाँचर्वोाँ किहस् सा है, दुकिनया की किकसी भी दूसरी जाकित का, या किकसी भी र्वो् यक्ति) का शो�ण करे। आज किर्वोश् र्वोास कीजिजए किक मैं अपनी शक्ति) भर अपने देश को ऐसा अनथ2 नहीं करने दँूगा। यठिद मैं अपने देश के क्तिलए आजादी चाहता हूँ, तो मुझे यह मानना ही चाकिहए किक प्रत् येक दूसरी सबल या किनब2ल जाकित को भी उस आजादी का र्वोैसा ही अमिधकार है। यठिद मैं ऐसा नहीं मानता हूँ और ऐसी इच् छा नहीं करता हूँ, तो उसका यह अथ2 है किक मैा उस आजादी का पात्र नहीं हूँ।

मैं अपने हृदय की गइराई में यह महसूस करता हूँ। ... किक दुकिनया रक् तपात से किबलकुल ऊब गई है। दुकिनया इस असह्रा स्थि^कित से बाहर किनकलने का रास् ता खोज रही हैं। और मैं र्वोणिश्वास करता हूँ तथा उस किर्वोश् र्वोास में सुख और गर्वो2 अनुभर्वो करता हूँ किक शायद मुक्ति) के प् यासे जगत को यह रास् ता ठिदखाने का श्रेय भारत की प्राचीन भूमिम को ही मिमलेगा।

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हिह�दुस्तान की राष्ट्रीय सरकार क्या नीकित अस्थिख्तयार करेगी सो मैं नहीं कह सकता। संभर्वो है किक अपनी प्रबल इच्छा के रहते हुए भी मैं तब तक जीकिर्वोत न रहूँ। लेकिकन अगर उस र्वोक्त तक मैं जिज�दा रहा, तो अपनी अहिह�सक नीकित को

यथासंभर्वो संपूण2ता के साथ अमल में लाने की सलाह दँूगा। किर्वोश्र्वो की शांकित और नई किर्वोश्र्वो- व्यर्वोस्था की स्थापना में यहीं हिह�दुस्तान का सबसे बड़ा किहस्सा भी होगा। मुझे आशा तो यह है किक चँूकिक हिह�दुस्तान में इतनी लड़ाकू जाकितयाँ हैं और चँूकिक स्र्वोतंत्र हिह�दुस्तान की सरकार के किनण2य में उन सबका किहस्सा होगा, इसक्तिलए हमारी राष्ट्रीय नीकित का

झुकार्वो मौजूदा सैन्यर्वोाद से णिभन्न किकसी अन्य प्रकार के सैन्यर्वोाद की तरफ होगा। मैं यह उम्मीद तो जरूर रखँू गा किक … एक राजनीकितक शस्त्र की हैक्तिसयत से अहिह�सक की व्यार्वोहारिरक उपयोकिगता का हमारा किपछला सारा प्रयोग

किबलकुल किर्वोफल नहीं जाएगा और सच्चे अहिह�सार्वोाठिदयों का एक दल हिह�दुस्तान में पैदा हो जाएगा।

74 पूव* का संदेश पीछे     आगे

अगर हिह�दुस् तान अपने फज2 को भूलता है तो एक्तिशया मर जाएगा। यह Fीक ही कहा गया है किक हिह�दुस् तान कई मिमली-जुली सभ् यताओं या तहजीबों का घर है, जहाँ र्वोे सब साथ-साथ पनपी हैं। हम सब ऐसे काम करें किक हिह�दुस् तान एक्तिशया की या दुकिनया के किकसी भी किहस् से की कुचली और चूसी हुई जाकितयों की आशा बना रहे।

(ठिदल् ली में ता. 2-4-47 के ठिदल एक्तिशयाई कान् फारेन् स की आखिखरी बैFक में भा�ण करते हुए गांधीजी ने बताया किक पणिZम को ज्ञान की रोशनी पूर्वो2 से ही मिमली है। इस क्तिसलक्तिसले में उन् होंने आगे कहा:।)

इन किर्वोद्वानों मे सबसे पहले जरथुश् त हुए थ,े र्वोे पूरब के थे। उनके बाद बुद्ध, हुए, जो पूरब-हिह�दुस् तान के-थे। बुद्ध के बाद कौन हुआ? ईशु खि¼स् त। र्वोे भी पूरब के थे। ईशु के पहले मोजेज हुए, जो किफलस् तीन के थ,े अगरचे उनका जन् म मिमस् त्र में हुआ था। ईशु के बाद मुहम् मद हुए। यहाँ मैं राम, कृ�् ण और दुसरे महापुरु�ों का नाम नहीं लेता। मैं उन् हें कम महान नहीं मानता। मगर साकिहत् य-जगत उन् हें कम जानता है। जो हो, मैं दुकिनया के ऐसे किकसी भी एक शख् स को नहीं जानता, जो एक्तिशया के इन महापुरु�ों की बराबरी कर सके। और त ब क् या हुआ? ईसाइयत जब पणिZम में पहूँची, तो उसकी शकल किबगड़ गई। मुझे अफसोस है किक मुझे ऐसा कहना पड़ता है। इस किर्वो�य में मैं और आगे नहीं बोलूँगा। ... जो बात मैं आपको समझाना चाहता हूँ र्वो ह एक्तिशया का पैगाम है। उसे पणिZम चश् मों से या एटम-बम की लकल करने से नहीं सीखा जा सकता। अगर आप पणिZम को कोई पैगाम देना चाहते हैं, तो र्वोह पे्रम और सत् य का ही पैगाम होना चाकिहए। ... जमहूरिरयत के इस जमाने में, गरीब-से-गरीब की जागृकित के इस युग में, आप ज ्यादा-से-ज ्यादा जोर देकर इस पैगाम का दुकिनया में प्रचार कर सकते हैं। चँूकिक आपका शो�ण किकया गया है, इसक्तिलए उसका उसी तरह बदला चुकाकर नहीं, बल्किwक सच् ची समझदारी के जरिरए आप पणिZम पर पूरी तरह से किर्वोजय पा सकते हैं। अगर हम क्तिसफ2 अपने ठिदमागों से नहीं, बल्किwक ठिदलों से भी इस पैगाम के मम2 को, जिजसे एक्तिशया के ये किर्वोद्वान हमारे क्तिलए छोड़ गए हैं, एक साथ समझने की कोक्तिशश करें और अगर हम सचमुच उस महान पैगाम के लायक बन जाए,ँ तो मुझे किर्वोश् र्वोास है किक हम पणिZम को पूरी तरह से जीत लेंगे। हमारी इसी जीत को पणिZम खुद भी प् यार करेगा।

पणिZम आज सच्चे ज्ञान के क्तिलए तरस रहा है। अगु- बमों की ठिदन- दूनी बढ़ती से र्वोह नाउम्मीद हो रहा है। क्योंकिकअणु- बमों के बढ़ने से क्तिसफ2 पणिZम का ही नहीं, बल्किwक पूरी दुकिनया का नाश हो जाएगा; मानों बाइबल की भकिर्वोष्य-

र्वोाणी सच होने जा रही है और पूरी कयामत होने र्वोाली है। अब यह आपके ऊपर है किक आप दुकिनया की नीचता और पापों की तरफ उसका ध्यान खींचें और उसे बचार्वोें। ... यही र्वोह किर्वोरासत है जो मेरे और आपके पैगंबरों से एक्तिशया को मिमली है।

75 सु्फट वचन पीछे    

आदिदवासी

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'आठिदर्वोासी' नाम उन लोगों को ठिदया गया है, जो किक पहले से ही इस देश में बसे हुए थे। उनकी आर्थिथ�क स्थि^कित हरिरजनों से शायद ही अच् छी होगी। लंबे अरसे से अपने-आप को 'ऊँचे र्वोगk' के नाम से पुकारने र्वोाली हमारी जनता ने उनके प्रकित जो बेपरर्वोाही बताई है, उसका परिरणाम उन् हें भोगना पड़ा है। आठिदर्वोाक्तिसयों के प्रश् न को रचनात् मक काय2क्रम में खास स् थान मिमलना चाकिहए। सुधारकों के क्तिलए-प्रचारकों ने ही यह काम किकया है। यद्यकिप उन् होंने इस काम में बहुत मेहनत की है, तो भी उसका काम जैसे चाकिहए था र्वोेसा फल-फूला नहीं; क् योंकिक उनका अंकितम हेतु आठिदर्वोाक्तिसयों को ईसाई बनाना था और उन् हें हिह�दुस् तानी मिमटाकर अपने-जैसा परदेशी बना लेने का था। जो भी हो, परंतु अगर हम अहिह�सा के आधार पर स् र्वोराज् य चाहते हैं, तो ककिन�् F-से-ककिन�् F र्वोग2 की तरफ से भी हम बेपरर्वोाह नहीं हो सकते। परंतु आठिदर्वोाक्तिसयों की तो संख् या इतनी बड़ी है किक उनको ककिन�् F किगना ही नहीं जा सकता।

अनुशासन

आजादी के सर्वो�च् च रूप के साथ ज ्यादा-से-ज ्यादा अनुशासन और नम्रता होनी चाकिहए; दोनों का अटूट संबंध है। अनुशासन और नम्रता से आई हुई आजादी ही सच् ची आजादी है। अनुशासन से अकिनयंकित्रत आजादी, आजादी नहीं स् र्वोेच् छाचारिरता है; उससे स् र्वोयं हमारे और हमारे पड़ोक्तिसयों के खिखलाफ अभ्रदता सूक्तिचत होती है।

हमें दृढ़तापूर्वो2क कFोर अनुशासन का पालन करना सीखना चाकिहए। तभी हम कोई बड़ी और स् थायी र्वोस् तु प्राप् त कर सकें गे। और यह अनुशासन कोरी बौजिद्धक चचा2 करते रहने से या तक2 और किर्वोरे्वोक-बुजिद्ध को अपील करते रहने से नहीं आ सकता। अनुशासन किर्वोपणिu की पाFशाला में सीखा जाता है। और जब उत् साही युर्वोक किबना किकसी ढाल के जिजम् मेदारी के काम उFाएगँे और उसके क्तिलए अपने को तैयार करेंगे, तब र्वोे समझेंगे किक जिजम् मेदारी और अनुशासन कया हैं।

डॉक् टर

डॉक् टर हमें धम2 से भ्र�् ट करते हैं, यह साफ और सीधी बात है। र्वोे हमें स्र्वोचं्छद बनने को ललचाते हैं। इसका परिरणाम यह आता है किक हम किन:सत् त् र्वो और नामद2 बनते हैं।

सामान् य तौर पर इस धंधे से मेरा जो किर्वोरोध है, उसका कारण यह है किक उसमें आत् मा के प्रकित कुछ भी ध् यान नहीं ठिदया जाता; और इस शरीर जैसे नाजुक यंत्र को सुधारने का प्रयत् न करने में जो श्रम किकया जाता है, र्वोह न-कुछ जैसी र्वोस् तु के क्तिलए ही किकया जाता है। इस प्रकार आत् मा का ही इनकार करने से यह धंधा मनु�् यों को दया के पात्र बना देता है और मनु�् य के गौरर्वो और आत् म -संयम को घटाने में मदद करता है।

पोशाक

किकसी भारतीय के क्तिलए उसकी रा�् ट्रीय पोशाक ही सबसे ज ्यादा स् र्वोाभाकिर्वोक और शोभाप्रद है। मैं ऐसा मानता हूँ किक हमारा यूरोपीय पोशाक की नकल करना हमारे पतन की क्तिचह्न है; उससे हमारा पतन, हमारा अपमान और हमारी दुब2लता सूक्तिचत होती है। अपनी ऐसी पोशाक को छोड़कर, जो भारतीय जलर्वोायु के सबसे ज ्यादा अनुकूल है, जो सादगी, कला और सस् तेपन में दुकिनया में अपनी जोड़ नहीं रखती और जो स् र्वोास् थ ्य तथा स् र्वोच् छता की आर्वोश् यकताओं को पूरा करती है, हम एक रा�् ट्रीय पाप कर रहे हैं।

मेरा संकीण2 रा�् ट्रपे्रम टोप का किर्वोरोध करता है, हिक�तु मेरा क्तिछपा हुआ किर्वोश् र्वो-पे्रम उसे यूरोप की इनी-किगनी बहुमूल् य देनों में से एक मानता है। टोप के खिखलाफ इस देश में इतनी उग्र किर्वोरोध-भार्वोना न होती, तो मैं टोप के प्रचार के क्तिलए संघठिटत संस् था का अध् यक्ष बन जाता।

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भारत के क्तिशणिक्षत लोगों ने (यहाँ की जलर्वोायु में) पतलून जैसे अनार्वोश् यक, अस् र्वोास् थ ्यकर और असुंदर परिरधान को अपनाकर तथा टोप को स् र्वोीकार करने में आम तौर पर किहचकिकचाहट प्रकट करके भूल की है। लेकिकन मैं जानता हूँ किक रा�् ट्रीय रुक्तिचयों और अरुक्तिचयों के पीछे कोई किर्वोरे्वोक नहीं होता।

झंडा

झंडे की जरूरत सब देशों को होती है। उसके क्तिलए लाखों-करोड़ों ने अपने प्राण ठिदए हैं। इसमें संदेह नहीं किक यह एक प्रकार की मूर्षित�पूजा है, जिजसे न�् ट करना पाप-जैस होगा करण, झंडा अमुक आदशk का प्रतीक होता है। जब यूकिनयन जैक फहराया जाता है तब अँग्रेजों के हृदय में जो भार्वो उFाते हैं, उनकी गहराई और तीव्रता को मापना कठिFन है। अमेरिरका के रेखाओं और तारकों से अंकिकत झंडे में अमेरिरका र्वोालों को जाने किकतना गहरा अथ2 मिमलता है। इसी तरह इस् लाम के अनुयामिययों में उनका चंद्र और तारों से अंकिकत झंडा उत् तम र्वोीरता के भार्वो जगाता है। हम भारतीयों को याली हिह�दुओें, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूठिदयों, पारक्तिसयों और भारत को अपना देश मानने र्वोाले अन् य सब लोगों को अपना एक सर्वो2 स् र्वोीकृत झंडा तक करना चाकिहए, जिजसके क्तिलए हम मरें और जिजए।ँ

वकील

र्वोकील का कत्2 तर्वो् य हमेशा न् यायाधीशों के सामने सत् य को रखना और सत् य पर पहुँचने में उनकी मदद करना है। उनका काम अपरामिधयों को किनरपराधी क्तिसद्ध करना कदाकिप नहीं है।

नेतृत् व

अगर हम टोलाशाही की स्थि^कित को टालना चाहते हैं और यह इच् छा रखते हैं किक देश की र्वो् यर्वोस्थि^त प्रगकित हो, तो लोग जनता का नेतृत् र्वो करने का दार्वोा करते हैं उन् हें जनता का नेतृत् र्वो मानने से यानी जनता जो कहे र्वोैसा करने से दृढ़तापूर्वो2क इनकार कर देना चाकिहए। मैं मानता हूँ किक महज अपने मत की घो�णा करना और किफर लोगों के सामने झुक जाना पया2प् त नहीं है। यठिद महत् त् र्वो के मामलों में लोगों का मत नेताओं की बुजिद्ध को पटता न हो, उन् हें चाकिहए किक र्वोे उसके खिखलाफ काम करें।

नेता का पद समान पदर्वोालों में प्रथम माने गए र्वो् यक्ति) का पद है। किकसी-न-किकसी को प्रथम स् थान देना ही पड़ता है, लेकिकन श्रृंखला की सबसे कमजोर कड़ी से ज ्यादा शक्ति)शाली न तो र्वोह होता है, न उसे होना चाकिहए। एक बार नेता का चुनार्वो करने के बाद हमारा कत्2 तर्वो् य हो जाता है किक हम उसका अनुसरण करें। यठिद ऐसा न किकया जाए तो श्रृंखला टूट जाती है और सारा संघटन क्तिशक्तिथल हो जाता है।

संगीत

संगीत र्वोस् तुत: एक पुरानी और पकिर्वोत्र कला है। सामदेर्वो के सूक् त संगीत का भंडार हैं और कुरान की किकसी भी आयत का पाF संगीत का आश्रय क्तिलए किबना नहीं हो सकता। डेकिर्वोड के भाक्ति)पूण2 गीत हमें आनंद के लोग में पहुँचा देते हैं और सामरे्वोद के सूक् तों का स् मरण कराते हैं। हमें इस कला को पुनज�किर्वोत करना चाकिहए और उसका प्रचार करने र्वोालों संस् थाओं को आश्रय देना चाकिहए।

हम संगीत-सम् मेलनों में हिह�दू और मुसलमान संगीतज्ञों को साथ-साथ बैFे हुए और उसमें किहस् सा लेते हुए देखते हैं। अपने रा�् ट्रीय जीर्वोन के दूसरे के्षत्रों में हम भाईचारे की यही भार्वोना कब देखेंगे ऐसा होगा? उस समय हमारे होFों पर राम और रहमान का नाम एक साथ होगा।

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दलों की अनेकता

यठिद हममें उदारता और सकिह�् णुता न हो, तो हम आपने मतभेद कभी भी मिमत्रतापूर्वो2क नहीं सुलझा सकें गे; ओर उस हालत में हमें हमेशा ही तीसरे पक्ष का फैसला स् र्वोीकार करने के क्तिलए यानी किर्वोदेशी सत् ता की गुलामी अपनाने के क्तिलए लाचार होना पडे़गा।

किकसी भी किर्वोचारधारा के अनुयायी यह दार्वोा नहीं कर सकते किक उनके ही किनण2य हमेशा सही होते हैं। हम सबसे गलकितयाँ हो सकती हैं और हमें अक् सर ही अपने किनण2य बाद में बदलने पड़ते हैं। हमारे इस किर्वोशाल देश में सब ईमानदार किर्वोचारधाराओं के क्तिलए गंुजाइश होनी चाकिहए। और इसक्तिलए अपने प्रकित और दूसरों के प्रकित हमारा कम-से-कम यह कत्2 तर्वो् य तो है ही किक हम अपने किर्वोरोधी का दृमिNकोण समझने की कोक्तिशश करें; और यठिद हम उसे स् र्वोीकार न कर सकते हों तो उसका उतना आदर अर्वोश् यक करें जिजतना हम चाहेंगे किक र्वोह हमारे दृमिNकोण का करे। यह चीज स् र्वोस् थ सार्वो2जकिनक जीर्वोन का और इसक्तिलए स् र्वोराज् य की योग् यता का एक अकिनर्वोाय2 प्रमाण है।

राजनीवित

ऐसे र्वो् यापक सत् य-नारायण के प्रत् यक्ष दश2न के क्तिलए जीर्वोमात्र के प्रकित आत् मर्वोत् पे्रम की परम आर्वोश् यक है। और जो मनु�् य ऐसा करना चाहता है, र्वोह जीर्वोन के किकसी भी के्षत्र से बाहर नहीं रह सकता। यही कारण है किक सत् य की मेरी पूजा मुझे राजनीकित में खींच लाई है। जो मनु�् य यह कहता है किक धम2 का राजनीकित से कोई संबंध नहीं है र्वोह धम2 को नहीं जानता, ऐसा कहने में मुझे संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अकिर्वोनय करता हूँ।

पंडे और पुजारी

यह एक दु:खदायी हकीकत है, हिक�तु इकितहास इसकी गर्वोाही देता है किक पंडे और पुजारी ही, जिजन् हें किक धम2 के सच् चे रक्षक होना चाकिहए था, अपने-अपने धम2 के पतन और नाश कारण क्तिसद्ध हुए हैं।

साव*जविनक कोष

अगर हम मिमले हुए पैसे की पाई-पाई का किहसाब नहीं रखते और को� का किर्वोचारपूर्वो2क उक्तिचत उपयोग नहीं करते, तो सार्वो2जकिनक जीर्वोन से हमें किनकाल ठिदया जाना चाकिहए।

सार्वो2जकिनक धन भारत की उस गरीब जनता का है, जिजससे ज ्यादा गरीब इस दुकिनया में और कोई नहीं है। इस धन के उपयोग में हमें बहुत ज ्यादा सार्वोधान तथा सजग रहना चाकिहए और जनता से हमें जो पैसा मिमलता है उसकी पाई-पाई का किहसाब देने के क्तिलए तैयार रहना चाकिहए।

साव*जविनक संस्थाएँ

अनेकानेक सार्वो2जकिनक संस् थाओं की उत् पणिu और उनके प्रबंध की जिजम् मेदारी संभालने के बाद मैं इस दृढ़ किनण2यपर पहुँचा हूँ किक किकसी भी सार्वो2जकिनक संस् था को स् थायी को� पर किनभने का प्रयत् न नहीं करना चाकिहए। इसमें उसकी नैकितक अधोगकित का बीज क्तिछपा रहता है। ... देखा यह गया है किक स् थायी संपकित के भरोसे चलने र्वोाली संस् था लोकमत से स् र्वोतंत्र हो जाती है, और किकतनी ही बार र्वोह उलटा आचरण भी करती है। हिह�दुस् तान में हमें पग-पग पर इसका अनुभर्वो होता है। किकतनी ही धार्मिम�क मानी जाने र्वोाली संस् थाओं के किहसाब-किकताब का कोई ठिFकाना

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नहीं रहता उनके ट्रस् टी ही उनके माक्तिलक बन बैFे हैं और र्वोे किकसी के प्रकित उत् तरदायी भी नहीं हैं। जिजस तरह प्रकृकित स् र्वोयं प्रकितठिदन उत् पन् न करती और प्रकितठिदन खाती है, र्वोैसी ही र्वो् यर्वोस् था सार्वो2जकिनक संस् थाओं की भी होनी चाकिहए, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। जिजस संस् था को लोग मदद देने के क्तिलए तैयार न हों, उसे सार्वो2जकिनक संस् था के रूप में जीकिर्वोत रहने का अमिधकार ही नहीं है।

मैं इस दृढ़ किनश् चय पर पहुँचा हूँ किक कोई भी सुपात्र संस् था जनता से मिमलने र्वोाली मदद के अभार्वो के कारण नहीं मरती। मरने र्वोाली संस् थाओं के मरने का कारण या तो रहा है किक उनमें ऐसी कोई उपयोकिगता शे� नहीं रह गई थी, जिजससे आकर्षि��त होकर जनता उनकी मदद करती, अथर्वोा उनके संचालकों ने अपनी श्रद्धा या दूसरे शब् दों में अपनी जीर्वोन-क्षमता खो दी थी।

हमारी आर्थिथ�क स्थि^कित नहीं, बल्किwक हमारी नैकितक स्थि^कित ही अकिनणिZत है। अपने काय2कता2ओं की चारिरकित्रक पकिर्वोत्रता की दृढ़ नींर्वो पर खडे़ हुए किकसी भी काय2 या आंदोलन को अथा2भार्वो के कारण न�् ट हो जाने का डर कभी नहीं होता। ... हमें पेसे के क्तिलए सामान् य जनता के पास पहुँचना चाकिहए। हमारे मध् यम र्वोगk और गरीब र्वोगk के लोग किकतने णिभखारिरयों को, किकतने मंठिदरों को सहायता देते हैं; ये लोग चंद अच् छे काय2कता2ओं का भरण-पो�ण क् यों नहीं करेंगे? हमें घर-घर जाकर भीख माँगनी चाकिहए, अनाज माँगना चाकिहए; और कुछ न मिमले तो चंद पैसे ही माँगना और स् र्वोीकार कर लेना चाकिहए। इस मामले में हमे र्वोैसा ही करना चाकिहए, जैसा किक किबहार और महारा�् ट्र में किकया जा रहा है। ...लेकिकन याद रखिखए किक सफलता आपकी ध् येयकिन�् Fा पर, काय2 के प्रकित आपकी भक्ति) पर और आपके चरिरत्र की पकिर्वोत्रता पर किनभ2र करेगी। ऐसे कायk के क्तिलए लोग तब तक नहीं देंगे जब तक उन् हें हमारी किन:स् र्वोाथ2ता का किनश् चय न हो जाएगा।

लोकमत

लोकमत ही एक ऐसी शक्ति) है, जो समाज को शुद्ध और स् र्वोस् थ रख सकती है।

लोकमत से आगे बढ़कर कानून बनाना प्राय: किनरथ2क ही नहीं, उससे भी ज ्यादा बुरा क्तिसद्ध होता है।

स् र्वोस् थ लोकमत जो प्रभार्वो किनकिहत होता है, उसके महत् त् र्वो को अभी हमने पूरा-पूरा पहचाना नहीं। लेकिकन जब लोकमत हिह�सापूण2 और आक्रामक बश् न जाता है तब र्वोह असह्य हो जाता है।

साव*जविनक काय*कता*

आधुकिनक सार्वो2जकिनक जीर्वोन में ऐसी एक प्रर्वोृणिu रूढ़ हो गई है किक जब तक कोई सार्वो2जकिनक काय2कता2 अमुक र्वो् यर्वोस् था-तंत्र के अंग की तरह अपना काम बखूबी करता हो तब उसके चरिरत्र की ओर दृमिNपात न किकया जाए। कहा जाता है किक चरिरत्र हर एक र्वो् यक्ति) की किनजी र्वोस् तु है, उसकी चिच�ता र्वोही करेगा। मैंने लोगों को अक् सर इस तम का समथ2न करते हुए देखा है। लेकिकन मुझे कभी उसका औक्तिचत् य समझ में नहीं आया, उसे अपनाना तो दूर रहा। जिजन संस् थाओं ने अपने काय2कता2ओं के र्वोैयक्ति)क चरिरत्र को महत् त् र्वो की र्वोस् तु नहीं माना है, उन् हें अपनी इस नीकित के भयंकर परिरणाम भुगतने पडे़ हैं।

समय की पाबंदी

हमारे नेता और काय2कता2 र्वोक् त के पाबंद बनें, तो रा�् ट्र को उससे किनणिZत लाभ होगा। कोई आदमी र्वोस् तुत: जिजतना काम कर सकता है, उससे ज ्यादा करने की उससे आशा नहीं की जा सकती। ठिदनभर के काम के बाद भी अगर काम पूरा न हो, या अपना खाना छोड़कर अथर्वोा नींद या आमोद-प्रमोद की उपेक्षा करके उसे काम करना पडे़, तो

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समझना चाकिहए किक कहीं-न-कहीं कोई अर्वो् यर्वोस् था जरूर है। मुझे तो इसमें कोई शक नहीं किक अगर हम अपने काय2क्रम के अनुसार किनयमिमत रूप से काय2 करने की आदत डालें, तो रा�् ट्र की काय2-क्षमता बढे़गी, अपने ध् येय की ओर हमारी प्रगकित तेज गकित से होगी और काय2कता2 ज ्यादा तंदुरुस् त और दीघ2जीर्वोी होंगे।

घुड़दौड़

घोड़ों की परर्वोरिरश के क्तिलए शत2 बदना और उसके बारे में लोगों को उत् तेजिजत करना किबलकुल अनार्वोश् यक है। घुड़दौड़ की शत2 से मनु�् य के दुगु2णों का पो�ण होता है और अच् छी खेती के लायक जमीन तथा पैसे का किबगाड़ होता है। शत2 बदलकर जुआ खेलने र्वोाले अच् छे-अच् छे लोगों को मैंने पामाल और तबाह होते देखा है। ऐसे लोगों को किकसने नहीं देखा है? यह मौका पणिZम के दुगु2णों को छोड़कर उसके सद्गणु स् र्वोीकार करने का है।

शरणार्थ^

उन् हें नम्रता का पाF सीखना चाकिहए, ऐसी नम्रता जिजससे र्वोे दूसरों के दो� देखने और उनकी टीका करने के बदले अपने दो� देख सकें । उनकी टीका कई बार बहुत कड़ी होती है, कई बार अनुक्तिचत होती है और कभी-कभी ही उक्तिचत होती है। अपने दो� देखने से इंसान ऊपर उFता है, दसरों के दो� किनकालने से नीचे किगरता है। इसके क्तिसर्वोा दु:खी लोगों को सहयोग जीर्वोन की कला और उसमें रहने र्वोाले गुणों को समझ लेना चाकिहए। यह सीखते हुए र्वोे देखेंगे किक सहयोग का घेरा बड़ा होता जाता है, जिजससे उसमें सारे इंसान समा जाते हैं। अगर दु:खी लोग इतना करना सीख जाए, तो उनमें से कोई अपने-आपको अकेला न माने। तब सभी, चाहे र्वोे जिजस प्रांत के हों, अपने को एक मानेंगे और सुख खोजने के बदले मनु�् य मात्र के कल् याण में ही अपना कल् याण देखेंगे। इसका मतलब कोई यह न करे किक आखिखर में सबको एक ही जगह रहना होगा। यह हमेशा असंभर्वो र्वोही रहेगा। और जब लाखों का सर्वोाल है। तब तो किबलकुल असंभर्वो है। मगर इसका मतलब इतना जरूर है किक हर एक अपने को समुद्र के एक बँूद के समान समझकर दूसरे के साथ संबंध रखे; किफर भले ही दु:ख आ पड़ने से पहले सबके दरजे अलग-अलग रहे हों, किकसी का नीचा रहा हो, किकसी का ऊँचा, और सभी अलग-अलग प्रांतों के हों। और किफर कोई ऐसा तो कहा ही नहीं सकता किक मुझे तो फलां जगह पर ही रहना है। तब किकसी न तो अपने ठिदल में कोई क्तिशकायत रहेगी और न कोई प्रकट रूप में क्तिशकायत करेगा। ऐसी अच् छी र्वो् यर्वोस् था में र्वोे अपंग या लाचार बनकर नहीं रहेंगे।

ऐसे सभी दु:खी खुद को ठिदया गया काम करेंगे और सभी के खाने, पहनने और रहने का अच् छा इंतजाम हो जाएगा। ऐसा करने से स् र्वोार्वोलंबी बनेंगे। स् त्री-पुरु� सभी एक-दूसरे को बराबर मानेंगे। कई काम तो सभी करेंगे, जैसे किक पाखाने साफ करना, कूड़ा-करकट किनकालना र्वोगैरा। किकसी काम को ऊँचा और किकसी काम को नीचा नहीं माना जाएगा। ऐसे समाज में कोई आर्वोारा, आलसी या किनकम् मा नहीं रहेगा।

नदिदयाँ

गंगा और यमुना नाम की इन दो नठिदयों के क्तिसर्वोा हमारे देश में और भी गंगाए ँऔर यमुनाए ँहैं, उनके र्वोास् तकिर्वोक नाम चाहे णिभन् न हों। र्वोे हमें उस त् याग की याद ठिदलाती हैं, जो किक जिजस देश में हम रहते हैं उसके क्तिलए हमें करना होगा। र्वोे हमें उस शुजिद्ध की याद ठिदलाती हैं जिजसके क्तिलए किनरंतर प्रयत् न करना चाकिहए, Fीक र्वोैसे ही जैसे नठिदयाँ स् र्वोयं उसके क्तिलए क्षण-प्रकितक्षण प्रयत् न करती हैं। आज के जमाने में तो इन नठिदयों से हम केर्वोल यही काम लेना जानतें हैं किक उनमें अपनी गंदी मारिरयाँ बहार्वोें और उनकी छाती पर अपनी नार्वोें चलार्वोें और इस प्रकार उन् हें और भी गंदा करें। हमारे पास इतना समय नहीं है किक... हम उनके पास जाए ँऔर ध् यानस् थ होकर उनका र्वोह संदेश सुनें, जो र्वोे हमारे कानों में धीर-धीर गुनगुनाती हैं।