44
दददद 1 दददद दददद दद ददद ,ददद ददददददद दददद दद दददद दददद ,दद ददद ददददद ।। 2 दददद -दददद दद ददद,दद दद दद दद दददद ददददद ददद ,दद ददद ।। 3 ददद ददददद दददददद ददद, दददद दद ददद ददददद दददद ददददद ददद, दद ददददद ।। 4 दददददद ददद दद ददददद ,ददद दददददद दददददद दद दददद दददद,दद दद ददद ।। 5 दद दददद दद दद दद ,ददद दददद दददद दददद दद ददद दददद, ददद ददददद ।।

हिन्दी साहित्य- सीमांचल€¦  · Web viewरे मानव तू है बना , ... बादल बना विदेह ।

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Page 1: हिन्दी साहित्य- सीमांचल€¦  · Web viewरे मानव तू है बना , ... बादल बना विदेह ।

दोहे1

दीपक बाती से कहे , तुम पाओ नि�र्वाा�ण ।

मेरी भी चाहत जलँू , जब तक त� में प्राण ।।

      2

कटते - कटते कह रही, र्वा� के म� की आग ।

कैसे गाओगे सखा , अब सार्वा� का राग ।।

       3

संग हँसें रोंयें सदा, �हीं मिमल� की रीत ।

प्रभु मेरी तुमसे हुई, ज्यों �ै�� की प्रीत ।।

         4

सुर्वाण� मृग   की लालसा , छी�े सुख सम्मा� ।

  निकस्मत �े   उ�का लिलखा, जीर्वा� दुख के �ाम ।।

       5

जब लालच की आग को , म� में मिमली प�ाह ।

बेटी का आ�ा यहाँ, तब से हुआ गु�ाह ।।

    6

सुख की छाया है कभी , कभी दुखों की धूप ।

– देख भी लो नि�यनित �टी, पल- पल बदले रूप ।।

   7

पार्वा�ता पाई �हीं , ज� म� का निर्वाश्वास ।

राम राज में भी मिमला , सीता को र्वा�र्वाास ।।

  8

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मधुर मिमल� की चाह म� , �ै�� दर्श�� आस ।

कौ� जत� कैसे घटे , अन्तघ�ट की प्यास ।।

9

दुनि�या के बाज़ार में , रही प्रीत अ�मोल ।

ले जाये जो दे सके , म� से मीठे बोल ।।

10

कल ही थामा था यहाँ, दुख �े दिदल का हाथ ।

आकर ऐसे बस गया , ज्यों ज�मों का साथ ।।

11

आहट तक  होती �हीं , सुख के इस बाज़ार ।

हम भी दुख की टोकरी , ले�े को लाचार ।।

12

सागर , सुख दुख की लहर , ये सारा संसार ।

मेरी आर्शा ही मुझे , ले जायेगी पार ।।

-0-

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– दोहे पया�र्वारण1

पंछी- पंचायत जुड़ी, सभी जीर्वा बेहाल ।

मा�र्वा �े दूषण निकया , जी�ा हुआ मुहाल । ।

2

र्वाायु प्रदूनिषत कर रहा , तनि�क � आती लाज ।

रे मा�र्वा तू है ब�ा , दा�र्वा का सरताज । ।

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3

�दिदया थी संजीर्वा�ी , कैसा तू बे पीर ।

कचरा , मैला भर दिदया , मलिल� निकया है �ीर ॥

4

पा�ी पीकर चंचु भर, पाखी तो उर जाय ।

मा�र्वा लिलप्सा   देख लो , पा�ी व्यथ� बहाय । ।

5

मा�र्वा निकत�ा है कुदिटल , म� में �हीं लजाय ।

माता को दूनिषत करे , धरती है नि�रुपाय । ।

6

हर खिखड़की तो मूँद ली ,भर- भर पाथर , ईंट ।

गौरैया घर छी� के, पड़ी खू� की छींट । ।

7

करें बसेरा पेड़ पर, उड़ें खुले आकार्श ।

धरती मैली �ा  करें, थोडे़ जल की आस । ।

8

चादर में ओज़ो� की , बढ़ता जाता छेद ।

ए सी तेरे लिसर चढ़ा , आँख चढ़ी है मेद । ।

9

�ीम- गाछ की सारिरका, चह- चह करती भोर ।

घटी सूय� की रोर्श�ी, मचा र्शहर में र्शोर । ।

10

कागा पण्डिRSत जी  कहें , ‘’ अर्शुभ चल रहा दौर ।

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आश्विश्व� बरसा कोहरा , ‘’माघ आ गया बौर ॥

-0-

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जमा�ा उल्टा है ( कलयुगी दोहे) रनिहम� जमा�ा उल्टा है, मांगे मिमले �ा भीख।

निब� मांगे �ोट मिमले, चमचानिगरी तो सीख ॥

रनिहम� रार्श� राखिखये, निब� रार्श� सब सू� ।

ज�र्वारी की ची�ी मिमले, जब बीत जाये जू� ॥

रनिहम� ज�संख्या यों बढे, ज्यों द्रोपदी का चीर ।

एक- एक से�ापनित के, निहस्से आते दस- दस र्वाीर ॥

कबीरा जुआ ऐसी बला, जो खेले सो कंगाल ।

जूते पङे सर पे तो, बचे � एक ही बाल ॥

चलती ट्यूर्श�खोरी देख कबीरा दिदया रोय ।

इस ब्रह्मास्त्र के निब�ा पास हुआ � कोई ॥

कबीरा देख स्टूSेन्ट की, बदल गई है जात ।

गुटखा बीङी लिस�ेमा के पीछे, पढाई को मारी लात ॥

चलती रिरश्वतखोरी देख, कबीरा दिदया रोय ।

इस काजल  की कोठरी में, उजला रहा �ा कोय ॥

-” ”गोपी  

 

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र्शम��् के दोहे

Page 5: हिन्दी साहित्य- सीमांचल€¦  · Web viewरे मानव तू है बना , ... बादल बना विदेह ।

बात जो इतनी जाने, व्यर्थ� न जीवन खोय मि�टटी पे इत्र पडे़, �गर इत्र न मि�टटी होय

न स�झे, स�झ के भी है साईं अन�ोल तुझसे अच्छा साज है, बजे किक किनकले बोल

उलझे धागे की बंधू, मि�ले न जल्दी छोर तकिनक ध्यान से खोलिलए , है अदभुत ये डोर

पूछा क्यों यदिद ज्ञान है, पूछन �ाने सीख किबन �ांगे �ोती मि�ले, �ांगे मि�ले न भीख

न योग, न कोई स�ामिध, ऐसी उठी तरंग न किगरह, न कोई कन्नी, कि<र भी उडे़ पतंग

जब चाहँू देखंू उसे अपने चारों ओर �ेरा उससे है रिरश्ता ज्यों पतंग से डोर

कैसे मि�लन होगा यदिद �न �ें बैठा चोर नगर ढिDंDोरा पीटे, व्यर्थ� �चाय शोर

‘ ’ मि�लेंगे इस कलिलयुग �ें रा� �गर ये �ान पहले खुद से पूछो किक क्या तु� हो हनु�ान

छोड़ कर गृहस्थी जो लेता है संन्यास वो नहीं पक्का योगी, कच्चा है किवश्वास

देखंू लेकिकन ना दिदखे, है आँखों �ें लोर कैसे देखंू चंद्र�ा, घटा मिघरी घनघोर

साईं कृपा ने �ेरी, ऑंखें दी है खोलधन- दौलत की चाह नहीं, साईं �ेरा अन�ोल

एक ही बाती बार के, सौ घर करे अँजोर साईं के संयोग से, नयना लगते भोर

साईं भक्तों से कहूँ , इधर- उधर �त डोल खिखडकी से �त झांक तू , दरवाजे को खोल

रास- डोल ना रहे जल कैसे खिखंचा जाय आँगन कँुआ पड़ा रहे, अकितलिर्थ प्यासा जाय

मि�लते हैं सम्राट �गर, मि�लते नहीं <कीर मि�ल जाय तो जाकिनए वो बदले तक़दीर

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ये अन�ोल- रतन जिजसे कहते हैं सब प्यार मि�ल जाए तो बांदिटए , भूखा है संसार

उधेड़- बुन �ें �न रहा, हुआ न �ुझको ज्ञान अंत �ें जाना �ैंने हरिर हीरे की खान

श��न् कहता है सुनो, चाहे �ान-न-�ानध��-अर्थ�-का�-�ोक्ष, सब साईं के हार्थ

दुकिनया इक त�ाशा है, देख इसे चुपचाप पानी जिजतना उबले, किनकले उतनी भाप

कँुए �ें है श्रोत अगर क्या चिचंता की बात जिजतना चाहे खींच लो, लगे रहो दिदन-रात

साईं �ुझ�े है सुनो, बात कहूँ �ैं सांच ज्वाला के जिजतने किनकट, उतनी लगती आंच

अज्ञात हार्थों से वही, रूप अनेक बनाय ऊँगली ज्यों कुम्हार की, चलती घट बन जाय

कोई �ंतर नहीं जो कानों �ें दँू <ँूक �ेरा साईं कह रहा, ये बातें सब झूठ

जीवन �ें संघर्ष� है, �त इससे तू भाग भोजन बनता ही नहीं, किबन चूल्हा किबन आग

साईं का �ांगे कोई होने का प्र�ाण तेरे अंदर है वही, कर ले �ूरख ध्यान

देह को पहुँचायेंगे मि�लकर सब श्�शानसाईं- साईं बोलिलए, है जब तक ये प्राण

जब- जब मिघरे अँधेरा, खोजे नयन प्रकाश दीपक ढँ़ूढ़ो है कहाँ, उसकी हुई तलाश

आँगन सूना रहे ना खाली ये खलिलहान साईं इतना दीजिजए , तुझसे हटे न ध्यान

गुजर रहे जिजस दौर से ऐसा है ये दौर �ेहनत करनेवाला , तरसे एक- एक कौर

चाहे तु� तीर्थ� करो या करो खूब दान भाग्य सँवारे न सँवरे , अगर न होगा ज्ञान

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हार्थ ना आया कुछ भी जीवन हुआ त�ा� �र गए जपते-जपते, हुआ न �न किनष्का�

इक चुटकी �ें द्वार खुला, दुल्हन गयो स�ाय ज्यों ढे़ला �ाटी का, जल �ें गयो किबलाय

ऊँचे- ऊँचे भवन हैं, केवल भोग-किवलास �ेरी कुदिटया �ें हरिर, आकर करे किनवास

एक दिदन पदा� उठेगा, देखेंगे सबलोगकब- तक रखेगा लिछपाकर अंत��न का योग

जिजतना जो कुचक्र रचे, आज वही भगवान् पर क्या कभी �ताल को लगता भी है ध्यान

श्रद्धा किकतनी है यही अपने �न से पूछ साईं उनके सार्थ है जो करते �हसूस

उडी आँगन की लिचकिड़या , देखो पंख पसार �ेरा �न- पाखी उड़ा , ज्योंकिह सुनी पुकार

साईं इतना कीजिजए किक किबगडे़ ना किहसाब आऊँ तेरी शरण �ें लेकर सही किकताब

पढ़- लिलखकर अनपढ़ रहा, पढ़ा ना उसका लेख साईं कहता है सुनो, ” ”सबका �ालिलक एक

सीधा �ेरा साईं न कोई लाग-लपेटसाईं- साईं बोलिलए, होगी एक- दिदन भेंट

साईं की भलिक्त जग �ें है सच�ुच बेजोड हो सके तो सबको तू इस धागे से जोड़

लगती है जवानी �ें ये दुकिनया रंगीन अंत घडी तू तडपे, जैसे जल किबन �ीन

घट <ूटने से पहले, खोज ले तू किनकास खारा जल �ीठा लगे, अगर लगी हो प्यास

जीवन के कुहासे �ें नज़र न आती रात साईं �ुझको ललचाय, लगती कभी न र्थाह

साईं- साईं बोलकर प्रकट करँू उदगार अगर देखना है उसे, अपना शीश उतार

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रा�- रही� मि�ले जहाँ , साईं का दरबार है अदभुत संयोग ये �ानव �ें अवतार

साईं की भार्षा सीधी, सीधा है संकेत ऊँगली उठा के बोले, ” ”सबका �ालिलक एक

पूछती है ये धरती, पुछ रहा आकाश किकसने ये कुचक्र रचा, किकसने किकया किवनाश

<ैले हैं चारों तर<, हिहंसा और बलात् सत् क्या है जो न जाने, वही करे उत्पात

छोटी- छोटी बात �ें है जीवन का सार उसके आगे ड़ाल दे , नफ़रत के हलिर्थयार

सबका �ालिलक एक है, रा�- रही� �ें देख एक अक्षररूप है वही ओ�् साईं �ें देख

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कहाँ गए �लकूपदोहे 

पहले ओला किगर गया, गड�ड पैदावार ! कैसी ग�s बेशर�,     आयी है इसबार !!

 .झुर�ुट- झुर�ुट झांकता, रात �ें नन्हा चाँद !

पर ज्यों- ज्यों दिदन चढ़ रहा, बढ़ा रहा अवसाद!! .

धूप चDी आकाश �ें,     �न �ें ले उपहास !पानी- पानी कर गयी , रेकिगस्तानी किपयास !! .लहर- लहर के लोल पर, ललकी- ललकी धूप !

नदी किपयासी DंूD रही,         कहाँ गए नलकूप !!.

– कान्हा कान्हा DँूDती , ताक- झाँक के आज । कौन बचाएगा यहाँ, पांचाली की लाज । ।

 . – किगद्ध गो�ायु- बाज �ें, रा�- ना� की होड़ ।

�रघट- �रघट घू�ते, तोते आद�खोर । ।.

– काकितल काकितल DंूD के ,     �ुद्दई करे गुहार ।�ोल- तोल �ें व्यस्त हैं, �ुंलिस< औ सरकार। । .राग- भैरवी छेड़ गए,           – कैसा बे आवाज़ ।

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उछल- कूद कर �ंच मि�ला , बन बैठे ककिवराज । ।.घर- घर बांचे शायरी , शायर- – संत फ़कीर ।

भारत देश �हान है , सब तुलसी सब �ीर । । .

राजनीकित के आंगने ,         परेशान भगवान ।नेत- धर� सब छोड़ के , पंकिडत भयो �हान । । .हंस- हँस कहती धूप से , परबत-पीर- प्र�ाद ।

– बहकी बहकी आंच दे , किपघला दे अवसाद । । .

यौवन की दहलीज पे, गणिणका बांचे का� ।बगूला- किगद्ध- गो�ायु सब, सार्थ किबताये शा� । । .

नदी किपयासी देख के , ना बरसे अब �ेह । धड़कन की अनुगूंज से , बादल बना किवदेह । ।

 . लूट रही �ंहगाई,             आकरके बाज़ार !

�ौस� सी बदली हुयी, दिदखती है सरकार !!.

किनवा�चन के घाट पे , भई नेतन की भीड़ ! जनता बन गयी द्रौपदी , खींच रहे हैं चीर !!

. गदहा गाये भैरवी , तकिनक न लागै लाज !

शाकाहारी बन गए , किगद्ध - गो�ायु - बाज !!.

पक्ष और प्रकितपक्ष �ें, DंूD रहे सब खोंच ! पांच बरस तक चोंचले, खूब लड़ाए चोंच !!

. हरिरयाली की बात करे , सूख गए जब पात !

जनता भोली देखती ,       नेता का उत्पात !!.कृष्ण-दु: शासन सार्थ हैं , अजु�न बेपरवाह !

कोई �सीहा आये,     दिदखलाये अब राह !!.

तन पे सांकल <ागुनी, नेह लुटाये �ीत ! पके आ� सा �न हुआ , रची पान सी प्रीत !!

 . �हुआ पीकर �स्त है, रंग भरी �ुस्कान !

झू� रहे हैं आँगने, बूDे और जवान !!.

धुप चDी आकाश �ें , �न �ें ले उपहास !पानी- पानी कर गयी , बासंती एहसास !! .चूनर- चूनर टांकती , किहला- किहला के पाँव !

शहर से चलकर आया, जबसे साजन गाँव !!

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. �ंगल�य हो आपको , होली का त्यौहार ! रसभीनी शुभका�ना, �ेरी बारम्बार !!

.�ह- �ह करती चांदनी , सूख गए जब पात ।

रात नु�ाईश कर गयी , कैसे हँसे प्रभात । ।

() रर्वाीन्द्र प्रभात

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पार्वास दोह आवत देख पयोद नभ, पुलकिक‍त कोयल �ोर।

नर नारी खेतन चले, लिल‍एसंग हल Dोर।।1।।

पावस की बलिल‍हारिर‍है पोखर सर हरसाय। बरखा शीतल पवन संग, हर तरवर लहराय।।2।।

क्‍यूँ दादुर तू स्‍वारर्थी, पावस �ें टरा�य।गर�ी- सरदी का भयौ, तब क्‍यूँ ना बरा�य।।3।।

बरखा रुत का�त करै, सैनन सँू बतराय। झूला झूले कामि�‍नी, चूनर उड़ उड़ जाय।।4।।

किब‍जरी च�कै दूर सँू, घन गरजै सर आय। सौंधी पवन सुगंध सँू, �न हरसै ललचाय।।5।।

कारे कारे घन चले, सागर सँू जल लेय। किक‍तने घन संग्रह करैं, किक‍तने लेबें श्रेय।।6।।

किक‍तने घन सूखे रहे, कुछ बरसे कुछ रोये। जो बरसे का का� के, खेत सके ना बोये।।7।।

बरखा भी तब का� की, जब ना बाढ़ किब‍नास। जाते तौ सूखौ भलौ, बनी रहै कछु आस।।8।।

गर�ी सूँ कुम्‍हलाय तन, चली पवन पुरवाई। �ुसकाये जन कुहके खग, पावस संदेसा लाई।।9।।

बरसा ऐसी हो प्रभू, भर ते ताल तलैया। हो ना बेघर, ले ना करजा, देवें रा� दुहैया।।10।।

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‘ ’ आकुल पावस जल संग्रह, हो तणिभ‍संभव भैया। धरती सोना उगले अपनौ, देस हो सोन लिच‍रैया।।11।।

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गुरुर्वाे �म: अक्षर ज्ञान दिद‍वाय कै, उँगली पकड़ चलाय।

पार लगावै गुरु ही या, केवट पार लगाय।।1।।

बन गुरुत्‍व धरती नहीं, धुर किब‍न चलै न काक। गुरुजल किब‍न संयंत्र पर�, गुरु किब‍न से न धाक।।2।।

सव|परिर‍स्‍र्थान है, गुरु कौ यह इकित‍हास। देव अदेव चराचर प्राणी, करैं सभी अरदास।।3।।

‘ ’ आकुल जग �ें गुरु से, ध��-ज्ञान-प्रताप। आश्रय जो गुरु कौ रहै, दूर रहै संताप।।4।।

गुरु कौ सर पै हार्थ होय, भवसागर तर जाय।श्रद्धा, किन‍ष्‍ठा, पे्र�, यश, लक्ष�ी सुरसती आय।।5।।

गुरु कौ तोल कराय जो, वो �ूरख कहवाय। तोल �ोल क <ेर �ें, यँू ही जीवन जाय।।6।।

ज्ञान गुरु, दीक्षा गुरु, ध�� गुरु बेजोड़। चलै संस्‍कृकित‍इन्‍हीं सँू, इनकौ न कोई तोड़।।7।।

�ात-किप‍ता-गुरु- राष्‍ट्र ऋण, कोई न सक्‍यौ उतार। जब भी जैसे भी मि�‍लैं इन कँू कभी न तार।।8।।

गुरु किब‍न स�रर्थ जाकिन‍ये, दो दिद‍न भलै न खास।‘ ’ आकुल पडै़ अकाल अकेलौ पडै़ खोय किब‍सवास।।9।।

‘ ’ आकुल वो बड़भाग हैं, ऐसौ कहैं बतायँ। गुरु और �ात- किप‍ता जब जावैं, वाके काँधे जायँ।।10।।

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काक बखा� कोयल कौ घर <ोर कै, घर घर कागा रोय। घकिड़‍यल आँसू देख कै, कोउ न वाकौ होय।।1।।

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बड़- बड़ बानी बोल कै, कागा �ान घटाय। कोऊ वाकौ यार है, ‘ ’ आकुल कोई बताय।।2।।

लिच‍रजीवी की काकचेष्‍टा, जग ने करी बखान। किप‍क बैरी कर आहत सीता, खोयो सब सम्‍�ान।।3।।

किप‍क के घर �ें सेव कै, कागा किप‍क ना होय। लाख �लाई चाट कै, काला लिस‍त ना होय।।4।।

�ेहनत कर कै घर करै, किप‍क से यारी होय। कागा सौ ना जीव है, ऐयारी �े कोय।।5।।

गो, बा�न किब‍न कनागत, दशाह घाट किब‍न काक। सद्गकित‍किब‍न उत्‍तर कर�, जीवन का किब‍न नाक।।6।।

कागा �किह‍�ा जान ल्‍यो, पण्‍डि�‍ड‍त काक भुश�‍ड। इंद्र पुत्र जयंत कँू, एक आँख कौ द�‍ड।।7।।

आमि�‍र्ष भोजी कागला, कोई न प्रीत बढ़ाय। औघड़ सौ बन- बन घू�ै, यँू ही जीवन जाय।।8।।

कोयल बुलबुल ना लड़ैं, दोनों �ीठौ गायँ। प्रीत बढ़ावै दोसती, कागा स�झै नायँ।।9।।

‘ ’ आकुल या संसार �ें, तू कागा से सीख। ना काहू से दोसती, ना काहू से भीख।।10।।

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निप‍तृ मनिह‍मा �ाता कौ वह पूत है, पत्‍नी कौ भरतार। बच्‍चन कौ वह बाप है, घर �ें वो सरदार।।1।।

पालन पोर्षण वो करै, घर रक्‍खै खुशहाल। देवै हार्थ बढ़ाय कै, सुख दुख �ें हर हाल।।2।।

�ैया कौ अणिभ‍�ान है, �ाँग भरै लिस‍न्‍दूर।दादा- दादी ह� सभी, रहैं न उनसै दूर।।3।।

अपनौ- अपनौ का� कर देवैं जो सहयोग। किप‍ता न पीछै कँू हटै, कैसोहु हो संयोग।।4।।

कधै सौं कंधा मि�‍ला, जा घर �ें हो काज। किप‍ता क�ाये न्‍यून भी, रुके ना कोई काज।।5।।

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प्रकित‍किन‍मिध‍त्‍व घर कौ करै, जग या होय स�ाज। बंधु बांधवों �ें रहै, बन कै वो सरताज।।6।।

वंश चलै वा से बढै़, कुल कुटुम्‍ब कौ ना�।�ात- किप‍ता कौ यश बढै़, करें सपूत प्रना�।।7।।

पर� किप‍ता पर�ात्‍�ा, जग कौ पालनहार। घर �ें किप‍ता प्र�ान है, घर कौ तारनहार।।8।।

बेटी खींचे जनक किह‍य, बेटा �ाँ की जान। बनै सखा जब पूत के, णिभ‍ड़ैं कान सौं कान।।9।।

‘ ’ आकुल �किह‍�ा जनक की, जिज‍ससे जग अंजान। �नुस्‍�ृकित‍�ें लेख है, किप‍ता सौ आचाय� स�ान।।10।।

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मधुब� माँ की छाँर्वा‘ ’ आकुल या संसार �ें, एक ही ना� है �ाँ।

अनुप� है संसार के, हर प्राणी की �ाँ।।1।।

�ाँ की प्रीत बखाकिन‍ए, का �ुँह से धनवान। कंचन तुला भराइये, ओछो ही पर�ान।।2।।

�न �न सबकौ राखिख‍कै, घर बर कँू हरसाय। सबहिहं खवायै पेट भर, बचौ खुचौ �ाँ खाय ।।3।।

�धुबन �ाँ की छाँव है, किन‍मिध‍वन �ाँ की गोद। काशी �रु्थरा द्वारिर‍का, दश�न �ाँ के रोज।।4।।

�ाँ के �ारे्थ चंद्र है, कुल किक‍रीट सौ जान। �ाँ धरती �ाँ स्‍वग� है, गणपकित‍लिल‍ख्‍यौ किव‍धान।।5।।

�ान कहा अप�ान कहा, �ाँ के बोल कठोर। �ाँ से नेह ना छोकिड़‍यो, कैसो ही हो दौर।।6।।

‘ ’ आकुल किन‍यरे राखिख‍ये, जननी जनक सदैव। ज्‍यौं तुलसी कौ पेड़ है, घर �ें श्री सुखदेव।।7।।

पूत कपूत सपूत हो, ��ता करै ना भेद। �ीठौ ही बोले बंसी, तन �ें किक‍तने छेद।।8।।

तन �न धन सब वार कै, हँस बोलै बतराय। संकट जब घर पर आवै, दुकिन‍या से णिभ‍ड़ जाय।।9।।

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�ातृ-किप‍तृ-गुरु- राष्‍ट्र ऋण, कोई न सक्‍यौ उतार। ‘ ’तर जावैं पुरखे आकुल , इनके चरण पखार।।10।।

‘ ’ आकुल �किह‍�ा �ातु की, की सबने अपरंपार। सहस्‍त्र किप‍ता बढ़ �ातु है, �नुस्‍�ृकित‍अनुसार।।11।।

तू सृखिष्‍ट‍की अमिध‍ष्‍ठात्री देवी �ाँ तू धन्‍य। कि<‍रे न बुजिद्ध‍आकुल की, दे आशीर्ष अनन्‍य।।12।।

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गणेर्शाष्‍टक धरा सदृश �ाता है, �ाँ की परिर‍क्र�ा कर आये।

एकदन्‍त, गणनायक, गणकिप‍त प्रर्थ� पूज्‍य कहलाये।।1।।

लाभ-के्ष�, दो पुत्र, ऋजिद्ध‍- लिस‍जिद्ध‍के स्‍वामि�‍गजानन। अभय और वर �ुद्रा से करते कल्‍याण गजानन।।2।।

�ानव-देव- असुर सब पूजें, कित्र‍देवों ने गुण गाये। धर कित्र‍पु�‍ड �स्‍तक पर शलिश‍धर भालचन्‍द्र कहलाये।।3।।

असुर-नाग-नर- देव स्‍र्थापक, चतुव�द के ज्ञाता। जन्‍� चतुर्थs, ध��, अर्थ� और का� �ोक्ष के दाता।।4।।

पंचदेव और पंच �हाभूतों �ें प्र�ुख कहाये। किब‍ना रुके लिल‍ख �हाभारत, �हाआशुलिल‍किप‍क कहलाये।।5।।

अंकुश-पाश-गदा-खड्ग-लड्डू- चक्र र्षड्भुजा धारे। �ोदक किप्र‍य, �ूर्षक वाहन किप्र‍य, शैलसुता के प्‍यारे।।6।।

‘ सप्‍ताक्षर गणपतये न�:’ सप्‍तचक्र �ूलाधारी। किव‍द्या वारिर‍मिध‍, वाचस्‍पकित‍, �हा�होपाध्‍याय अनुसारी।।7।।

छंद शास्‍त्र के अष्‍टगणामिध‍ष्‍ठाता अष्‍टकिव‍नायक।‘ ’ आकुल जय गणेश, जय गणपकित‍सबके कष्‍ट किन‍वारक ।।8।।

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दोहे पहुँचे पूरे जोश से, ज्यों आंधी तू<ान चाँदी का जूता पड़ा, तो लिसल गई ज�बान

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सबने अपनी काटकर, सौंपी उन्हें जुबान लिसध्द हुए वे सहन �ें, किकतने �ूक �हान

सभी जगह पर हैं ग़लत, लोग अयोग अपात्र क्यों न व्यवस्था हो लचर, एक दिदखावा �ात्र

जो जिजसके उपयुक्त है, वही नहीं उस स्थान होना तो र्था फ़ायदा, हुआ �गर नुकसान

चुनने �ें देखा नहीं, तु�ने पात्र, अपात्र उनको प्राध्यापन दिदया, जो किक स्वयं रे्थ छात्र

खास स्थान पर खास को, मि�ला नहीं पद भार लिसफ़ारिरशों ने कर दिदया, सब कुछ बँटाDार

ज़्यादा अपनी जान से, �ुझको रही अज़ीज तु� कहो तो कहो उसे, �ैं न कहूँगा चीज़

पक्षपात बादल करे, किवतरण �ें व्याघात �रुर्थल सूखा रख करे, सागर पर बरसात

इन आँखों के चिसंधु �ें, �न के बहुत स�ीप जो अनदेखे रह गए, हैं कुछ ऐसे द्वीप

�ाना ज़्यादा हैं बुरे, अचे्छ क� किकरदार उन अच्छों की वजह से, अच्छा है संसार

बनी लिलफ़ाफ़ा जीकिवका, �ंच, प्राण की वायु वहीं वहीं गाते कि<रे, और काट ली आयु

गलत आकलन हो गया, ह� स�झे रे्थ क्षुद्र लिसध्द स्वयं को कर गए, वे कर तांडव रुद्र

�ृत्यु- पत्र �ें क्या लिलखँू, �ैं क्या करँू प्रदान ले देकर कुछ पुस्तकें , पुरस्कार, सम्�ान

बस्ती के किहत �ें बना, र्था पहले बाज़ार अभी बस्ती को खा रहा, उसका अकित किवस्तार

दोनों पक्षों का नहीं, सध पाता है हेतु आपस �ें संवाद का, टूट गया है सेतु

ककिव तो ककिव है प्राकृकितक, रचनाकार प्रधान कोई आवश्यक नहीं, ककिव भी हो किवद्वान

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ग़लत वकालत �त करो, दो �त झूठे तक�झूठ, झूठ है, सत्य को, नहीं पडे़गा फ़क�

अवसर दोगे दुष्ट को, क्यों न करेगा छेड़ खा जाएगा भेकिड़या, बने रहे यदिद भेड़

मि�लता है व्यलिक्तत्व को, वैसा रूपाकार जैसा होता व्यलिक्त का, किनज आचार-किवचार

धनबल उस पर बाहुबल, तंत्र हुआ लाचार दोनों बल के बल लिलया, जनबल का आधार

धरने, अनशन, रैलिलयाँ, ये हड़तालें, बंद प्रजातंत्र का देश �ें, है इक़बाल बुलंद

कोयल, �ैना, बुलबुलें, सारे सुर से �ूक‘ ’ पॉप लिसखाता है उन्हें, देखो एक उलूक

काव्य- सृजन के पूव� रे्थ, ’ आप जगत औ छन्द जगत हटा तो रह गए, आप और आनन्द

आँखों को जैसा दिदखा, लिलखा उसी अनुसारककिव- कौशल से कर्थन को, र्थोड़ा दिदया किनखार

यश खु़द करता फै़सला, किकसे करे कब शाद कुछ को जीते जी मि�ला, कुछ को �रने बाद

नील नयन की झील �ें, क�ल खिखले रे्थ खूब जो उतरा चुनने उन्हें, गया किबचारा डूब

आग लिलखी है, आग को, आग जलाकर बाँच लपट लगेगी शब्द से, पंलिक्त- पंलिक्त से आँच

प्रजातंत्र की लिसखिध्द है, हो अनेक �ें एक्य प्रजातंत्र की शलिक्त है, होना नहीं �तैक्य

ह�ें प्यार �ें चाकिहए, एकाकी अमिधकार अनामिधक स्वीकार है, हिकंतु न साझेदार

पे्र� स�प�ण भाव की, अकित किवश्वस्त प्रशस्तिस्त‘ ’अपना है कोई कहाँ , देता यह आश्वस्तिस्त

<ागुन �ें बरसा गया, जैसे सावन �ास �ौस� तानाशाह है, नहीं किकसी का दास

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अचे्छ को कहते बुरा, कहे पेड़ को ठंूठवे, किवपक्ष उनके लिलए, पक्ष सदा ही झूठ

कहाँ मि�त्रता एक सी, णिभन्न दृमिष्टयाँ, कोणकृष्ण- सुदा�ा है जहाँ, ’ वहीं द्रुपद औ द्रोण

उर्थला ज्ञानाज�न किकया, स�झ न पाते गूढ़ पकडे़ बैठे रुढ़ को, कुछ किवद्वान किव�ूD

कोण भुजाएँ स� रहें, पे्र� कित्रभुज हो भव्यकृष्ण, रामिधका, रुण्‍डिक्�णी, उदाहरण दृष्टव्य

हर सुयोग दुय|ग का, बनता योगायोग मि�ल बैठे संयोग है, किबछडे़ तो दुय|ग

हारे उसकी जीत है, जीते उसकी हारपे्र�- नदी को डूबकर, करना पड़ता पार

क्यों कितलिर्थ देखें? क्यों करें?, शुक्ल पक्ष की खोजचंद्र�ुखी! तु� सार्थ तो, ह�ें पूर्णिण�ंा रोज़

तुम्हीं अप्सरा, तु� सती, क्या अद्भतु संयोग क्या किवलिचत्र अनुभव हुआ, सार्थ भोग के जोग

हँसी खु़शी इस हार्थ हो, आँसू हो उस हार्थ जीकर तो देखो कभी, खु़शी और ग़� सार्थ

‘कहा बबु्र ने पांडवो! झूठ तुम्हारा गव� एक सुदश�न चक्र ने, ’कौरव �ारे सव�

बड़ों- बड़ों से भी कभी, हो जाती है भूल भीष्� हेतु अंबा-हरण, बना �ृत्यु का शूल

भीड़ बजाएगी बहुत, उत्साहों के शंख उड़ा सकें गे पर तुम्हें, लिसफ़� तुम्हारे पंख

पे्र� भले आया तुम्हें, ह�ें न आया रास तु� इसलिलए प्रसन्न हो, ह� इसलिलए उदास

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साखी सतगुरु से �ांगंू यही, �ोकिह गरीबी देहु।

दूर बडप्पन कीजिजए, नान्हा ही कर लेहु॥

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बचन लगा गुरुदेव का, छुटे राज के ताज। हीरा �ोती नारिर सुत सजन गेह गज बाज॥

प्रभु अपने सुख सूं कहेव, साधू �ेरी देह। उनके चरनन की �ुझे प्यारी लागै खेह॥

पे्र�ी को रिरकिनया रं यही ह�ारो सूल। चारिर �ुलिक्त दइ ब्याज �ैं, दे न सकंू अब �ूल॥

भक्त ह�ारो पग धरै, तहां धरंू �ैं हार्थ। लारे लागो ही कि<रंू, कबं न छोडंू सार्थ॥

किप्रर्थवी पावन होत है, सब ही तीरर्थ आद। चरनदास हरिर यौं कहैं, चरन धरैं जहं साध॥

�न �ारे तन बस करै, साधै सकल सरीर। कि<कर <ारिर क<नी करै, ताको ना� <कीर॥

जग �ाहीं ऐसे रहो, ज्यों जिजव्हा �ुख �ाहिहं। घीव घना भच्छन करै, तो भी लिचकनी नाहिहं॥

चरनदास यों कहत हैं, सुकिनयो संत सुजान। �ुलिक्त�ूल आधीनता, नरक �ूल अणिभ�ान॥

सदगुरु शब्दी लाकिगया नावक का सा तीर। कसकत है किनकसत नहीं, होत पे्र� की पीर

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धूप क दोहे किपघले सोने सी कहीं किबखरी पीली धूप।

कहीं पेड़ की छाँव �ें इठलाता है रूप।

तपती धरती जल रही, उर किवयोग की आग। �ेघा किप्रयत� के किबना, व्यर्थ� हुए सब राग।

झरते पत्ते कर रहे, आपस �ें यों बात- जीवन का यह रूप भी, लिलखा ह�ारे �ार्थ।

क्षीणकाय किनब�ल नदी, पडी रेत की सेज।“ आँचल �ें जल नहीं-” इस, पीडा से लबरेज़।

दोपहरी बोजिझल हुई, शा� हुई किनष्प्राण। नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे किवतान।

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उजली- उजली रात के, अगणिणत तारों संग। �ंद पवन की क्रोड़ �ें, उपजे प्रणय-प्रसंग।

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दोहे किनकल पड़ा र्था भोर से पूरब का �ज़दूर

दिदन भर बोई धूप को लौटा र्थक कर चूर।

किपघले सोने सी कहीं किबखरी पीली धूप कहीं पेड़ की छाँव �ें इठलाता है रूप।

तपती धरती जल रही, उर किवयोग की आग �ेघा किप्रयत� के किबना, व्यर्थ� हुए सब राग।

झरते पत्ते कर रहे, आपस �ें यों बात- जीवन का यह रूप भी, लिलखा ह�ारे �ार्थ।

क्षीणकाय किनब�ल नदी, पड़ी रेट की सेज“ आँचल �ें जल नहीं-” इस, पीड़ा से लबरेज़।

दोपहरी बोजिझल हुई, शा� हुई किनष्प्राण. नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे किवतान।

उजली- उजली रात के, अगणिणत तारों संग. �ंद पवन की क्रोड़ �ें, उपजे प्रणय-प्रसंग।

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मोको कहां �ोको कहां DूDें तू बंदे �ैं तो तेरे पास �े ।

ना �ैं बकरी ना �ैं भेडी ना �ैं छुरी गंडास �े ।

नही खाल �ें नही पंूछ �ें ना हड्डी ना �ांस �े ॥ ना �ै देवल ना �ै �सजिजद ना काबे कैलाश �े ।

ना तो कोनी किक्रया- क�� �े नही जोग- बैराग �े ॥ खोजी होय तुरंतै मि�लिलहौं पल भर की तलास �े

�ै तो रहौं सहर के बाहर �ेरी पुरी �वास �े कहै कबीर सुनो भाई साधो सब सांसो की सांस �े ॥

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मेरी चु�री में परिरगयो दाग निपया �ेरी चुनरी �ें परिरगयो दाग किपया।

पांच तत की बनी चुनरिरया

सोरह सौ बैद लाग किकया।

यह चुनरी �ेरे �ैके ते आयी

ससुरे �ें �नवा खोय दिदया।

�ल �ल धोये दाग न छूटे

ग्यान का साबुन लाये किपया।

कहत कबीर दाग तब छुदिट है

जब साहब अपनाय लिलया।

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माया महा ठग�ी हम जा�ी �ाया �हा ठगनी ह� जानी।।

कितरगुन <ांस लिलए कर डोले

बोले �धुरे बानी।।

केसव के क�ला वे बैठी

लिशव के भवन भवानी।।

पंडा के �ूरत वे बैठीं

तीरर्थ �ें भई पानी।।

योगी के योगन वे बैठी

राजा के घर रानी।।

काहू के हीरा वे बैठी

काहू के कौड़ी कानी।।

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भगतन की भगकितन वे बैठी

बृह्मा के बृह्माणी।।

कहे कबीर सुनो भई साधो

यह सब अकर्थ कहानी।।

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बीत गये दिद� भज� निब�ा रे बीत गये दिदन भजन किबना रे । भजन किबना रे, भजन किबना रे ॥

बाल अवस्था खेल गवांयो । जब यौवन तब �ान घना रे ॥

लाहे कारण �ूल गवाँयो । अजहुं न गयी �न की तृष्णा रे ॥

कहत कबीर सुनो भई साधो । पार उतर गये संत जना रे ॥

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�ीनित के दोहे पे्र� न बाड़ी ऊपजै, पे्र� न हाट किबकाय।

राजा परजा जेकिह रूचै, सीस देइ ले जाय।। जब �ैं र्था तब हरिर‍नहीं, अब हरिर‍हैं �ैं नाहिहं।

पे्र� गली अकित सॉंकरी, ता�ें दो न स�ाहिहं।। जिजन DँूDा कितन पाइयॉं, गहरे पानी पैठ।

�ैं बपुरा बूडन डरा, रहा किकनारे बैठ।। बुरा जो देखन �ैं चला, बुरा न मि�लिलया कोय।

जो �न खोजा अपना, �ुझ- सा बुरा न कोय।। सॉंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके किहरदै सॉंच है, ताके किहरदै आप।। बोली एक अन�ोल है, जो कोई बोलै जाकिन।

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किहये तराजू तौलिल‍के, तब �ुख बाहर आकिन।। अकित का भला न बोलना, अकित की भली न चूप।

अकित का भला न बरसना, अकित की भली न धूप।। काल्‍ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्‍ब।

पल �ें परलै होयगी, बहुरिर करैगो कब्‍ब। हिनंदक किनयरे राखिखए, ऑंगन कुटी छवाय।

किबन पानी, साबुन किबना, किन��ल करे सुभाय।। दोस पराए देखिख‍करिर, चला हसंत हसंत।

अपने या न आवई, जिजनका आदिद न अंत।। जाकित न पूछो साधु की, पूछ लीजिजए ग्‍यान।

�ोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्‍यान।।सोना, सज्‍जन, साधुजन, टूदिट जुरै सौ बार।

दुज�न कंुभ- कुम्‍हार के, एकै धका दरार।। पाहन पुजे तो हरिर मि�ले, तो �ैं पूजूँ पहाड़।

ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।। कॉंकर पार्थर जोरिर कै, �ण्‍डिस्जद लई बनाय।

ता चढ़ �ुल्‍ला बॉंग दे, बकिहरा हुआ खुदाए।।

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दिदर्वाा�े म�, भज� निब�ा दुख पैहौ दिदवाने �न, भजन किबना दुख पैहौ ॥

पकिहला जन� भूत का पै हौ, सात जन� पलिछताहौउ । काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही �रिर जैहौ ॥ १॥

दूजा जन� सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लैहौ । टूटे पंख �ॅंडराने अध<ड प्रान गॅंवैहौ ॥ २॥

बाजीगर के बानर होइ हौ, लककिडन नाच नचैहौ । ऊॅं च नीच से हाय पसरिर हौ, �ाँगे भीख न पैहौ ॥ ३॥

तेली के घर बैला होइहौ, आॅंॅंखिखन Dाँकिप Dॅंपैहौउ । कोस पचास घरै �ाँ चलिलहौ, बाहर होन न पैहौ ॥ ४॥

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पॅंचवा जन� ऊॅं ट का पैहौ, किबन तोलन बोझ लदैहौ । बैठे से तो उठन न पैहौ, खुरच खुरच �रिर जैहौ ॥ ५॥

धोबी घर गदहा होइहौ, कटी घास नहिहं पैंहौ । लदी लादिद आपु चदिD बैठे, लै घटे पहुँचैंहौ ॥ ६॥

पंलिछन �ाँ तो कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ । उकिड के जय बैदिठ �ैले र्थल, गकिहरे चोंच लगैहौ ॥ ७॥

सत्तना� की हेर न करिरहौ, �न ही �न पलिछतैहौउ । कहै कबीर सुनो भै साधो, नरक नसेनी पैहौ ॥ ८॥

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तेरा मेरा म�ुर्वाां तेरा �ेरा �नुवां कैसे एक होइ रे ।

�ै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।

�ै कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥ �ै कहता तू जागत रकिहयो, तू जाता है सोई रे ।

�ै कहता किनर�ोही रकिहयो, तू जाता है �ोकिह रे ॥जुगन- जुगन स�झावत हारा, कहा न �ानत कोई रे ।

तू तो रंगी कि<रै किबहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥ सतगुरू धारा किन��ल बाहै, बा�े काया धोई रे ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥

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तू�े रात गँर्वाायी सोय के दिदर्वास गँर्वााया खाय के तूने रात गँवायी सोय के दिदवस गँवाया खाय के । हीरा जन� अ�ोल र्था कौड़ी बदले जाय ॥

सुमि�रन लगन लगाय के �ुख से कछु ना बोल रे । बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे । �ाला <ेरत जुग हुआ गया ना �न का <ेर रे ।

गया ना �न का <ेर रे । हार्थ का �नका छाँकिड़ दे �न का �नका <ेर ॥

दुख �ें सुमि�रन सब करें सुख �ें करे न कोय रे । जो सुख �ें सुमि�रन करे तो दुख काहे को होय रे ।

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सुख �ें सुमि�रन ना किकया दुख �ें करता याद रे । दुख �ें करता याद रे । कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रिरयाद ॥

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झी�ी झी�ी बी�ी चदरिरया झीनी झीनी बीनी चदरिरया ॥

काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिरया ॥ १॥

इडा किपङ्गला ताना भरनी, सुख�न तार से बीनी चदरिरया ॥ २॥

आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिरया ॥ ३॥

साँ को लिसयत �ास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिरया ॥ ४॥

सो चादर सुर नर �ुकिन ओDी, ओदिD कै �ैली कीनी चदरिरया ॥ ५॥

दास कबीर जतन करिर ओDी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिरया ॥ ६॥

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जीर्वा�- मृतक का अंग` कबीर �न �ृतक भया, दुब�ल भया सरीर ।

तब पैंडे लागा हरिर कि<रै, कहत कबीर , कबीर ॥1॥

– भावार्थ� कबीर कहते हैं - �ेरा �न जब �र गया और शरीर सूखकर कांटा हो गया, तब, हरिर �ेरे पीछे लगे कि<रने �ेरा ना� पुकार-पुकारकर-` अय कबीर ! अय कबीर !’- उलटे वह �ेरा जप करने लगे ।

जीवन र्थैं �रिरबो भलौ, जो �रिर जानैं कोइ । �रनैं पहली जे �रै, तो कलिल अजरावर होइ ॥2॥

– भावार्थ� इस जीने से तो �रना कहीं अच्छा ; �गर �रने- �रने �ें अन्तर है । अगर कोई �रना जानता हो, जीते- जीते ही �र जाय । �रने से पहले ही जो �र गया, वह दूसरे ही क्षण अजर और अ�र हो गया ।[ जिजसने अपनी

वासनाओं को �ार दिदया, वह शरीर रहते हुए भी �ृतक अर्था�त �ुक्त है।]

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आपा �ेट्या हरिर मि�लै, हरिर �ेट्या सब जाइ । अकर्थ कहाणी पे्र� की, कह्यां न कोउ पत्याइ ॥3॥

– भावार्थ� अहंकार को मि�टा देने से ही हरिर से भेंट होती है, और हरिर को मि�टा दिदया, भुला दिदया, तो हाकिन-ही- हाकिन है ।पे्र� की कहानी अकर्थनीय है । यदिद इसे कहा जाय तो कौन किवश्वास करेगा ?

` ’ कबीर चेरा संत का, दासकिन का परदास । कबीर ऐसैं होइ रह्या, ज्यंू पाऊँ तलिल घास ॥4॥

– भावार्थ� कबीर सन्तों का दास है, उनके दासों का भी दास है ।वह ऐसे रह रहा है, जैसे पैरों के नीचे घास रहती है ।

रोड़ा है्व रहो बाट का, तजिज पारं्षड अणिभ�ान । ऐसा जे जन है्व रहै, ताकिह मि�लै भगवान ॥5॥

– भावार्थ� पाख�ड और अणिभ�ान को छोड़कर तू रास्ते पर का कंकड़ बन जा । ऐसी रहनी से जो बन्दा रहता है, उसे ही �ेरा �ालिलक मि�लता है ।